दिल्ली घेरने पर क्यों मजबूर हुआ किसान?

जब से किसान आंदोलन शुरू हुआ है देश में खेती-किसानी को लेकर खूब चर्चा हो रही है। शहरों में लोग कृषि के प्रति क्या नजरिया रखते हैं यह भी पता चल रहा है। कुछ लोग किसान आंदोलन को विपक्ष की चाल, खालिस्तानी, नक्सली और अंतरराष्ट्रीय साजिश करार दे चुके हैं। जो यह सब नहीं कहते वो भी इतना तो कह दी देते हैं कि किसानों को विपक्ष ने भड़का दिया है। शहरी समाज में यह गलतफहमी भी हाल के वर्षों में काफी ज्यादा फैलायी गई है कि किसानों को जरूरत से ज्यादा सब्सिडी और छूट मिलती हैं। बिजली, पानी, खाद, सब फ्री मिलता है।

कुछ लोग तो यहां तक कुतर्क करते हैं कि अगर किसानों को खेती में नुकसान हो रहा है तो कोई दूसरा काम क्यों नहीं कर लेते? अन्न उगाकर किसान कोई अहसान नहीं कर रहे हैं। हालांकि, बहुत से किसान खेती छोड़कर मजदूर बन चुके हैं। कुछ ने इस अपमान से बचने की लिए जिंदगी का ही साथ छोड़ दिया। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की सालाना रिपोर्टों के अनुसार 1995 से 2012 के बीच करीब 3 लाख किसानों ने आत्महत्या कर चुके हैं। ताजा आंकड़ों के मुताबिक, साल 2019 में देश में 10,281 किसानों ने खुदकुशी कर ली यानी प्रतिदिन औसतन 28 किसान आत्महत्या करते हैं।  

क्या आप जानते हैं कि किसान कितना कमाता है? किसान का घर कैसे चलता है? किसान के बेटे को खेती करने में शर्म क्यों आती है? किसान के बच्चे पलायन करने पर क्यों मजबूर हैं? किसान की बेटी क्यों नौकरीवाले से ही शादी करना पसंद करती है, खेती वाले से नहीं? और सबसे बड़ा सवाल, किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? इन्ही सब सवालों का जवाब मुझे मिला, जब मैंने खेती का रुख किया।

तीन साल पहले मैंने खेती में हाथ आजमाने का इरादा किया तो एक नयी उमंग के साथ मैं अपने उन सभी रिश्तेदारों से मिलने गई जो अभी भी गांव में रहकर खेती करते हैं। लेकिन यह उमंग जल्द ही निराशा में बदल गई, जब देखा कि कई बीघा जमीन के मालिक भी खेती से मायूस हैं। खेती के काम में कोई गरिमा नहीं रही और गुजारा करना भी मुश्किल है। किसान पुत्र अब खेती छोड़कर रोजगार की तलाश में शहरों में भटक रहे हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश दोआबा का सिंचित क्षेत्र है जो दुनिया का बेहतरीन कृषि भूभाग माना जाता था। यहां गन्ना, गेहूं, धान, दलहन, तिलहन की खूब खेती होती थी। किसानों को मौसम की मार और बाजार की अनिश्चितता से जूझना पड़ता था, लेकिन कभी नहीं सुना था कि पश्चिमी यूपी का किसान आत्महत्या कर रहा है। बल्कि इस इलाके ने तो किसान राजनीति को राष्ट्रीय फलक पर लाने पर चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत जैसे नेता दिये। इसके किसानों की आत्मनिर्भरता और खेती से जुड़े आत्मसम्मान की ताकत थी।

साठ के दशक में आई हरित क्रांति ने किसानों को उपज बढ़ाने और देश का खाद्य सुरक्षा का रास्ता दिखाया। लेकिन महंगे उर्वरक, कीटनाशक, संकर बीज और मशीनीकरण ने खेती की लागत इतनी बढ़ा दी कि उचित दाम न मिले तो खेती घाटे का सौदा हो जाए। देखते ही देखते किसानों को बेची जाने वाली चीजों का विशाल बाजार खड़ा हो गया, जिसके लिए किसानों को सस्ता कर्ज भी मिलने लगा। इसी की नई कड़ी है प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना। जिसमें प्राइवेट कंपनियों को एकमुश्त हजारों करोड़ रुपये का कारोबार मिल गया। मतलब, कृषि से जुड़े बिजनेस फायदे का सौदा बनते गये, लेकिन खेती घाटे का सौदा।

पिछले कुछ दशकों में जिस रफ्तार से खेती की लागत बढ़ी है, खेती का मुनाफा या फसलों के दाम उस गति से नहीं बढ़े। इस तथ्य को कृषि नीति के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा पूरे आंकड़ों के साथ समझा चुके हैं। स्थिति यह है कि पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ को छोड़कर बाकी राज्यों में सरकारी खरीद कम होती है। इसमें से भी अधिकांश खरीद सिर्फ दो फसलों गेहूं और धान की होती है। वर्ष 2020-21 के खरीफ सीजन में देश भर से हुई धान की कुल खरीद में करीब 45 फीसदी हिस्सेदारी पंजाब और हरियाणा की रही। सरकारी खरीद के इस सिस्टम को बचाने की चिंता ही इन राज्यों के किसानों को आंदोलन करने पर विवश कर रही है।

जिन राज्यों में सरकारी मंडी और खरीद का सिस्टम नहीं है, वहां के किसानों न्यूनतम समर्थन मूल्य से आधे दाम पर उपज बेचने को मजबूर हैं। पंजाब में कृषक परिवारों की सालाना आय 2.16 लाख रुपये है जबकि बिहार में किसानों की सालाना आय देश में सबसे कम 42,684 रुपये है। इस आमदनी के मुकाबले किसानों पर कर्ज का बोझ ज्यादा है। अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वेक्षण (AIDIS) के अनुसार 2014 में 46 प्रतिशत कृषक परिवार कर्ज में डूबे थे और उन पर औसत कर्ज  70,580 रुपये का है। चूंकि कई बार ये ऋण बैंकों से ना लेकर अनौपचारिक क्षेत्र से लिया जाता है तो ब्याज दर भी बहुत ज़्यादा होती है। कर्ज के दुष्चक्र में फंसा किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है या फिर उसे अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ता है।

देश में किसान आंदोलन पिछले तीन-चार साल से लगातार चल रहे हैं। लेकिन आप वही देख पाते हैं जो ज्यादातर मीडिया दिखाता है। अप्रैल 2017 में तमिलनाडु के किसानों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनोखा विरोध-प्रदर्शन किया था। ये किसान तमिलनाड़ु के भीषण अकाल की ओर सरकार का ध्यान खींचना चाहते थे। सरकार ने ना केवल उनकी उपेक्षा की, बल्कि कोई बातचीत करने भी नहीं आया। किसानों को निराश होकर लौटना पड़ा। मार्च 2018 में दोबारा तमिलनाड़ु के किसान दिल्ली में धरने पर बैठे। करीब डेढ़ महीने बाद उन्हें भी ख़ाली हाथ लौटना पड़ा। 

2018 में ही किसान कई बार दिल्ली के दरवाजे खटखटाने आए, लेकिन किसी को फर्क नहीं पड़ा। इसके बाद नासिक से मुंबई तक किसान मार्च निकाला गया तो चर्चा जरूर हुई लेकिन किसानों को झूठे आश्वासन देकर वापस भेज दिया गया। अक्टूबर 2018 में भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के नेतृत्व में किसान यात्रा दिल्ली पहुंची तो यूपी बॉर्डर पर ही रोक दिया। तब भी किसानों को मायूस होकर वापस लौटना पड़ा था। इससे पहले 2017 में मंदसौर में उचित मूल्य की मांग कर रहे किसानों पर पुलिस ने गोली चला दी थी।

मंदसौर की घटना के बाद ही किसानों ने ऑल इंडिया किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) का गठन किया गया था। इसकी शुरुआत मुट्ठी भर किसान संगठनों को एक मंच पर लाने से हुई। अब इसमें देश भर के सैकड़ों संगठन जुड़ चुके हैं। कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन को व्यापक बनाने के लिए AIKSCC और कई दूसरे संगठनों ने मिलकर संयुक्त किसान मोर्चे का गठन हुआ जो किसानों की एकजुटता का प्रतीक बना चुका है। करीब दो महीने से दिल्ली की घेराबंदी के बाद आज यह किसान आंदोलन अपने शांतिपूर्ण तरीके, अनुशासन, प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के हौसले और किसी दबाव के आगे न झुकने के कारण कृषि कानूनों का स्थगित करवा चुका है और इन्हें रद्द कराने की मांग पर अडिग है। आंदोलन का सामूूूूूहिक नेतृत्व और एकजुटता इस आंदोलन की बड़ी ताकत है, जिसका अहसास सरकार को भी कहीं ना कहीं हो रहा है।

कृषि विधेयकों की इन खामियों को दूर करना जरूरी

सरकार द्वारा हाल ही में तीन कृषि विधेयक लाये गये जिसका किसानों में भारी विरोध है क्योंकि इन अध्यादेश से किसानों को अपना वजूद खत्म होने का डर हैं। और डर का मुख्य कारण हैं विधेयकों में आई विसंगतियां! इन विसंगतियों को दूर करने के लिए भारतीय किसान संघ ने सरकार को सुझाव दिया है कि किसानों की फसल खरीद के भुगतान की गारंटी सरकार ले क्योंंकि किसान मंडी के बाहर फसल विक्रय हेतु देगा तो क्या गारंटी कि उसका भुगतान व्यापारी द्वारा समय पर किया जायेगा। इसलिए सरकार गारंटर की भूमिका में रहे।

मंडियों में जब किसान अपनी फसल लेकर आता है तब उसे 8-10 फीसदी तक मंडी शुल्क देना पड़ता है। इसका फायदा यह था कि व्यापारी को किसानों का भुगतान समय पर करना पड़ता था क्योकि मंडी प्रशासन द्वारा व्यापारी पर समय पर भुगतान करने का दबाव रहता था। किन्तु व्यापारी जब मंडी के बाहर फसल खरीदेगा तो गारंटी कौ लेगा? इसलिए भारतीय किसान संघ गारंटर के रूप में सरकार को रहने की मांग करता है।

नये विधेयक में व्यापारी अगर तीन दिन में किसानों का भुगतान नहीं करता है तो पांच लाख रुपये तक का अर्थ दंड या दस हजार रुपये प्रति दिन है। यह बहुत कम है इसलिए इस पर कोई सुरक्षा कवच होना चाहिए। इसके अलावा सरकार जिन 24 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करती हैं, उन पर खरीद की अनिवार्यता का कोई प्रावधान इन विधेयकों में नहीं है। जबकि कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे फसल की खरीद-बिक्री ना हो इसकी पुख्ता व्यवस्था सरकार द्वारा की जानी चाहिए जो इन विधेयकों के अंदर दिखाई नहीं देती है।

सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण करने की विधि ठीक नहीं है। सरकार के बार-बार संज्ञान मे लाने के बाद भी एमएसपी A2+FL से निर्धारित की जाती हैं जबकि किसानों को लाभकारी मूल्य तभी मिलेगा जब एमएसपी C2 के आधार पर तय की जाए। कांट्रैक्ट खेती या अनुबंध आधारित खेती मे कंपनी और किसान के बीच विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर न्याय क्षेत्र एसडीएम, कलेक्टर या अन्य अनुविभागी अधिकारी को ना रखते हुए कृषि न्यायालयों की स्थापना होनी चाहिए क्योंकि एसडीएम, कलेक्टर या अन्य अधिकारी पर काम का बोझ ज्यादा रहता है जिससे वह समय पर सुनवाई करने में असमर्थ हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसमें हल चला कर मेहनत करने वालों, ट्रैक्टर चलाने वालों का देश है। यहां पूंजीपतियों, कंपनियों और कॉर्पोरेट को कभी भी कृषक के तौर पर मान्यता नहीं दी जानी चाहिए।

हाल में मध्यप्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर कहा है कि निजी मंडियों को मान्यता दी जाएगी। इसका अर्थ है कृषि बाजार केवल एपीएमसी के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहेगा। यहां होना यह चाहिए कि जिन 24 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाता है उस पर खरीद की गारंटी हो और सरकार एक बिल लेकर आये जिसका नाम एमएसपी गारंटी कानून हो। किसानों की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीदना दण्डनीय अपराध हो।

इसके अलावा जो व्यापारी कृषि उपज का व्यापार करना चाहता है उसे राज्य अथवा केन्द्र सरकार के अंतर्गत लाइसेंसधारी होना चाहिए। उसकी कोई सुरक्षित राशि यानी एफडी कहीं ना कहीं जमा होना चाहिए, उसको घोषित करो और एक एप्प बनाकर उसे सार्वजनिक करे। जिससे कोई भी किसान अपनी उपज बेचने से पहले उसे देखकर अपना वहम दूर कर ले। और तीसरी बात, कंपनी या कॉर्पोरेट को किसान का दर्जा ना दिया जाए। साथ ही देश में कृषि न्यायालय की स्थापना की जानी चाहिए और न्याय का क्षेत्र कृषक का गृह जिला होना चाहिए।

अगर अगले संसद सत्र में भारतीय किसान संघ की मांग के अनुसार किसानों के अनुकूल इसमे बदलाव नहीं किये गये तो भारतीय किसान संघ जन आंदोलन के माध्यम से सड़को पर उतरेगा

(लेखक भारतीय किसान संघ, सतवास, जिला देवास मध्यप्रदेश से जुड़े हैं)

बजट घटाकर कैसे दोगुनी होगी किसानों की आय?

एक फरवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2020-21 का बजट संसद में पेश किया। इस बार भी दोहराया गया कि सरकार 2022 तक किसानों की आय को दोगुनी करने के लक्ष्य को लेकर चल रही है। इस दृष्टि से गांव, कृषि और किसानों के लिए वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में 16 सूत्रीय योजनाओं की घोषणा भी की। इन योजनाओं के लिए किये गए धनराशि आवंटन का आंकलन अति आवश्यक है।

वर्ष 2019-20 का देश का कुल बजट लगभग 27.86 लाख करोड़ रुपये था, परन्तु संशोधित अनुमान के अनुसार इसे कम करके 26.98 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया। वित्त वर्ष 2020-21 का कुल बजट लगभग 30.42 लाख करोड़ रुपये है जो इससे पिछले वर्ष के मुकाबले लगभग नौ प्रतिशत ज्यादा है। इस बजट में ग्रामीण भारत को क्या मिला और इससे किसानों की आय दोगुनी करने में कितनी मदद मिलेगी इसका विश्लेषण करते हैं।

2019-20 में कृषि मंत्रालय का बजट 138,564 करोड़ रुपये था, परन्तु इसे संशोधित बजट में कम करके 109,750 करोड़ रुपये कर दिया गया। इसका मुख्य कारण यह रहा कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम-किसान) के तहत 75,000 करोड़ रुपये के बजट में से केवल 54,370 करोड़ रुपये ही खर्च किये गए। इसका कारण पात्र किसानों का धीमी गति से सत्यापन होना बताया गया है।

अब तक इस योजना में कुल लक्षित लगभग 14.5 करोड़ किसानों में से केवल 9.5 करोड़ किसानों का ही पंजीकरण हुआ है। जिनमें से अभी तक केवल 7.5 करोड़ किसानों का ही सत्यापन हो पाया है। बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने राजनीतिक कारणों से अभी तक अपने एक भी किसान का पंजीकरण इस योजना में नहीं करवाया है, जो वहां के किसानों के साथ एक अन्याय है। परन्तु खेती की बढ़ती लागत को देखते हुए इस वर्ष के बजट में इस योजना के अंतर्गत दी जाने वाली राशि को 6,000 रुपये से बढ़ाकर कम से कम 24,000 रुपये प्रति किसान प्रति वर्ष किया जाना चाहिए था। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में तुरन्त क्रय-शक्ति बढ़ती, खर्च बढ़ने से मांग बढ़ती और अर्थव्यवस्था की गाड़ी तेजी से आगे बढ़ जाती। परन्तु अफसोस है कि सरकार ने इस महत्वपूर्ण योजना का बजट इस वर्ष की तरह अगले वित्त वर्ष में भी 75,000 करोड़ रुपये ही रखा है।

2020-21 के लिए कृषि मंत्रालय का बजट मामूली सा बढ़ाकर 142,762 करोड़ रुपये कर दिया गया है। इस वर्ष कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कृषि अनुसंधान एव शिक्षा विभाग का बजट 8,362 करोड़ रुपये है। कृषि अनुसंधान और विस्तार पर हम बहुत कम खर्च कर रहे हैं। भविष्य में पर्यावरण बदलाव और बढ़ते तापमान से होने वाले फसलों के नुकसान से बचने, बढ़ती आबादी के लिए भोजन उपलब्ध कराने, कृषि उत्पादकता बढ़ाने, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और किसानों की आय बढ़ाने के लिए कृषि अनुसंधान के बजट में भारी वृद्धि करने की आवश्यकता है। 2020-21 में कृषि ऋण का लक्ष्य 15 लाख करोड़ रुपये रखा गया है जो स्वागत योग्य कदम है।

ग्रामीण विकास मंत्रालय का बजट 122,398 करोड़ रुपये है। इसमें ग्रामीण रोजगार उपलब्ध कराने की मनरेगा योजना के लिए 61,500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जबकि इस योजना में इस वर्ष 71,000 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। इस योजना में होने वाले अपव्यय को रोकने के लिए इसको खेती किसानी से जोड़ने की आवश्यकता है ताकि किसानों की कृषि-श्रम लागत कम हो और इस योजना में गैर उत्पादक कार्यों में होने वाली धन की बर्बादी को रोका जा सके। इस मंत्रालय के अंतर्गत पीएम ग्राम सड़क योजना का बजट 19,500 करोड़ रुपये, तो प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) का बजट भी 19,500 करोड़ रुपये ही प्रस्तावित है। ग्रामीण भारत के लिए ये दोनों योजनाएं अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, अतः इनके बजट को बढ़ाने की आवश्यकता है।

रसायन और उर्वरक मंत्रालय द्वारा कृषि में इस्तेमाल होने वाले रासायनिक उर्वरकों के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को पिछले वर्ष के 80,035 करोड़ से घटाकर 71,345 करोड़ रुपये कर दिया गया है। इसके पीछे ज़ीरो बजट खेती, जैविक खेती और परंपरागत कृषि को प्रोत्साहन देने की सोच है। यूरिया खाद पर अत्यधिक सब्सिडी के कारण इस खाद का ज़रूरत से ज्यादा प्रयोग हो रहा है जिससे ज़मीन और पर्यावरण दोनों का क्षरण हो रहा है। सरकार का मानना है कि आने वाले समय में खाद सब्सिडी को भी सीधे पीएम-किसान योजना की तरह किसानों के खातों में नकद प्रति एकड़ के हिसाब से भेजा जाए तो खाद सब्सिडी में भारी बचत भी होगी और खाद का अत्यधिक मात्रा में दुरुपयोग भी नहीं होगा।

मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय का बजट 3,737 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 4,114 करोड़ रुपये कर दिया गया है। पशुपालन और दुग्ध उत्पादन कृषि का अभिन्न अंग है और कृषि जीडीपी में इसकी लगभग 30 प्रतिशत हिस्सेदारी है। मत्स्य उत्पादन और दुग्ध प्रसंस्करण के लिए घोषित महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को देखते हुए यह बहुत कम आवंटन है।

ग्रामीण क्षेत्र में अमूल, इफको जैसी किसानों की अपनी सहकारी संस्थाएं काम कर रही हैं। पिछले साल सरकार ने घरेलू कंपनियों के आयकर की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया था, परन्तु इन सहकारी संस्थाओं पर आयकर पहले की तरह 30 प्रतिशत की दर से ही लग रहा था। इस विसंगति को इस बजट में दूर कर दिया गया है जो स्वागत योग्य है। परन्तु 2005-06 तक इन सहकारी संस्थाओं पर कंपनियों के मुकाबले पांच प्रतिशत कम दर से आयकर लगता था। आशा है अगले बजट में इसे 2005-06 से पहले वाली व्यवस्था के अनुरूप यानी 17 प्रतिशत कर दिया जायेगा।

किसानों और ग्रामीण भारत से सरोकार रखने वाले कृषि मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, रसायन और उर्वरक मंत्रालय के उर्वरक विभाग तथा मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय का 2019-20 वित्त वर्ष का संयुक्त कुल बजट लगभग 342,000 करोड़ रुपये था जो सम्पूर्ण बजट का लगभग 12 प्रतिशत था। इस वर्ष उपरोक्त मंत्रालयों का कुल बजट 340,600 करोड़ रुपये है जो सम्पूर्ण बजट का मात्र 11 प्रतिशत है। 2020-21 के सम्पूर्ण बजट में की गई बढ़ोतरी की तरह ग्रामीण भारत के बजट में भी यदि नौ प्रतिशत की बढ़ोतरी की जाती तो यह 371,000 करोड़ रुपये होता।

कुल मिलाकर बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बावजूद ग्रामीण भारत के बजट में वास्तव में कटौती कर दी गई है। ग्रामीण भारत में बसने वाली 70 प्रतिशत आबादी के लिए केवल 11 प्रतिशत बजट कितना उपयुक्त है, और क्या सरकार इतनी कम धनराशि आवंटन से 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर पाएगी, यह चिंतन का विषय है।

(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)