ग्लासगो के संकल्प कहीं हिमालय को बर्बाद न कर दें!

स्काटलैंड के शहर ग्लासगो में सीओपी26 (कान्फ्रेंस ऑफ पार्टिस 26) का आयोजन 1 नवंबर से शुरु हुआ था। भारत का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसमें शामिल होते हुए जिन समझौतों और संकल्पों पर हस्ताक्षर किए हैं इससे न केवल भारत पर अमेरिका, ब्रिटेन जैसे साम्राज्यवादी देशों को शिकंजा बुरी तरह से कसा जाएगा बल्कि यह पूरे देश सहित हिमालय क्षेत्र के लिए बुरे नतीजे निकलने वाले हैं। नेट जिरो 2070, गो ग्रीन गो 2030, वन ग्रीड वन सोलर, कार्बन उत्सर्जन में कटौती, नवीकरणीय उर्जा जैसे जो नारे जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बहुत आकर्षित और सुंदर लग रहे हैं लेकिन इससे उतर भारत में जल संकट, बाढ़ और पूरे पर्यावरण के लिए खतरा पैदा होगा। इन समझौतों से भारत में जलवायु वित्त के नाम से विदेशी निवेश के बढ़ावे से देश के जल-जंगल-जमीन जैसे मूलभूत संसाधन ज्यादा से ज्यादा विदेशी कंपनियों के हाथों के बपोती बनते जाएंगे।

मोदी ने अपना प्रस्ताव रखते हुए जो पाँच बिंदु रखे हैं उनको उन्होंने पंचअमृत भी कहा है। इस सम्मेलन में 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत कट करने, 2030 तक पुनर वानिकीकरण, इन्फ्रास्टक्चर फॉर रेजिलेंट आइसलेंड स्टेट (आईआरआईएस), वन सोलर वन वर्ल्ड ग्रीड जैसे संकल्पों पर विभिन्न देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। इन सब की जिम्मेदारी अब धीरे-धीरे विकासशील और गरीब देशों के मत्थे मढ़ी जा रही है।

दरअसल विकसित देश की मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग के जिम्मेदार हैं। औद्योगिक क्रांति और उसके बाद पूरी दुनिया को अपने माल के निर्यात से इन देशों ने अकूत धन संपत्ति जमा की है। उत्पादन को बढ़ाने के लिए भारी पैमाने पर जिंवाश्म ईंधन का इस्तेमाल इन्होंने ही शुरू किया था। उद्योगों के लिए बिजली, परिवहन और इसके लिए कोयला, पेट्रोल और डीजल इन्हीं पूंजीवादी देशों की उपज है। दुनिया के बाजार को अपने-अपने कब्जे में करने के लिए दो-दो विश्व युद्ध और बाद में मध्य एशिया की लड़ाइयां इन्हीं के देन है। 1850 से 2019 तक लगभग 2500 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड पैदा हुई। इसके लिए विकसित देशों के 18 प्रतिशत घर, 60 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। विकासशील और गरीब देशों में खनन, बाँध, जल विद्युत, थर्मल पावर जैसी तकनीक और निवेश का निर्यात कर इन देशों से भारी मात्रा में पूंजी लूट कर इन्होंने अपना विकास किया है। जब ग्लोबल वार्मिंग इनके दुनिया के अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही है तो फिर यही साम्राज्यादी देश एक बार फिर गरीब देशों को लूटने का जाल बिछा रहे हैं।

कार्बनडाई आक्साईड से 80 गुणा खतरनाक होती है मीथेन गैस। ग्रीन गैस हाउस में इसका हिस्सा करीबन 17 प्रतिशत है। खेती, पशु और बाँध और जींवाश्म ईंधन इसके मुख्य स्रोत माने जाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी  ने 2030 तक 500 गिगावाट क्लीन एनर्जी का उत्पादन करने का संकल्प लिया जो अभी मात्र 100 गिगावाट है वहीं कार्बन उत्सर्जन में 1 खरब टन की कटौती करने की घोषणा की है जबकि भारत हर साल 3 खरब टन ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन करता है जोकि 2030 में 40 खरब टन होगा।

भारत की नवीकरणीय एनर्जी जल विद्युत और सोलर पावर पर निर्भर होगी। जल विद्युत यानी हाईड्रो पावर प्रोजेक्ट्स लगातार हिमालय के लिए बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं। हिमाचल और उतराखंड में इस साल मानसून में हुई तबाही ने खतरे की घंटी खड़ी कर दी है। हिमालय से निकलने वाली नदियों को लगातार भारत सरकार बांधों में तबदील कर रही है। हिमालय से निकल हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान को सींचने वाली सतलुज नदी लगभग 65 प्रतिशत बांधों में रुकी हुई है। नंगल डैम, भाखड़ा डैम, कोल डैम, नाथपा-झाकरी, छित्तकुल तक कई सो वर्ग किलोमीटर की जलाश्य सतलुज में बनाए गये हैं। इन से थोड़ी बुरी स्थिति यमुना, ब्यास, चिनाब आदि नदियों की है। इन बांधों की वजह से भारी मात्रा में हिमालय क्षेत्र में मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। हिमालयी क्षेत्र में इन बांधों की वजह से ही ज्यादा बादल बनना, गर्मी का बढ़ना और बारिश की पेट्रन में बदलाव हुए हैं। बढ़ती गर्मी के चलते हिमालय के ग्लेशियर पिघल गए हैं। 2020-21 के तुलनात्मक अध्ययन में इसरो ने पाया है कि हिमाचल में एक साल के अंदर 4300 वर्ग किलोमीटर के करीब ग्लेशियर पिघले हैं, इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित सतलुज नदी हुई है जहां पर 2700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ग्लेशियर पिघल गए हैं। यह कोई संयोग नहीं है कि इसी नदी पर सबसे अधिक जल विद्युत परियोजनाएं और बाँध बनाए गए हैं और इसी नदी पर सबसे अधिक बाँध प्रस्तावित हैं।

अगले 50 साल की तस्वीर के बारे में अगर अंदाजा भी लगाया जाए तो रूह कांप जाती है। कल्पना की जीए इसी रफ्तार से अगर बर्फ पिघलती है तो कितने हजार वर्ग किलोमीटर ग्लेशियर पिघल कर नदियों में बाढ़ ला देंगे, कितने बांधों को तोड़ देंगे। कल्पना करो पंजाब, हरियाणा में जिस तरह से भू जल नीचे जा रहा है तो कैसे जमीन बंजर हो जाएगी। आने वाली नस्लें पीने के पानी के लिए कैसे तरसेंगी। जब लगातार नवीकरणीय ऊर्जा के लिए इन कोप-26 समझौते को लागू करने के लिए दबाव बनाए जाएंगे तो भारत जल विद्युत परियोजनाओं को अधिक से अधिक मंजूरी देगा। जिसका नतीजा ज्यादा मीथेन उत्सर्जन और हिमालय की तबाही होगा। पर्यावरण बचाने के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं वह तबाही का कारण बन जाएंगे।

विकासशील देश अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटते जा रहे हैं और गरीब देशों पर अपना बोझ लादते जा रहे हैं। विकासशील देशों ने पेरिस समझौते के तहत 3 ट्रिलियन डॉलर प्रतिवर्ष अनुदान देने की बात कही थी लेकिन वह केवल 1 ट्रिलियन डॉलर तक भी नहीं पहुंचे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी यह मामला 1 ट्रिलियन डॉलर तक ही उठाया है। इस सब के पीछे वहीं पुराना खेल है जलवायु परिवर्तन के नाम पर तकनीक और पूंजी का निर्यात बढ़ाना और मुनाफा कमाना। जलवायु वित्त के नाम पर विकासशील देश अपनी कमर कस चुके हैं। अमेरिका फिर एक बार इसमें बड़े खिलाड़ी के रूप में सामने आ रहा है। कुछ शर्त अभी तक भारत, चीन और रूस ने नहीं मानी अगर वह भी मान ली जाती हैं तो यह पूरी तरह से भारत की अर्थव्यवस्था को विदेशी वित्त पूंजी के अधीन कर देगी। उन शर्तों के अधीन भारत को अपनी कृषि और पशुपालन के पैट्रन को तब्दील करना होगा, क्योंकि सर्वाधिक मीथेन खेतों और पशुओं से होती है। खेती और पशु पालन के लिए नई तकनीक और पूंजी का निर्यात के नाम पर पूंजीवादी देश फिर वही अपनी पुरानी व निक्कमी साबित हो चुकी तकनीकों को भेजेंगे, जिस से विकासशील और गरीब देश अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगे। यह खेल देशों की सरकारों को अपनी कठपुतली बनाने के लिए खेला जाता है। 

कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लासगो सम्मेलन में जाने से पहले राज्यों से चर्चा नहीं की है जबकि इन समझौतों को राज्यों ने ही लागू करना है। मोदी द्वारा किए गए वादे भविष्य में भारत की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा खतरा बनेंगे। 

(गगनदीप पर्यावरण मामलों के जानकार हैं.)

गायब मुद्दे: चुनावों में पर्यावरण चुनौतियों पर चुप्पी

2019 लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान जोरों पर है। सात चरणों में होने वाले लोकसभा चुनावों में से चार चरण के चुनाव हो गए हैं। तीन चरणों का चुनाव बाकी है। लेकिन पर्यावरण की समस्याएं कहीं भी चुनावी मुद्दा बनते नहीं दिख रही हैं। चुप्पी

जबकि सच्चाई यह है कि जलवायु परिवर्तन से लेकर वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, घटता जलस्तर, मिट्टी की खराब होती स्थिति से लेकर कई स्तर पर भारत को पर्यावरण की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे समय में जब भारत में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं तो पर्यावरण से संबंधित ये समस्याओं न तो राजनीतिक दलों के लिए मुद्दा बन पा रही हैं और न ही आम लोगों के लिए।

लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि इसमें जनता से जुड़े मसलों पर बातचीत होती है। लेकिन पर्यावरण के संकट से आम लोगों के हर दिन प्रभावित होने के बावजूद ये संकट चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है। कहीं भी वोट देने के निर्णयों को प्रभावित करने वाली वजहों में पर्यावरण संकट एक वजह नहीं है।

जबकि हकीकत यह है कि भारत के शहरों में वायु प्रदूषण कभी इतना नहीं रहा जितना आज है। दिल्ली जैसे शहरों में साफ हवा में सांस लेना एक तरह से बीते जमाने की बात हो गई है। खराब हवा की वजह से भारत मंे लोग कई तरह की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि 2017 में भारत में जितने बच्चों की जान गई, उनमें से हर आठ में से एक की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हुई। इसी तरह से दूषित जल की वजह से भी बच्चों और बड़ों को कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

देश की नदियों का हाल बुरा है। 2014 में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी ने गंगा की साफ-सफाई को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था। लेकिन पांच साल में गंगा की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं आया है। इस वजह से न तो सत्ता पक्ष इस बार नदियों की साफ-सफाई को चुनावी मुद्दा बना रहा है और न ही इसमें विपक्षी खेमे की कोई दिलचस्पी दिख रही है। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में यह जरूर कहा है कि अब वह 2022 तक गंगा को साफ-सुथरा बनाने का लक्ष्य हासिल करेगी।

भूजल का गिरता स्तर और भूजल प्रदूषण देश की बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है। आधिकारिक आंकड़े बता रहे हैं कि देश के 640 जिलों में से 276 जिलों के भूजल में फ्लुराइड प्रदूषण है। जबकि 387 जिलों का भूजल नाइट्रेट की वजह से प्रदूषित हुआ है। वहीं 113 जिलों के भूजल में कई भारी धातु पाए गए हैं और 61 जिलों के भूजल में यूरेनियम प्रदूषण पाया गया है। इस वजह से इन जिलों में रहने वाले लोगों को कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की वजह से देश में पलायन भी देखा जा रहा है। जहां सूखे की मार अधिक है और जहां प्रदूषण की वजह से जानलेवा बीमारियां हो रही हैं, वहां से लोग दूसरी जगहों का रुख कर रहे हैं। महाराष्ट्र और बुंदेलखंड से सूखाग्रस्त इलाकों से लोगों के पलायन की खबरें अक्सर आती रहती हैं।

जाहिर है कि इस स्तर पर अगर कोई समस्या लोगों को परेशान कर रही हो तो यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि यह चुनावी मुद्दा बनेगा। लेकिन फिर भी ये समस्याएं लोकसभा चुनावों में गायब दिख रही हैं। न तो कोई पार्टी अपनी ओर से ये मुद्दे उठाती दिख रही हैं और न ही प्रभावित लोगों द्वारा इन पार्टियों और स्थानीय उम्मीदवारों पर इन मुद्दों पर प्रतिबद्धता दिखाने और इनके समाधान की राह बताने के लिए कोई दबाव बनाया जा रहा है। न ही सिविल सोसाइटी की ओर से पार्टियों पर पर्यावरण को मुद्दा बनाने के लिए प्रभावी दबाव बनाया गया।

पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों में भी पर्यावरण के मुद्दों पर खास गंभीरता नहीं दिखती है। जो बातें पहले भी इन घोषणापत्रों में कही गई हैं, उन्हीं बातों को कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के घोषणापत्रों में दोहराया गया है। किसी निश्चित रोडमैप के साथ पर्यावरण की समस्या से निपटने ही राह भाजपा और कांग्रेस में से किसी भी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में नहीं सुझाई है।

विलुप्त होने के कगार पर 10 लाख प्रजातियां

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट 6 मई, 2019 को आने वाली है। 1,800 पन्नों की इस रिपोर्ट में पर्यावरण में हो रहे बदलावों, इसमें मनुष्य की भूमिका और इससे दूसरी प्रजातियों के लिए पैदा हो रहे खतरों के अलावा जलवायु परिवर्तन के विभिन्न आयामों पर विस्तृत चर्चा की गई है। इस पर चर्चा के लिए दुनिया के 130 देशों के वैज्ञानिक पेरिस में जमा हो रहे हैं।

अभी इस विस्तृत रिपोर्ट का ड्राफ्ट सार्वजनिक हुआ है। 44 पन्नों के इस ड्राफ्ट में बताया गया है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से तकरीबन दस लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि इंसानों ने जिस तरह से सिर्फ अपने हितों का ध्यान रखते हुए संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया है, उसकी वजह से इस तरह के खतरे पैदा हो रहे हैं।

इस ड्राफ्ट रिपोर्ट में यह कहा गया है कि सिर्फ दस लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का ही खतरा नहीं मंडरा रहा बल्कि तकरीबन 25 फीसदी प्रजातियां दूसरे तरह के खतरों का सामना कर रही हैं। इसमें यह दावा किया गया है कि पिछले एक करोड़ साल में यह दौर ऐसा है जिसमें सबसे तेज गति से प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं।

इसकी वजह मुख्य तौर पर मनुष्य की गतिविधियां हैं। मनुष्य की बसावट, कृषि और अन्य जरूरतों की वजह से जंगलों की अंधाधुंध ढंग से नष्ट किया जा रहा है। इससे जानवरों के रहने की जगहें सीमित हो रही हैं। वहीं दूसरी तरफ पेड़-पौधों की प्रजातियां भी विलुप्त होते जा रही हैं। रिपोर्ट में प्रदूषण और जानवरों के अवैध व्यापार को भी मुख्य वजहों के तौर पर रेखांकित किया गया है।

इंसान ने खुद की गतिविधियों से दूसरी प्रजातियों के लिए जो संकट पैदा किए हैं, उसकी आंच खुद उस तक आनी है। इसकी पुष्टि संयुक्त राष्ट्र की यह ड्राफ्ट रिपोर्ट भी कर रही है। इसमें यह बताया गया है कि इससे खास तौर पर वैसे लोग प्रभावित होंगे जो गरीब हैं और हाशिये पर रहते हुए अपना जीवन जी रहे हैं। क्योंकि उनके पास इन बदलावों के हिसाब से जरूरी बंदोबस्त करने के लिए संसाधन नहीं होंगे।

इसके प्रभावों के बारे में यह भी कहा जा रहा है दीर्घकालिक तौर पर इससे पीने के पानी का संकट पैदा होगा। सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा का संकट होगा। कृषि उत्पादन नीचे जाएगा। इससे खाद्यान्न की कीमतों में तेज बढ़ोतरी हो सकती है और दुनिया के कई हिस्सों को खाद्य संकट का सामना करना पड़ सकता है।

इस ड्राफ्ट रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इससे समुद्र के पानी में प्रदूषण बढ़ेगा और जो मछलियां निकाली जाएंगी, उनमें प्रोटीन की मात्रा कम होगी। साथ ही उनमें दूसरे तरह के जहरीले रसायन बढ़ेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि जो लोग इन मछलियों को खाएंगे, उन्हें स्वास्थ्य संबंधित परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।

इसमें यह भी कहा गया है कि कई वैसे कीटों पर भी विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है जो परागन का काम करते हैं। अगर ऐसा होता है तो कई पौधों और फूलों का अस्तित्व बचना मुश्किल हो जाएगा।

अब सवाल यह उठता है कि इस स्थिति के समाधान के लिए क्या किया जाए? सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि इंसानी गतिविधियां इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं, इसलिए सुधार की शुरुआत भी मनुष्य की गतिविधियों से ही होनी चाहिए। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति की विभिन्न प्रजातियों में से मनुष्य भी एक प्रजाति है और प्राकृतिक संसाधनों पर सिर्फ हमारा ही हक नहीं है।

हमें यह भी समझना होगा कि अगर संसाधनों का सही और पर्याप्त इस्तेमाल करें तो इससे प्रकृति का पूरा चक्र बना रहेगा। जब प्रकृति का चक्र सही ढंग से चलता रहेगा तभी मनुष्य भी सामाजिक और आर्थिक रूप से आगे बढ़ता रहेगा। लेकिन अगर मनुष्य की गतिविधियों की वजह से प्राकृतिक चक्र गड़बड़ होता है तो इससे पूरी व्यवस्था गड़बड़ हो जाएगी।

जरूरत इस बात की है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से लाखों प्रजातियों पर विलुप्त होने के खतरे को वैश्विक स्तर पर समझा जाए और इसके समाधान के लिए दुनिया के अलग-अलग देश एकजुट होकर काम करें। पर्यावरण समझौतों को लेकर विकसित देशों और विकासशील देशों में विचारों की जो दूरी है, उसे पाटने की जरूरत है।

समाज और पर्यावरण के बीच से गुम होते घराट

घराट सिर्फ आटा पीसने या धान कूटने का यन्त्र नहीं है बल्कि अादिवासी/पर्वतीय क्षेत्र की एक संस्कृति और प्राकृतिक संसाधनों के बीच सामंजस्य का एक अनूठा नमूना है। हिन्द कुश हिमालय क्षेत्र मे 2 लाख घराटो का इतिहास मिलता है जो धीरे-धीरे समाप्त हो गए हैं।

हिंंदुुकुश-हिमालय क्षेत्र मेंं 2 लाख घराटोंं का इतिहास मिलता है जो धीरे-धीरे समाप्त हो गए हैं। हालांकि इन्‍हें बचाने के लिए कुछ सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर प्रयास भी हुए हैं लेकिन ज्‍यादातर अपनी पीठ थपथपाने तक ही सीमित रहे हैं ..।।

घराट जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) और ग्लोबल वार्मिंग का एक सरल जबाब भी है। आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज के खतरे से सहमी हुई है। कहींं बाढ़ तो कहींं बेमौसम बारिश या ओलावृष्टि मुसीबत बनकर आते हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर विद्वानोंं में दो मत हो सकते हैंं लेकिन यह मानव सभ्यता और पृथ्‍वी पर जनजीवन के लिए एक खतरा है इस पर किसी को भी संदेह नहीं है।

पूरी दुनिया के वैज्ञानिक और राजनैतिक नेतृत्व इस खतरे को कम करने या टालने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैंं। जहां एक तरफ ग्रीन टेक्नोलॉजी (green technology), फ्यूल एफिशिएंसी (fuel efficiency), रिन्यूअल एनर्जी ( renewable energy) और न जाने कितने नए-नए शब्द सुनाई दे रहे हैं। वहींं दूसरी तरफ प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाले किसी भी कार्य को करने में इन्सान जरा भी झिझक नहींं रहा है।

गेहूं पीसकर आटा बनाने या धान से चावल निकालने जैसे बेहद साधारण कामों के लिए भी बिजली/डीजल जैसे ऊर्जा के उच्चतम स्रोतों का प्रयोग कर रहा है, जबकि मानव सभ्यता के प्रथम चरण से ही आटा बनाने या धान कूटने जैसे साधारण कार्योंं के लिए ऊर्जा के न्यूनतम स्रोतों का सफलतापूर्वक प्रयोग मनुष्य करता आ रहा है।

घराट अर्थात पानी से चलने वाली चक्की या पनचक्की मानव निर्मित एक बेहद साधारण और प्राथमिक तकनीक है, जिसमें पानी की धारा को थोड़ा-सा मोड़कर काइनेटिक एनर्जी अर्थात गतिक ऊर्जा को मैकेनिकल एनर्जी अर्थात मशीनी ऊर्जा मेंं परिवर्तित किया जाता है। इस कार्य मेंं न तो पर्यावरण का कोई नुकसान होता है ओर न ही पानी मेंं किसी भी प्रकार का प्रदूषण। इस तरह प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाए प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाते हुए कुदरती शक्ति का इस्तेमाल किया जाता है।

पूरे हिंंदूकुश-हिमालय क्षेत्र में लगभग 2 लाख घराटोंं का इतिहास मिलता है जो धीरे –धीरे सरकारों की उदासीनता, गलत तकनीक के चयन और ऊर्जा के उच्‍चतम स्रोत के अंधाधुंंध इस्तेमाल के परिणामस्वरूप अाज लगभग समाप्त हो रहे हैंं। समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह किसी समाज और संस्कृति को गुलाम बनाने की मानसिकता का परिणाम है कि समाज से उसका ज्ञान, विज्ञान, तकनीक और संस्कृति छीन लो और फिर उसे अपने पर पूरी तरह से अाश्रित बना डालो। जिससे कि अाटा पीसने, धान कूटने और तिलहन से तेल निकालने जैसे साधारण कार्यों के लिए भी वो दूसरों पर अाश्रित रहे ताकि विकास के नाम पर उनके साथ मनमानी की जा सके।

तकनीकी इतिहास के जानकार मानते है कि तकनीक का उदय अचानक से नहीं होता है बल्कि तकनीक एक स्टेज (स्तर) से दूसरे स्टेज की तरफ जाती है, अर्थात तकनीक का विकास एक सतत प्रकिया है, बशर्ते उस पर ध्यान दिया जाए। लेकिन अफसोस ज्यादातर घराट अाज भी पुरानी तकनीक से ही चल रहे हैं और इसी कारण समय के साथ कदम ताल नही कर पा रहे हैं। लेकिन मामला सिर्फ गति का नहीं है, गति तो बढ़ाई भी जा सकती है।

घराटों को व्यापारिक तौर पर लाभप्रद भी बनाया जा सकता है, इसके लिए थोड़ा नीति में और थोड़ा तकनीकीी में बदलाव करना होगा। पहाडी क्षेत्रों में जो राशन जाता है उसमें आटे की जगह गेंहूं जाए। सरकारे घराट के आटे को प्रथमिकता देंं। इससे न सिर्फ स्वास्‍थवर्धक आटा मिलेगा बल्कि पर्यावरण की रक्षा भी होगी और पहाड़ोंं से पलायन रोकने में भी मदद मिलेगी।

हालांकि कुछ स्थानोंं पर घराट मेंं तकनीकी सुधार के लिए कुछ प्रयास भी किए गए हैं, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। यह तभी संभव है जब मुख्य धारा की राजनीति और तथाकथित मुख्य धारा का समाज अपनी साम्राज्यवादी सोच को बदलेंगे और उन तकनीक, विचारों ओर संस्कृतियों को आगे बढ़ने का मौका देंगे जो अाज किसी वजह से पीछे छूट गए हैं। घराटों का पुनर्जीवन इन समाजों को तकनीकी और अर्थिक तौर पर न सिर्फ सामर्थ्यवान बनाएगा, बल्कि आत्मनिर्भर भी बनाएगा। यही ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज जैसे सवालों का भी जबाब है।