क्यों नाकाम हुई मोदी सरकार की TOP स्कीम?

चौधरी पुष्पेंद्र सिंह

कई शहरों में प्याज की खुदरा कीमतें अब भी 120 रुपये प्रति किलोग्राम के ऊपर चल रही हैं। सरकार ने प्याज की जमाखोरी पर अंकुश लगाने के लिए व्यापारियों पर छापेमारी के अलावा, थोक व्यापारियों की भंडारण सीमा (स्टॉक लिमिट) 500 से घटाकर 250 क्विंटल और खुदरा विक्रेताओं की सीमा 100 से घटाकर 20 क्विंटल कर दी है। पिछले दिनों केंद्रीय खाद्य मंत्री ने प्याज की बढ़ी कीमतों को काबू करने में विवशता भी जाहिर की थी।

केंद्रीय कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में प्याज उत्पादक राज्यों के मुख्य सचिवों के साथ इस विषय पर चर्चा कर निर्णय लिए जा रहे हैं। केंद्र सरकार ने कीमतों को काबू करने के लिए 1.2 लाख टन प्याज आयात करने का निर्णय लिया है। इसमें से मिस्र, तुर्की आदि देशों से लगभग 50 हजार टन प्याज आयात के सौदे किए जा चुके हैं। यह प्याज धीरे-धीरे देश में आ रही है, परन्तु देश की लगभग 60 हजार टन प्रति दिन की मांग के सापेक्ष यह बहुत कम है। प्याज की कम आवक, जरूरत से कम आयात और इसमें देरी के कारण प्याज के दाम बेकाबू हैं। इस विषय में कृषि मंत्री ने भी संसद को बताया कि देश में खरीफ की प्याज का उत्पादन आशा से लगभग 16 लाख टन कम रहा हैं।

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष नवंबर में खुदरा महंगाई दर 5.54 प्रतिशत पर पहुंच गई जो पिछले 40 महीनों का सबसे उच्चतम स्तर है। इसका मूल कारण खाद्य पदार्थों विशेषकर सब्ज़ियों की महंगाई दर बढ़ना बताया गया है। इसी साल कुछ माह पहले इन सब्जियों को किसान कम कीमत मिलने के कारण सड़कों पर फेंकने की लिए मजबूर हुए थे।

प्याज उत्पादक राज्यों में विलंब से आये मानसून और फिर अत्यधिक बारिश के कारण देश में खरीफ की प्याज का रकबा भी पिछले साल के लगभग तीन लाख हेक्टेयर के मुकाबले इस साल लगभग 2.60 लाख हेक्टेयर रह गया। खरीफ की प्याज का उत्पादन भी पिछले साल के 70 लाख टन के मुकाबले 53 लाख टन रहने का अनुमान है। देश में सबसे ज्यादा, लगभग एक-तिहाई प्याज का उत्पादन करने वाले राज्य महाराष्ट्र में नवंबर में प्याज की आवक पिछले साल के 41 लाख टन के मुकाबले घटकर 24 लाख टन रह गई। इस कारण अब प्याज की कीमतें नई फसल आने पर जनवरी में ही कुछ कम हो पाएंगी।

तमाम कोशिशों के बावजूद आखिर सरकार सब्जियों की कीमतों को नियंत्रित रखने और उपभोक्ताओं के साथ-साथ किसानों के हितों की रक्षा करने में बार-बार नाकाम क्यों होती है? 2018-19 में देश में 18.6 करोड़ टन सब्जी उत्पादन हुआ है। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के मोदी सरकार के लक्ष्य में बागवानी फसलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इन फसलों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने अपने बजट में भी कई योजनाएं शुरू की हैं। सब्जियों में मात्रा के लिहाज से आधा उत्पादन आलू, प्याज और टमाटर का ही होता है और ये सबसे ज़्यादा उपयोग की जाने वाली सब्ज़ियाँ हैं। सब्ज़ियों में आलू सबसे बड़ी फसल है, जिसका 2108-19 में 530 लाख टन उत्पादन हुआ। इसी तरह प्याज का उत्पादन इस वर्ष 235 लाख टन और टमाटर का उत्पादन 194 लाख टन रहा।

इन तीनों फसलों का ही देश की घरेलू मांग से ज्यादा उत्पादन हो रहा है और हम इन फसलों के निर्यात की स्थिति में हैं। गत वर्ष प्याज का 22 लाख टन निर्यात कर हम विश्व के सबसे बड़े प्याज निर्यातक थे। तो ऐसा क्या हुआ कि अब उसी प्याज को देश मंहगे दामों पर आयात करने के लिए मजबूर है। आलू, प्याज और टमाटर की कीमतों के स्थिरकरण हेतु सरकार ने पिछले साल 500 करोड़ रुपये की ऑपरेशन ग्रीन्स टॉप’ (टोमैटो, अनियन, पोटैटो) योजना भी शुरू की थी। इसका मूल उद्देश्य एक तरफ उपभोक्ताओं को इन सब्जियों की उचित मूल्य पर साल भर आपूर्ति सुनिश्चित करना और दूसरी तरफ किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाना था।

जाहिर है कि सरकार को इसके लिए और कदम भी उठाने होंगे। सबसे पहले तो हमें इन फसलों के उचित मात्रा में खरीद, भंडारण एवं वितरण हेतु शीतगृहों तथा अन्य आधारभूत आधुनिक संरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) का इंतज़ाम करना होगा। हमारे देश में लगभग 8 हजार शीतगृह हैं, परंतु इनमें से 90 प्रतिशत में आलू का ही भंडारण किया जाता है। यही कारण है कि आलू की कीमतों में कभी भी अप्रत्याशित उछाल नहीं आता।

टमाटर का लंबे समय तक भंडारण संभव नहीं है परन्तु अच्छी मात्रा में प्रसंस्करण अवश्य हो सकता है। प्याज के भंडारण को भी बड़े पैमाने पर बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि किसानों और उपभोक्ताओं दोनों के हितों को संरक्षित किया जा सके। जब फसल आती है उस वक्त सरकार इन सब्जियों को खरीद कर एक बफर स्टॉक भी तैयार कर सकती है ताकि बाज़ार में इनकी आपूर्ति पूरे साल उचित मूल्यों पर बनाई रखी जा सके और किसान स्तर पर कीमतें अचानक ना गिरें।

केंद्र सरकार ने इस साल प्याज का 57 हजार टन का बफर स्टॉक तो बनाया था परन्तु यह स्टॉक देश की केवल एक दिन की मांग के बराबर ही था। इसमें से भी आधे से ज्यादा प्याज खराब हो गई। हर साल प्याज की आसमान छूती कीमतों की समस्या से देश जूझता है, अतः मांग के सापेक्ष हमें प्याज का कम से कम 10 लाख टन का बफर बनाना होगा।

दूसरा, इन तीनों सब्ज़ियों का बड़े पैमाने पर प्रसंस्करण करने हेतु उद्योग स्थापित करने होंगे। अभी आलू की फसल का केवल 7 प्रतिशत, प्याज का 3 प्रतिशत और टमाटर का मात्र 1 प्रतिशत प्रसंस्करण हो पा रहा है। उपभोक्ताओं और किसानों दोनों के लिए इनके मूल्यों को स्थिर रखने, ऑफ-सीजन में उपलब्धता सुनिश्चित करने और निर्यात बढ़ाने के लिए इन फसलों का कम से कम 20 प्रतिशत प्रसंस्करण करने का लक्ष्य होना चाहिए। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए इनके उत्पादों पर जीएसटी का शुल्क भी कम लगना चाहिए।

तीसरा, घरेलू मांग से ज्यादा उत्पादन की सूरत में हमें एक भरोसेमंद निर्यातक देश के रूप में भी अपने आप को स्थापित करना होगा। अभी इन फसलों का लगभग 5500 करोड़ रुपये मूल्य का ही निर्यात हो पा रहा है, जिसे तीन-चार गुना बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके लिए उपरोक्त भंडारण और प्रसंस्करण संबंधी दोनों कदम काफी कारगर होंगे। बार-बार न्यूनतम निर्यात मूल्य या स्टॉक लिमिट लगाने से भी व्यापारी भंडारण, प्रसंस्करण और निर्यात की व्यवस्था में निवेश करने से पीछे हट जाते हैं। अतः इन विषयों में स्थिर सरकारी नीतियों तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे कानूनों में सुधार करने की आवश्यकता है।

नाबार्ड के एक अध्ययन के अनुसार आलू, प्याज, टमाटर की फसलों में उपभोक्ता द्वारा चुकाए गए मूल्य का 25-30 प्रतिशत ही किसानों तक पहुंच पाता है। अतः हमें इन फसलों में अमूल मॉडल’ को लागू करना होगा, जहां दूध के उपभोक्ता-मूल्य का 75-80 प्रतिशत किसानों को मिलता है। कृषि उत्पाद बाज़ार समिति अधिनियम में सुधार कर बिचौलियों की भूमिका को भी सीमित करना होगा। ऐसी संस्थाएं स्थापित करनी होंगी जो किसानों से सीधे खरीदकर उपभोक्ताओं तक इन सब्जियों को बिचौलियों के हस्तक्षेप के बिना पहुंचाने का काम करें।

इन फसलों की खेती में लगे करोड़ों किसानों की मांग है कि इन तीनों फसलों को एमएसपी व्यवस्था के अंतर्गत लाकर इनकी उचित खरीद, भंडारण और प्रसंस्करण की व्यवस्था सरकार करे। जिससे एक तरफ इन फसलों को फेंकने की नौबत ना आये तो दूसरी तरफ आम आदमी की जेब भी ना कटे।

(लेखक कृषि मामलों के जानकार और किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)

किसानों के सामने ऐसी झुकी पेप्सिको, बेदम था कंपनी का दावा    

कानून की आड़ में बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसानों का कैसे उत्पीड़न कर सकती हैं इसकी झलक पिछले दिनों देखने को मिली। कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने गुजरात के 11 किसानों के खिलाफ कथित गैर-कानूनी तरीके से एक खास किस्म का आलू उगाने और बेचने के खिलाफ केस कर दिया। कंपनी का दावा था कि उसने भारतीय पेेेेटेंट कानून के तहत आलू की एफएल-2027 वैरायटी का रजिस्ट्रेशन कराया हुआ है जिसे वह एफसी-5 ब्रांड से बेचती है। बगैर अनुमति यह आलू उगाने वाले किसानों से पेप्सिको ने 20 लाख रुपये से लेकर 1.05 करोड़ रुपये तक का हर्जाना मांगा। साबरकांठा, बनासकांठा और अरावली जिले के इन किसानों के खिलाफ अलग-अलग अदालतों में तीन केस दर्ज कराए गए।

पेप्सिको का दावा शुरुआत में जितना दमदार समझा जा रहा था, असल में उतना मजबूत था नहीं। किसान संगठनों के दबाव और मामले को लेकर बढ़ी जागरूकता ने पेप्सिका को कदम वापस खींचने पर मजबूर कर दिया। 2 मई को कंपनी ने किसानों के खिलाफ केस वापस लेने का ऐलान किया और 5 मई को दो किसानों फूलचंद कछावा और सुरेशचंद कछावा के खिलाफ गुजरात की डीसा कोर्ट में चल रहा मामला वापस ले लिया। बाकी मुकदमे भी जल्द वापस होने की उम्मीद है।

कम नमी वाला एफसी-5 आलू खासतौर पर पेप्सी के लेज चिप्स के लिए उगाया जाता है। पेप्सिको का दावा था कि बिना अनुमति इस आलू की खेती और बिक्री कर किसानों ने उसके पेटेंट अधिकारों का उल्लंघन किया और कारोबार को नुकसान पहुंचाया। लेकिन ऐसा लगता है कि कंपनी को जल्द ही अपना कानूनी पक्ष कमजोर होने और भारतीय कानून में किसान के अधिकारों का अहसास हो गया। इसलिए केस से पीछे हटना मुनासिब समझा। देश भर के तमाम किसान संगठनों के अलावा भाजपा समर्थक स्वदेशी जागरण मंच ने भी पेप्सिको के रवैये पर कड़ा एतराज जताया था।

हालांकि अभी यह साफ नहीं है कि गुजरात सरकार से पेप्सिको की क्या बात हुई और किसानों से मुकदमे किन शर्तों पर वापस लिए जा रहे हैं। लेकिन इस पूरे प्रकरण ने बीजों पर किसानों के अधिकार को लेकर नई बहस छेड़ दी है। बीजों पर किसान के हक की आवाजें कई साल से उठ रही हैं, लेकिन इस मामले ने कृषि से जुड़े बौद्धिक संपदा अधिकार कानून के धुंधलेपन और पेचीदगियों को भी उजागर किया है।

फ्लैशबैक

यह मामला पिछले तीन दशक में आर्थिक उदारीकरण की राह पर चलने, भटकने और ठिठकने के भारत के तजुर्बे से जुड़ा है। जिसके सिरे अस्सी के दशक के उस दौर से जुड़ते जब भारतीय सॉफ्ट ड्रिंक्स बाजार पर पारले जैसी  घरेलू कंपनियों का दबदबा था। राजीव गांधी, जो आजकल काफी चर्चाओं में हैं, तब उनके सत्ता संभालने के दिन थे। अर्थव्यवस्था को नेहरू दौर की समाजवादी जकड़न से निजात दिलाने के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोले जाने लगे।

इन्हीं दरवाजों पर 1985 में अमेरिकी सॉफ्ट ड्रिंक कंपनी पेप्सिको ने दस्तक दी थी। पेप्सिको ने पंजाब में एग्रो रिसर्च सेंटर स्थापित कर फसलों की नई वैरायटी विकसित करने, आलू चिप्स और टमाटर कैचप के लिए फूड प्रोसेसिंग प्लांट लगाने और किसानों के कल्याण के सब्जबाग दिखाए। बदले में कंपनी भारत में कोल्ड ड्रिंक बेचने की अनुमति चाहती थी। इन्हीं मंसूबों के साथ 1986 में पेप्सिको ने पंजाब सरकार और टाटा की वोल्टास के साथ एक ज्वाइंट वेंचर  किया।

 

देश में पेप्सिको की एंटी का घरेलू कंपनियों और स्वदेशी के लंबरदारों ने खूब विरोध किया। आखिरकार 1988 में भारत सरकार ने पेप्सिको को पंजाब में बॉटलिंग और फूड प्रोसिसंग प्लांट शुरू करने की इजाजत दे दी और 1990 में स्वदेशी की लहर के बीच पेप्सिको के तीन ब्रांड पेप्सी, 7-अप और मिरिंडा जयपुर से लांच हुए।

इस तरह आलू चिप्स के साथ पेप्सिको का भारत से नाता करीब तीन दशक पुराना है जिसमें पहली बार कंपनी और किसान आमने-सामने आए।  

एफसी-5 आलू की एंट्री

साल 2009 में पेप्सिको आलू की एफसी-5 वैरायटी भारत लेकर आई। ताकी लेज चिप्स को खास स्वाद और पहचान दी जा सके। इसकी शुरुआत भी पंजाब से हुई। अनुबंध के तहत कंपनी ने किसानों को एफसी-5 आलू का बीज दिया और उनसे उपज खरीदने लगी। आगे चलकर यही मॉडल गुजरात में अपनाया गया जहां साबरकांठा जिले के हजारों किसान यह आलू उगाने लगे।

इस बीच, 2016 में पेप्सिको ने भारत के प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटिज एंड फार्मर्स राइट्स एक्ट, 2001 (पीपीवी एंड एफआरए) के तहत आलू की एफसी-5 वैरायटी को रजिस्टर्ड करा लिया। लेकिन चूंकि बरसों से यह आलू देश में उगाया जा रहा है इसलिए जिन किसानों के साथ कंपनी का अनुबंध नहीं है, उन तक भी यह किस्म पहुंची और वे भी इसकी खेती करने लगे।

क्या ऐसा करना गैर-कानूनी है? नहीं!

जानिए कैसे?

जिस पीपीवी एंड एफआर एक्ट को आधार बनाकर पेप्सिको ने किसानों के खिलाफ केस किया, उसी कानून का सेक्शन 39 किसानों को रजिस्टर्ड वैरायटी की उपज अपने पास बचाकर रखने, इसे दोबारा उगाने और बेचने की छूट देता है। बशर्ते किसान रजिस्टर्ड वैरायटी के ब्रांडेड बीज ना बेचें। मतलब किसान रजिस्टर्ड बीज उगा सकते हैं। आपस में इसका लेन-देन और बिक्री कर सकते हैं लेकिन उसकी खुद ब्रांडिंग कर नहीं बेच सकते।

यह कहना मुश्किल है कि गुजरात के किसानों ने इस प्रावधान का उल्लंघन किया है या नहीं। लेकिन एक बात साफ हे कि पेप्सिको के पास एफसी-5 आलू का ऐसा कोई पेटेंट नहीं है कि उसकी अनुमति के बिना कोई दूसरा इस आलू को उगा ही ना पाए। यह एक गलत धारणा थी जो शुरुआत में मीडिया के जरिए फैलाई गई।  

पीपीवी एंड एफआर एक्ट का सेक्शन 42 कहता है कि अगर किसान को किसी प्रावधान के उल्लंघन के वक्त उसकी जानकारी नहीं है तो उसे उक्त उल्लंघन का दोषी नहीं माना जाना चाहिए। यह बात भी पेप्सिको के रवैये के खिलाफ जाती है क्योंकि सभी रजिस्टर्ड किस्मों की जानकारी किसानों को होना जरूरी नहीं है।

तीसरी बात यह है कि एफसी-5 वैरायटी के आलू की खोज 2016 में नहीं हुई थी। भारत में यह आलू 2009 से उगाया जा रहा है। पेटेंट कानून के तहत इसका रजिस्ट्रेशन भी पहले से प्रचलित किस्म की श्रेणी में ही हुआ है। संभवत: इस पहलू को भी पेप्सिको ने नजरअंदाज किया।

वैसे, सामान्य जानकारी वाली प्रचलित किस्मों के रजिस्ट्रेशन के साथ भी कई दिक्कतें हैं।2001 में जब पीपीवी एंड एफआर एक्ट बना तब भी कई विशेषज्ञों ने इस पर आपत्ति जताई थी। उनका तर्क था कि  कंपनियां अपनी पुरानी किस्मों का रजिस्ट्रेशन कराकर किसानों को इनके इस्तेमाल से रोक सकती हैं या उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकती हैं। करीब 20 साल बाद यह आशंका सही साबित हुई।

बहरहाल एक बात साफ है जो पेटेंट कानून पेप्सिको जैसी कंपनियों को अपने बीज पंजीकृत कराने की सहूलियत देता है, उसी कानून से किसानों को भी कई अधिकार मिले हुए हैं। इस लिहाज से भारतीय कानून अमेरिका और यूरोपीय देशों के कानूनों से अलग है।

सभी किसान बाजार से बीज नहीं खरीदते। बहुत से किसान पुरानी उपज का एक हिस्सा बीज के लिए बचाकर रख लेते हैं या फिर आपस में बीजों का लेनदेन करते हैं। बीजों के इस्तेमाल की यह आजादी किसानों के साथ-साथ जैव-विविधता और देश की खाद्य संप्रभुता के लिए भी जरूरी है। इसलिए पीपीवी एंड एफआर एक्ट किसानों को रजिस्टर्ड बीज के इस्तेमाल की आजादी और अधिकार भी देता है।

इस विवाद का एक पहलू उस आरोप से भी जुड़ा है जिसके मुताबिक, एफसी-5 आलू उगाने वाले गुजरात के किसान लेज के प्रतिद्वंद्वी ब्रांड को इसकी आपूर्ति करते हैं जो पेप्सिको के हितों के खिलाफ है। ऐसे किसानों पर शिकंजा कसकर कंपनी लोकल कॉपीटिशन को मात देना चाहता है। इस तरह यह एक कॉरपोरेट जंग है जिसमें एक बहुराष्ट्रीय कंपनी और उसको टक्कर देने वाली स्थानीय ब्रांड आमने-सामने हैं और किसान बीच में पिस रहे हैं।

अब आगे

भारत के लिए यह मामला खतरे की घंटी है। देखने वाली बात यह है कि क्या भारत विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के समझौतों के तहत कृषि क्षेत्र में लागू हुए बौद्धिक संपदा अधिकार कानूनों में किसानों के अधिकार और अपनी खाद्य संप्रभुता को सुरक्षित रख पाता है या नहीं। कृषि से जुड़े पेटेंट कानून के कई प्रावधान पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं। जिनका फायदा उठाकर पेप्सिको जैसी दिग्गज कंपनियां किसानों का उत्पीड़न कर सकती हैं।

बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) से जुड़े मामलों के विशेषज्ञ प्रो. बिश्वजीत धर का मानना है कि इस मामले ने पीपीवी एंड एफआर एक्ट से जुड़ी कई समस्याओं को उभारा है जो इसके विवादित प्रावधानों और इन्हें लागू करने के तरीकों से जुड़ी हैं। अगर इन मुद्दों को इस कानून की मूल भावना और कृषक समुदाय पर असर को ध्यान में रखते हुए नहीं सुलझाया गया तो भारतीय कृषि क्षेत्र के समक्ष मौजूदा संकट और गंभीर हो जाएगा।

किसान अधिकारों की पैरवी करने वाले संगठन आशा की सह-संयोजक कविता कुरूगंटी ने एक बयान जारी कर किसानों के खिलाफ मुकदमे वापस लेने के पेप्सिको के फैसले को भारतीय किसानों की जीत बताया है। उनका कहना है कि भारतीय कानून से किसानों को मिली बीज स्वतंत्रता बरकरार रहनी चाहिए। किसानों का उत्पीड़न करने वाली पेप्सिको को माफी मांगकर और किसानों को हर्जाना देना चाहिए। भविष्य में ऐसी घटनाएं दोबारा न हो इसके लिए सरकार को भी पुख्ता व्यवस्था बनानी होगी।

पेप्सिको द्वारा किसानों से केस वापस लेना ही काफी नहीं है। जिन दलीलों के साथ कंपनी ने किसानों पर एक-एक करोड़ रुपये के मुकदमे ठोके थेे उनमें कानूनी स्पष्टता आनी जरूरी है। बेहतर होता अगर यह मामला अदालत के निर्णय से सुलझता और भविष्य के लिए नजीर बनता।