बास्केटबॉल कोर्ट में हार्दिक व अमन की मौत का जवाब कौन देगा?

 

हरियाणा के जर्जर बास्केटबॉल कोर्ट में हुई हार्दिक व अमन की दर्दनाक मौत की खबर सुनकर हम हार्दिक के परिवारजनों का दुख साझा करने उनके घर गए. बहुत ही कमउम्र की मासूम-सी दिखती हार्दिक की मां निर्मला ने बताया, ‘हार्दिक खेल में जब भी कुछ नया सीखता था तो उसकी इच्छा होती थी वो मां को वह सब करके दिखाए. घर में ही खेल मैदान बना लेता था. मैं उसे रोकते हुए कहती थी बेटा मैं एक दिन तेरा पूरा मैच ही देखने आऊंगी. मेरी और मेरे बेटे की मन की भावना मन में ही रह गई.’ 

एक लंबी सांस लेते हुए हार्दिक की मां बोली ‘पर ऐसा क्यों हुआ’ और मेरे कंधे पर सिर रखकर जार-जार रोने लगी. जाहिर है उस समय कोई भी स्वयं को नहीं संभाल पा रहा था. उसके ‘ऐसा क्यों हुआ’ का जवाब असल में तो हमारी व्यवस्था व पूरे समाज को देना है. लेकिन एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी व खेल विषय की प्राध्यापिका होने के नाते मैं भी इस मौके पर अपनी बात कहूं ऐसा जरूरी लगा. इस मौके पर इस घटना पर बहुत से विद्वानों ने बहुत तरह से सारगर्भित प्रकाश डाला है. 

बहरहाल इस समस्या को समूल समझने के लिए सर्वप्रथम हमें यही स्वीकारना होगा कि हरियाणा में खेल की अपार संभावनाओं के बावजूद यहां कोई खेल नीति ही नहीं है. खासकर इस समय पर भी यह तो बताया गया है कि राज्य का 1961 करोड़ रुपये का खेल बजट है लेकिन उसमें यह नहीं बताया गया कि उसका कितना हिस्सा नए खेल संसाधन खड़े करने व पुरानों की मेंटेनेंस पर लग रहा है.

खेल की संस्कृति, पर नीति नदारद

प्रदेश की तथाकथित खेल नीति का नारा है- ‘मेडल लाओ – इनाम पाओ.’ मेडल पाने के लिए खिलाड़ियों को निजी खेल अकादमियों का सहारा लेना पड़ता है, जिन पर न कोई वैधानिक नियमन है और न ही वे आर्थिक रूप से सभी के लिए सुलभ हैं. जो खिलाड़ी वहां नहीं जा पाते और अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. उपयुक्त खेल सुविधाओं के अभाव में कई होनहार खिलाड़ी चोटों से जूझ रहे हैं और ऐसे हालात में परिवार अपना पूरा बजट एक खिलाड़ी पर झोंकने को मजबूर हो जाते हैं.

ऐसे कई खिलाड़ियों से मैं मिल चुकी हूं जो खेल नीति के अभाव में ऐसा महसूस करने लग जाते हैं. उनके परिजनों में भी यह सोच विकसित हो जाती है कि उनके बेटे, बेटी को किसी भी तरह एक मेडल मिल जाए उसके बाद वारे-न्यारे हो जाएंगे. कुछ ऐसे उदाहरण उनकी आंखों के सामने होते भी हैं पर मेडल सबको तो फिर भी नहीं मिलते हैं. ओलंपिक में क्यूबा जैसे छोटे-छोटे देश मेडल तालिका में हमारे देश से कहीं ऊपर होते हैं.

सरकार का पहला सरोकार अपने ज्यादा से ज्यादा नागरिकों को खेल सुविधाएं उपलब्ध करवाना व एक लोक खेल संस्कृति पैदा करना होना चाहिए. जहां ज्यादा से ज्यादा लोग खेलों में भाग लें तभी उनके बीच से मेडल विजेता भी उभरकर आएंगे. हम कहने को तो डेढ़ सौ करोड़ की आबादी का देश हैं परंतु मेडल लाने वाली खेल सुविधाएं तो एक करोड़ को भी नहीं मिल पा रही.

दूसरी तरफ हकीकत ये है कि गुणवत्ता का संख्या से प्रत्यक्ष व सीधा संबंध है (क्वालिटी हैज डायरेक्ट रिलेशन विद क्वांटिटी) सार्वजनिक और सामुदायिक खेल सुविधाओं की घोर उपेक्षा हो रही है और दूसरी तरफ खेलों का पूरा व्यवसायीकरण हो रहा है. इस परिस्थिति के चलते सरकारी क्षेत्र में नई खेल सुविधाएं जुटाने और जो हैं उनकी मेंटेनेंस, किसी के एजेंडा पर नहीं है.

सुविधाओं की गुणवत्ता, रखरखाव रामभरोसे

जहां ये सुविधाएं कुछ बेहतर हैं वहां भी इन्हें सरकारों के लग्गे-भग्गों को ठेके पर देने का रुझान हावी है. आम आदमी को तो पता ही नहीं चलता अंदरखाने क्या खेल चल रहे हैं. खेल अकादमियों में मंत्रियों का रसूख चल रहा है तो खेल के मैदानों या सुविधाओं की किसे परवाह!

लाखन माजरा गांव के इसी बास्केटबॉल कोर्ट की जर्जर अवस्था की शिकायत तीन महीने पहले मुख्यमंत्री तक को दी जा चुकी थी. बताया गया है कि सांसद दीपेंद्र हुड्डा ने अपने विकास बजट से 12.3 लाख रुपये एक बार व 6 लाख एक बार इसकी मरम्मत के लिए जारी किए थे. जिला खेल अधिकारी ने भी खेल मैदानों की मरम्मत के लिए 2 करोड़ जमा करवाए हुए हैं. पर टेंडर नहीं हुआ और न ही टेंडर ना करने वालों की कोई प्रशासनिक या सामाजिक जवाबदेही हुई.

गांव वालों ने शिकायत तो भेजी परंतु अधिकारपूर्ण तरीके से किसी को भी उन्होंने घेरा नहीं. खेल प्रशासन स्तर पर भी ऐसा नहीं हुआ. आखिर पैसे दिए थे तो खिलाड़ियों को उनका फायदा क्यों नहीं मिला? यह सुनिश्चित करवाना भी तो काम था. जिम्मेदार लोगों को घेरना व उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करना यह काम हमारी पंचायतें या दूसरी चुनी हुई संस्था भी कम ही कर रही हैं. ऊपर वालों को तो मजे करने से ही फुर्सत नहीं है. चाहे कुछ भी ना करो, भ्रष्टाचार करो फिर भी कहीं भी जाते ही फूलमालाएं व दूध मलाई तो मिल ही जाते हैं.

2019 के बाद खेल विभाग ने अपने स्टेडियमों के लिए कोई खेल उपकरण नहीं खरीदे हैं. 114 करोड़ रुपये के उपकरण खरीद की बजट की फाइल मंजूरी के लिए तीन महीने से खेल मंत्री के दफ्तर में पड़ी है.

नीचे वाला तंत्र, जिसे यह काम धरातल पर करना है, वे अपने ‘लाभ’ वाले कार्यों में ही रुचि रखते हैं. यह भी सही है कि कोई भला अधिकारी कुछ करना भी चाहे तो पर्याप्त स्टाफ तक नहीं है.

ऐसे में दोनों हत्याओं की जिम्मेदारी व व्यवस्थागत विफलता तो राज्य के मुख्यमंत्री व खेल मंत्री पर भी आती है. जब उनके पास 3 महीने पहले शिकायत आ चुकी तो उन्होंने समाधान सुनिश्चित क्यों नहीं करवाया. पर यहां तो ‘समरथ को नहीं दोस गुसाई चलता है.’

लापरवाही के आरोप

जान गंवाने वाले दूसरे युवा खिलाड़ी अमन के पिताजी ने तो यह भी कहा है कि खेल मैदान पर तो लापरवाही चल ही रही थी उधर इलाज में भी लापरवाही हुई. इन दोनों निर्मम घटनाओं से यह साफ निकलकर आ रहा है कि सभी व्यवस्थाएं संवेदनहीन और गैर- जिम्मेदार हो चुकी हैं.

ऐसे में जनता की जागरूकता व सक्रियता ही एकमात्र रास्ता है. उन्हें जाति, धर्म, लिंग, इलाके आदि के भेदभाव मिटा कर नागरिक एकता बनाते हुए इन व्यवस्थाओं के सुधार सुनिश्चित करवाने होंगे. हम हमेशा कीमत देने के बाद एक बार जागते  हैं और फिर उदासीन हो जाते हैं. आखिर जब सिस्टम सबसे होनहारों को ग्रास बनाने पर पहुंच चुका है तो हमें भी खतरों को भांपते ही सक्रिय होना होगा.

दुनिया के पैमाने पर इसी तरह की सोशल ऑडिट द्वारा जिम्मेदार नागरिक सुधार करवा पा रहे हैं. आखिर कब तक नागरिक गैरजिम्मेदार अफसर शाही व नैतिक रूप से दिवालिया राजतंत्र के मुंह की तरफ ताकते रहेंगे? इस सक्रियता की शुरुआत इन्हीं दोनों घटनाओं में संपूर्ण न्याय सुनिश्चित करवाने के साथ ही होनी चाहिए.

खेल मंत्री के मीडिया में आया बयान से पता चला है कि कोई जांच कमेटी बनाई गई है. सबसे पहले तो जांच कमेटी के नाम सार्वजनिक हों व टर्म्स ऑफ रेफेरेंस भी सामने आएं ताकि खेलप्रेमी नागरिक भी अपना सहयोग दे पाएं. कमेटी की रिपोर्ट समयबद्ध तरीके से आए और फिर कार्रवाई भी समयबध्द हो. परिवारों को केवल मात्र पांच लाख देकर इति श्री नहीं की जा सकती.

ऐसी निर्मम संस्थागत हत्याओं में करोड़ों की क्षतिपूर्ति कोई बड़ी चीज नहीं है. परिवारों को सरकारी नौकरी का भी सहारा दिया ही जाना चाहिए. उन पर पड़ी इस भयानक मार का इससे कमतर और कोई मरहम क्या हो सकता है?

इसके आगे प्रदेश की तमाम खेल सुविधाओं का विशेषज्ञों द्वारा रियलिटी चेक होना चाहिए. जब हम लाखन माजरा गांव में हार्दिक के घर गए तो गांव में काफी लोगों ने अनेकों जगहों पर ऐसी घटनाओं का जिक्र किया था. अब तो हर रोज रिपोर्ट भी छप ही रही हैं कि ज्यादातर खेल मैदानों में पीने का पानी, साफ शौचालय, चेंजिंग रूम, बैठने की उपयुक्त जगह तक नहीं है. यहां तक की जिला हैडक्वार्टर रोहतक स्थित राजीव गांधी स्टेडियम में बास्केटबॉल कोर्ट टूट-फूटकर महीनों से बंद पड़ा है.

इस रियलिटी चेक की रिपोर्ट को भविष्य के रोड-मैप के साथ अमन व हार्दिक के नाम से छापा जाना चाहिए. हरियाणा के खेल जगत में यह पीड़ादायक पड़ाव खेल सुधारों के लिए एक मील का पत्थर बनना चाहिए.

हार्दिक व अमन के इस तरह जान गंवाने से खेल सुविधाओं की जो हकीकत बेपर्दा हुई है, उससे बदलाव आए यह सुनिश्चित करना प्रदेश की जानी-मानी खेल हस्तियों का भी कर्तव्य बनता है. उन्हें भी ऐसी दुखद घड़ी में खतरों से जूझते हुए खेलने को मजबूर युवा पीढ़ी का हाथ थामने आगे आना होगा. इसके साथ-साथ तमाम सामाजिक संस्थाएं व भले नागरिक भी प्रदेश के होनहार खिलाड़ियों की मदद को आगे आ सकते हैं.

अगर इस मौके पर अपने दुख को अपनी ऊर्जा बनाकर हम अपनी अपनी भूमिकाओं को पहचान कर उन पर खरे उतरने का संकल्प लेकर अपने काम में लग पाएं तो हार्दिक और अमन की शहादत को यही असली श्रद्धांजलि होगी. 

(जगमति सांगवान पूर्व अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी हैं.)

साभार: द वायर