हरियाणा में 5 लाख एकड़ भूमि पर होगा डीकंपोजर दवा का छिड़काव, कृषि वैज्ञानिक ने बताया अव्यहवारिक

हरियाणा सरकार ने पराली प्रबंधन के लिए 5 लाख एकड़ भूमि में बायो डीकंपोजर का छिड़काव करने का फैसला लिया है. सरकार ने फैसला लिया है कि एक लाख एकड़ जमीन पर कृषि विभाग और चार लाख एकड़ जमीन पर सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी) फंड के तहत यूपीए कंपनी द्वारा दवा का छिड़काव किया जाएगा.

बृहस्पतिवार को चंडीगढ़ में मुख्य सचिव संजीव कौशल की अध्यक्षता में हुई बैठक में किसानों से बिना आग लगाए पराली नष्ट करवाने के लिए यह फैसला लिया गया है. मुख्य सचिव ने बताया गया कि डीकंपोजर के छिड़काव से धान की पराली आसानी से खेत में ही गल जाएगी और प्रदूषण नहीं फैलेगा.

सरकार के इस फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कृषि वैज्ञानिक डॉ. विरेन्द्र लाठर ने हमें बताया, “सरकार ने यह गलत फैसला लिया है. पूसा की खुद की रिसर्च डीकंपोजर को नकार चुकी है. इस संबंध में मैंने गवर्नर का पत्र लिखकर इस फैसले को वापस लेने की मांग भी की है.

पढ़िए डॉ विरेन्दर का पूरा तर्क उन्हीं की कलम से

मुझसे यह एक सवाल अक्सर पूछा जाता है कि क़्या धान पराली जलाने के इलावा कोई समाधान नहीं है? सरकार ने सब्सिडी के साथ, पिछले वर्षों में कई अव्यहवारिक योजना इस दिशा में चलाई हैं, जिसमें पराली को विशेष मशीनों की मदद से जमीन में मिलाकर जैविक खाद बनाया जाता है. लेकिन भारी सरकारी आर्थिक सहायता के बावजूद, ज़्यादातर क़िसानों ने इसे नहीं अपनाया. इसी तरह, अब सरकार एक बार फिर से डिकंपोजर के छिड़काव से खेत में ही पराली को गलाने जैसी अव्यहवारिक नीति क़िसानो के लिए लेकर आई है. हमें यह समझने की जरूरत है कि धान कटाई से गेंहू फसल की बुआई के बीच किसान को मात्र बीस दिन का समय मिलता है और बीस दिन के इतने कम समय में कोई भी डिकंपोजर खुले खेत में कम तापमान पर धान की पराली को नहीं गला सकता है.

धान की पराली जलाने की समस्या के समाधान के रूप में डीकंपोजर को बढ़ावा देना गलत है. यह गलत तरीके से दावा किया जा रहा है कि पूसा डीकंपोजर 15-20 दिनों के भीतर धान की पराली को खुले खेत में गला सकता है. यहां तक कि आईसीएआर-आईएआरआई ने भी इसका दावा नहीं किया, लेकिन स्पष्ट रूप से कहा कि ‘पूसा डीकंपोजर की बायोऑगमेंटेड प्रक्रिया प्रयोगशाला में नियंत्रित प्रायोगिक परिस्थितियों में पराली को ’60 दिनों के भीतर’ परिपक्व खाद बना सकती है. पूसा डीकंपोजर टीम द्वारा आगे की टिप्पणियों में कहा गया था कि “जैव-अपघटन की तीव्र प्रक्रिया के दौरान, तापमान” पहले 10-15 दिनों के लिए 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक तक बढ़ गया था”. पूसा बायोडीकंपोजर के छिड़काव के दो सप्ताह में ही यह हानिकारक सिद्ध हो जाएगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि इस तरह का उच्च तापमान (50C) सर्दियों की फसलों गेहूं, चना, सरसों, आलू आदि के बीज अंकुरण को बुरी तरह प्रभावित करेगा. इन्हें लगभग 20 डिग्री सेल्सियस के औसत परिवेश के तापमान की आवश्यकता होती है. ICAR-IARI अनुसंधान दल ने यह भी पुष्टि की कि ‘माइक्रोबियल डीकंपोजर सर्दियों के मौसम में कम तापमान पर 90 दिनों के भीतर धान की पराली को गलाकर खाद बनाता है.

सभी अध्ययनों ने सुझाव दिया है कि धान की पराली को कृत्रिम जैव-अपघटक के साथ या उसके बिना इन-सीटू अपघटन के तहत इसके गलकर खाद बनने के लिए 60 से 90 दिनों की आवश्यकता होती है. यह उन किसानों के लिए उपयुक्त नहीं है, जिन्हें धान की कटाई और अगली फसल की बुवाई के बीच केवल 20 दिन का समय मिलता है.

फिर पराली का समाधान क्या हो सकता है?

पंजाब और हरियाणा में लगभग एक करोड़ एकड़ भूमि पर धान फसल उगाई जाती है, जिससे धान अनाज निकलने के बाद लगभग बीस करोड़ क्विंटल पराली बनती है. किसान के पास अगली फसल बुआई के लिए समय कम होने की वजह और वैकल्पिक व्यवस्था के अभाव में, ज़्यादातर पराली जलाई जाती है, जिससे वायु प्रदूषण तो होता ही है उसके साथ भूमि की उर्वरक शक्ति भी क्षीण होती है. जबकि दूसरी तरफ़, देश में पचास करोड़ पशुधन को सूखे चारे की समस्या हमेशा बनी रहती है. जो देश के सूखे क्षेत्र में जनवरी से मई महीने तक ज़्यादा गंभीर हो जाती है, जहा पशु पालकों को अभाव में मजबूरन सूखा चारा औसतन 800 रुपये प्रति किवंटल में ख़रीदना पड़ता है. पशु विज्ञान विशेषज्ञों के अनुसार देश में वार्षिक 25% सूखे चारे की कमी रहती है, जो मौसमी सूखा पड़ने पर विभिन्न क्षेत्रों में ज़्यादा बढ़ जाती है. इसलिए, सरकार को धान की पराली को आपदा न मानकर, इसे अवसर में बदलने की पहल करनी चाहिए. इसके लिए सरकार राष्ट्रीय सूखा चारा बोर्ड की स्थापना करे, जो राजधानी व पड़ोसी राज्यों के क्षेत्र के क़िसानो से 200- 300 प्रति क्विंटल पराली मात्र 5000 करोड़ रूपये वार्षिक में ख़रीद कर सूखा चारा बैंक बनाए और इसे सूखे क्षेत्र के पशु पालकों को 500-600 रूपये प्रति क्विंटल बेचकर, वायु प्रदूषण और सूखे चारे की कमी की समस्या का समाधान कर सकती है. इसी तरह पराली को बिजली पैदा करने में प्रयोग किया जा सकता है. पंजाब में सुखबीर एग्रो ने पराली से बिजली बनाने की शुरुआत की है, ऐसी ही पहल सरकार धान पैदा करने वाले हर ज़िले में कर सकती है. इससे किसान को पाँच हज़ार रुपये प्रति एकड़ कमाई होगी और ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार के नए अवसर भी बनेंगे और किसान-सरकार के बीच के क़ानूनी टकराव से भी बचा जा सकेगा.

धान की पराली के नाम पर हर साल बवाल खड़ा कर किसानों को बदनाम करने की साजिश की जाती है और असली गुनहगारों को सरकार और मीडिया बचा लेती है. इसके साथ ही गलत प्रबंधन, दिल्ली राजधानी क्षेत्र के तीन करोड़ से ज़्यादा जनता से अन्याय करते हुए उन्हें नर्क का जीवन जीने पर मजबूर करता है. केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट (2018) के अनुसार दिल्ली के प्रदूषण में, वाहन से 41%, स्थानीय धुल से 21.5%, उद्योग से 18% व बाकी 20% दूसरे कारण से योगदान होता है. केंद्रीय पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावेडकर के अनुसार 4 अक्टूबर 2020 को दिल्ली के प्रदूषण में धान पराली जलने का योगदान मात्र 4% था. सफ़र वायु गुणवत्ता मीटर, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार 10 अक्टूबर से 10 नवम्बर के बीच, दिल्ली के वायु प्रदूषण में, पराली का योगदान औसतन 15% रहता है, जो गेंहु की बुआई के साथ लगभग 15 नवम्बर के बाद फिर 4% से क़म पर आ जाता है. इसी तरह पंजाब कृषि विश्वविधालय लुधियाना के मौसम विभाग के वैज्ञानिको ने प्रमाणित किया है कि अक्तूबर-नवम्बर महीने में वायु की कम गति के कारण (5 किलो मीटर प्रति घंटा से कम), पंजाब की पराली का धुआँ दिल्ली जाने की कोई सम्भावना नहीं है. जिससे ज़ाहिर होता है की वर्ष भर दिल्ली प्रदूषण ज़्यादातर स्थानीय कारणों से होता है, जिसका समाधान भी स्थानीय प्रदूषण फैलाने वाले कारण को ठीक करने ही हो सकता है. फिर दिल्ली प्रदूषण के लिए, असली स्थानीय रसूखदार गुनाहगारों को बचाकर, किसान को प्रताड़ित और बदनाम क्यों किया जा रहा है और उनपर पूसा डीकंपोजर से धान की पराली को खुले खेत में गलाने का अव्यवहारिक तरीका क्यों थोपा जा रहा है.

चिलचिलाती धूम में सड़कों पर क्यों निकला किसानों का रेला?

मई की चिलचिलाती धूप में हरियाणा के किसानों का पार चढ़ गया है। राज्य के कई इलाकों में धान की खेती पर पाबंदियों के खिलाफ किसानों का गुस्सा सड़कों पर नजर आने लगा है। सोमवार को 45 डिग्री सेल्सियस  की गरमी में फतेहाबाद जिले के रतिया ब्लॉक में बड़ी संख्या में किसानों ने ट्रैक्टर मार्च निकाला। ट्रैक्टर पर काले झंड़े लगाकर निकले किसान धान की खेती पर आंशिक रोक का विरोध कर रहे थे।

इसी मुद्दे पर कांग्रेस ने भी किसानों को लामबंद करना शुरू कर दिया है। सोमवार को गुहला (कैथल) में कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला इसी मुद्दे पर किसानों के धरने में शामिल हुए। सुरजेवाला का कहना है कि खट्टर सरकार ने कुरुक्षेत्र और कैथल के किसानों की खेती उजाड़ने और आढ़ती व दुकानदार का धंधा बंद का फैसला कर लिया है। तानाशाही रवैया अपनाते हुए सरकार ने राज्य के 19 ब्लॉकों में धान की खेती पर पाबंदियां लगा दी हैं।

धान की खेती पर कहां-कितनी रोक?

हरियाणा सरकार ने भूजल स्तर में कमी वाले विकास खंडों में धान की बजाय मक्का, कपास, बाजरा और दलहन की खेती को बढ़ावा देने का फैसला किया है। इसके लिए गत 9 मई को मेरा पानी, मेरी विरासत” नाम की योजना शुरू की गई है। इस योजना के जरिए जिन ब्लॉकों में जलस्तर 40 मीटर से भी नीचे है, वहां एक लाख हेक्टेअर भूमि में धान की बजाय मक्का, कपास, बाजरा और दलहन की खेती करवाने का लक्ष्य रखा गया है।

मतलब, जल संकट को देखते हुए राज्य सरकार ने तय कर लिया कि किन इलाकों में पानी बचाना है और धान की खेती कुछ पाबंदियां लगानी पड़ेगी। मगर किसानों के साथ कोई राय-मशविरा किए बगैर!

40 मीटर से नीचे जलस्तर वाले ब्लॉक 

कैथल जिले के गुहला चीकासीवन ब्लॉक में किसान अपनी 50 फीसदी से ज्यादा भूमि में धान की खेती नहीं कर सकेंगे। यही पाबंदी कुरुक्षेत्र जिले के शाहबाद, पीपली, बबैन, इस्माईलाबाद, फतेहाबाद जिले के रतिया और सिरसा जिले के सिरसा ब्लॉक में भी लगाई गई है।

40 मीटर से नीचे जलस्तर वाले 19 ब्लॉकों में किसान 50 फीसदी से ज्यादा भूमि में धान की खेती नहीं कर सकेंगे। यानी पिछले साल जितनी भूमि में धान बोया था, इस साल उससे आधी जमीन में ही धान की खेती कर सकते हैं। इन ब्लॉकों में अगर किसानों ने 50 फीसदी से ज्यादा भूमि में धान बोया तो कृषि विभाग से मिलने वाली कोई सब्सिडी नहीं मिलेगी और न ही उनके धान की समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद होगी। जबकि धान की जगह मक्का, बाजरा और दलहन उगाने के लिए सरकार एमएसपी पर खरीद की गारंटी दे रही है।

35 मीटर से नीचे जलस्तर वाले ब्लॉक

हरियाणा के जिन 26 ब्लॉकों में पानी 35 मीटर से नीचे है, वहां पंचायती जमीन पर धान की खेती की अनुमति नहीं मिलेगी। इनमें छह ब्लॉक कुरुक्षेत्र, तीन फतेहाबाद और दो कैथल जिले में हैं।

इतना ही नहीं, जिस भूमि पर पिछले साल धान की खेती नहीं हुई थी, वहां इस साल धान बोने की अनुमति नहीं दी जाएगी। इसके अलावा जो किसान 50 हार्स पावर इलेक्ट्रिक मोटर से ट्यूबवैल चलाते हैं, वे भी धान की खेती नहीं कर सकेंगे।

पंचायती जमीन पट्टे पर लेने वाले जींद, कैथल, करनाल, कुरुक्षेत्र, अंबाला, यमुनानगर और सोनीपत के 8 ब्लॉकों के किसान भी धान की खेती नहीं कर सकेंगे।

धान छोड़ने पर प्रति एकड़ 7,000 रुपये का अनुदान  

धान छोड़कर अन्य फसलें उगाने के लिए हरियाणा सरकार किसानों को 7,000 रुपये प्रति एकड़ का अनुदान देगी। लेकिन यह अनुदान केवल उन किसानों को मिलेगा जो 50 फीसदी से कम क्षेत्र में धान की खेती करेंगे। अगर अन्य ब्लॉक के किसान भी धान की खेती छोडऩा चाहते हैं तो वे इसके लिए आवेदन कर सकते हैं। उन्हें भी अनुदान मिलेगा। लेकिन 50 फीसदी से ज्यादा भूमि में धान छोड़कर कुछ और उगाना होगा। इसके लिए सरकार ड्रिप इरीगेशन सिस्टम पर 85 फीसद सब्सिडी दे रही है।

पिछले साल ही फेल हो चुकी है योजना- सुरजेवाला

कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का कहना है कि ऐसी जालिम तो अंग्रेज सल्तनत भी नही थी जैसी BJP-JJP सरकार बन गई है। एक तरफ खट्टर सरकार दादूपुर नलवी रिचार्ज नहर परियोजना को बंद करती है, तो दूसरी ओर गिरते भूजल की दुहाई देकर उत्तरी हरियाणा खासकर कुरुक्षेत्र और कैथल के किसानों की खेती और चावल उद्योग को उजाड़ना चाहती है।

हरियाणा सरकार की योजना पर सवाल उठाते हुए सुरजेवाला कहते हैं कि पिछले साल भी धान की फसल की जगह मक्का उगाने की योजना 7 ब्लॉकों में शुरू की थी। इसके लिए प्रति एकड़ 2000 रुपये अनुदान, 766 रुपये बीमा प्रीमियम और हाईब्रिड सीड देने का वादा किया था। परंतु न तो किसान को मुआवज़ा मिला, न बीमा हुआ बल्कि हाईब्रिड सीड फेल हो गया।

अनुदान और भरोसा दोनों ही कम

उधर, फतेहाबाद जिले में उपायुक्त कार्यालय पर धरना देने पहुंचे किसानों का आरोप है कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्र होने के बावजूद सरकार ने धान की खेती पर रोक का फरमान जारी कर दिया है। धान की बजाय सरकार मक्का उगाने पर जोर दे रही है जबकि इन क्षेत्रों की मिट्टी और जलवायु मक्का के अनुकूल नहीं है। साथ ही राज्य सरकार ने 7,000 रुपये के अनुदान का ऐलान किया है जो बेहद कम है। भारतीय किसान यूनियन (अम्बावता) के अध्यक्ष ऋषिपाल अम्बावता का कहना है कि राज्य सरकार यह आदेश वापस ले नहीं तो बड़े आंदोलन के लिए तैयार रहे।

पिछले साल के अनुभवों की वजह से ही किसान धान की खेती छोड़ने को तैयार नहीं है जबकि राज्य सरकार का दावा है कि मक्का उगाने में प्रति एकड़ 5450 रुपये का फायदा है। किसानों की नाराजगी की एक वजह यह भी है कि हरियाणा सरकार ने किसानों के साथ विचार-विमर्श किए बिना ही धान पर पाबंदियां लगाने का निर्णय ले लिया। किसानों की इस नाराजगी को भुनाने के लिए कांग्रेस के नेता इस मुद्दे को जोरशोर से उठ रहे हैं।