आदिवासी क्यों कर रहे हैं समान नागरिक संहिता का विरोध?

 

“यूनिफॉर्म सिविल कोड के नाम पर लोगों को भड़काने का काम हो रहा है। आप मुझे बताइये, एक घर में, परिवार के एक सदस्य के लिए एक कानून हो और दूसरे सदस्य के लिए दूसरा कानून हो, तो क्या वो घर चल पाएगा? कभी भी चल पाएगा? समर्थकों की ओर से जवाब आता है नहीं।

फिर ऐसी दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चल पाएगा। हमें याद रखना है कि भारत के संविधान में भी नागरिकों के समान अधिकार की बात कही गई है।”

यह प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का अंश था। इस भाषण के बाद यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) पर फिर से बहस छिड़ गई है (वर्ष 2019 के चुनाव से पहले बीजेपी की ओर से जारी किए गए घोषणा पत्र में भी समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात कही थी।)

मोदी जी का यह भाषण 27 जून को भोपाल में हुआ था। उसके बाद 3 जुलाई को बीजेपी के सांसद सुशील मोदी की अध्यक्षता में संसदीय समिति की बैठक होती है। इस बैठक में सुशील मोदी पूर्वोत्तर सहित अन्य क्षेत्रों के आदिवासियों को समान नागरिक संहिता के दायरे से बाहर रखने की वकालत करते हैं। 8 जुलाई को नागालैंड सरकार की ओर से एक शिष्टमंडल गृहमंत्री से मिलने जाता है। जिसका नेतृत्व मुख्यमंत्री नेफियू रियो कर रहे थे। इस बैठक के बाद यह दावा किया गया कि गृहमंत्री ने आश्वासन दिया है कि आदिवासियों और ईसाइयों को यूसीसी से छूट दी जाएँगी। इसी दौरान मेघालय के मुख्यमंत्री का बयान सामने आया जिसमें वो यूसीसी को ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ खिलाफ बताते हैं। मिजोरम के मुख्यमंत्री यूसीसी को नृजातीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ बताते हैं।

गौरतलब है कि फरवरी 2023 में मिजोरम की विधानसभा से एक प्रस्ताव पास कर यूसीसी की मुख़ालिफ़त की थी। विरोध की ऐसी ही गूँज आदिवासियों के कई खेमों से सुनाई दे रही है। अब सवाल यह उठता है कि यह विरोध क्यों किया जा रहा है? इस विरोध को संविधान के किस हिस्से से संरक्षण मिल रहा है? 

इन सवालों का जवाब ढूँढें उससे पहले एक नज़र यूसीसी की अवधारणा पर-

समान नागरिक संहिता

दो तरह के कानून काम करते हैं; पहला, फौजदारी और दूसरा दीवानी। दीवानी कानून के अंतर्गत व्यक्ति विशेष के अधिकारों की अवहेलना से जुड़े मुद्दों को संबोधित किया जाता है; जैसे–पारिवारिक मसले (शादी, तलाक, गोद लेना आदि), संपत्ति से जुड़े मसले, अनुबंध और मानहानि के मामले।

दीवानी कानून को अँगरेजी में ‘सिविल लॉ’ कहते हैं। अगर यह कानून सभी नागरिकों के लिए एक समान हो तो उसे यूनिफॉर्म सिविल कोड की संज्ञा दी जाती है। जिसका हिंदी अनुवाद समान नागरिक संहिता के नाम से किया है(गौरतलब है कि कोड या संहिता का प्रयोग कानूनों के समूह को दर्शाने के लिए किया है।)

 विरोध क्यों?

अक्सर आपने सुना होगा कि भारत विविधता में एकता वाला देश है। यानी एक ही देश में तरह–तरह की संस्कृतियाँ (जीवन जीने की शैली) साहचर्य करती हैं। हरेक संस्कृति के अपने रीति–रिवाज होते हैं, खास तरह की बोली बोलते हैं, खास तरह का पहनावा पहनते हैं, अपने–अपने देवता होते हैं, उनको पूजने का एक खास तरीका होता है, जीवनयापन करने के लिए खास तरह की आर्थिक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। बात करें आदिवासियों की, तो इनकी संस्कृतियाँ, अन्य संस्कृतियों की तुलना में काफी भिन्नता धारण करती हैं। यह भिन्नता अच्छी है या बुरी वो एक अलग बहस है। इसी भिन्नता को बचाएँ रखने के लिए यूसीसी का विरोध किया जा रहा है। भिन्नताओं का विवरण इस प्रकार है–

समान नागरिक संहिता को लेकर मचे घमासान की असली जड़ें पारिवारिक मसलों से जुड़े कानूनों में धंसी हुई हैं।

1. विवाह से जुड़े मुद्दे-

बहुपत्नी प्रथा

बहुपत्नी प्रथा सबसे अधिक जनजातीय परिवारों में प्रचलित है। एनएफएचएस–5 के आँकड़ों की माने तो मेघालय में 6.1 प्रतिशत, मिजोरम में 4.1 प्रतिशत, सिक्किम में 3.9 प्रतिशत और अरुणाचल प्रदेश में 3.7 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि उनके पति की मेरे अलावा और भी पत्नी या पत्नियाँ हैं।

इन राज्यों में अनुसूचित जनजाति की आबादी क्रमशः 86 प्रतिशत, 94.4 प्रतिशत, 33.7 प्रतिशत और 68.7 प्रतिशत है।

नीचे दी गई टेबल में ऐसे 5 ज़िलों का विवरण है; जहाँ पर बहुपत्नी विवाह का आँकड़ा सबसे अधिक है।

ऐसी विवाहित महिलाओं का प्रतिशत जिन्होंने कहा कि उनके पति की उनके अलावा अन्य पत्नी या पत्नियाँ थीं.

Top 5 Districts of India, NFHS-V, 2019-21.

ऐसी विवाहित महिलाओं का प्रतिशत जिन्होंने कहा कि उनके पति की उनके अलावा अन्य पत्नी या पत्नियाँ थीं.

नीचे दिए गए ग्राफ को देखिए! इस ग्राफ में बहुपत्नी विवाह के आँकड़े दर्ज किए हैं। उत्तर–पूर्वी राज्यों में ग्राफ का रंग गहरा हो जाता है।

भारत की खस जनजाति में बहुपति विवाह प्रचलित है। यानी सभी भाइयों की एक पत्नी होती है। हिंदू विवाह अधिनियम,1955 के सेक्शन 11 और सेक्शन 15 में बहुपति विवाह (पॉलिएंड्री) और बहुपत्नी विवाह (पॉलिजीनी) पर प्रतिबंध लगाया है।

जाति के आधार पर

कितने मुसलमानों के पास एक से ज्यादा पत्नियाँ हैं ? एनएफएचएस–5 के अनुसार 1.9 प्रतिशत। वहीं अनुसूचित जनजाति के मामले में यह आँकड़ा बढ़कर 2.4% हो जाता है। हालाँकि, बहुपत्नी के इन आँकड़ों में लगातार गिरावट आ रही है। एनएफएचएस 3और 5 के आँकड़ों को देखें तो मुसलमानों में क्रमशः 2.6%2.0% और 1.9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। वहीं अनुसूचित जनजाति के संदर्भ में यह गिरावट 3.1%, 2.8% और 2.4% ठहरती है। कृपया नीचे दिए गए चार्ट को देखें–

मुस्लिम समुदाय में विवाह विच्छेद के तलाक़ जैसे रास्ते हैं। हिन्दुओं में विवाह अधिनियम से पहले नहीं था। वर्तमान में विवाह अधिनियम के तहत एक वर्ष के बाद विच्छेद संभव है। लेकिन, कई जनजातियों में महिलाओं के पास अपने पति को छोड़कर कहीं अन्यत्र जाने का मार्ग नहीं है। तलाक़ जैसा कोई रास्ता नहीं है; मिसाल के तौर पर निसी जनजाति।

2. उत्तराधिकार और विरासत से जुड़े मुद्दे-

मेघालय, पश्चिम बंगाल, असम और नागालैंड में रहने वाली गारो जनजाति में मातृ-मूलक परिवार व्यवस्था काम करती है। वंशावली माता के नाम से चलती है। संपत्ति की उत्तराधिकारी छोटी बहन होती है। 

मेघालय में गारो जनजाति के लोगों की संख्या 821,026 है।

इसी तरह मेघालय की खासी जनजाति और केरल के नायर भी मातृ-मूलक परंपरा में विश्वास रखते हैं।

कई जनजातियाँ ऐसी हैं जहाँ मामा की बेटी बहन से शादी जायज है। वहीं हिंदू धर्म में सगोत्र विवाह का निषेध है। हिंदू मैरिज एक्ट में भी इसका जिक्र किया गया है। गारो जनजाति में भी सगी बहन को छोड़कर किसी से भी शादी कर सकते हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे मुस्लिम समुदाय के लोग कर सकते हैं। विरासत में नई पीढ़ी को उपनाम भी मिलता है। पैतृक सम्पत्ति भी मिलती है।

गौरतलब है कि हिंदू विवाह अधिनियम–1955 में ‘हिंदू’ को परिभाषित किया है। इसी परिभाषा में लिखा है कि किसी खास अनुसूचित जनजाति को आवश्यक होने पर इस अधिनियम से बाहर कर दिया जाएँगा।

3. निर्णय करने वाली संस्थाएँ

अरुणाचल प्रदेश की निसी और तागिन जैसी कई जनजातियों में गाँव-बूढ़ा’ जैसी सामाजिक संस्थाएँ काम करती हैं जो कि कई मामलों में न्यायालय का काम करती हैं। गौरतलब है कि इनके निर्णयों को सरकारी संस्थाएँ भी स्वीकार करती हैं। ऐसे ही आओ समुदाय (नागा) में कस्टमरी लॉ कोर्ट सर्वोच्च है।

आओंलैंग त्योहार में कोनियाक जनजाति गाय सहित कई अन्य पशुओं की बलि चढ़ाता है। वहीं उत्तर भारत के हिंदू समाज में गाय पूजनीय है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या सरकार इन रीति–रिवाजों को बदल नहीं सकती है? भारत का संविधान इस मसले पर क्या कहता है?

भारतीय संविधान में आदिवासी और समान नागरिक संहिता

संविधान में कई ऐसे प्रावधान किए गए हैं जिससे आदिवासियों को संरक्षण मिलता है। अपने रीति–रिवाजों को बनाएँ रखने में सहायता मिलती है। अनुच्छेद 371(क) में नागालैंड राज्य के लिए विशेष उपबंध किया है।  “इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी- 

(क) निम्नलिखित के संबंध में संसद का कोई अधिनियम नागालैंड राज्य पर तब तक लागू नहीं होगा जब तक नागालैंड की विधान सभा संकल्प द्वारा ऐसा विनिश्चय नहीं करती है, अर्थात्,-
(i) नागाओं की धार्मिक या सामाजिक प्रथाएं ;
(ii) नागा रूढ़िजन्य विधि और प्रक्रिया
(iii) सिविल और दांडिक न्याय प्रशासन, जहां विनिश्चय नागा रूढ़िजन्य विधि के अनुसार होने हैं ;
(iv) भूमि और उसके संपत्ति स्रोतों का स्वामित्व और अंतरण ; सहित कई उपबंध किए गए हैं।”

 इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 371 (छ) में भी ऐसे ही प्रावधान किये हैं। ” इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी,–
(क) निम्नलिखित के संबंध में संसद् का कोई अधिनियम मिजोरम राज्य को तब तक लागू नहीं होगा जब तक मिजोरम राज्य की विधान सभा संकल्प द्वारा ऐसा विनिश्चय नहीं करती है, अर्थात्
(i) मिजो लोगों की धार्मिक या सामाजिक प्रथाएं :
(ii) मिजो रूढ़िजन्य विधि और प्रक्रिया ;
(iii) सिविल और दांडिक न्याय प्रशासन, जहां विनिश्चय मिजो रूढ़िजन्य विधि के अनुसार होने हैं
(iv) भूमि का स्वामित्व और अंतरण :
परंतु इस खंड की कोई बात, संविधान (तिरपनवां संशोधन) अधिनियम, 1986 के प्रारंभ से ठीक पहले मिजोरम संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त किसी केंद्रीय अधिनियम को लागू नहीं होगी ;
(ख) मिजोरम राज्य की विधान सभा कम से कम चालीस सदस्यों से मिलकर बनेगी |

गौरतलब है कि जनजातियों के कस्टमरी कानूनों को संरक्षण संविधान के इसी भाग से मिलता है

भारतीय संविधान की अनुसूची – 6 के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों के लिए विशेष प्रबंध किये हैं-  अनुसूची छः के अंतर्गत कुल 10 क्षेत्र आते हैं जो कि मेघालय, मिजोरम, असम और त्रिपुरा ज़िले में फैले हुए हैं। इन क्षेत्रों में स्वशासी परिषदें काम करती हैं जिन्हें कई मामलों में स्वायत्तताएँ दी गई हैं।

मेघालय
खासी हिल्स स्वायत्त जिला परिषद
जैंतिया हिल्स स्वायत्त जिला परिषद
गारो हिल्स स्वायत्त जिला परिषद
मिजोरम
चकमा स्वायत्त जिला परिषद
लाई स्वायत्त जिला परिषद
मारा स्वायत्त जिला परिषद
त्रिपुरा
त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद
असम
दीमा हसाओ स्वायत्त परिषद
कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद
बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद

अब सवाल यह है कि छठी अनुसूची के दस ज़िलों और 371 क एवं (छ) के तहत जनजातियों के लिए किये गए विशेष उपबंध का सामना यूनिफार्म सिविल कोड किस तरह से करेगा? क्या समान नागरिक संहिता के नाम पर इन्हें आकुल किया जाएँगा? भारत की कुल आबादी में अनुसूचित जनजाति की हिस्सेदारी 8 प्रतिशत के करीब है।

सन्दर्भ—
बीजेपी का घोषणा-पत्र और प्रधानमंत्री का भाषण.
UCC: सुशील मोदी ने आदिवासियों को यूसीसी के दायरे से बाहर रखने की वकालत की; प्रभात ख़बर. कृपया यहाँ क्लिक करें.
‘UCC against idea of India’, says Meghalaya CM and BJP ally Conrad Sangma; Hindustan Times.कृपया यहाँ क्लिक करें 
Amit Shah assures exemption of tribals and christians from UCC, says Nagaland CM; India Today NE.कृपया यहाँ क्लिक करें.
BJP-led North East Democratic Alliance member, Mizoram CM, opposes Uniform Civil Code; India TV News.कृपया यहाँ क्लिक करें.

District wise population data; Please click here for Mizoram
District wise population data; Please click here for Arunachal Pradesh
District wise population data; Please click here for Meghalaya.

State/UT wise ST population Please click here. 

North-east states population facts, Please click here.

Mizoram Assembly adopts resolution opposing any move to implement Uniform Civil Code, Please click here. 
Khasis: India’s indigenous matrilineal society, Please click here.

भारत का संविधान अँग्रेजी में, हिंदी में.

Use special powers to exempt Jharkhand tribals from Uniform Civil Code: Adivasi bodies to Governor Radhakrishnan;Please click here. 
Uniform Civil Code | Customs of tribals will be respected, says Union Minister;Please click here.