रामदेव का शर्तिया इलाज और डॉक्टरों की आहत भावनाएं

कोरोना कुप्रबंधन में मोदी और योगी सरकार की खूब फजीहत हुई। इस कलंक को पब्लिक मेमोरी से मिटाने के लिए बहस का रुख मोड़ना जरूरी है। रामदेव यही कर रहे हैं। सरकार की नाकामी पर चर्चा की बजाय देश में एलोपैथी बनाम आयुर्वेद की बहस छिड़ गई। इस बहस में रामदेव ने खुद को आयुर्वेद के प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित कर लिया है। जबकि वे आयुर्वेद के डॉक्टर भी नहीं हैं। फिर भी लगभग हर बीमारी का शर्तिया इलाज उनके पास है। क्योंकि उन्हें सत्ता का संरक्षण और मीडिया का समर्थन हासिल है।

पिछले 20 साल से रामदेव यही करते आ रहे हैं। उनका पूरा कारोबार एलोपैथी और निजी अस्पतालों से त्रस्त लोगों की सहानुभूति पर टिका है। शुरुआत में मेडिकल व फार्मा इंडस्ट्री को रामदेव के दावों से कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन अंग्रेजी दवाओं के खिलाफ प्रवचन देते-देते रामदेव खुद दवा कंपनी के मालिक बन चुके हैं। अब फार्मा इंडस्ट्री को उनसे फर्क पड़ता है। इसलिए जब रामदेव ने अंग्रेजी दवा खाने से लोगों के मरने की बात कही तो मेडिकल बिरादरी तिलमिला उठी। जबकि हाल के वर्षों में ज्ञान-विज्ञान और तर्कशील सोच पर इतने हमले हुए, तब चिकित्सा समुदाय चुप्पी साधे रहा। यह चुप्पी डॉक्टरों को अब भारी पड़ रही है।

रामदेव के सवालों का मुकाबला डॉक्टर आहत भावनाओं से नहीं कर सकते हैं। क्योंकि विज्ञान सवाल उठाने की छूट देता है। विज्ञान हर बीमारी के इलाज का दावा नहीं करता। ना ही अपनी नाकामियों को छिपाने में यकीन रखता है। चमत्कार और विज्ञान में यही तो फर्क है। इसलिए जब रामदेव एलोपैथी का मजाक उड़ाते हैं या उस पर सवाल उठाते हैं तो उसका जवाब कोरी भावुकता की बजाय वैज्ञानिक तथ्यों और तर्कसंगत तरीके से देना चाहिए। इसके लिए आयुर्वेद का मजाक उड़ाने या उसे कमतर साबित करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है।

“हम तो मानवता की सेवा कर रहे हैं। रामदेव हम पर सवाल उठा रहे हैं?” इस तरह की भावुकता भरी दलीलों से डॉक्टर विज्ञान का पक्ष कमजोर ही करेंगे। जबकि जरूरत रामदेव के दावों को वैज्ञानिक और कानूनी कसौटियों पर कसने की है। लेकिन इस काम में देश के चिकित्सा समुदाय ने कभी दिलचस्पी नहीं दिखायी। वरना एक इम्युनिटी बूस्टर कोरोना की दवा के तौर पर लॉन्च न हो पाता। हालिया विवाद के बाद भी कोरोनिल की मांग बढ़नी तय है।

रामदेव ने सिर्फ डॉक्टरों पर ही नहीं बल्कि समूचे मेडिकल साइंस पर सवाल उठाये हैं। रामदेव के मन की बात को न्यूज चैनल मेडिकल साइंस के विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं। क्योंकि प्रमुख विज्ञापनदाता के तौर पर रामदेव मीडिया के साथ हैं। रामदेव का कुछ ऐसा ही रिश्ता सत्ताधारी भाजपा के साथ है। लेकिन जिन राज्यों में गैर-भाजपाई सरकारें हैं वहां भी रामदेव को कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। यह रामदेव की आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक ताकत है जो उन्होंने योग, आयुर्वेद, स्वदेशी और हिंदुत्व के घालमेल से हासिल की है।

एलोपैथी से निराश और निजी अस्पतालों से लूटे-पिटे लोगों का बड़ा तबका रामदेव पर भरोसा करता है। भले ही तबीयत बिगड़ने पर एलोपैथी का ही सहारा लेना पड़े। यह बात रामदेव भी जानते होंगे। इसलिए उनका टारगेट संभवत: कम गंभीर रोगी हैं जो डॉक्टर के पास जाए बिना सीधे दुकान से दवा खरीद सकते हैं। कोरोना काल में ऐसे लोगों की तादाद काफी बढ़ी है। बाकी तर्कसंगत और वैज्ञानिक सोच रखने वाले लोग रामदेव के बारे में क्या सोचते हैं, इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है देश की आम जनता से। यह आम जनता ही रामदेव की श्रोता, पतंजलि की उपभोक्ता और भाजपा की मतदाता है। सुबह-सुबह रामदेव उन्हीं को संबोधित करते हैं। हर घर में बिना डिग्री के डॉक्टर तैयार करने का उनका अभियान दवा कंपनियों को डराने लगा है। यह खुद लोगों के लिए भी खतरनाक है।

डॉक्टरों के लिए सोचने वाली बात यह है कि महामारी में इतनी सेवा करने के बावजूद समाज में उनके प्रति कोई खास सहानुभूति क्यों नहीं उमड़ी? जिन डॉक्टरों को पिछले साल कोरोना योद्धा बताकर फूल बरसाये जा रहे थे, इस बार वे आईटी सेल के निशाने पर क्यों हैं? इसके दो कारण हैं। पहला, मरीजों की जेब काटने वाले अस्पतालों और डॉक्टरों के प्रति लोगों में रोष है। दूसरा, जब से डॉक्टरों ने ऑक्सीजन की किल्लत के बारे में खुलकर बोलना शुरू किया है, तब से वे भाजपा समर्थकों के निशाने पर आ गये हैं। रामदेव ने डॉक्टरों पर हमला बोलकर आईटी सेल वालों को टारगेट दिखा दिया। इससे सरकार को बड़ी राहत मिली होगी। क्योंकि जिन लोगों को इलाज नहीं मिला, उन्हें समझाया जा सकता है कि वह इलाज ठीक नहीं था। इसलिए तो सोशल मीडिया के दौर में हकीकत से ज्यादा नैरेटिव की अहमियत है।

सरकारी खरीद और मंडी सिस्टम से आगे सोचना क्यों जरूरी?

आज सभी मानते हैं कि कृषि के क्षेत्र में सुधार के लिए खेत से बाजार और बाजार से उपभोक्ता तक एक नई प्रणाली और तंत्र बनना बहुत जरूरी है। सारे देश में, मुख्य तौर पर कृषि आधारित पिछड़े राज्य जैसे बिहार में नई व्यवस्था की जरूरत है। इसके लिए पंजाब, हरियाणा जैसे जिन राज्यों में मंडी सिस्टम मजबूत है उसे बरकरार रखते हुए भी आगे बढ़ा जा सकता है। देखा जाए तो पंजाब और हरियाणा में अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और मंडी प्रणाली को बचाये रखने के लिए भी खेती से जुड़े ये नए कानून जरूरी हैं।

इस बात को समझने के लिए हमें देखना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, मंडी प्रणाली और सरकारी खरीद किस तंत्र पर टिकी है। आज से करीब पांच दशक पहले सरकारी मंडी और एमएसपी सिस्टम की शुरुआत देश को भुखमरी से बचाने के लिए हुई थी। इस सिस्टम के तहत सरकार ने शुरुआत में पंजाब और हरियाणा, और बाद में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के किसानों को खूब गेहूं और धान उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य का भरोसा अज्ञैर खरीद की गारंटी मुख्य प्रोत्साहन हैं। फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया अनाज उत्पादक राज्यों से एमएसपी पर अनाज खरीदकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये अन्य राज्यों तक पहुंचाती है। मतलब, हरियाणा-पंजाब का किसान बिहार, झारखंड और अन्य राज्यों के लिए अनाज उगाता है। पीडीएस के राशन की सस्ती दरों का असर इन राज्यों के अनाज बाजार और मार्केट दरों पर भी पड़ता है, जिसका नुकसान वहां के किसान उठाते हैं।

अक्सर हमें यह सुनने को मिलता है कि बिहार में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद क्यों नहीं होती है? बिहार में हरियाणा-पंजाब की तरह मंडी सिस्टम क्यों नहीं है? मान लीजिए कि बिहार भी न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली मंडी प्रणाली लागू कर देता है। इससे क्या होगा? फूड कॉरपोरेशन को पंजाब और हरियाणा से कम अनाज खरीदना पड़ेगा। क्योंकि तब बिहार को दूसरे राज्यों से अनाज मंगाने की उतनी जरूरत नहीं रहेगी। इसीलिए भी फूड कॉरपोरेशन बिहार में अनाज की खरीद नहीं करता, ताकि हरियाणा-पंजाब में अनाज की सरकारी खरीद जारी रख सके।

फूड कॉरपोरेशन की समस्या यह है कि उसके पास हर साल जरूरत से ज्यादा अनाज जमा होता है, क्योंकि साल दर साल अनाज का उत्पाद और सरकारी खरीद बढ़ती गई। हम अनाज की कमी से अनाज के सरप्लस की स्थिति में आ पहुंचे हैं। अब सरकार चाहे भी तो पूरे देश के किसानों से सारा अनाज एमएसपी पर नहीं खरीद सकती है। एक तो सरकार के पास इतना पैसा नहीं है और दूसरा पीडीएस की खपत की एक सीमा है। फिर सरकारी खरीद के लिए हरियाणा-पंजाब, यूपी, मध्यप्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में भंडारण आदि की व्यवस्थाएं भी नहीं है। इसलिए एमएसपी पर सरकारी खरीद कुछ ही फसलों और कुछ ही राज्यों तक सीमित है।  

इसमें कोई दोराय नहीं है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों ने देश को भुखमरी से बचाया है। इन राज्यों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद की व्यवस्था बनी रही, इसके लिए बिहार जैसे राज्यों में गेहूं और धान की खरीद की बजाय अन्य फसलों को बढ़ावा देने की जरूरत है। इसके लिए बेहतर बाजार और खरीद तंत्र बनाने की जरूरत है। यह नई व्यवस्था प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी के बिना संभव नहीं है। और इस व्यवस्था को सिर्फ सरकारी खरीद और एमएसपी के बूते नहीं चलाया जा सकता है। क्योंकि अनाज तो पीडीएस में बंट सकता है, इसलिए सरकारी खरीद संभव है। लेकिन बाकी उपज और फल-सब्जियों को एमएसपी पर खरीदने की न तो सरकार की क्षमता है और न ही इतने संसाधन हैं। इसलिए कृषि व्यापार की ऐसी व्यवस्थाएं बनानी होंगी, जिसमें सरकारी खरीद के बगैर भी किसानों के हितों और लाभ को सुनिश्चित किया जा सके। इसमें किसान को बाजार के उतार-चढ़ाव और जोखिम से बचाना और कृषि क्षेत्र में नई तकनीक, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश लाना भी शामिल है।

आज जगह-जगह सुपर मार्केट के जरिये खाने की चीज़ें, फल, सब्जियों इत्यादि बिकने की संभावनाएं बढ़ रही हैं। इस क्षेत्र की  कंपनियों को किसान से भागीदारी करने की जरूरत है। यहां सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। सरकार का काम है कि इस भागीदारी में किसान के अधिकार और हितों को मजबूत करे। जिस तरह सरकारी खरीद में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया अनाज के दाम और खरीद की गारंटी देता है, उसी तरह किसान के साथ कॉन्ट्रैक्ट में खरीद और दाम को सुनिश्चित करना होगा। नए कृषि  कानून उस दिशा में एक कदम हैं। लेकिन अभी उसमें किसानों के लिए और भी सुरक्षा प्रावधानों को जरूरत है।

केंद्र सरकार ने किसान और खेती के लिए जो नए कानून बनाये हैं, उनमें किसानों के अधिकारों को और भी मजबूत किया जाना चाहिए। लेकिन सरकार पर किसानों का विश्वास न होना मोदी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। इसके लिए खुद मोदी सरकार जिम्मेदार है। इसके लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

(अनूप कुमार अमेरिका की क्लीवलैंड स्टेट यूनिवर्सिटी में जनसंचार के प्रोफेसर हैं)

समझाने की बजाय किसानों पर नीतियां थोपने के दुष्परिणाम

अभी कुछ महीनों पहले मैं प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से जुडी विसंगतियों को लेकर सभी किसानों के हकों के लिए लड़ रही थी। इसके लिए मुझे मीडिया, संसदीय समिति, राज्य कृषि विभाग, केंद्रीय कृषि विभाग, बीमा कंपनी, भारतीय स्टेट बैंक, राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति, रिजर्व बैंक से होते हुए बैंकिंग लोकपाल तक जाना पड़ा, तब कहीं जाकर भारत सरकार थोडा सक्रिय हुई और बंद हो चुकी क्लेम प्रक्रिया को राजस्थान के लिये पुनः चालू करवाया। अगर यह निर्णय नहीं होता तो मैं इस प्रक्रिया को उपभोक्ता अदालत में चैलेंज करती या क़ानूनी प्रक्रिया अपनाती। मैं ऐसा इसलिए कर सकती थी क्योंकि मुझे इन सबके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी पहले से है या फिर मैं वह जानकारी हासिल करने की स्थिति में हूँ। लेकिन किसी आम आदमी या साधारण किसान के पास न तो इतनी जानकारियां हैं और न ही इतनी जागरूरकता है कि वह सरकारी नियम-कानूनों की पेचीदगियों से जूझ सके।

जब मैंने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के बारे में कृषि विभाग के जिला स्तरीय अधिकारियों से योजना के बारे में जानकारी लेनी चाही, तब उन्हें यह भी नहीं पता नहीं था कि मैं उनसे क्या पूछ रही हूँ। जो योजना उन्हें अपने जिले में लागू करवानी थी, उसके  दस्तावेज हिंदी में भी उपलब्ध थे। मैं उन्हें हर एक क्लॉज के तहत उनकी जिम्मेदारियां और भूमिकाएँ बताती जा रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे यह सब वे पहली बार ही सुन रहे हो। मैं अपने साथ एक कॉपी ले गई थी जो उन्होंने फोटोकॉपी करवा कर अपनी फाइल में लगाई।

मैंने ऐसे प्रशासनिक अधिकारी भी देखे हैं जो कागजों को पढ़े बिना ही सिर्फ चिड़ियाँ बिठा दिया करते हैं। बहुत कम ही ऐसे होते हैं जो सब कुछ पढ़ लिख कर अपना निर्णय फाइल पर लिखते हैं। यह सन्दर्भ इसलिये रखने जरुरी है कि जब प्रक्रियाएं व तंत्र की कार्यप्रणाली ऐसी होती है तो किसानों से सरकारें ऐसी उम्मीद कैसे कर लेती है कि उन तक सारे कानून और योजनाएं पहुँच जायेगी और वे उन्हें ठीक से पढ़-समझ लेंगे।

अब कृषि कानूनों को ही देखें तो क्या देश के सभी किसानों तक ये कानून पहुंचे हैं? जब मैंने इन कानूनों को पढ़ना चाहा तो सोचा कि कृषि विभाग की वेबसाइट पर तो ये होंगे ही। वेबसाइट पर जा कर देखा तो तीन में से दो ही कानूनों की जानकारी वहां दिखाई दी और वह भी अंग्रेजी में। देश के किसानों से यह उम्मीद करना कि वे वेबसाइट का पता लगाकर कानून खोज भी लेंगे और अंग्रेजी में पढ़-समझ भी लेंगे, यह मेरी नजर में किसानों के साथ-साथ सरकार को भी अंधेरे में रखने के बराबर है। कृषि संबंधी तीसरा कानून तो किसी और ही विभाग का मामला है अतः वो उस विभाग की वेबसाइट पर जा कर खोजना पड़ेगा। कुल मिलाकर बात यह है कि लोगों तक कानूनों की कॉपी पहुंचेगी तभी तो वे उनका विश्लेषण कर अपना निर्णय ले पाएंगे।

अब रही बात कानूनों की भाषा की! अगर किसी ने प्रयास करके इन कृषि कानूनों को खोज भी लिया तो इनकी भाषा इतनी क्लिष्ट है कि समझना मुश्किल है। कोरोना संकट के काल में जब संसद चल भी नहीं पा रही थी, तब भारत सरकार इन कानूनों को अध्यादेश के रूप में लाती है और कुछ महीनों बाद संसद में ध्वनिमत से इन्हें पास कराया जाता है। इस दौरान संसदीय समिति के स्तर पर विचार-विमर्श और आम सहमति बनाने की कोशिश भी नहीं की गई। यहां तक कि संसद में बहस के दौरान विपक्षी दलों को इन बिलों पर बोलने का बहुत कम मौका मिला।  

अध्यादेश सरकार के लिए एक विशेषाधिकार है। इसकी जरूरत तब पड़ती है, जब सरकार किसी बेहद खास विषय पर कानून बनाने के लिए बिल लाना चाहे, लेकिन संसद के दोनों सदन या कोई एक सदन का सत्र न चल रहा हो। संविधान का अनुच्छेद-123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है। संविधान कहता है कि अगर कोई ऐसा मुद्दा है, जिस पर तत्काल प्रभाव से कानून लाने की जरूरत हो, तो संसद के सत्र का इंतजार करने की बजाय सरकार अध्यादेश के जरिए उस कानून को लागू कर सकती है। लेकिन इस अनुच्छेद में यह भी स्पष्ट है कि अध्यादेश को बेहद जरूरी या आपात स्थितियों में ही लाया जाना चाहिए। जब देश और पूरी दुनियां एक भयावह महामारी से जूझ रही है तो कृषि व्यापार में बदलाव के लिए अध्यादेश लाने की क्या हड़बड़ी थी? सरकार के इस कदम से यह संदेश गया कि कृषि सुधारों पर आम सहमति बनाने की बजाय सरकार किसानों पर ये कानून थोपना चाहती है। किसानों को आंदोलन के रास्ते पर ले जाने के पीछे यह एक बड़ी वजह है।  

सूचना का अधिकार के तहत सरकारी कार्यालयों को आम जन से जुड़े महत्वपूर्ण मामलों में सूचना का पूर्व-प्रकटीकरण (Predisclosure) करना होता है। कृषि कानूनों के मामले में बिलों के मझौदों पर आम जनता के सुझाव/आपत्तियां भी नहीं ली गईं।

हैरानी की बात है कि नए कृषि कानूनों के तहत किसान अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ सिविल कोर्ट भी नहीं जा सकते। उन्हें सिर्फ प्रशासनिक अधिकारियों (SDM) से ही न्याय की गुहार लगानी पड़ेगी। जो सरकार पूंजीपतियों के दबाव में कृषि कानून लागू करके पीछे हटने को तैयार नहीं है तो किसी विवाद की स्थिति में SDM बड़ी कंपनियों के खिलाफ फैसले दे पाएंगे, इस पर संदेह होता है। और फिर ब्यूरोक्रेसी तक पहुंच और उसे प्रभावित करने की क्षमता किसकी ज्यादा है? किसान की या बड़ी कंपनियों की? आर्बिट्रेशन के नाम पर किसानों को अधिकारियों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे, इसकी क्या गारंटी है?

नए कृषि कानूनों के तहत व्यापार या कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए कंपनियों के साथ होने वाले एग्रीमेंट इतने जटिल हैं कि कोई वकील या सीए ही समझ सकता है। बड़ी कंपनियां अपने साथ क़ानूनी सलाहकार ले कर चलती हैं जो किसानों के लिए संभव नहीं हैं। फसल बीमा के कानूनी दांव-पेंच में प्राइवेट कंपनियों किसानों को कैसे चक्कर कटवाती हैं, यह सबके सामने हैं।



दिल में बसा गांव: आदमी बैल और सपने

अस्सी नब्बे के दशक तक ग्रामीण इलाकों में बैलगाड़ी का प्रयोग माल ढुलाई के अलावा घर की बहुओं को ससुराल पहुंचाने के लिये किया जाता था। बारात विदाई में लोकल पैसेंजर ट्रेन की भी शानदार भूमिका होती थी। भावी बहु अपने मैके से डोली में बैठकर रेलवे स्टेशन तक आती फिर डोली उठाने वाले कहार पैसेंजन ट्रेन की खिड़की के पास डोली को तजुर्बे से बांध देते।

जब ट्रेन गंतव्य पर पहुंचती पुन: कहार डोली को उतारकर प्लेटफार्म पर रखते और बहु एक बार फिर डोली में जाकर बैठ जाती। स्टेशन से बाहर निकलकर बताये स्थल पर पेड़ की छांव में बैलगाड़ी में बांस की कमानी से घेरा बना दिया जाता। एक जोड़ी बैल को जुआठ में बांधने के पहले उसके ऊपर से धोती-साड़ी या चांदनी जैसे मोटे कपड़े तान दिये जाते।

वर-वधु-सहबाला तीनों बारी-बारी से कमानी तने घरनुमा बैलगाड़ी पर सवार होते…उसके बार गाड़ीवान दोनों बैलों के कंधे पर जुआठ चढ़ाकर उनके गले को रस्सी से बांध देता….गाड़ीवान एक बार चलते के पहले दुल्हे से पूछता – सब ठीक से बैठ गये हैं न…दुल्हा की हामी के बाद गाड़ीवान पहले दाहिन बगल वाले बैल का पुट्ठा ठोकता या पैर के अंगुठा व मध्यमा उंगली से बैल के पांव के पिछले हिस्से को हल्के से ठोकता…इशारा पाते ही बैल कुछ दूर अनमने तरीके से चलने के बाद अपनी चाल रौ में चल पड़ते…बिना बोले दोनों बैल का आपसी तालमेल और उनके गले में बंधी घंटी की टन…टून…टन…टून….सुमधुर आवाज प्रकृतिक संगीत के आनंदलोक में विचरने को बाध्य करते। टूटी जर्जर सड़कों पर पहिये की खड़खड़ाहट, बांस की बाती से बने बेस एरिया की चरमराहट घंटियों के स्वर लहरियों से पूरी यात्रा में युगलबंदी करते अनूठा मंजर पेश करते।

अपने गांव/गंतव्य की यह यात्रा किस्से कहानियों में ही जिन्दा है अब। सड़कों के पक्कीकरण, विस्तार तथा आटो रिक्शा के आगमन से बैलगाड़ी गुजरे जमाने की सवारी होती चली गयी। हॉवर्ड को हॉर्डवर्क से चुनौती देने वाले चौकीदार को पता होना चाहिए कि ज्ञान बैल के अंदर भी होता है। मनुष्य ज्ञान का विभाजन विद्यागत विशिष्टता के लिये करता है, पशु के अंदर ऐसी चेतना का अभाव होता है।

रामशरण जोशी की एक किताब का शीर्षक था-आदमी बैल और सपने। हालांकि, उस किताब को मैंने पढ़ा नहीं है। इसी तरह बैल पर कवि शमशेर बहादुर सिंह की भी एक शानदार कविता है-

मैं वह गुट्ठल काली कड़ी कूबवाला बैल हूं

जो अकेले धीरे-धीरे छह मील खींचकर ले जाते हुये

ठेले के उपर लदा हुआ माल

स्टेशन से गोदाम तक 

चुपचाप धीरे-धीरे आंखे बाहर को निकली हुईं 

त्योरी चढ़ी हुई, कंधे जोर लगाते हुये

सीना और छाती आगे की ओर झुककर जोर लगाते हुये 

राने भरी हुईं गर्म पसीने से तर, मगर जोर लगती हुईं

आगे कविता में विडंबना बोध का स्वर गहराता है और बैल की स्वभाविक नाराजगी की अभिव्यक्ति में भी वह श्रम से भागता नहीं है। यथा-

वह गहरा लगातार श्रम 

पुट्ठों को श्लथ कर देनेवाला श्रम 

स्वंय मेरी नींद का कब्र बन जाता है 

मालिक पर तब जो मुझे गुस्सा आता है

उससे मेरा जोर और बढ़ जाता है

बैल का अक्स कवि केदारनाथ सिंह की कविता मांझी का पुल में भी प्रतिध्वनित होता है-जब खैनी बनाते लालमोहर को बैलों की सींग के बीच एन दिख जाता है मांझी का पुल….बैल मूक पशु है, लेकिन जैसी उपमा उसे (मूर्ख ) दी जाती है….वैसा वह है नहीं…मनुष्य सपना देख सकता है बैल नहीं…उसके वारिस मानव जात में कहीं ज्यादा मिल जायेंगे हमें।

साहित्यकार रामदेव सिंह अपने अतीत की स्मृतियों के झरोखे में विचरण करते हुये कहते हैं – जबसे होश संभाला साधन के रुप में बैलगाड़ी से रुमानी रिश्ता रहा। लगभग तीन दशकों तक। 1967 से 1971 तक जब हाईस्कूल में पढ़ रहा था। हास्टल में रहता था। छुट्टियों में यही बैलगाड़ी मुझे लाने भेजी जाती थी और हास्टल पहुंचाने भी। गांव भर में हमारी बैलगाड़ी सबसे सुंदर थी। नक्काशियों वाला टप्पर था। पर से टीन वाला चदरा, ताकि बारिश में सवार भींगे नहीं। टप्पर का इस्तेमाल जनाना सवारी के लिए ज्यादा होता था। अपनी शादी में ट्रेन पकड़ने के लिए मैं बैलगाड़ी से ही स्टेशन गया था।

चार दिनों बाद जब अपनी नववधू को विदाई करवा कर अपने स्टेशन पर उतरा तो यही बैलगाड़ी हमारे इन्तजार में खड़ी थी। रास्ते में जोर की आंधी आयी। बारिश होने लगी। संयोग से वहां एक प्राइमरी स्कूल था। इसी स्कूल में तीन घंटे शरण लेना पड़ा। आप कल्पना कर सकते हैं शहर में पली-बढ़ी नयी नवेली और बैलगाड़ी की वह सवारी, लेकिन उस दिन को हम बहुत रूमानियत के साथ याद करते हैं। बैलगाड़ी की सवारी के अनगिनत अनुभव हैं मेरे पास। 1982 में रेल की नौकरी में आने के बाद भी 1990-91 तक मैं रेलवे स्टेशन से गांव आने-जाने के लिए शौकिया बैलगाड़ी मंगवाया करता था।

मोहन लाल यादव बताते हैं कि हमारे यहां इलाहाबाद में जब कुंभ मेला लगता था तो गंगा किनारे के निकटवर्ती गांव बैलगाड़ी और इक्कों से भर जाते थे। यूपी के पूरब और पूर्वोत्तर जिले जैसे गोरखपुर, जौनपुर, आजमगढ़ तथा गाजीपुर तक के तीर्थ यात्री बैलगाड़ियों से ही आते थे। वे महीनों पहले से ही यात्रा शुरू कर देते थे। रास्ते पर वे गाते बजाते चले आते थे। रात्रि किसी बाग में अथवा किसी सराय में रुकते। बचपन में हम उनके पास रात में किस्से सुनने जाते थे।

संस्कृतिकर्मी जावेद इस्लाम अपने बचपन को याद करते हुये बताते हैं कि मेरा घर जीटी रोड पर है। बचपन में सामान्य बच्चों की तरह हम भी सड़क पर गुजरने वाले बैल गाड़ी पर दौड़ के पीछे लटक जाते थे और मजा लेते हुये कुछ दूर तक जाते फिर उतर जाते थे। मजा तो तब आता था जब बैल गाड़ी पर दूल्हा व घूंघट में दुल्हनियां जा रही होती थी। बैलगाड़ी के पीछे कपड़ेे का पर्दा लगा होता था। हम बच्चे शोर मचाते बैल गाड़ी के पीछे भगते थे, पर्दा उठा कर दूल्हा-दुल्हन की एक झलक पाने के लिये। गाड़ी मान सोटा दिखाकर या हल्के तरीके से सटाकर कर हम बच्चों को भगाता था। वे भी क्या दिन थे?

आकाशवाणी के पूर्व कार्यक्रम अधिशासी अनिल किशोर सहाय बचपन की स्मृतियों में डूबकर बताते हैं कि हम भी बचपन में बैलगाड़ी में सवार होकर ननिहाल जाते थे। बस से सड़क पर उतरने के बाद आठ किलोमीटर का सफर कच्चे रास्ते की सवारी बैलगाड़ी के जरिये ही तय करते थे। मेरी मां कुछ जरूरी चीजें बैलगाड़ी में रख लेती और हम पैदल खेतों के रास्ते…. क्या दिन थे… रास्ते में एक छोटी नदी भी पड़ती थी, पर गाड़ीवान इतना सिद्धहस्त था कि वह जोर से हकारते हुये नदी पार….. अब सब सपना सा लगता है। वहां पक्की सड़क बन गयी है और गांव तक बस जाने लगी है। पूर्वोत्तर भारत का मुझे नहीं पता, लेकिन शेष भारत में बैलगाड़ी कृषि कार्यों में अनाज ढूलाई के अलावा आवागमन का एक महत्वपूर्ण साधन था। जिसके दरवाजे पर दो तीन थोड़ी बैल हों उसे अच्छा कृषक माना जाता था।

बहरहाल, दौर बदल रहा है और बदलते वक्त की रफ्तार में बैलगाड़ी पीछे छूट चुकी है। लेकिन शहर के बियाबान में भी उस गांव की याद तो आती है जो दिल के किसी कोने में बसा है। वहां बैलगाड़ी के चलने और बैलों के झूमने का संगीत हमेशा सुनाई देता रहेगा।

 

 

गुजरात: राजनीति और इंजीनियरिंग के लिहाज से क्‍यों खास है सौनी प्रोजेक्‍ट?

अपने महत्‍वाकांक्षी सौनी प्रोजेक्‍ट के जरिये गुजरात की सियासी इंजीनियरिंग को साधने में जुटे हैं नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंगलवार को गुजरात के जामनगर पहुंचे और ‘सौराष्ट्र नर्मदा अवतरण फॉर इरिगेशन’ (SAUNI) यानी सौनी प्रोजेक्‍ट के पहले चरण का लोकार्पण किया। साल 2012 में विधानसभा चुनाव से पहले बतौर सीएम नरेंद्र मोदी ने ही इस सिंचाई परियोजना का ऐलान किया था। एक बार फिर चुनाव से पहले 12 हजार करोड़़ रुपये की यह महत्‍वाकांक्षी परियोजना सुर्खियों में है। उम्‍मीद की जा रही है कि यह प्रोजेेक्‍ट सौराष्‍ट्र से सूखा पीड़‍ि़त किसानों के लिए बड़ी राहत लेकर आएगा। लेकिन इसका सियासी महत्‍व भी कम नहीं है। विपक्षी दल कांग्रेस ने परियोजना पूरी होने से पहले ही प्रथम चरण के लोकार्पण और प्रधानमंत्री की जनसभा को चुनावी हथकंंड़ा करार दिया है। पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी की आज गुजरात में पहली सभा थी।

जामनगर, राजकोट और मोरबी जिले की सीमाओं से सटे सणोसरा गांव मेंं एक जनसभा को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि सौनी प्रोजेक्ट पर हर गुजराती को गर्व होगा। किसान को जहां भी पानी मिलेगा, वह चमत्‍कार करके दिखाएगा। गुजरात के मुख्‍यमंत्री विजय रूपाणी का कहना है कि सौनी प्रोजेक्‍ट सूखे की आशंका वाले सौराष्‍ट्र के 11 जिलों की प्‍यास बुझाएगा। परियोजना के पहले चरण में राजकोट, जामनगर और मोरबी के 10 बांधों में नर्मदा का पानी पहुंचेेगा। अनुमान है कि सौराष्‍ट्र की करीब 10 लाख हेक्‍टेअर से अधिक कृषि भूमि को फायदा होगा।

सिविल इंजीनियरिंग का कमाल

सिविल इंजीनियरिंग के लिहाज से भी सौनी प्रोजेेक्‍ट काफी मायने रखता है। इसके तहत 1,126 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई जाएगी, जिसके जरिये सरदार सरोवर बांध का अतिरिक्‍त पानी सौराष्ट्र के छोटे-बड़े 115 बांधों में डाला जाएगा। पहले चरण में 57 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई गई है जिससे सौराष्‍ट्र में तीन जिलों के 10 बांधों में पानी पहुंचने लगा है। गुजरात सरकार का दावा है कि सभी 115 बांधों के भरने से करीब 5 हजार गांव के किसानों को फायदा होगा। गौरतलब है कि सौराष्‍ट्र के ये इलाके अक्‍सर सूखे की चपेट में रहते हैं। नर्मदा का पानी पहुंचने से यहां के किसानों को राहत मिल सकती है।

मोदी की रैली के सियासी मायने

हालांकि, सौनी प्रोजेक्‍ट 2019 तक पूरा होना है लेकिन अगले साल गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा और राज्‍य सरकार अभी से इसका श्रेय लेने में जुट गई है। आनंदीबेन पटेल के सीएम की कुर्सी से हटने और विजय रूपाणी के मुख्‍यमंत्री बनने के बाद यह पीएम मोदी की पहली गुजरात यात्रा है। उधर, पाटीदार आरक्षण और दलित आंदोलन भी भाजपा के लिए खासी चुनौती बना हुआ हैै। इसलिए भी पीएम मोदी के कार्यक्रम और जनसभा के सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। सौराष्‍ट्र कृषि प्रधान क्षेत्र है और यहां पटेल आरक्षण और दलित आंदोलन का काफी असर है।

परंपरागत सिंचाई योजना से कैसे अलग है सौनी

देखा जाए तो सौनी प्रोजेेक्‍ट नर्मदा प‍रियोजना का ही विस्‍तार है। लेकिन परंपरागत सिंचाई परियोजनाओं की तरह सौनी प्रोजेक्‍ट में नए बांध, जलाशयों और खुली नहरों के निर्माण के बजाय पहले से मौजूद बाधों में पानी पहुंंचाया जाएगा। इसके लिए खुली नहरों की जगह पाइपलाइन बिछाई जा रही है। उल्‍लेखनीय है कि भूमि अधिग्रहण के झंझटों को देखते हुए गुजरात सरकार ने खुली नहरों के बजाय भूमिगत पाइपलाइन का विकल्‍प चुना था। इसी पाइपलाइन के जरिये नर्मदा का पानी सौराष्‍ट्र के 115 बांधों तक पहुंचााने की योजना है। भूमिगत पाइपलाइन से बांधों में पानी डालने के लिए बड़े पैमाने पर पंपिंग की जरूरत होगी। इस पर आने वाले खर्च को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं।

परियोजना पर सवाल भी कम नहीं

12 हजार करोड़ रुपये केे सौनी प्रोजेक्‍ट पर सवाल भी कम नहीं हैं। दरअसल, राज्‍य सरकार का अनुमान है कि नर्मदा से करीब 1 मिलियन एकड़ फीट अतिरिक्‍त पानी सौराष्‍ट्र के 115 बांधों को मिल सकता है। गुजरात विधानसभा में विपक्ष के नेता शंकर सिंह वाघेला का कहना है कि सौनी प्रोजेक्‍ट की सच्‍चाई दो महीने बाद सामने आएगी। अभी तो बरसात की वजह से अधिकांश बांधों में बारिश का पानी पहुंंच रहा है। दो-तीन महीने बाद जब बांध सूख जाएंगे तब पता चलेगा सौनी प्रोजेक्‍ट से कितना पानी पहुंचता है। सरकार को कम से कम दो महीने का इंतजार करना चाहिए था।

पासवान ने मिलों पर फिर बनाया चीनी कीमतें कम रखने का दबाव

गन्‍ना किसानों को उचित दाम और बकाया भुगतान दिलाने में नाकाम रहने वाली केंद्र सरकार चीनी मिलों पर लगातार कीमतेंं काबू में रखने का दबाव बना रही है। पिछले वर्षों के दौरान चीनी की कीमतों में गिरावट के चलते ही न तो किसानों को उपज का सही दाम मिल पाया और न ही चीनी मिलें समय पर भुगतान कर पा रही हैं। घाटे के बोझ में कई चीनी मिलें बंद होने के कगार पर हैं जबकि किसानों का भी गन्‍ने से मोहभंग होने लगा है।

शुक्रवार को खाद्य एवं उपभोक्‍ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि चीनी के दाम मौजूदा स्तर से बढ़तेे हैं तो सरकार आवश्यक कार्रवाई करेगी। चीनी की कीमतों पर नजर रखी जा रही है। हालांकि, देश में चीनी की कमी नहीं है और आगे कीमतों में वृद्धि के आसार भी कम हैं। लेकिन किसान काेे अक्‍सर बाजार के हवाले छोड़ने वाली सरकार चीनी के मामले में जबरदस्‍त हस्‍तक्षेप करने पर आमादा है। पासवान ने मिलों से चीनी कीमतों में स्थिरता बनाए रखने की अपील की है। जबकि जगजाहिर है कि चीनी कीमतों में कमी की सबसे ज्‍यादा मार किसानों पर पड़ती है।

इंडियन शुगर मिल्‍स एसोसिएशन (इस्‍मा) के डायरेक्‍टर जनरल अबिनाश वर्मा ने असलीभारत.कॉम को बताया कि पहले सरकार को यह देखना चाहिए क्‍या चीनी के दाम वाकई अत्‍यधिक बढ़ गए हैं। इस समय दिल्‍ली के खुदरा बाजार में चीनी का दाम 42 रुपये किलो है। चीनी मिलों के गेट पर दाम 35.5-36 रुपये किलो के आसपास है जबकि चीनी उत्‍पादन की लागत करीब 33 रुपये प्रति किलोग्राम आ रही है। अगर मिलों को दस फीसदी मार्जिन भी नहीं मिलेगा तो कारोबार करना मुश्किल हो जाएगा। वर्मा का कहना है कि पिछले साल चीनी के दाम बुरी तरह टूट गए थे और जिसके चलते मिलों पर कर्ज का बोझ है। इससे उबरने के लिए भी जरूरी है कि चीनी के दाम ठीक रहें। वर्मा के मुताबिक, इस साल चीनी की कीमतों में जो थोड़ा सुधार दिखा है दरअसल वह पिछले साल का करेक्‍शन है और दो साल पुराना दाम है। सरकार खुद मान रही है देश में चीनी की कमी है। ऐसे में इतनी जल्‍दी पैनिक होने की जरूरत नहीं है।

एथनॉल एक्‍साइज ड्यूटी पर छूट खत्‍म, चीनी मिलों का झटका

इस बीच, केंद्र सरकार ने चीनी मिलों को एथनॉल पर दी जा रही एक्‍साइज ड्यूटी की छूट वापस ले ली है। सरकार का यह कदम भी चीनी मिलों को चुभ रहा है। घाटे से जूझ रही मिलों को उबारने के लिए केंद्र सरकार ने यह रियायत दी थी, जो पेराई सीजन खत्‍म होनेे से पहले ही वापस ले ली गई है।

किसानों का अब भी 4 हजार करोड़ बकाया

चीनी के दाम का सीधा संबंध किसान से है। इस साल मार्च से चीनी के दाम करीब 10-12 फीसदी बढ़े हैं। दूसरी तरहगन्‍ना किसानों का बकाया भुगतान घटकर करीब 4 हजार करोड़़ रुपये गया है जो पिछले साल इसी समय 18 हजार करोड़ रुपये से ज्‍यादा था। यह हालत तब हैै कि जबकि पिछले तीन साल से गन्‍नाा मूल्‍य में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। पिछले तीन-चार साल से उत्‍तर प्रदेश जैसे प्रमुख गन्‍ना उत्‍पादक राज्‍य में गन्‍नाा मूल्‍य 260-280 रुपये कुंतल के आसपास है। इस स्थिर मूल्‍य का भुगतान पाने के लिए भी किसानों को कई महीनों तक इंतजार करना पड़ रहा है।