क्या है 80 करोड़ गरीबों, 8 करोड़ प्रवासियों को मुफ्त राशन की हकीकत?

कोरोना संकट को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीब कल्याण अन्न योजना को नवंबर तक बढ़ाने का ऐलान किया है। इस योजना के तहत देश के 80 करोड़ से अधिक लोगों को हर महीने 5 किलो गेहूं या धान और हरेक परिवार को 1 किलो चना मुफ्त दिया जाएगा। गरीबों को मदद पहुंचाने के दावे पिछले तीन महीनों में बहुत हुए हैं, जिनकी सच्चाई जानना जरूरी है।

मंगलवार को पीएम मोदी ने कहा था कि कोरोना से लड़ते हुए भारत में 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को 3 महीने का राशन मुफ्त दिया गया है। इसे बड़ी उपलब्धि बताते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि अमेरिका की आबादी से ढाई गुना और ब्रिटेन की आबादी से 12 गुना अधिक लोगों को हमारी सरकार ने मुफ्त राशन दिया है।

लेकिन 80 करोड़ लोगों को राशन देने के दावे पर खुद सरकारी आंकड़े ही सवाल उठा रहे हैं। केंद्र सरकार के खाद्य मंत्रालय की ओर से 30 जून को जारी विज्ञप्ति के अनुसार, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत अप्रैल में 74.12 करोड़, मई में 73.66 करोड़ और जून में 59.29 करोड़ लोगों को राशन पहुंचाया गया। हालांकि, 73-74 करोड़ लोगों को खाद्यान्न पहुंचाना भी मामूली बात नहीं है, लेकिन फैक्ट यही है कि लॉकडाउन के दौरान किसी भी महीने 80 करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त राशन नहीं मिला।


https://www.pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1635429

लॉकडाउन के दौरान बड़ी तादाद में श्रमिकों के पलायन को देखते हुए 14 मई को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 8 करोड़ प्रवासियों को दो महीने तक 5 किलोग्राम गेहूं या चावल और हरेक परिवार को एक किलो दाल देने की घोषणा की थी। यह सहायता खासतौर पर उन जरूरतमंदों के लिए थी जिनके पास राशन कार्ड नहीं है। केंद्र सरकार की इस घोषणा की भारतीय जनता पार्टी ने खूब वाहवाही बटोरी, लेकिन हकीकत दावों से मेल नहीं खाती है।

खाद्य मंत्रालय के मुताबिक, आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत केंद्र सरकार ने कुल 8 लाख टन खाद्यान्न का आवंटन राज्य सरकारों को किया था। इसमें से राज्यों ने 6.4 लाख टन अनाज उठा लिया। योजना के तहत 30 जून तक कुल 2.13 करोड़ लाभार्थियों को 1.06 लाख टन अनाज का वितरण हुआ है। यह प्रवासियों के लिए आवंटित खाद्यान्न का महज 13 फीसदी है। ऐसे में सवाल उठता है कि गरीबों के हिस्से का पूरा राशन उन तक क्यों नहीं पहुंचा?


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प्रवासियों को राशन देने की योजना के तहत मई में 1.21 करोड़ और जून में करीब 92 लाख लोगों को राशन मिला है। 8 करोड़ लाभार्थियों के दावे के मुकाबले यह क्रमश: 15 और 11.6 फीसदी है। कुल 2.13 करोड़ लोगों को अनाज मिलने का आंकड़ा दो महीनों को जोड़कर आया है। जबकि हर महीने 8 करोड़ प्रवासी श्रमिकों को राशन मुहैया कराना था।

दरअसल, कई राज्यों ने प्रवासियों के नाम पर केंद्र से अनाज तो उठा लिया है लेकिन गरीबों तक नहीं पहुंचाया। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना समेत कई राज्य ऐसे हैं जिन्होंने प्रवासी श्रमिकों के लिए आवंटित अनाज का एक फीसदी भी उनमें नहीं बांटा। यानी पूरी गलती केंद्र की नहीं है। केंद्र सरकार ने बढ़ा-चढ़ाकर 8 करोड़ का आंकड़ा पेश किया तो राज्यों ने अनाज उठाने के बावजूद वितरण में कोताही बरती।

सरकारी दावों पर सवाल उठते देख केंद्र सरकार इस मुद्दे को राज्यों के पाले में डालती नजर आ रही है। खाद्य मंत्रालय का कहना है कि प्रवासी श्रमिकों का कोई डेटा मौजूद नहीं था, इसलिए 8 करोड़ प्रवासियों का लिबरल अनुमान लगाया गया। लेकिन लाभार्थियों की तादाद अनुमान से काफी कम 2.13 करोड़ रही। अभी कई राज्यों से जानकारियों जुटाई जा रही हैं इसलिए लाभार्थियों का आंकड़ा बढ़ सकता है।

खाद्य मंत्रालय की इस सफाई के बावजूद इतना स्पष्ट है कि 8 करोड़ प्रवासी श्रमिकों को अनाज पहुंचाने का दावा सही नहीं है। सरकारी आंकड़े दर्शाते हैं कि आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत हर महीने एक से सवा करोड़ प्रवासियों को ही अनाज पहुंचा है। प्रवासियों के लिए जितना अनाज आवंटित हुआ, उसका करीब 13 फीसदी ही लोगों में बंटा है। आवटंन होने और गरीबों तक पहुंचने में यही फर्क है।

गौर करने वाली बात यह भी है कि यह अंतर सरकारी दावे और खाद्य मंत्रालय के आंकड़ों की तुलना से उजागर हुआ है। अगर सरकारी आंकड़ों की जमीनी पड़ताल की जाए तो यह अंतर बढ़ भी सकता है।

कैसे ‘शून्य’ हुए किसानों की खुदकुशी के आंकड़े

किसानों की आमदनी दोगुनी करने का दावा करने वाले केंद्र सरकार ने किसानों की खुदकुशी के आंकड़े छापने बंद कर दिए हैं। जबकि रोजाना किसी ना किसी राज्य से किसान आत्महत्या की खबर आ ही जाती है। हैरानी की बात है कि सरकार के पास 2016 के बाद देश में किसानों की खुदकुशी का आंकड़ा नहीं है। इस पर लोकसभा में उठे सवाल के जवाब में सरकार ने जो वजह बताई है, वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है।

मंगलवार को लोकसभा में किसानों की खुदकुशी पर राहुल गांधी के सवालों का जवाब देते हुए गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने बताया कि कई राज्यों ने किसानों/खेतीहरों की खुदकुशी के ‘शून्य’ आंकडे सूचित किए हैं। यानी राज्य सरकारों की मानें तो किसानों की खुदकुशी बंद हो गई है।

राहुल गांधी ने सरकार से पिछले चार वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े मांगते हुए 2015 एनसीआरबी की आकस्मिक मृत्यु एवं आत्महत्या रिपोर्ट (एडीएसआई) प्रकाशित नहीं किए जाने का कारण पूछा था।

इसके लिखित जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने बताया कि एनसीआरबी ने राज्यों से आंकड़ों की पुष्टि होने के बाद 2016 तक की रिपोर्ट प्रकाशित की है। वर्ष 2015 और 2016 में किसानों की आत्महत्या के जो आंकड़े सरकार ने पेश किए हैं, उनमें 15 राज्यों के आंकड़े जीरो हैं।

हैरानी की बात है कि राज्य सरकारें किसानों की खुदकुशी का आंकड़ा जीरो बता रही हैं तो केंद्र सरकार ने भी से इन आंकड़ों को जुटाना जरूरी नहीं समझा। देश में कृषि संकट और किसानों की स्थिति के बारे में पुख्ता आंकड़े जुटाए बगैर ही बड़ी-बड़ी योजनाएं चलाई जा रही हैं।

राहुल गांधी ने किसानों की आत्महत्या संबंधी आंकड़ों का प्रकाशन फिर से शुरू करने की मांग करते हुए सरकारी आंकड़ों के बगैर नीति-निर्माण पर भी सवाल उठाया है।

 

नोबेल विजेता बैनर्जी कैसे मिटाते हैं गरीबी? क्या हैं उनके प्रयोग?

पुरस्कारों से गरीबी मिटती तो कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलते ही बाल श्रम मिट जाता। जाहिर है पुरस्कारों की अपनी राजनीति है। अपनी सीमाएं हैं। फिर भी किसी व्यक्ति को नोबेल जैसा पुरस्कार मिलना बड़ी बात है। खासतौर पर अगर वह व्यक्ति भारत जैसे देश से हो। गरीबी पर रिसर्च करता हो। एंटी-नेशनल कहे गए जेएनयू से पढ़ा हो। मोदी सरकार की नीतियों पर सवाल उठाता हो। कांग्रेस को न्याय योजना बनाने और अरविंद केजरीवाल को स्कूलों की दशा सुधारने में मदद करता हो। तो मानकर चलिए कि उसके काम के अलावा हर बात की चर्चा होगी।

इस साल का सेवरिग्स रिक्सबैंक पुरस्कार यानी अर्थशास्त्र का नोबेल भारतीय मूल के अमेरिकी अर्थशास्त्री अभिजीत बैनर्जी के साथ-साथ फ्रांसिसी मूल की उनकी संगिनी एस्थर डुफ्लो और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर माइकल क्रेमर को संयुक्त रूप से दिया गया है। बैनर्जी और डुफ्लो अमेरिका के मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी यानी एमआईटी में प्रोफेसर हैं। इन तीनों को यह पुरस्कार दुनिया भर में गरीबी मिटाने के लिए उनके प्रयोगात्मक दृष्टिकोण के लिए दिया गया है, जो गरीबी से निपटने में मददगार है। इस दृष्टिकोण की पहचान है रैंडमाइज्ड कंट्रोल ट्रायल यानी आरटीसी मेडिकल साइंस की तर्ज पर होने वाले इन प्रयोगों को गरीबी दूर करने में कारगर टूल माना जा रहा है। हालांकि, इसके आलोचक भी कम नहीं हैं।

क्या है यह नया दृष्टिकोण?

पुरस्कार की घोषणा करते हुए द रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज ने कहा है कि पिछले दो दशकों में बैनर्जी, डुफ्लो और क्रेमर के प्रयोगात्मक दृष्टिकोण ने विकास अर्थशास्त्र का कायाकल्प कर दिया है। वैश्विक गरीबी से निपटने का वे नया तरीका लाए हैं, जिसके तहत बड़ी समस्या को छोटे-छोटे टुकड़ों या सवालों में तोड़कर देखा जाता है। फिर सोचे-समझे प्रयोगों के जरिए इन सवालों या समस्याओं के समाधान तलाशे जाते हैं। इन तीनों के शोध से वैश्विक गरीबी से निपटने की क्षमता में इजाफा हुआ है।

जिस तरह लैब में चूहों पर दवाओं का ट्रायल होते हैं, वैसे ही बैनर्जी और उनके साथी गरीबों पर प्रयोग करते हैं। ताकि पता लगे कि गरीबी से निपटने का कौन-सा उपाय सबसे कारगर है। ऐसे प्रयोगों में लोगों को अलग-अलग समूहों में बांटा जाता है। इनमें से कुछ पर उपाय आजमाए जाते हैं, जबकि कुछ लोगों को इससे वंचित रखकर प्रभाव की तुलना की जाती है। भारत गरीबी पर ऐसे प्रयोगों की बड़ी प्रयोगशाला बन चुका है। मतलब, गरीबी नेताओं के भाषण से निकलकर लैब में पहुंच चुकी है। गरीब वहीं का वहीं है!

प्रयोगों और साक्ष्यों पर जोर

बैनर्जी और उनके साथी पिछले 25 वर्षों से गरीबी पर प्रयोग कर रहे हैं और अब यह पद्धति विकास अर्थशास्त्र में धूम मचा रही है। इससे लोगों की आदतों और व्यवहार के अध्ययन के जरिए गरीबी दूर करने का एक नया औजार मिला है। इन प्रयोगों से प्राप्त साक्ष्य नीतिगत फैसलों को वैज्ञानिक आधार देते हैं। आज दुनिया भर में ऐसे प्रयोगों के जरिए सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों की रूपरेखा तय की जा रही है।

इस पद्धति के तौर-तरीकों से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि बैनर्जी, डुफ्लो और क्रेमर का काम गरीब और जन कल्याण पर केंद्रित है। उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने से विकास अर्थशास्त्र और नए दृष्टिकोण की अहमियत बढ़ेगी।

जिस दौर में दुनिया आर्थिक संकटों से जूझ रही है। नव उदारवादी पूंजीवादी नीतियां और वैश्विकरण के परिणाम सवालों से घिरे हैं। ऐसे में अर्थशास्त्र को भी प्रसांगिक बने रहने के लिए ज्यादा तार्किक, कल्याणकारी और जमीनी वास्तविकता के करीब होने की जरूरत है। बैनर्जी, डुफ्लो और क्रेमर का काम इन आवश्यकताओं के अनुरूप है।

गरीबी पर अपने प्रयोगों को आगे बढ़ाने के लिए अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने साल 2003 में एक पावट्री एक्शन लैब की स्थापना की। जिसके साथ 2005 में सऊदी शेख अब्दुल लतीफ जमील का नाम और पैसा जुड़ गया। इस सऊदी कनेक्शन पर बहुत से लोग सवाल उठाते हैं। फिर बैनर्जी का नाता दुनिया के सबसे प्रभावशाली थिंक टैंक फोर्ड फाउंडेशन से भी है। बैनर्जी और उनके साथियों के काम को मिली स्वीकृति और सम्मान को इन संबंधों से भी जोड़कर देखा जा सकता है।

किताबें जरूरी या भोजन?

गरीब मुल्कों में शिक्षा का स्तर खराब है। यह बात सभी जानते हैं। इसे सुधारने के लिए ज्यादा किताबें बांटी जाएं या स्कूल में मुफ्त भोजन मुहैया कराया जाए? इस तरह के सवालों का जवाब खोजने के लिए बैनजी, डुफ्लो और क्रेमर लोगों के बीच जाकर प्रयोग करते हैं। कीनिया में हुए ऐसे ही प्रयोग में स्कूलों के एक समूह को ज्यादा किताबें दी गईं, जबकि दूसरे समूह के स्कूलों में मुफ्त भोजन। प्रयोग से पता चला कि ना ही अधिक किताबों से और ना ही मुफ्त भोजन से पढ़ाई के नतीजों में कोई खास सुधार आया है।

आगे चलकर कई प्रयोगों में सामने आया कि गरीब देशों में संसाधनों की कमी उतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी छात्रों की जरूरतों के हिसाब से पढ़ाई न होना।

इसी तरह के प्रयोग शिक्षकों पर भी किए गए। कुछ शिक्षकों को थोड़े समय के लिए प्रदर्शन आधारित अनुबंध पर रखा गया जबकि दूसरी तरफ स्थायी शिक्षकों पर छात्रों को बोझ कम कर दिया गया। अनुबंध पर रखे शिक्षकों ने बेहतर परिणाम दिए जबकि छात्रों की संख्या घटाने पर भी स्थायी शिक्षकों के प्रदर्शन में कोई खास सुधार नहीं आया। इन प्रयोगों के आधार पर कई राज्यों में शिक्षण सुधार कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

मुफ्त दाल से बढ़ा टीकाकरण

बैनर्जी और उनके साथियों ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी कई दिलचस्प प्रयोग किए हैं। राजस्थान में उदयपुर के जिन गांवों में मोबाइल वैक्सीनेशन वैन पहुंची, वहां टीकाकरण की दर तीन गुना बढ़ गई। टीकाकरण के साथ परिवारों को एक किलो दाल मुफ्त दी गई तो टीकाकरण की दर 18 फीसदी से बढ़कर 39 फीसदी तक पहुंच गई। जबकि दाल बांटने के बाद भी टीकाकरण की लागत आधी रह गई थी।

नकद हस्तांतरण को बढ़ावा

आरसीटी सरीखे प्रयोगों से टाइगेटेड एप्रोच यानी जरूरतमंदों को सीधी मदद के दृष्टिकोण को बढ़ावा मिला है। प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) की पीएम-किसान और कांग्रेस की न्याय योजना के पीछे यही सोच है।

खास बात यह है कि बैनर्जी, डुफ्लो और क्रेमर का प्रयोगात्मक दृष्टिकोण लोगों के बीच जाकर समस्याओं का हल खोजने, सीमित संसाधनों के मद्देनजर कारगर उपाय तलाशने और सरकारी व्यय के बेहतर इस्तेमाल पर जोर देता है। बड़ी समस्याओं में उलझने के बजाय जो आसानी से किया जा सकता है, पहले उसे करने की सोच को भी इससे बल मिला है। इस तरह के उपाय लोक-लुभावने होते हैं। इसलिए राजनीतिक दलों को भी पसंद आते हैं।

इंसाफों पर चूहों तक तरह शोध कितना जायज?

बड़ी समस्या को हल करने के बजाय छोटी-छोटी समस्याओं के समाधान खोजने का यह दृष्टिकोण काफी लोकप्रिय हो रहा है। क्योंकि मूल समस्या को हल करने के बजाय चीजों को टुकड़ों में देखना, छोटी-मोटी राहतें या रियायतें देना सरकारों के लिए ज्यादा आसान है। इसलिए नीति-निर्माताओं ने इसे हाथोंहाथ लिया।

लेकिन दिक्कत यह है कि यह दृष्टिकोण गरीबी निवारण के प्रयासों को छोटी-मोटी राहतों तक सीमित रखता है। गरीबी के लिए जिम्मेदार ऐतिहासिक-सामाजिक-राजनीतिक कारणों, शोषणकारी व्यवस्था और पूंजीवाद की नाकामियों को नजरअंदाज किया जाता है। फिर इन प्रयोगों के तौर-तरीकों पर भी कई सवाल हैं।

एक जगह हुए प्रयोगों को दूसरे जगह कैसे लागू किया जा सकता है? क्या इस प्रकार का सामान्यीकरण उचित है? इंसानों पर चूहों की तरह प्रयोग कहां तक जायज है? कुछ लोगों को इलाज या राहतों से वंचित रखना अनैतिक नहीं है? दो लोगों या समूहों को एक समान कैसे माना जा सकता है? प्रयोग के दौरान अन्य कारक भी प्रभावी होते हैं, उन्हें कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं? इस तरह के कई सवाल आरसीटी पर उठते रहे हैं।

ये सवाल अपनी जगह हैं लेकिन अभिजीत बैनर्जी, एस्थर डुफ्लो और माइकल क्रेमर को दुनिया का ध्यान गरीबी और विकास अर्थशास्त्र के नए दृष्टिकोण की तरफ खींचने का श्रेय तो मिलना ही चाहिए।

काश! भारत में इस तरह के प्रयोग नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसले लागू करने से पहले किए गए होते। क्या पता हार्डवर्क के साथ हार्वर्ड का मेल बेहतर परिणाम देता!