विश्व जल दिवस: कैसे दूर हो सकता है ग्रामीण भारत का जल संकट

कल्पना कीजिये। हर दिन आपको सिर पर 30-40 लीटर पानी लेकर 6-9 घंटे ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलना पड़े तो कैसा लगेगा। पानी के वजन के नीचे पीठ दब जाएगी। भीषण गर्मी में रोजाना 5-7 किलोमीटर पैदल चलने का असर आपके स्वास्थ पर भी पड़ेगा। यह मेहनत पैसा कमाने के लिए नहीं बल्कि खुद को जिंदा रखने के लिए करनी पड़ती है। भारत में 82% ग्रामीण परिवारों को पानी इसी तरह नसीब होता है। जल शक्ति मंत्रालय के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 18 करोड़ लोगों के पास पाईप से पानी नहीं पहुंच पा रहा है।

जल स्रोतों के कई किलोमीटर दूर होने के कारण ग्रामीण भारत की महिलाओं को रोजाना ये जद्दोजहद करनी पड़ती है । स्रोत में पानी अक्सर गंदा होता है और गर्मियों के महीनों में अधिकतर स्रोत सूख जाते हैं, जिसके चलते नए और दूर से पानी ढ़ोकर लाना पड़ता है। महिलाएं रोजाना पानी लाने का यह काम करती हैं, जिसे करने की हिम्मत शहरी भारत में रह रहे विशिष्ट परिवार शायद ही कर सकें।

ग्रामीण भारत में स्वच्छ पेयजल तक पहुंच एक बड़ी चुनौती है। नीति आयोग की रिपोर्ट बताती है कि भारत का 70 फीसद सतही जल – नदियां, झीलें, तालाब और नम भूमि (wetlands) आदि प्रदूषित हैं। इससे साफ पानी की उपलब्धता एक गंभीर समस्या बन जाती है। हमारी सरकारें, सार्वजनिक नीति-निर्माता, गैर-सरकारी संगठन और समाज के सभी हितधारक समस्या के विभिन्न समाधान सुझाते हैं। पानी एक ऐसा विषय है जो राज्य सरकारों के अंतर्गत आता है। लेकिन केंद्र सरकार ने ‘जल जीवन मिशन’ नामक एक बड़ी एकीकृत योजना की घोषणा की है। इस परियोजना पर 3.6 लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाने हैं, जिसका उद्देश्य 2024 तक प्रत्येक ग्रामीण परिवार तक पाइप से पानी पहुंचाना है।

पानी की व्यवस्था को समझने के लिए उसकी विशालता और जटिलताओं को समझना जरूरी है। पहली बात तो यह है कि किसी भी विकासशील देश में जल संरचना का निर्माण और प्रबंधन एक विशाल सामाजिक उद्यम है। पाइप से पानी का नेटवर्क बनाने के लिए बड़े पूंजीगत व्यय की आवश्यकता है। प्रस्तावित जल जीवन मिशन भी इसी का प्रमाण है। दूसरा, पानी का भंडारण आसान और सुविधाजनक है लेकिन पानी का वितरण मुश्किल और महंगा है। जैसे कि बिजली का वितरण तो आसान है लेकिन इसे जमा करना मुश्किल है। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि भारत के दूरदराज के क्षेत्रों में बिजली पानी से पहले पहुंच गई है। क्योंकि बिजली पहुंचाना पानी पहुंचाने के मुकाबले आसान काम है ।

तीसरा, दूषित पानी हमारी थाली में भोजन के रूप में लौटता है। हमारी अधिकांश नदियां भारी प्रदूषण और दोहन के कारण गंदे नालों में तब्दील हो चुकी हैं और खत्म होने के कगार पर हैं। कृषि में रसायनों के इस्तेमाल के कारण खेतों से होने वाली जल निकासी नदियों के लिए हानिकारक है। नदियों के तटों पर उपजी कोई भी फसल विषाक्त पदार्थों और रसायनों से भरपूर होती है। यह बात सही है कि सरकार की तरफ से नीतिगत हस्तक्षेप सरल होने चाहिए। सरकारों को व्यक्तियों के जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए। ग्रामीण भारत में पानी की समस्या के कई समाधान हो सकते हैं। लेकिन इस समस्या का सबसे सरल समाधान क्या है?

हमें भू-पृष्ठ जल को साफ रखने की जरूरत है। नीति आयोग ने जिन 70 फीसदी प्रदूषित भू-पृष्ठ जल स्रोतों की पहचान की है, उनमें प्रमुख नदियों की 35 सहायक नदियों के अलावा 13 हजार झीलें, तालाब और नम भूमि शामिल हैं। अगर हम इन 13 हजार जल स्रोतों को साफ कर लें तो इस गंभीर समस्या का केवल एक हिस्सा ही हल होगा। फिर भी हमें कहीं से तो शुरुआत करनी होगी। जल जीवन मिशन के ढांचे के भीतर एक ‘स्वच्छ जल मिशन’ शुरू किया जाना चाहिए, जिसे यदि सही ढंग से लागू किया जाता है तो इन 13 हजार भू-पृष्ठ जल निकायों को साफ किया जा सकता है। डी-सिल्टिंग मशीनरी और सफाई करने वाली मशीनों के द्वारा यह काम आसानी से किया जा सकता है।

आलोचक तर्क दे सकते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई नमामि गंगे योजना के तहत इसी तरह का तंत्र पहले से मौजूद है, जिसके कोई खास परिणाम नहीं दिख रहे हैं। इसकी वजह यह है कि गंगा सफाई मिशन में इस तंत्र की निगरानी पर जोर नहीं है। हर जिले में स्वच्छ जल केंद्र होना चाहिए जो जल निकायों में प्रदूषण स्तर की निगरानी के लिए तकनीक का इस्तेमाल कर सके। पूरी प्रक्रिया की निगरानी के लिए स्वतंत्र ऑडिट होने चाहिए।

ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ जल निकायों के लिए एक जागरूकता अभियान शुरू करने की जरूरत है। अनुमानित 15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जल निकायों को साफ करना होगा और यदि ऐसा हो पाया तो 2.33 करोड़ अतिरिक्त परिवारों को स्वच्छ जल उपलब्ध कराया जा सकता है। इससे करीब 13% परिवारों को लाभ होगा। इस प्रकार जिन 82 फीसदी परिवारों के पास पाईप द्वारा पानी नहीं पहुंचता है उनकी संख्या घटकर 68 फीसदी रह जाएगी। अनुमानित गणना के अनुसार, यदि एक सरल तंत्र के जरिये 13 हजार जल निकायों को स्वच्छ करने की प्रणाली अपनाई जाये तो इस पर तीन साल में 7,000 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। स्वच्छ जलापूर्ति के लिए सरकार जो खर्च करना चाहती है, उसकी तुलना में यह बहुत छोटा आंकड़ा है ।

जल हमारे अस्तित्व की जीवन रेखा है। यह सिर्फ एक आर्थिक द्रव्य नहीं है, बल्कि इसका सांस्कृतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय महत्व है। सभ्यताएं जल से जन्मी और नष्ट होती हैं। भारत में हमारे कुओं और बावड़ियों के माध्यम से जल संरक्षण की समृद्ध संस्कृति रही है। पानी की सफाई करना और इसे आर्थिक परिसंपत्ति के रूप में इस्तेमाल करना समय की मांग है। प्रकृतिः रक्षति रक्षितः – हम प्रकृति की रक्षा करेंगे तो प्रकृति हमारी रक्षा करेेगी।

(लेखक बेंगलुरु के तक्षशिला संस्थान में लोकनीति के अध्येता हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

5 साल पहले के मुकाबले बजट में घटी ग्रामीण विकास की हिस्सेदारी

कोविड-19 संकट में लॉकडाउन के दौरान जिन योजनाओं और जिस ग्रामीण क्षेत्र ने देश की आबादी के बड़े हिस्से को सहारा दिया था, इस बजट में उनके खर्च में ही कटौती हो गई है। पांच साल पहले के मुकाबले केंद्र सरकार के कुल व्यय में ग्रामीण विकास की हिस्सेदारी घटी है। इतना ही नहीं, कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन से उबरने के लिए चालू वित्त वर्ष के बजट में जो बढ़ोतरी हुई थी, वह भी बरकरार नहीं रही है। 

कोविड-19 महामारी के दौरान 2020-21 में ग्रामीण विकास के लिए 2,16,342 करोड़ रूपये के बजट का संशोधित अनुमान था, जो कुल व्यय का 6.3 फीसदी बैठता है। लेकिन वर्ष 2021-22 के बजट में ग्रामीण विकास के लिए 1,94,633 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जो कुल व्यय का 5.6 फीसदी है। मतलब, कुल व्यय में ग्रामीण विकास की हिस्सेदारी घटी है। जबकि अभी न तो महामारी का खतरा पूरी तरह टला है और न ही रोजगार की स्थिति में विशेष सुधार आया है। 

कुल व्यय में घटी ग्रामीण विकास की हिस्सेदारी

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश के 68.84 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों में इतनी बड़ी आबादी के बावजूद पिछले पांच वर्षों के दौरान चालू वित्त वर्ष को छोड़कर केंद्र सरकार के कुल व्यय में ग्रामीण विकास की हिस्सेदारी घटी है। 

बजट दस्तावेजों के मुताबिक, वर्ष 2017-18 में ग्रामीण विकास पर कुल व्यय का 6.3 फीसदी खर्च हुआ था, जो वर्ष 2019-20 में घटकर 5.3 फीसदी रह गया। वर्ष 2020-21 के आम बजट में तो ग्रामीण विकास के लिए कुल व्यय का सिर्फ 4.8 फीसदी बजट आवंटित किया गया था, लेकिन लॉकडाउन के कारण मनरेगा समेत कई सामाजिक सहायता योजनाओं का बजट बढ़ाया गया, जिसके चलते संशोधित अनुमानों में ग्रामीण विकास की हिस्सेदारी बढ़कर 6.3 फीसदी तक पहुंच गई थी।

लेकिन 2021-22 में कुल व्यय में ग्रामीण विकास की हिस्सेदारी घटकर 5.6 फीसदी रह गई है। इस साल ग्रामीण विकास के लिए 1,94,633 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया है जो चालू वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान 2,16,342 करोड़ रुपये से करीब 10 फीसदी कम है। लगता है सरकार लॉकडाउन में ग्रामीण क्षेत्रों और सामाजिक योजनाओं को मदद बढ़ाने के जिस रास्ते पर आगे बढ़ी थी, उससे यू-टर्न ले रही है।

बजटग्रामीण विकास बजटकुल व्यय कुल व्यय में ग्रामीण विकास की हिस्सेदारी  (%)
2017-18 वास्तविक13497321419756.3
2018-19 वास्तविक13280323151135.7
2019-20 वास्तविक14238426863305.3
2020-21 बजट अनुमान14481730422304.8
2020-21 संशोधित अनुमान21634234503056.3
2021-22 बजट अनुमान19463334832365.6
स्रोत: https://www.indiabudget.gov.in
स्रोत: https://www.indiabudget.gov.in

अगर मंत्रालय के लिहाज से देखें तो ग्रामीण विकास मंत्रालय का बजट 2020-21 के संशोधित अनुमान 1.98 लाख करोड़ रुपये से घटकर 2021-22 में 1.34 लाख करोड़ रुपये रह गया है। यह कटौती केंद्र सरकार की ग्रामीण विकास योजनाओं के बजट में करीब 66 हजार करोड़ रुपये की कमी के चलते हुई है।

मनरेगा का बजट दो साल पहले के स्तर पर 

अभूतपूर्व संकट के बाद किसान आंदोन के दौरान पेश हुए वित्त वर्ष 2021-22 के बजट से उम्मीद थी, इसमें ग्रामीण विकास को प्रमुखता दी जाएगी। लेकिन केंद्र सरकार ने मनरेगा के बजट को चालू वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान 1,11,500 करोड़ रुपये से घटाकर 73,000 करोड़ रुपये कर दिया है। वर्ष 2020-21 में मनरेगा का बजट 61,500 करोड़ रुपये था, जिसे लॉकडाउन में बढ़ाकर 1,11,500 करोड़ रुपये किया गया था। लेकिन 2021-22 में मनरेगा को आवंटित हुआ 73,000 करोड़ रुपये का बजट 2019-20 के वास्तविक खर्च 71,686 करोड़ रुपये से थोड़ा ही अधिक है।

मतलब, मनरेगा का बजट दो साल पहले के स्तर पर पहुंच गया है, जबकि देश में बेरोजगारी और मनरेगा के तहत काम की मांग बढ़ी है। मनरेगा से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी (पीएईजी) के मुताबिक, 2021-22 में मनरेगा के लिए आवंटित बजट से लगभग 262 करोड़ मानव दिवसों का रोजगार सृजित हो सकता है। जबकि मनरेगा पोर्टल के अनुसार, वर्ष 2020-21 में अब तक 330 करोड़ मानव दिवसों का रोजगार सृजित हो चुका है, जो वित्त वर्ष के अंत तक 349 करोड़ मानव दिवस तक पहुंचने का अनुमान है। एक तरफ जहां मनरेगा के तहत काम की मांग बढ़ रही है, वहीं बजट में कटौती के चलते मनरेगा से मिलने वाले रोजगार में लगभग 87 करोड़ मानव दिवसों की कमी होने जा रही है।     

सामाजिक सहायता के लिए अतिरिक्त बजट नहीं 

लॉकडाउन के दौरान वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन और महिलाओं के जनधन खातों में नकद भुगतान के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत चलने वाले राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम का बजट 2020-21 में 9,196 करोड़ रुपये के बजट अनुमान से बढ़ाकर 42,617 करोड़ रुपये किया गया था। लेकिन वर्ष 2021-22 में इसे घटाकर फिर से 9,200 करोड़ रुपये कर दिया है। जबकि अभी न कोरोना संकट पूरी तरह टला है और लॉकडाउन के झटके से उबरने में भी समय लगेगा। 

इस बार के बजट आवंटन से स्पष्ट है कि बुजुर्गों और महिलाओं को लॉकडाउन के दौरान जिस तरह की मदद दी गई थी, अगले वित्त वर्ष में उसके लिए अतिरिक्त बजट का प्रावधान नहीं है। जबकि कोविड-19 महामारी के असर को देखते हुए सामाजिक सहायता कार्यक्रमों का बजट बढ़ाया जाना चाहिए था। 

लॉकडाउन के दौरान जिन योजनाओं के बजट में कटौती हुई, उनमें प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना भी शामिल है। ग्राम क्षेत्रों में सड़कों का जाल बिछाने में अहम भूमिका निभाने वाली इस योजना के लिए 2020-21 में 19,500 करोड़ का बजट रखा गया था, जिसे लॉकडाउन के दौरान घटाकर 13,706 करोड़ रुपये कर दिया था। वर्ष 2021-22 में इस योजना के लिए 15,000 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान है जो संशोधित अनुमान से तो अधिक है, लेकिन गत वर्ष के बजट अनुमान से कम ही है।

ग्रामीण आजीविका मिशन का बजट बढ़ा

ग्रामीण विकास से जुड़ी योजनाओं के बजट में कटौतियों के बावजूद ग्रामीण आजीविका मिशन का बजट बढ़ा है। वर्ष 2020-21 में इस योजना के लिए 9,210 करोड़ रूपये आवंटित हुए थे, जिसे लगभग 48 फीसदी बढ़ाकर 13,677 करोड़ रुपये किया गया है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार के अवसर बढ़ाने और छोटे उद्यमियों को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी।

ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के सुधार के लिए नाबार्ड के तहत बने रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड को भी 30 हजार करोड़ रुपये से बढ़ाकर 40 हजार करोड़ रुपये किया गया है।

सबको आवास का लक्ष्य बड़ी चुनौती 

वर्ष 2016 में केंद्र सरकार ने ‘हाउसिंग फॉर ऑल’ का नारा देते हुए इंदिरा आवास योजना को बदलकर प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) की शुरुआत की थी। इसके तहत 2022 तक देश के ग्रामीण इलाकों में 2.95 करोड़ आवास बनाने का लक्ष्य था, जिसमें से अब तक करीब 1.29 करोड़ आवास बन चुके हैं। वर्ष 2021-22 में इस योजना के लिए 19,500 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है जो चालू वित्त वर्ष के बजट व संशोधित अनुमानों के बराबर ही है। बजट बढ़ाये बगैर ‘हाउसिंग फॉर ऑल’ के लक्ष्य को पूरा करना भी सरकार के लिए चुनौती रहेगा।

रूर्बन मिशन के लिए बजट नाकाफी  

चुनिंदा ग्रामीण क्षेत्रों को शहरों की तर्ज पर विकसित करने के लिए 2016 में शुरू हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेशल रूर्बन मिशन के लिए 2020-21 में 600 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान था, जिसे संशोधित अनुमानों में घटाकर 372 करोड़ रुपये कर दिया। वर्ष 2021-22 के बजट में भी इस योजना के 600 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ है, जो देश में लाखों गांवों के लिहाज से बहुत कम है। 2019-20 में भी इस योजना पर महज 303 करोड़ रुपये खर्च हुए थे।

ग्रामीण विकास मंत्रालय की ज्यादातर योजनाओं का बजट चालू वित्त वर्ष के बजट या संशोधित अनुमानों से कम और 2019-20 के वास्तविक खर्च के आसपास रहना ग्रामीण अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाकर मांग और खपत में सुधार लाने की रणनीति के अनुरूप प्रतीत नहीं होता है।

क्या गांव-किसान की सुध लेगा बजट?

एक फरवरी को पेश होने वाले बजट पर सारे देश की निगाहें लगी हैं। लगातार गिरती जीडीपी विकास दर, बढ़ती महंगाई दर और बेरोजगारी, मांग और निवेश की कमी, ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक आपदा आदि की समस्याओं से वित्त मंत्री देश को कैसे निकालती हैं, यह अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय है। मंदी के बादलों को हटाने में बजट में क्या कदम उठाए जाते हैं सभी जानना चाहते हैं। परन्तु इस मंदी से उबरने का रास्ता केवल ग्रामीण भारत से होकर ही गुजरता है।

वर्तमान वित्त वर्ष का कुल बजट लगभग 27,86,349 करोड़ रुपये है। इसमें से कृषि मंत्रालय को 138,564 करोड़ रुपये, ग्रामीण विकास मंत्रालय को 117,650 करोड़ रुपये, रासायनिक उर्वरकों पर सब्सिडी के लिए 80,000 करोड़ रुपये, तथा मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय को मात्र 3,737 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। इन सबको जोड़ दें तो ग्रामीण भारत का 2019-20 का कुल बजट लगभग 340,000 करोड़ रुपए है। यह सम्पूर्ण बजट का लगभग 12 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण भारत में लगभग 70 प्रतिशत आबादी बसती है। अब यह कितना उचित है यह बात पाठकों के विवेक पर छोड़ते हैं।

मार्च 2018 की तिमाही में देश की जीडीपी विकास दर 8.1 प्रतिशत थी जो सितम्बर 2019 की तिमाही में गिरकर 4.5 प्रतिशत पर आ गई है। वित्त वर्ष 2019-20 में जीडीपी विकास दर पांच प्रतिशत से कम रहने का अनुमान है। अर्थव्यवस्था में छाई मंदी का मूल कारण मांग की कमी बताया गया है। इससे उबरने के लिए हमें ग्रामीण क्षेत्र के लिए उचित मात्रा में बजट आवंटन करना होगा। इससे मांग तत्काल बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था के पहिये गति के साथ चल पड़ेंगे।

सरकार ने एक बहुत ही सराहनीय योजना- प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम- किसान) शुरू की है। इस योजना का 2019-20 में 75,000 करोड़ रुपये का बजट है। परन्तु इस वर्ष इस बजट में से केवल 50,000 करोड़ रुपये ही बांटे जाने की संभावना है। इसके पीछे किसानों का धीमी गति से सत्यापन होना है। अब तक इस योजना में कुल 14.5 करोड़ किसानों में से केवल 9.5 करोड़ किसानों का ही पंचीकरण हुआ है। इनमें से अभी तक केवल 7.5 करोड़ किसानों का ही सत्यापन हो पाया है। बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने राजनीतिक कारणों से अभी तक अपने एक भी किसान का पंजीकरण नहीं करवाया है, जो वहां के किसानों के साथ एक अन्याय है। परन्तु खेती की बढ़ती लागत को देखते हुए आगामी बजट में इसमें दी जाने वाली राशि को 6,000 रुपये से बढ़ाकर 24,000 रुपये प्रति किसान प्रति वर्ष किया जाना चाहिए। भविष्य में भी इस योजना की राशि को महंगाई दर के सापेक्ष बढ़ाना चाहिए। किसानों को 24,000 रुपये मिलने से ग्रामीण क्षेत्रों में तुरन्त क्रय-शक्ति बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था की गाड़ी तेजी से आगे बढ़ेगी।

पशुपालन और दुग्ध उत्पादन कृषि का अभिन्न अंग है और कृषि जीडीपी में इसकी लगभग 30 प्रतिशत हिस्सेदारी है। परन्तु पशुपालन और डेयरी कार्य हेतु बजट मात्र 2,932 करोड़ रुपये है। दुग्ध उत्पादन और पशुपालन जैसी अति महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि का बजट कृषि बजट का कम से कम 30 प्रतिशत यानी लगभग 45,000 करोड़ रुपये होना चाहिए।

पशुपालन से होने वाली आय कृषि आय की तरह आयकर से भी मुक्त नहीं है। आगामी बजट में इस विसंगति को दूर किया जाना चाहिए। दूध के क्षेत्र में अमूल जैसी किसानों की अपनी सहकारी संस्थाएं काम कर रही हैं। ये उपभोक्ता द्वारा खर्च की गई राशि का 75 प्रतिशत किसानों तक पहुंचाती हैं। पिछले साल सरकार ने घरेलू कंपनियों के आयकर की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया था, परन्तु किसानों की इन सहकारी संस्थाओं पर आयकर पहले की तरह 30 प्रतिशत की दर से ही लग रहा है। जबकि 2005-06 तक इन सहकारी संस्थाओं पर कंपनियों के मुकाबले पांच प्रतिशत कम दर से आयकर लगता था। कंपनियों से भी अधिक आयकर लगाना किसानों के साथ अन्याय है, इसे तत्काल 2005-06 से पहले वाली व्यवस्था के अनुरूप यानी 17 प्रतिशत किया जाना चाहिए।

2012 तक किसानों की सहकारी संस्थाओं को मिलने वाले ऋण को रिज़र्व बैंक ‘प्राथमिक क्षेत्र कृषि ऋण’ के रूप में परिभाषित करता था। आगामी बजट में 2012 से पहले की स्थिति को बहाल कर किसानों की इन सहकारी संस्थाओं को मिलने वाले ऋण को रिज़र्व बैंक पुनः ‘प्राथमिक क्षेत्र को दिए कृषि ऋण’ के रूप में ही परिभाषित करे, ताकि किसानों की इन संस्थाओं को महंगा ऋण लेने के लिए मजबूर ना होना पड़े। सरकार को दुग्ध उत्पादन की लागत कम करने हेतु सस्ता पशु-आहार, सस्ती पशु-चिकित्सा और दवाइयां उपलब्ध कराने के लिए बजट में कदम उठाने चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती आवारा पशुओं की संख्या एक विकराल समस्या बन गई है। इनकी संख्या सीमित करने और इनके आर्थिक उपयोग के लिए विशेष बजट प्रावधान करने होंगे।

ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराने की मनरेगा योजना का बजट 60,000 करोड़ रुपये है। इस योजना को खेती किसानी से जोड़ने की आवश्यकता है ताकि किसानों की श्रम की लागत कम हो और इस योजना में गैर उत्पादक कार्यों में होने वाली धन की बर्बादी को रोका जा सके।

कृषि हेतु रासायनिक उर्वरकों की सब्सिडी 80,000 करोड़ रुपये है। यूरिया खाद पर अत्यधिक सब्सिडी के कारण इस खाद का ज़रूरत से ज्यादा प्रयोग हो रहा है जिससे ज़मीन और पर्यावरण दोनों का क्षरण हो रहा है। इस सब्सिडी को भी सीधे किसानों के खातों में नकद भेजा जाए तो खाद सब्सिडी में भारी कमी भी होगी और रासायनिक खाद का अत्यधिक मात्रा में प्रयोग भी बंद होगा।

हम तिलहन को छोड़कर बाकी लगभग सभी कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भर हैं या घरेलू मांग से ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं। अतः हमें बजट में कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण, भंडारण, शीतगृहों और वितरण प्रणाली की आधारभूत संरचना को विकसित करने हेतु उचित आवंटन करना होगा। हमें कृषि उत्पाद विपणन अधिनियम और आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे कानूनों से भी कृषि उत्पादों के व्यापार को मुक्त करने की दिशा में बढ़ना होगा।

आज गेहूं-चावल के अत्यधिक मात्रा में भंडार होने से परेशान है। दिसंबर 2019 में भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में लगभग 213 लाख टन चावल और 352 लाख टन गेहूं था, यानी कुल मिलाकर इन दोनों खाद्यान्नों का स्टॉक 565 लाख टन था। जबकि 1 जनवरी को यह बफर स्टॉक 214 लाख टन होना चाहिए। इसके अलावा 260 लाख टन धान भी गोदामों में पड़ी है। देश का खाद्य सब्सिडी का बिल 1.84 लाख करोड़ रुपये है जिसे तत्काल कम किया जाना चाहिए। खाद्य सब्सिडी को वास्तविक जरूरतमंदों तक ही सीमित करना होगा। इसके लिए लाभार्थियों को सीधे नकद राशि हस्तांतरण करना उचित होगा।

कृषि उत्पादों का निर्यात किसानों की आमदनी बढ़ाने में बहुत मददगार होता है। भारत ने 2013-14 में 4,325 करोड़ डॉलर (आज के मूल्यों में लगभग तीन लाख करोड़ रुपये) मूल्य के कृषि उत्पादों का निर्यात किया था, परन्तु इसके बाद हम इस स्तर को कभी भी छू नहीं पाए। अतः हमें बजट में कृषि जिन्सों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए विशेष बजट प्रावधान करने होंगे। अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने के लिए ग्रामीण भारत के लिए उठाए गए ये कदम अत्यधिक उपयोगी साबित होंगे।

(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष है)