आत्मनिर्भरता के दावे मगर किसानों पर सस्ते आयात की मार

हाल ही में केंद्र सरकार ने कृषि से जुड़े कई बड़े फैसले लिए हैं। लेकिन हैरानी की बात है कि इन फैसलों में जहां एक तरफ किसानों के हितों की अनदेखी की गई है, वहीं कॉरपोरेट जगत को फायदा पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है। कोविड-19 महामारी के चलते लागू लॉकडाउन में किसानों और पशुपालकों काफी नुकसान उठाना पड़ा है, लेकिन सरकार के ताजा फैसले इनके जले पर नमक छिड़कने जैसे हैं।

वित्त मंत्रालय ने 23 जून को एक अधिसूचना जारी कर टैरिफ रेट कोटा (टीआईक्यू) तहत 15 फीसदी के रियायती सीमा शुल्क पर 10 हजार टन मिल्क पाउडर के आयात की अनुमति दी है। जबकि मिल्क पाउडर पर सीमा शुल्क की मौजूदा दर 50 फीसदी है। इसी तरह टैरिफ रेट कोटा के तहत पांच लाख टन मक्का का आयात भी 15 फीसदी की रियायत सीमा शुल्क दर पर करने की अनुमति दी गई है। इसके साथ ही डेढ़ लाख टन क्रूड सनफ्लावर सीड या तेल और डेढ़ लाख टन रेपसीड, मस्टर्ड (सरसों) रिफाइंड तेल के सस्ती दरों पर आयात की अनुमति भी टैरिफ रेट कोटा के तहत दी गई है।

सरकार ने मिल्क पाउडर के आयात के लिए नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी), नेशनल कोऑपरेटिव डेयरी फेडरेशन (एनसीडीएफ), एसटीसी, एमएमटीसी, पीईसी, नेफेड और स्पाइसेज ट्रेडिंग कारपोरेशन लिमिटेड को अधिकृत किया है। ताज्जुब की बात यह है कि जब इन कृषि उत्पादों के सस्ते आयात का रास्ता खोला जा रहा था, उसी समय देश को आत्मनिर्भर बनाने की बातें हो रही हैं। इतना ही नहीं चीनी स्टील और दूसरे औद्योगिक उत्पादों पर एंटी डंपिंग ड्यूटी भी लगाई या बढ़ाई जा रही है ताकि इनका आयात महंगा साबित हो। देश में चीन से होने वाले आयात पर अंकुश लगाने की मांग जोर पकड़ रही है। लेकिन इस शोरगुल के बीच कृषि आयात के रास्ते खोलकर किसानों को परेशानी में धकेला जा रहा है।

जहां सीमा पर किसान के बेटे शहीद हो रहे हैं, वहीं किसानों पर कृषि आयात की मार पड़ने जा रही है। इसके पीछे विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की शर्तों को पूरा करने की मजबूरी का तर्क दिया जा रहा है। मगर जब अमेरिका जैसा देश डब्ल्यूटीओ से बाहर निकलने की बात कर रहा हो और कई देश इसकी शर्तों का उल्लंघन कर रहे हों तो भारत द्वारा किसानों के हितों की अनदेखी कर डब्ल्यूटीओ की शर्तों को पूरा करने के तर्क को बहुत जायज नहीं ठहराता जा सकता है।

लॉकडाउन के दौरान मांग में भारी गिरावट की मार से डेयरी किसान अब तक भी नहीं उबर पाए हैं। गांवों में दूध की कीमतें 15 रुपये लीटर तक गिर गई हैं। हालांकि, इस दौरान सहकारी क्षेत्र ने सामान्य दिनों के मुकाबले करीब 10 फीसदी अधिक दूध की खरीद की है लेकिन प्राइवेट सेक्टर और असंगठित क्षेत्र की मांग में जबरदस्त गिरावट आई है। यही वजह है कि अधिकांश दूग्ध सहकारी संस्थाओं ने खरीदे गये दूध के एक बड़े हिस्से का उपयोग मिल्क पाउडर बनाने में किया। इस समय देश में करीब सवा लाख टन मिल्क पाउडर का स्टॉक मौजूद है। इस स्थिति में सस्ती दरों पर मिल्क पाउडर के आयात का सीधा असर दूध की कीमतों और पशुपालकों पर पड़ने वाला है।

डेयरी उद्योग के एक्सपर्ट का कहना है कि डायरेक्टरेट जनरल ऑफ फॉरेन ट्रेड (डीजीएफटी) द्वारा 15 फीसदी सीमा शुल्क दर पर मिल्क पाउडर के आयात की अनुमति का सीधा असर यह होगा कि स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) की कीमतें गिरकर 80 से 90 रुपये किलो पर आ जाएंगी। इसके चलते किसानों को मिलने वाली दूध की कीमत में सात से आठ रुपये प्रति लीटर की गिरावट आ सकती है। इसलिए सस्ते आयात का यह फैसला वापस लिया जाना चाहिए।

गौर करने वाली बात यह भी है कि देश के बड़े हिस्से में मानसून दस्तक दे चुका है और दूध का लीन सीजन (जिस समय उत्पादन कम होता है) लगभग निकल चुका है। अब फ्लश सीजन (जब दूध का उत्पादन अधिक होता है) शुरू होने जा रहा है। ऐसे में सरकार का यह फैसला किसानों के लिए घातक साबित होगा। कोविड-19 महामारी के इस दौर में जब पूरी अर्थव्यवस्था संकटों से घिरी है, तब सबकी उम्मीदें कृषि पर ही टिकी हैं। लेकिन ऐसे वक्त में किसानों का हौसला बढ़ाने की बजाय सरकार उन पर सस्ते आयात की मार डाल रही है।

मक्का उगाने वाले किसानों की हालत तो और भी खराब है। गत फरवरी के आसपास मक्का की कीमतें 2,000 से 2,200 रुपये प्रति क्विंटल थीं। लेकिन लॉकडाउन और अफवाहों से पॉल्ट्री इंडस्ट्री को हुए भारी नुकसान के चलते मक्का के दाम धराशायी हो गए। क्योंकि पॉल्ट्री फीड की करीब 60 फीसदी मांग मक्का से ही पूरी होती है। चुनावी साल होने के बावजूद बिहार में मक्का का दाम 1,200 प्रति कुंतल के आसपास है जबकि सरकार ने मक्का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1,760 रुपये प्रति क्विटंल घोषित किया था। पंजाब में तो मक्का की कीमत एक हजार रुपये प्रति क्विंटल से भी नीचे चली गई है।

अगले मार्केटिंग सीजन के लिए मक्का का एमएसपी 1,815 रुपये तय किया है। लेकिन हकीकत में किसानों को इसका आधा दाम मिलना भी मुश्किल हो गया है। ऐसी स्थिति में सीमा शुल्क की घटी दर पर पांच लाख टन मक्का आयात की अनुमति इन किसानों के लिए बड़ा झटका है। इस समय वैश्विक बाजार में मक्का की कीमत करीब 150 डॉलर प्रति टन चल रही है। इस पर 15 फीसदी सीमा शुल्क भी लगता है तो दक्षिण भारत में यह आयात 1400-1500 रुपये प्रति क्विंटल के आसपास बैठेगा।

सवाल उठता है कि ऐसे संकट के समय किसानों के हितों की अनदेखी कर आयात की अनुमति देने का क्या औचित्य है। मिल्क पाउडर और मक्का का आयात कब होगा, वह बाद की बात है लेकिन इन फैसलों से मार्केट और कीमतों पर असर अभी से पड़ने लगेगा।

क्यों किसानों पर भारी पड़ेगा खाड़ी देशों का तनाव

अमेरिका द्वारा ईरान के एक सैनिक जनरल को मारे जाने और ईरान की फिलहाल सीमित जवाबी कार्यवाही के बाद खाड़ी क्षेत्र में एक तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है। लगातार हो रही छिटपुट घटनाओं के कारण पश्चिम-एशियाई देशों में हालात कभी भी विस्फोटक हो सकते हैं। इस भू-राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुए कच्चे पेट्रोलियम तेल की कीमतें जो 70 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर पहुंच गई थी अब नरम होकर फिलहाल वापस लगभग 61 डॉलर पर आ गई हैं। परन्तु यह मान लेना कि खतरा पूरी तरह से टल गया है, समझदारी नहीं है। यदि फिर से तनाव बढ़ा तो इसके व्यापक असर होंगे जिनका आंकलन किया जाना चाहिए। हमारा देश अपनी मांग के लगभग 85 प्रतिशत कच्चे तेल का आयात करता है।

2018-19 में हमने लगभग 8 लाख करोड़ रुपये मूल्य के 22.6 करोड़ टन कच्चे तेल का आयात किया था जिसमें से लगभग 65 प्रतिशत खाड़ी देशों से आया था। इस क्षेत्र में किसी भी तरह की अस्थिरता का असर हमारी तेल आपूर्ति पर पड़ सकता है। यदि कलह बढ़ी तो कच्चे तेल और गैस के दाम बढ़ने से हमारा आयात महंगा होगा। इससे देश का चालू खाता घाटा बढ़ेगा और रुपये की कीमत गिरेगी। इस कारण पहले से ही बेकाबू चल रही महंगाई दर और बढ़ेगी। रिज़र्व बैंक भी ब्याज़ दरें घटा नहीं पायेगा जिससे निवेश घटेगा। डीजल, पेट्रोल, गैस आदि की महंगाई का असर किसान की लागत पर सीधा या परोक्ष रूप से पड़ता है क्योंकि ट्रैक्टर, डीजल इंजन और अन्य मशीनों को चलाने की लागत बढ़ेगी। महंगाई दर बढ़ने के कारण अपने इस्तेमाल की अन्य वस्तुएं किसान को और महंगी खरीदनी होंगी।

रुपये की कीमत गिरने से आयातित खाद के दाम भी बढ़ेंगे। कच्चे तेल से प्राप्त कई उत्पादों का प्रयोग रासायनिक उर्वरकों को बनाने में भी होता है। इस कारण खाद और कच्चे तेल के दाम एक दिशा में चलते हैं। अतः कच्चे तेल के महंगा होने से देश में निर्मित और आयातित दोनों तरह के खाद के दाम बढ़ेंगे और खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी का बिल भी बढ़ेगा। तेल के दाम यदि ज्यादा बढ़ गये तो देश का राजकोषीय घाटा भी बढ़ेगा। खाड़ी देशों में लगभग 80 लाख भारतीय रह रहे हैं जो 4,000 करोड़ डॉलर (लगभग 285,000 करोड़ रुपये) सालाना भारत में भेजते हैं। यदि अशांति फैली तो उनके रोजगार और आमदनी पर भी असर पड़ेगा जिससे देश में आने वाली यह विदेशी मुद्रा भी खतरे में पड़ जाएगी। उनमें से लाखों को अपना रोजगार और घर-बार छोड़कर वापस देश में लौटना पड़ सकता है जिसके अपने अलग आर्थिक व अन्य नकारात्मक प्रभाव होंगे। अतः सरकार के हाथ में संसाधन कम होंगे जिससे कृषि, ग्रामीण योजनाओं के बजट और कृषि निवेश में कटौती हो सकती है।

अगर ऐसा हुआ तो पहले ही मंदी से जूझ रही हमारी अर्थव्यवस्था और कमजोर हो जाएगी जिसका असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा। इस अशांत माहौल का प्रभाव इन देशों में हो रहे हमारी कृषि जिंसों के निर्यात पर भी पड़ेगा। यदि अस्थिरता के कारण हम ईरान और अन्य खाड़ी देशों को अपने कृषि उत्पादों का निर्यात नहीं कर पाते हैं तो अच्छे बाज़ार के अभाव में इन कृषि जिंसों के दाम गिरेंगे जिसका नकारात्मक असर हमारे किसानों की आय पर पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का असर हमारे किसानों की आय पर कैसे पड़ेगा इसे हमारे चावल के निर्यात से समझा जा सकता है। खाद्यान्न के लिहाज से धान देश की सबसे बड़ी फसल है जिसकी खेती पर करोड़ों किसानों की जीविका निर्भर है।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक देश है। हम 120 से 130 लाख टन चावल का निर्यात प्रति वर्ष करते हैं। 2018-19 में हमने 471 करोड़ डॉलर मूल्य के बासमती चावल और 304 करोड़ डॉलर मूल्य के गैर-बासमती चावल का निर्यात किया था। इस प्रकार कुल मिलाकर 2018-19 में हमने लगभग 55,000 करोड़ रुपये मूल्य के चावल का निर्यात किया था। पिछले साल लगभग 33,000 करोड़ रुपये मूल्य के बासमती चावल के निर्यात में से लगभग 11,000 करोड़ रुपये की यानी एक-तिहाई हिस्सेदारी ईरान की थी। 2018-19 में हमने ईरान से लगभग 2.4 करोड़ टन कच्चे तेल का आयात किया था। परन्तु ईरान पर अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों के कारण मई 2019 से हमें भी ईरान से कच्चे तेल का आयात बन्द करना पड़ा। इस कारण ईरान को होने वाले हमारे निर्यात के भुगतान की समस्या खड़ी हो गई जिससे इस निर्यात पर बहुत ही नकारात्मक असर पड़ा। इसका प्रभाव बासमती चावल की कीमतों पर भी पड़ रहा है। 1121 प्रीमियम किस्म के बासमती चावल का निर्यात भाव छह-सात महीने पहले लगभग 1200 डॉलर प्रति टन था। अब यह गिरकर लगभग 900 डॉलर प्रति टन के आसपास आ गया है जो पिछले पांच साल का सबसे कम दाम है। ईरान से तेल ना खरीदने के कारण पहले ही भारतीय चावल की मांग वहां घट रही थी। अब खाड़ी देशों में अस्थिरता को देखते हुए हमारे बासमती चावल की मांग और कीमतों के और नीचे जाने की आशंका है।

चावल निर्यातकों का मानना है कि यदि हालात और बिगड़े या प्रतिबंधों के कारण हम ईरान की चावल की मांग पूरी नहीं कर पाए तो ईरान के चावल बाजार पर पाकिस्तान जैसे अन्य चावल निर्यातक देश कब्जा जमा सकते हैं। फिलहाल भारतीय चावल निर्यातक संघ ने अस्थिरता को देखते हुए चावल निर्यातकों को ईरान को चावल निर्यात ना करने की सलाह दी है।

2019 में भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में लगभग 213 लाख टन चावल और 352 लाख टन गेहूं था, यानी कुल मिलाकर इन दोनों खाद्यान्नों का स्टॉक 565 लाख टन था। जबकि 1 जनवरी को यह बफर स्टॉक 214 लाख टन होना चाहिए। इसके अलावा 260 लाख टन धान भी गोदामों में पड़ी है। परन्तु अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण निर्यात घटने और खाड़ी देशों में तनाव से चावल की कीमतों पर और दबाव बढ़ेगा।

इस साल पंजाब में किसानों को 1121 किस्म की बासमती धान का भाव 2800 से 3000 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहा है, जो पिछले साल ईरान से अच्छी मांग के चलते 3600-3800 रुपये प्रति क्विंटल था। भारत ने 2013-14 में 4,325 करोड़ डॉलर (आज के मूल्यों में लगभग तीन लाख करोड़ रुपये) मूल्य के कृषि उत्पादों का निर्यात किया था, जो 2016-17 में गिरकर 3,370 करोड़ डॉलर पर आ गया था। इसके बाद के सालों में इसमें कुछ बढ़ोतरी हुई और यह 2018-19 में बढ़कर 3,920 करोड़ डॉलर पर पहुंच गया। परन्तु 2019-20 में अप्रैल से सितंबर की पहली छमाही में यह केवल 1,730 करोड़ डॉलर के स्तर पर है जो 2018-19 में इस अवधि में 1,902 करोड़ डॉलर था। खाड़ी देशों में अशांति और अनिश्चितता के कारण 2019-20 की दूसरी छमाही में इसमें और गिरावट आ सकती है।

कृषि उत्पादों का निर्यात किसानों की आमदनी को बढ़ाने में भी मददगार होता है। लेकिन 2020 की शुरुआत में ही पश्चिम एशिया पर छाए अशांति के बादल हमारे देश के लिए, वहां रह रहे भारतीयों और विशेषकर हमारे किसानों के लिए अच्छी खबर नहीं है।

 (लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)