कृषि कानूनों पर संसदीय परामर्श से ही निकलेगा सहमति का रास्ता

पिछले दिनों हुई एक सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कथित तौर पर तीन कृषि कानूनों को 18 महीने के लिए स्थगित रखने का प्रस्ताव दिया है। इस सुझाव पर अमल तभी करना चाहिए जब इस अवधि के दौरान कृषि कानूनों पर विचार-विमर्श करने का जिम्मा किसी संसदीय समिति को सौंपा जाए। सरकार ने इन कानूनों को लाने से पहले जो विधायी परामर्श नहीं किया था, उसके लिए पश्चाताप तो करना ही पड़ेगा। कृषि कानूनों पर पूर्णतः नए सिरे से विचार करने की जरुरत है, और ये काम केवल संसद ही कर सकती है। 

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि कृषि क्षेत्र में सुधारों की जरूरत है। लेकिन किस तरह के सुधार से किसानों को फायदा होगा? यह बड़ा सवाल है। ये कानून महामारी के दौरान जल्दबाजी में पर्याप्त चर्चा और व्यापक स्वीकृति के बगैर लागू किये गये थे। जिसके परिणामस्वरूप किसानों को 75 दिनों से हाड़ कंपा देने वाली ठंड में दिल्ली की सीमाओं पर कंटीले तारों, कीलों, किले जैसी नाकेबंदी का सामना करना पड़ रहा है। किसानों की बिजली, पानी, इंटरनेट और शौचालय की सुविधाएं भी सरकार ने बंद कर दी। इस दौरान लगभग 150 को जान गंवानी पड़ी। किसी भी आंदोलन के लिए यह बहुत बड़ा बलिदान है। अब केंद्र सरकार ने इन कानूनों को 18 महीने के लिए स्थगित करने का प्रस्ताव दिया (जो किसानों को मंजूर नहीं) है, तो इन कृषि सुधारों पर नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है। हमें भारत के कृषि क्षेत्र को नई क्षमता प्रदान करने की आवश्यकता है। इसके लिए तीन पहलू महत्वपूर्ण हैं।

पहला, कृषि राज्य का विषय है इसलिए राज्यों को कानून बनाने का पहला अधिकार होना चाहिए। अलग-अलग राज्यों को अलग-अलग से तरह प्रभावित करने वाले कानूनों को पूरे देश पर लागू करना केंद्र सरकार की हड़बड़ी और गलत अनुमान का नतीजा है। केंद्र सरकार को मॉडल एग्रीकल्चर लैंड लीजिंग एक्ट, 2016 के कार्यान्वयन से सबक लेना चाहिए था, जिसे सत्तारूढ़ पार्टी शासित राज्यों ने भी लागू नहीं किया। कृषि मंत्रियों, वित्त मंत्रियों और सभी राज्यों के विशेषज्ञ प्रतिनिधियों से युक्त जीएसटी परिषद की तर्ज पर एक ‘कृषि सुधार परिषद’ का गठन करने की आवश्यकता है। यह राज्यों और केंद्र के बीच कई मुद्दों को भी हल करेगी। ‘कृषि सुधार परिषद’ के प्रस्ताव को कृषि कानूनों में शामिल किया जा सकता है और राज्यों को अपने हिसाब से बदलाव लाने के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। यही संघीय ढांचे और “टीम इंडिया” के अनुरुप होगा।   

दूसरा पहलू है – संसदीय प्रणाली की उपयोगिता। संसद में एक विधायिका के रूप में कानूनों में संशोधन करने की सर्वोच्च शक्ति है। कानूनों के पारित होने के बाद भी ऐसा करना संभव है। एक स्थायी समिति या संसद की एक प्रवर समिति तीनों कृषि कानूनों की जांच कर सकती है और किसान संगठनों को भी सदन में अपना पक्ष रखने का मौका मिल सकता है। संसदीय स्थायी समिति महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा के लिए एक महत्वपूर्ण मंच है। ये विचार-विमर्श संसद के फर्श पर नारेबाजी और शोरगुल में नहीं हो सकता है, जहां नेता राजनीतिक बढ़त बनाने के लिए बहस में हिस्सा लेते हैं । केवल संसदीय समिति द्वारा कानूनों की सावधानीपूर्वक जांच-पड़ताल कर उपयुक्त संशोधनों के सुझाव दिए जा सकते हैं और सभी पक्षों की चिंताओं को दूर किया जा सकता है। 

कृषि कानूनों को संसद को पंगु बनाकर, हंगामे के बीच राज्यसभा में ध्वनि मत से पारित किया गया। आलोचकों का तर्क हो सकता है कि ध्वनि मत से किसी कानून को पारित करना संसदीय  प्रणाली का उल्लंघन नहीं है। यह बात अपनी जगह सही है। संविधान में भी ध्वनि मत पर कोई पाबंदी नहीं है। हालांकि, 17 वीं लोकसभा में बहुत अधिक विधेयकों को ध्वनि मत से पारित किया गया है। वोट का विभाजन संसद के रिकॉर्ड का हिस्सा बनाता है। क्या हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी ईवीएम की बजाय किसी सार्वजनिक रैली में ‘ध्वनि मत’ के माध्यम से चुना जा सकता है? 

तीसरा, प्राइवेट सेक्टर को कृषि बाजार में प्रवेश करने के लिए ‘खेत से प्लेट तक’ पूरी सप्लाई चेन इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत व्यवस्था की जरूरत है। भारतीय खाद्य निगम की सीमित भंडारण क्षमता और खाद्यान्न की बर्बादी को देखते हुए, सरकार को पहले हजारों छोटी मंडियों के लिए बुनियादी सुविधाओं को दुरुस्त करने की आवश्यकता थी। अकेले सरकार द्वारा मंडियों का निर्माण नहीं किया जा सकता है। इसमें निजी भागीदारी और निवेश की जरूरत है। इसे एक संस्थागत रूप दिए जाने की जरूरत है, जिसमें किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी मिले। भले ही कई नीति विशेषज्ञ एमएसपी को हटाने का समर्थन करते हैं, लेकिन खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह चुके हैं कि एमएसपी है और आगे भी रहेगा।

एमएसपी के क्रियान्वयन में जो कमियां हैं, उन्हें दूर किया जा सकता है। वर्ष 2012 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ‘दि फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट्स (रेगुलेशन) अमेंडमेंट बिल, 2010’ को मंजूरी देते हुए इस तरह के एक समाधान को अपनाने का प्रयास किया था। इसमें खरीदारों और विक्रेताओं को जोखिम संभालने की सहूलियत दी गई थी और इसे रेगुलेट करने का प्रावधान भी था। कमोडिटी बाजार में ऑप्शंस के लिए रास्ता खोलने का प्रयास किया गया था, लेकिन तब एमएसपी खत्म की कोई भी कोशिश नहीं थी। जैसी इस बार दिख रही है।

ड्राफ्ट एपीएमसी रेगुलेशन, 2007 के जरिये भी कृषि व्यापार में सुधारों को लेकर कई सुझाव दिए गए थे। इसमें राज्यों को किसी भी बाजार को ‘स्पेशल कमोडिटी मार्केट’ घोषित करने का अधिकार दिया गया था। नए कृषि कानून राज्य सरकारों और मंडी समितियों (APMC) को प्राइवेट मंडियों से शुल्क वसूलने से रोकते हैं। इसलिए इन कानूनों में सुधार करना बेहद जरूरी है।

सभी पक्षों के साथ व्यापक विचार-विमर्श के माध्यम से संसदीय स्थायी समिति कृषि कानूनों पर एक सही नजरिया पेश कर सकती है। इससे सरकार और किसानों के बीच गतिरोध को दूर करने में मदद मिलेगी। 

(लेखक बैंगलोर के तक्षशिला संस्थान में लोक नीति का अध्ययन कर रहे हैं। विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)

सरकारी खरीद और मंडी सिस्टम से आगे सोचना क्यों जरूरी?

आज सभी मानते हैं कि कृषि के क्षेत्र में सुधार के लिए खेत से बाजार और बाजार से उपभोक्ता तक एक नई प्रणाली और तंत्र बनना बहुत जरूरी है। सारे देश में, मुख्य तौर पर कृषि आधारित पिछड़े राज्य जैसे बिहार में नई व्यवस्था की जरूरत है। इसके लिए पंजाब, हरियाणा जैसे जिन राज्यों में मंडी सिस्टम मजबूत है उसे बरकरार रखते हुए भी आगे बढ़ा जा सकता है। देखा जाए तो पंजाब और हरियाणा में अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और मंडी प्रणाली को बचाये रखने के लिए भी खेती से जुड़े ये नए कानून जरूरी हैं।

इस बात को समझने के लिए हमें देखना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, मंडी प्रणाली और सरकारी खरीद किस तंत्र पर टिकी है। आज से करीब पांच दशक पहले सरकारी मंडी और एमएसपी सिस्टम की शुरुआत देश को भुखमरी से बचाने के लिए हुई थी। इस सिस्टम के तहत सरकार ने शुरुआत में पंजाब और हरियाणा, और बाद में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के किसानों को खूब गेहूं और धान उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य का भरोसा अज्ञैर खरीद की गारंटी मुख्य प्रोत्साहन हैं। फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया अनाज उत्पादक राज्यों से एमएसपी पर अनाज खरीदकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये अन्य राज्यों तक पहुंचाती है। मतलब, हरियाणा-पंजाब का किसान बिहार, झारखंड और अन्य राज्यों के लिए अनाज उगाता है। पीडीएस के राशन की सस्ती दरों का असर इन राज्यों के अनाज बाजार और मार्केट दरों पर भी पड़ता है, जिसका नुकसान वहां के किसान उठाते हैं।

अक्सर हमें यह सुनने को मिलता है कि बिहार में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद क्यों नहीं होती है? बिहार में हरियाणा-पंजाब की तरह मंडी सिस्टम क्यों नहीं है? मान लीजिए कि बिहार भी न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली मंडी प्रणाली लागू कर देता है। इससे क्या होगा? फूड कॉरपोरेशन को पंजाब और हरियाणा से कम अनाज खरीदना पड़ेगा। क्योंकि तब बिहार को दूसरे राज्यों से अनाज मंगाने की उतनी जरूरत नहीं रहेगी। इसीलिए भी फूड कॉरपोरेशन बिहार में अनाज की खरीद नहीं करता, ताकि हरियाणा-पंजाब में अनाज की सरकारी खरीद जारी रख सके।

फूड कॉरपोरेशन की समस्या यह है कि उसके पास हर साल जरूरत से ज्यादा अनाज जमा होता है, क्योंकि साल दर साल अनाज का उत्पाद और सरकारी खरीद बढ़ती गई। हम अनाज की कमी से अनाज के सरप्लस की स्थिति में आ पहुंचे हैं। अब सरकार चाहे भी तो पूरे देश के किसानों से सारा अनाज एमएसपी पर नहीं खरीद सकती है। एक तो सरकार के पास इतना पैसा नहीं है और दूसरा पीडीएस की खपत की एक सीमा है। फिर सरकारी खरीद के लिए हरियाणा-पंजाब, यूपी, मध्यप्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में भंडारण आदि की व्यवस्थाएं भी नहीं है। इसलिए एमएसपी पर सरकारी खरीद कुछ ही फसलों और कुछ ही राज्यों तक सीमित है।  

इसमें कोई दोराय नहीं है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों ने देश को भुखमरी से बचाया है। इन राज्यों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद की व्यवस्था बनी रही, इसके लिए बिहार जैसे राज्यों में गेहूं और धान की खरीद की बजाय अन्य फसलों को बढ़ावा देने की जरूरत है। इसके लिए बेहतर बाजार और खरीद तंत्र बनाने की जरूरत है। यह नई व्यवस्था प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी के बिना संभव नहीं है। और इस व्यवस्था को सिर्फ सरकारी खरीद और एमएसपी के बूते नहीं चलाया जा सकता है। क्योंकि अनाज तो पीडीएस में बंट सकता है, इसलिए सरकारी खरीद संभव है। लेकिन बाकी उपज और फल-सब्जियों को एमएसपी पर खरीदने की न तो सरकार की क्षमता है और न ही इतने संसाधन हैं। इसलिए कृषि व्यापार की ऐसी व्यवस्थाएं बनानी होंगी, जिसमें सरकारी खरीद के बगैर भी किसानों के हितों और लाभ को सुनिश्चित किया जा सके। इसमें किसान को बाजार के उतार-चढ़ाव और जोखिम से बचाना और कृषि क्षेत्र में नई तकनीक, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश लाना भी शामिल है।

आज जगह-जगह सुपर मार्केट के जरिये खाने की चीज़ें, फल, सब्जियों इत्यादि बिकने की संभावनाएं बढ़ रही हैं। इस क्षेत्र की  कंपनियों को किसान से भागीदारी करने की जरूरत है। यहां सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। सरकार का काम है कि इस भागीदारी में किसान के अधिकार और हितों को मजबूत करे। जिस तरह सरकारी खरीद में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया अनाज के दाम और खरीद की गारंटी देता है, उसी तरह किसान के साथ कॉन्ट्रैक्ट में खरीद और दाम को सुनिश्चित करना होगा। नए कृषि  कानून उस दिशा में एक कदम हैं। लेकिन अभी उसमें किसानों के लिए और भी सुरक्षा प्रावधानों को जरूरत है।

केंद्र सरकार ने किसान और खेती के लिए जो नए कानून बनाये हैं, उनमें किसानों के अधिकारों को और भी मजबूत किया जाना चाहिए। लेकिन सरकार पर किसानों का विश्वास न होना मोदी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। इसके लिए खुद मोदी सरकार जिम्मेदार है। इसके लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

(अनूप कुमार अमेरिका की क्लीवलैंड स्टेट यूनिवर्सिटी में जनसंचार के प्रोफेसर हैं)

समझाने की बजाय किसानों पर नीतियां थोपने के दुष्परिणाम

अभी कुछ महीनों पहले मैं प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से जुडी विसंगतियों को लेकर सभी किसानों के हकों के लिए लड़ रही थी। इसके लिए मुझे मीडिया, संसदीय समिति, राज्य कृषि विभाग, केंद्रीय कृषि विभाग, बीमा कंपनी, भारतीय स्टेट बैंक, राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति, रिजर्व बैंक से होते हुए बैंकिंग लोकपाल तक जाना पड़ा, तब कहीं जाकर भारत सरकार थोडा सक्रिय हुई और बंद हो चुकी क्लेम प्रक्रिया को राजस्थान के लिये पुनः चालू करवाया। अगर यह निर्णय नहीं होता तो मैं इस प्रक्रिया को उपभोक्ता अदालत में चैलेंज करती या क़ानूनी प्रक्रिया अपनाती। मैं ऐसा इसलिए कर सकती थी क्योंकि मुझे इन सबके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी पहले से है या फिर मैं वह जानकारी हासिल करने की स्थिति में हूँ। लेकिन किसी आम आदमी या साधारण किसान के पास न तो इतनी जानकारियां हैं और न ही इतनी जागरूरकता है कि वह सरकारी नियम-कानूनों की पेचीदगियों से जूझ सके।

जब मैंने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के बारे में कृषि विभाग के जिला स्तरीय अधिकारियों से योजना के बारे में जानकारी लेनी चाही, तब उन्हें यह भी नहीं पता नहीं था कि मैं उनसे क्या पूछ रही हूँ। जो योजना उन्हें अपने जिले में लागू करवानी थी, उसके  दस्तावेज हिंदी में भी उपलब्ध थे। मैं उन्हें हर एक क्लॉज के तहत उनकी जिम्मेदारियां और भूमिकाएँ बताती जा रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे यह सब वे पहली बार ही सुन रहे हो। मैं अपने साथ एक कॉपी ले गई थी जो उन्होंने फोटोकॉपी करवा कर अपनी फाइल में लगाई।

मैंने ऐसे प्रशासनिक अधिकारी भी देखे हैं जो कागजों को पढ़े बिना ही सिर्फ चिड़ियाँ बिठा दिया करते हैं। बहुत कम ही ऐसे होते हैं जो सब कुछ पढ़ लिख कर अपना निर्णय फाइल पर लिखते हैं। यह सन्दर्भ इसलिये रखने जरुरी है कि जब प्रक्रियाएं व तंत्र की कार्यप्रणाली ऐसी होती है तो किसानों से सरकारें ऐसी उम्मीद कैसे कर लेती है कि उन तक सारे कानून और योजनाएं पहुँच जायेगी और वे उन्हें ठीक से पढ़-समझ लेंगे।

अब कृषि कानूनों को ही देखें तो क्या देश के सभी किसानों तक ये कानून पहुंचे हैं? जब मैंने इन कानूनों को पढ़ना चाहा तो सोचा कि कृषि विभाग की वेबसाइट पर तो ये होंगे ही। वेबसाइट पर जा कर देखा तो तीन में से दो ही कानूनों की जानकारी वहां दिखाई दी और वह भी अंग्रेजी में। देश के किसानों से यह उम्मीद करना कि वे वेबसाइट का पता लगाकर कानून खोज भी लेंगे और अंग्रेजी में पढ़-समझ भी लेंगे, यह मेरी नजर में किसानों के साथ-साथ सरकार को भी अंधेरे में रखने के बराबर है। कृषि संबंधी तीसरा कानून तो किसी और ही विभाग का मामला है अतः वो उस विभाग की वेबसाइट पर जा कर खोजना पड़ेगा। कुल मिलाकर बात यह है कि लोगों तक कानूनों की कॉपी पहुंचेगी तभी तो वे उनका विश्लेषण कर अपना निर्णय ले पाएंगे।

अब रही बात कानूनों की भाषा की! अगर किसी ने प्रयास करके इन कृषि कानूनों को खोज भी लिया तो इनकी भाषा इतनी क्लिष्ट है कि समझना मुश्किल है। कोरोना संकट के काल में जब संसद चल भी नहीं पा रही थी, तब भारत सरकार इन कानूनों को अध्यादेश के रूप में लाती है और कुछ महीनों बाद संसद में ध्वनिमत से इन्हें पास कराया जाता है। इस दौरान संसदीय समिति के स्तर पर विचार-विमर्श और आम सहमति बनाने की कोशिश भी नहीं की गई। यहां तक कि संसद में बहस के दौरान विपक्षी दलों को इन बिलों पर बोलने का बहुत कम मौका मिला।  

अध्यादेश सरकार के लिए एक विशेषाधिकार है। इसकी जरूरत तब पड़ती है, जब सरकार किसी बेहद खास विषय पर कानून बनाने के लिए बिल लाना चाहे, लेकिन संसद के दोनों सदन या कोई एक सदन का सत्र न चल रहा हो। संविधान का अनुच्छेद-123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है। संविधान कहता है कि अगर कोई ऐसा मुद्दा है, जिस पर तत्काल प्रभाव से कानून लाने की जरूरत हो, तो संसद के सत्र का इंतजार करने की बजाय सरकार अध्यादेश के जरिए उस कानून को लागू कर सकती है। लेकिन इस अनुच्छेद में यह भी स्पष्ट है कि अध्यादेश को बेहद जरूरी या आपात स्थितियों में ही लाया जाना चाहिए। जब देश और पूरी दुनियां एक भयावह महामारी से जूझ रही है तो कृषि व्यापार में बदलाव के लिए अध्यादेश लाने की क्या हड़बड़ी थी? सरकार के इस कदम से यह संदेश गया कि कृषि सुधारों पर आम सहमति बनाने की बजाय सरकार किसानों पर ये कानून थोपना चाहती है। किसानों को आंदोलन के रास्ते पर ले जाने के पीछे यह एक बड़ी वजह है।  

सूचना का अधिकार के तहत सरकारी कार्यालयों को आम जन से जुड़े महत्वपूर्ण मामलों में सूचना का पूर्व-प्रकटीकरण (Predisclosure) करना होता है। कृषि कानूनों के मामले में बिलों के मझौदों पर आम जनता के सुझाव/आपत्तियां भी नहीं ली गईं।

हैरानी की बात है कि नए कृषि कानूनों के तहत किसान अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ सिविल कोर्ट भी नहीं जा सकते। उन्हें सिर्फ प्रशासनिक अधिकारियों (SDM) से ही न्याय की गुहार लगानी पड़ेगी। जो सरकार पूंजीपतियों के दबाव में कृषि कानून लागू करके पीछे हटने को तैयार नहीं है तो किसी विवाद की स्थिति में SDM बड़ी कंपनियों के खिलाफ फैसले दे पाएंगे, इस पर संदेह होता है। और फिर ब्यूरोक्रेसी तक पहुंच और उसे प्रभावित करने की क्षमता किसकी ज्यादा है? किसान की या बड़ी कंपनियों की? आर्बिट्रेशन के नाम पर किसानों को अधिकारियों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे, इसकी क्या गारंटी है?

नए कृषि कानूनों के तहत व्यापार या कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए कंपनियों के साथ होने वाले एग्रीमेंट इतने जटिल हैं कि कोई वकील या सीए ही समझ सकता है। बड़ी कंपनियां अपने साथ क़ानूनी सलाहकार ले कर चलती हैं जो किसानों के लिए संभव नहीं हैं। फसल बीमा के कानूनी दांव-पेंच में प्राइवेट कंपनियों किसानों को कैसे चक्कर कटवाती हैं, यह सबके सामने हैं।



तुम किसान नहीं हो सकते!

तुम! तुम किसान नहीं हो सकते तुम मुंशी प्रेम चंद के होरी हो सकते हो, तुम हल्कू और जबरा हो सकते हो। मगर तुम किसान नहीं हो। किसान अपनी ‘दो बीघा जमीन’ पर खुश है। तुम ‘दो बीघा जमीन’ के शम्भु हो सकते हो। वो शम्भु जो 65 रूपये के कर्ज की चक्की में पिसता रहता है। लेकिन तुम किसान नहीं हो सकते।  

अच्छा किसान कभी शिकवा शिकायत नहीं करता। वो कभी नहीं कहता कि खेती घाटे का सौदा हो गई है। नगर महानगर, दिल्ली और राज्यों की राजधानी के गिर्द फलते फूलते फार्म हाउस गवाही देते है कि खेती फायदे का धंदा है। ये यूँ ही नहीं है कि नामी गिरामी हस्तियां काश्तकार के रूप में खुद को मुतारीफ कराने को बेताब हैं। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने यूपी के बाराबंकी में कभी जमीन का एक टुकड़ा खरीदा/ताकि वे खेती कर सके। संजय लीला भंसाली ने राजस्थान के जालोर के दसपा में जमीन खरीदी। यह काश्तकारी के प्रति असीम अनुराग था कि फिल्म स्टार जितेंद्र ने बूंदी जिले में जमीन खरीदी। लिएंडर पेस टेनिस के स्टार हैं। लेकिन यह काफी नहीं था। रिपोर्टेंं है कि पेस ने राजस्थान के सिरोही के राडबर में जमीन खरीदी।  

दिल्ली के गिर्दो नवा कोई 2700 फार्म हाउसेज हैं। इनमें कोई ज्वैलर है, कोई नेता है, कोई सम्पादक है, कोई बिचौलिया है, कोई एक्टर है, कोई कांट्रेक्टर है। ये सब खून पसीने की कमाई से बने हैं। उन्हें कोई शिकायत नहीं है। वे वतन परस्त है। वे दिन में किसी को परेशान नहीं करते। खेती भी रात को करते हैं। वहां साँझ ढले खेती शुरू होती है, भोर तक चलती है। वे असली किसान हैं। लेकिन तुम किसान नहीं हो। बेशक! तुम लाल बहादुर शास्त्री के जय जवान, जय किसान नारे का हिस्सा हो सकते हो। मगर दोस्त तुम किसान नहीं हो। 

आंकड़े बोलते हैं कि भारत में हर दिन खेती किसानी पर निर्भर 28 लोग ख़ुदकुशी कर मौत को गले लगा लेते है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। मुंबई के एक सांसद गोपाल शेट्टी ने चार साल पहले कथित रूप से कहा “ऐसी मौतेंं एक फैशन हो गई हैं। हर मौत कोई भूख या बेकारी से नहीं होती।”

स्टालिन भी कहता था The death of one man is a tragedy, the death of millions is a statistic एक व्यक्ति की मौत त्रासदी है, लाखोंं की मौत एक आंकड़ा हो जाती है। तुम उस संख्या का हिस्सा हो सकते हो, लेकिन किसान नहीं हो सकते। 

पंजाब के बरनाला में 22 साल के लवप्रीत की जिंदगी ने 23वा बसंत नहीं देखा। उसके पिता कुलवंत सिंह किसान थे, कर्ज से परेशान हो कर जान दे दी। कुलवंत के पिता भगवान सिंह ने भी ऐसे ही मौत को गले लगा लिया था। कर्ज में लिपटी यह तीसरी पीढ़ी थी/आप ये नहीं कह सकते कि किसान को खेती करनी नहीं आती। पंजाब में प्रति एकड़ उपज किसी भी विकसित मुल्क़ के बराबर है।

आंध्र में धरती के उस टुकड़े से मलप्पा का पीढ़ियों का रिश्ता था। लेकिन एक दिन उसने हार मान ली। खेती की नाकमयाबी ने उसे तोड़ दिया।उसने किसी दुकान से  वो सब खरीदा जो दाह संस्कार में काम आता है। मलप्पा ने कफ़न, पत्नी के लिए चुडिया, एक खुद की लेमिनेटेड फोटो और अगरबत्ती खरीदी। फिर खेत पर लौटा और जान दे दी। महाराष्ट्र में जालना में शेजुल राव खेती करते थे। एक दिन सभी नाते रिश्तेदारों को खुद की शोक सभा के लिए न्योता भेजा। किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन अगले दिन शेजुल राव ने आत्म हत्या कर ली। 

उस दिन यतवमाल के शंकर चावरे का नाम भी ख़ुदकुशी करने वाले किसानो की फेहरिस्त में दर्ज हो गया / वो भी खाली हाथ गया। लेकिन चावरे देश के हाकिम के नाम चिठ्ठी छोड़ गया। कहा आपकी नीतियांं मेरी मौत के लिए जिम्मेदार है। उस दिन मुख्यमंत्री का उस इलाके में  कार्यक्रम था। मगर रद्द हो गया। क्योंकि चावरे के परिजन उनसे सवाल पूछने की तयारी कर रहे थे। चावरे की बेटी भाग्य श्री ने कहा, “हमारे नेता कायर निकले।” उनमें एक बेटी की शोकाकुल आँखों का सामना करने की हिम्मत नहीं थी। संसद के 38 % सदस्य किसान है। लेकिन इन मौतों पर कोई नहीं बोला। यूँ वे मुखर रहते हैं मगर इस मुद्दे पर जबान गूंगी हो गई। ऐसी मौतों पर भारत भी नहीं पूछता।  

गेहूं गन्ना ग़मज़दा, उदास खड़ी कपास

सियासत कहीं मशरूफ है, खेती का उपहास !

आत्मनिर्भरता के दावे मगर किसानों पर सस्ते आयात की मार

हाल ही में केंद्र सरकार ने कृषि से जुड़े कई बड़े फैसले लिए हैं। लेकिन हैरानी की बात है कि इन फैसलों में जहां एक तरफ किसानों के हितों की अनदेखी की गई है, वहीं कॉरपोरेट जगत को फायदा पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है। कोविड-19 महामारी के चलते लागू लॉकडाउन में किसानों और पशुपालकों काफी नुकसान उठाना पड़ा है, लेकिन सरकार के ताजा फैसले इनके जले पर नमक छिड़कने जैसे हैं।

वित्त मंत्रालय ने 23 जून को एक अधिसूचना जारी कर टैरिफ रेट कोटा (टीआईक्यू) तहत 15 फीसदी के रियायती सीमा शुल्क पर 10 हजार टन मिल्क पाउडर के आयात की अनुमति दी है। जबकि मिल्क पाउडर पर सीमा शुल्क की मौजूदा दर 50 फीसदी है। इसी तरह टैरिफ रेट कोटा के तहत पांच लाख टन मक्का का आयात भी 15 फीसदी की रियायत सीमा शुल्क दर पर करने की अनुमति दी गई है। इसके साथ ही डेढ़ लाख टन क्रूड सनफ्लावर सीड या तेल और डेढ़ लाख टन रेपसीड, मस्टर्ड (सरसों) रिफाइंड तेल के सस्ती दरों पर आयात की अनुमति भी टैरिफ रेट कोटा के तहत दी गई है।

सरकार ने मिल्क पाउडर के आयात के लिए नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी), नेशनल कोऑपरेटिव डेयरी फेडरेशन (एनसीडीएफ), एसटीसी, एमएमटीसी, पीईसी, नेफेड और स्पाइसेज ट्रेडिंग कारपोरेशन लिमिटेड को अधिकृत किया है। ताज्जुब की बात यह है कि जब इन कृषि उत्पादों के सस्ते आयात का रास्ता खोला जा रहा था, उसी समय देश को आत्मनिर्भर बनाने की बातें हो रही हैं। इतना ही नहीं चीनी स्टील और दूसरे औद्योगिक उत्पादों पर एंटी डंपिंग ड्यूटी भी लगाई या बढ़ाई जा रही है ताकि इनका आयात महंगा साबित हो। देश में चीन से होने वाले आयात पर अंकुश लगाने की मांग जोर पकड़ रही है। लेकिन इस शोरगुल के बीच कृषि आयात के रास्ते खोलकर किसानों को परेशानी में धकेला जा रहा है।

जहां सीमा पर किसान के बेटे शहीद हो रहे हैं, वहीं किसानों पर कृषि आयात की मार पड़ने जा रही है। इसके पीछे विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की शर्तों को पूरा करने की मजबूरी का तर्क दिया जा रहा है। मगर जब अमेरिका जैसा देश डब्ल्यूटीओ से बाहर निकलने की बात कर रहा हो और कई देश इसकी शर्तों का उल्लंघन कर रहे हों तो भारत द्वारा किसानों के हितों की अनदेखी कर डब्ल्यूटीओ की शर्तों को पूरा करने के तर्क को बहुत जायज नहीं ठहराता जा सकता है।

लॉकडाउन के दौरान मांग में भारी गिरावट की मार से डेयरी किसान अब तक भी नहीं उबर पाए हैं। गांवों में दूध की कीमतें 15 रुपये लीटर तक गिर गई हैं। हालांकि, इस दौरान सहकारी क्षेत्र ने सामान्य दिनों के मुकाबले करीब 10 फीसदी अधिक दूध की खरीद की है लेकिन प्राइवेट सेक्टर और असंगठित क्षेत्र की मांग में जबरदस्त गिरावट आई है। यही वजह है कि अधिकांश दूग्ध सहकारी संस्थाओं ने खरीदे गये दूध के एक बड़े हिस्से का उपयोग मिल्क पाउडर बनाने में किया। इस समय देश में करीब सवा लाख टन मिल्क पाउडर का स्टॉक मौजूद है। इस स्थिति में सस्ती दरों पर मिल्क पाउडर के आयात का सीधा असर दूध की कीमतों और पशुपालकों पर पड़ने वाला है।

डेयरी उद्योग के एक्सपर्ट का कहना है कि डायरेक्टरेट जनरल ऑफ फॉरेन ट्रेड (डीजीएफटी) द्वारा 15 फीसदी सीमा शुल्क दर पर मिल्क पाउडर के आयात की अनुमति का सीधा असर यह होगा कि स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) की कीमतें गिरकर 80 से 90 रुपये किलो पर आ जाएंगी। इसके चलते किसानों को मिलने वाली दूध की कीमत में सात से आठ रुपये प्रति लीटर की गिरावट आ सकती है। इसलिए सस्ते आयात का यह फैसला वापस लिया जाना चाहिए।

गौर करने वाली बात यह भी है कि देश के बड़े हिस्से में मानसून दस्तक दे चुका है और दूध का लीन सीजन (जिस समय उत्पादन कम होता है) लगभग निकल चुका है। अब फ्लश सीजन (जब दूध का उत्पादन अधिक होता है) शुरू होने जा रहा है। ऐसे में सरकार का यह फैसला किसानों के लिए घातक साबित होगा। कोविड-19 महामारी के इस दौर में जब पूरी अर्थव्यवस्था संकटों से घिरी है, तब सबकी उम्मीदें कृषि पर ही टिकी हैं। लेकिन ऐसे वक्त में किसानों का हौसला बढ़ाने की बजाय सरकार उन पर सस्ते आयात की मार डाल रही है।

मक्का उगाने वाले किसानों की हालत तो और भी खराब है। गत फरवरी के आसपास मक्का की कीमतें 2,000 से 2,200 रुपये प्रति क्विंटल थीं। लेकिन लॉकडाउन और अफवाहों से पॉल्ट्री इंडस्ट्री को हुए भारी नुकसान के चलते मक्का के दाम धराशायी हो गए। क्योंकि पॉल्ट्री फीड की करीब 60 फीसदी मांग मक्का से ही पूरी होती है। चुनावी साल होने के बावजूद बिहार में मक्का का दाम 1,200 प्रति कुंतल के आसपास है जबकि सरकार ने मक्का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1,760 रुपये प्रति क्विटंल घोषित किया था। पंजाब में तो मक्का की कीमत एक हजार रुपये प्रति क्विंटल से भी नीचे चली गई है।

अगले मार्केटिंग सीजन के लिए मक्का का एमएसपी 1,815 रुपये तय किया है। लेकिन हकीकत में किसानों को इसका आधा दाम मिलना भी मुश्किल हो गया है। ऐसी स्थिति में सीमा शुल्क की घटी दर पर पांच लाख टन मक्का आयात की अनुमति इन किसानों के लिए बड़ा झटका है। इस समय वैश्विक बाजार में मक्का की कीमत करीब 150 डॉलर प्रति टन चल रही है। इस पर 15 फीसदी सीमा शुल्क भी लगता है तो दक्षिण भारत में यह आयात 1400-1500 रुपये प्रति क्विंटल के आसपास बैठेगा।

सवाल उठता है कि ऐसे संकट के समय किसानों के हितों की अनदेखी कर आयात की अनुमति देने का क्या औचित्य है। मिल्क पाउडर और मक्का का आयात कब होगा, वह बाद की बात है लेकिन इन फैसलों से मार्केट और कीमतों पर असर अभी से पड़ने लगेगा।

क्यों किसानों पर भारी पड़ेगा खाड़ी देशों का तनाव

अमेरिका द्वारा ईरान के एक सैनिक जनरल को मारे जाने और ईरान की फिलहाल सीमित जवाबी कार्यवाही के बाद खाड़ी क्षेत्र में एक तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है। लगातार हो रही छिटपुट घटनाओं के कारण पश्चिम-एशियाई देशों में हालात कभी भी विस्फोटक हो सकते हैं। इस भू-राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुए कच्चे पेट्रोलियम तेल की कीमतें जो 70 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर पहुंच गई थी अब नरम होकर फिलहाल वापस लगभग 61 डॉलर पर आ गई हैं। परन्तु यह मान लेना कि खतरा पूरी तरह से टल गया है, समझदारी नहीं है। यदि फिर से तनाव बढ़ा तो इसके व्यापक असर होंगे जिनका आंकलन किया जाना चाहिए। हमारा देश अपनी मांग के लगभग 85 प्रतिशत कच्चे तेल का आयात करता है।

2018-19 में हमने लगभग 8 लाख करोड़ रुपये मूल्य के 22.6 करोड़ टन कच्चे तेल का आयात किया था जिसमें से लगभग 65 प्रतिशत खाड़ी देशों से आया था। इस क्षेत्र में किसी भी तरह की अस्थिरता का असर हमारी तेल आपूर्ति पर पड़ सकता है। यदि कलह बढ़ी तो कच्चे तेल और गैस के दाम बढ़ने से हमारा आयात महंगा होगा। इससे देश का चालू खाता घाटा बढ़ेगा और रुपये की कीमत गिरेगी। इस कारण पहले से ही बेकाबू चल रही महंगाई दर और बढ़ेगी। रिज़र्व बैंक भी ब्याज़ दरें घटा नहीं पायेगा जिससे निवेश घटेगा। डीजल, पेट्रोल, गैस आदि की महंगाई का असर किसान की लागत पर सीधा या परोक्ष रूप से पड़ता है क्योंकि ट्रैक्टर, डीजल इंजन और अन्य मशीनों को चलाने की लागत बढ़ेगी। महंगाई दर बढ़ने के कारण अपने इस्तेमाल की अन्य वस्तुएं किसान को और महंगी खरीदनी होंगी।

रुपये की कीमत गिरने से आयातित खाद के दाम भी बढ़ेंगे। कच्चे तेल से प्राप्त कई उत्पादों का प्रयोग रासायनिक उर्वरकों को बनाने में भी होता है। इस कारण खाद और कच्चे तेल के दाम एक दिशा में चलते हैं। अतः कच्चे तेल के महंगा होने से देश में निर्मित और आयातित दोनों तरह के खाद के दाम बढ़ेंगे और खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी का बिल भी बढ़ेगा। तेल के दाम यदि ज्यादा बढ़ गये तो देश का राजकोषीय घाटा भी बढ़ेगा। खाड़ी देशों में लगभग 80 लाख भारतीय रह रहे हैं जो 4,000 करोड़ डॉलर (लगभग 285,000 करोड़ रुपये) सालाना भारत में भेजते हैं। यदि अशांति फैली तो उनके रोजगार और आमदनी पर भी असर पड़ेगा जिससे देश में आने वाली यह विदेशी मुद्रा भी खतरे में पड़ जाएगी। उनमें से लाखों को अपना रोजगार और घर-बार छोड़कर वापस देश में लौटना पड़ सकता है जिसके अपने अलग आर्थिक व अन्य नकारात्मक प्रभाव होंगे। अतः सरकार के हाथ में संसाधन कम होंगे जिससे कृषि, ग्रामीण योजनाओं के बजट और कृषि निवेश में कटौती हो सकती है।

अगर ऐसा हुआ तो पहले ही मंदी से जूझ रही हमारी अर्थव्यवस्था और कमजोर हो जाएगी जिसका असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा। इस अशांत माहौल का प्रभाव इन देशों में हो रहे हमारी कृषि जिंसों के निर्यात पर भी पड़ेगा। यदि अस्थिरता के कारण हम ईरान और अन्य खाड़ी देशों को अपने कृषि उत्पादों का निर्यात नहीं कर पाते हैं तो अच्छे बाज़ार के अभाव में इन कृषि जिंसों के दाम गिरेंगे जिसका नकारात्मक असर हमारे किसानों की आय पर पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का असर हमारे किसानों की आय पर कैसे पड़ेगा इसे हमारे चावल के निर्यात से समझा जा सकता है। खाद्यान्न के लिहाज से धान देश की सबसे बड़ी फसल है जिसकी खेती पर करोड़ों किसानों की जीविका निर्भर है।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक देश है। हम 120 से 130 लाख टन चावल का निर्यात प्रति वर्ष करते हैं। 2018-19 में हमने 471 करोड़ डॉलर मूल्य के बासमती चावल और 304 करोड़ डॉलर मूल्य के गैर-बासमती चावल का निर्यात किया था। इस प्रकार कुल मिलाकर 2018-19 में हमने लगभग 55,000 करोड़ रुपये मूल्य के चावल का निर्यात किया था। पिछले साल लगभग 33,000 करोड़ रुपये मूल्य के बासमती चावल के निर्यात में से लगभग 11,000 करोड़ रुपये की यानी एक-तिहाई हिस्सेदारी ईरान की थी। 2018-19 में हमने ईरान से लगभग 2.4 करोड़ टन कच्चे तेल का आयात किया था। परन्तु ईरान पर अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों के कारण मई 2019 से हमें भी ईरान से कच्चे तेल का आयात बन्द करना पड़ा। इस कारण ईरान को होने वाले हमारे निर्यात के भुगतान की समस्या खड़ी हो गई जिससे इस निर्यात पर बहुत ही नकारात्मक असर पड़ा। इसका प्रभाव बासमती चावल की कीमतों पर भी पड़ रहा है। 1121 प्रीमियम किस्म के बासमती चावल का निर्यात भाव छह-सात महीने पहले लगभग 1200 डॉलर प्रति टन था। अब यह गिरकर लगभग 900 डॉलर प्रति टन के आसपास आ गया है जो पिछले पांच साल का सबसे कम दाम है। ईरान से तेल ना खरीदने के कारण पहले ही भारतीय चावल की मांग वहां घट रही थी। अब खाड़ी देशों में अस्थिरता को देखते हुए हमारे बासमती चावल की मांग और कीमतों के और नीचे जाने की आशंका है।

चावल निर्यातकों का मानना है कि यदि हालात और बिगड़े या प्रतिबंधों के कारण हम ईरान की चावल की मांग पूरी नहीं कर पाए तो ईरान के चावल बाजार पर पाकिस्तान जैसे अन्य चावल निर्यातक देश कब्जा जमा सकते हैं। फिलहाल भारतीय चावल निर्यातक संघ ने अस्थिरता को देखते हुए चावल निर्यातकों को ईरान को चावल निर्यात ना करने की सलाह दी है।

2019 में भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में लगभग 213 लाख टन चावल और 352 लाख टन गेहूं था, यानी कुल मिलाकर इन दोनों खाद्यान्नों का स्टॉक 565 लाख टन था। जबकि 1 जनवरी को यह बफर स्टॉक 214 लाख टन होना चाहिए। इसके अलावा 260 लाख टन धान भी गोदामों में पड़ी है। परन्तु अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण निर्यात घटने और खाड़ी देशों में तनाव से चावल की कीमतों पर और दबाव बढ़ेगा।

इस साल पंजाब में किसानों को 1121 किस्म की बासमती धान का भाव 2800 से 3000 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहा है, जो पिछले साल ईरान से अच्छी मांग के चलते 3600-3800 रुपये प्रति क्विंटल था। भारत ने 2013-14 में 4,325 करोड़ डॉलर (आज के मूल्यों में लगभग तीन लाख करोड़ रुपये) मूल्य के कृषि उत्पादों का निर्यात किया था, जो 2016-17 में गिरकर 3,370 करोड़ डॉलर पर आ गया था। इसके बाद के सालों में इसमें कुछ बढ़ोतरी हुई और यह 2018-19 में बढ़कर 3,920 करोड़ डॉलर पर पहुंच गया। परन्तु 2019-20 में अप्रैल से सितंबर की पहली छमाही में यह केवल 1,730 करोड़ डॉलर के स्तर पर है जो 2018-19 में इस अवधि में 1,902 करोड़ डॉलर था। खाड़ी देशों में अशांति और अनिश्चितता के कारण 2019-20 की दूसरी छमाही में इसमें और गिरावट आ सकती है।

कृषि उत्पादों का निर्यात किसानों की आमदनी को बढ़ाने में भी मददगार होता है। लेकिन 2020 की शुरुआत में ही पश्चिम एशिया पर छाए अशांति के बादल हमारे देश के लिए, वहां रह रहे भारतीयों और विशेषकर हमारे किसानों के लिए अच्छी खबर नहीं है।

 (लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)