मानसून को कैसे गड़बड़ा सकती है भू-अभियांत्रिकी? क्या होनी चाहिए भारत की रणनीति?

संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में विभिन्न देशों के बीच होने वाली जलवायु वार्ताओं के परिणाम निराशाजनक रहे हैं। यही वजह है कि जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले कई वैज्ञानिक जीओ-इंजीनियरिंग यानी भू-अभियांत्रिकी के नफे-नुकसान के आकलन पर जोर दे रहे हैं। भू-अभियांत्रिकी एक नया और जटिल विषय है। सरल शब्दों में कहें तो इसका अभिप्राय वैश्विक तापवृद्धि के कुछ प्रभावों को नियंत्रित करने के लिए पृथ्वी की जलवायु व्यवस्था में बड़े पैमाने पर तकनीकी हस्तक्षेप से है। भारतीय वैज्ञानिकों, नीति-निर्माताओं और आम जनता के लिए इस मुद्दे को समझना जरूरी है, क्योंकि सौर भू-अभियांत्रिकी दक्षिण एशिया में मानसून को गड़बड़ा सकती है।

इस सिलसिले में भू-अभियांत्रिकी की व्यापक शब्दावली को समझना भी जरूरी है। इसमें दो तरह की तकनीकें शामिल हैं – कार्बन भू-अभियांत्रिकी और सौर भू-अभियांत्रिकी। इन दोनों तकनीकियोंं कों से जुड़े मुद्दे भी अलग-अलग हैं।

कार्बन भू-अभियांत्रिकी वातावरण से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड हटाने की तकनीक है। इसके लिए जो तरीके अपनाये जाते हैं, उनमें बायो एनर्जी कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (BECCS) शामिल है। इसके लिए वर्ष 2100 तक भारत के क्षेत्रफल से पांच गुना बड़े क्षेत्र में जैव ऊर्जा वाली फसलें उगानी पड़ेंगी। जाहिर है कि इतने बड़े पैमाने पर भूमि-उपयोग परिवर्तन से विश्व की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। करोड़ों लोगों के भूमि, वन और जल से जुड़े अधिकारों का हनन हो सकता है।

भू-अभियांत्रिकी का दूसरा तरीका सौर भू-अभियांत्रिकी है। इसमें सौर विकिरण प्रबंधन (SRM) जैसे उपाय शामिल हैं, जो सूर्य के प्रकाश के कुछ हिस्से को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित कर पृथ्वी के तापमान को कम करने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के तौर पर, समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फीयर) में सल्फर डाइऑक्साइड का छिड़काव कर सूर्य की किरणों को कुछ हद तक पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करने से रोका जा सकता है। इस तरह सौर भू-अभियांत्रिकी की मदद से धरती के वातावरण का तापमान कम किया जा सकता है। लेकिन दिक्कत यह है कि जब भू-अभियांत्रिकी जैसे उपाय उपलब्ध होते हैं तो जीवाश्म ईंधन से मुनाफा बनाने वाली कंपनियों पर उत्सर्जन घटाने का दबाव कम हो जाता है। सामाजिक वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि भू-अभियांत्रिकी जैसे तरीके उत्सर्जन कटौती में निवेश से वैश्विक समुदाय का ध्यान भटका सकते हैं। नीति-निर्माता ऐसी चेतावनियों को अक्सर अनसुना कर देते हैं।

सौर भू-अभियांत्रिकी का यह तरीका जलवायु परिवर्तन के कई गंभीर प्रभावों से बचने में मददगार हो सकता है, लेकिन यह वातावरण में पहले से मौजूद कार्बन को छूता भी नहीं है। इसका मतलब यह है कि सौर भू-अभियांत्रिकी अगर सफल हो भी जाये, तब भी उत्सर्जन कम करने की सुचारू योजनाओं के अभाव में वायु प्रदूषण जैसी समस्याएं जस की तस बनी रहेंगी। इसकी सबसे बड़ी कीमत समाज के सबसे गरीब तबके को उठानी पड़ेगी। दूसरी तरफ, भू-अभियांत्रिकी के कारण वातावरण के तापमान में हेरफेर से पृथ्वी का जल चक्र गड़बड़ा सकता है और मानसून प्रभावित हो सकता है। इसकी वजह से भारत समेत एशिया के अन्य देशों और पूर्वी अफ्रीका के कम से कम 200 करोड़ लोग प्रभावित हो सकते हैं। इसलिए मानसून में कम से कम खलल डालने के पक्षधर भारत को भू-अभियांत्रिकी के शोध एवं विकास पर निगरानी के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था विकसित करने पर जोर देना चाहिए।

इससे पहले कि हम मामले की बारीकी में जाएं, एक अहम सवाल पूछना जरूरी है। एक तर्क यह भी है कि भू-अभियांत्रिकी अभी सिर्फ कंप्यूटर मॉडलिंग की स्टेज पर ही है, फिर भी विश्व समुदाय को जलवायु इंजीनियरिंग के तौर-तरीकों के बारे में क्यों फिक्रमंद होना चाहिए

इसके कई कारण हैं:

पहला, वैश्विक तापवृद्धि में 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी के प्रभावों के बारे में आईपीसीसी की रिपोर्ट वर्ष 2050 तक पेरिस समझौते के लक्ष्य पूरा होने का भरोसा जताती है। ये लक्ष्य सामाजिक, व्यावसायिक और तकनीकी संभावनाओं पर आधारित हैं और इसके लिए भू-अभियांत्रिकी जैसे जलवायु से जुड़े गंभीर जोखिम उठाने और विकासशील देशों में गरीबी हटाने के लिए जरूरी सुधारों को खतरे में डालने की आवश्यकता नहीं है।

पर्यावरण कार्यकर्ताओं और छात्र समूहों के वैश्विक आंदोलन के चलते दुनिया भर में निवेशकों और बड़े संस्थानों ने 15 अरब डॉलर के निवेश को जीवाश्म ईंधन के विकास की बजाय दूसरे कामों में लगाने की प्रतिबद्धता घोषित की है। यह इस बात का सबूत है कि जीवाश्म ईंधन आधारित अर्थतंत्र में बदलाव लाना मुमकिन है। हालांकि, कुछ साल पहले तक इसे राजनीतिक रूप से अव्यवहारिक माना जाता था।

दूसरा, हालिया शोध बताते हैं कि भू-अभियांत्रिकी से जुड़ी कई तकनीकें पर्यावरण और आर्थिक रूप से किफायती उपायों पर प्रतिकूल असर डाल सकती हैं।

तीसरा, हाल के वर्षों में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद भू-अभियांत्रिकी के चाहे-अनचाहे प्रभावों के पूर्ण मूल्यांकन के लिए पर्याप्त वैज्ञानिक जानकारियों का अभाव है। कई सवाल ऐसे हैं जिनके उत्तर भू-अभियांत्रिकी को आजमाने के बाद ही मिल सकेेंगे। इसलिए इस मामले में बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है।

जलवायु इंजीनियरिंग के कई पैरोकार बाकी उपायों की बजाय भू-अभियांत्रिकी को एक खास तरीके से आगे बढ़ाना चाहते हैं। इस कोशिश में सेनाओं और पूंजीपतियों द्वारा भू-अभियांत्रिकी के दुरुपयोग की आशंकाओं को नजरअंदाज किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो बाकी पक्षों की गैर-मौजूदगी में उच्च-स्तरीय वैज्ञानिक समूह और बिल गेट्स जैसे पूंजीपति भू-अभियांत्रिकी के कर्ताधर्ता बनते जा रहे हैं। जबकि ऐसे तकनीकी तौर-तरीकों को व्यापक सामाजिक या राजनीतिक वैधता नहीं मिली है। इस तरह जल्दबाजी में तय की गई प्राथमिकताएं और इस विषय पर प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थाओं के आकलन एक अघोषित व्यवस्था खड़ी कर रहे हैं, जिसका असर इस क्षेत्र में शोध और विकास की भावी रणनीति पर पड़ सकता है।

उदाहरण के लिए, निजी अनुसंधान समूहों (जैसे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का सोलर जीओ-इंजीनियरिंग रिसर्च प्रोग्राम) ने खुद को सार्वजनिक निगरानी के लिए खोल दिया है। वे सौर भू-अभियांत्रिकी के व्यवसायीकरण का समर्थन नहीं करते हैं। उन्होंने अपनी प्रयोगशालाओं में विकसित होने वाली तकनीकों का पेटेंट नहीं कराने का भी फैसला किया है। यह कदम सराहनीय है, लेकिन इस तरह की निजी पहल राजनीतिक रूप से वैध अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाओं की जगह नहीं ले सकती हैं। भू-अभियांत्रिकी से जुड़े किन सवालों पर शोध करने के लिए सार्वजनिक निवेश किया जाये, इस मुद्दे को केवल वैज्ञानिकों और गिने-चुने वैश्विक नीति-निर्माताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है।

भारतीय मानसून पर संभावित प्रभाव के विश्लेषण से इन चुनौतियों को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। जीओ-इंजीनियरिंग मॉडल इंटरकम्पेरिसन प्रोजेक्ट के विभिन्न मॉडलों से पता चला है कि सौर भू-अभियांत्रिकी के कारण ग्रीष्म मानसून की बारिश में कमी आएगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि ये अनुमान वायुमंडलीय तापमान में औसत परिवर्तन पर आधारित हैं, यानी भारत के विभिन्न हिस्सों में इससे कई गुना ज्यादा भिन्नताएं हो सकती हैं।

इस तरह के परिणामों की संभावनाओं के चलते जलवायु परिवर्तन के वैश्विक उपायों के लिए राजनीतिक रूप से मान्य अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।

साल 2016 से 14 विशेषज्ञों का एक अकादमिक कार्यदल (AWG), जिसमें लेखक भी शामिल है, भू-अभियांत्रिकी के विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श करता रहा है। अक्टूबर, 2018 में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में इन विशेषज्ञों ने भू-अभियांत्रिकी के लिए एक व्यवस्था विकसित करने पर जोर दिया था। ऐसे नियम-कायदे अक्सर ऊपर से नीचे की ओर लागू होते हैं, लेकिन गवर्नेंस की नई सोच में विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी पक्षों के द्वारा नियमन और स्वैच्छिक रणनीतियों को भी शामिल किया जाता है।

शुरुआती कदम के तौर पर अकादमिक कार्यदल (AWG) ने अपनी रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा एक उच्च-स्तरीय प्रतिनिधि संस्था के गठन का सुझाव दिया है, जो सौर भू-अभियांत्रिकी से जुड़े शोध एवं अनुसंधान की व्यवस्था को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करे। यह विश्व आयोग इस बात पर भी विचार-विमर्श कर सकता है कि सौर भू-अभियांत्रिकी से जुड़े शोध और विकास की दिशा क्या होगी और यह जलवायु परिवर्तन से निपटने की व्यापक रणनीति का हिस्सा होगा या नहीं।

सौर भू-अभियांत्रिकी पर विचार-विमर्श केवल वैश्विक संस्थाओं और आयोगों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। इसलिए अकादमिक कार्यदल ने विभिन्न पक्षों के बीच विचार-विमर्श को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र को एक वैश्विक मंच बनाने का सुझाव भी दिया है। इस तरह के फोरम में स्थानीय सरकारों, विभिन्न समुदायों, मूल निवासियों, युवाओं व महिला समूहों और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित समूहों सहित विभिन्न पक्षों को शामिल किया जा सकता है। केवल इस तरह की प्रक्रिया से ही कृषि संकट की मार झेल रहे भारतीय किसानों को प्रतिनिधित्व मिल सकता है।

भू-अभियांत्रिकी की अंतराष्ट्रीय निगरानी के इन प्रस्तावों पर अमल के लिए कई पुराने उदाहरण मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर, बड़े बांधों के विषय में बनाये गये विश्व आयोग ने 1990 के दशक से ही एक व्यापक और बहु-स्तरीय व्यवस्था की जरूरत और महत्व को रेखांकित किया है। अब नीति विशेषज्ञ भी मान चुके हैं कि जलवायु से जुड़ी वैश्विक व्यवस्था में आम जनता की चिंताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसलिए बेहतर होगा कि जलवायु भू-अभियांत्रिकी से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में पुरानी गलतियों को दोहराने से बचा जाये।

(डॉ. प्रकाश कसवां अमेरिका के कनेक्टिकट विश्वविद्यालय, स्टॉर्स में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। वह विश्वविद्यालय के मानव अधिकार संस्थान में आर्थिक व सामाजिक अधिकारों के शोध कार्यक्रम के सह-निदेशक भी हैं। उनकी किताब ‘डेमोक्रेसी इन द वुड्स’ का दक्षिण एशिया संस्करण 2018 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ है। यह लेख The Wire में प्रकाशित मूल अंग्रेजी लेख का संपादित और संशोधित अनुवाद है)

विलुप्त होने के कगार पर 10 लाख प्रजातियां

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट 6 मई, 2019 को आने वाली है। 1,800 पन्नों की इस रिपोर्ट में पर्यावरण में हो रहे बदलावों, इसमें मनुष्य की भूमिका और इससे दूसरी प्रजातियों के लिए पैदा हो रहे खतरों के अलावा जलवायु परिवर्तन के विभिन्न आयामों पर विस्तृत चर्चा की गई है। इस पर चर्चा के लिए दुनिया के 130 देशों के वैज्ञानिक पेरिस में जमा हो रहे हैं।

अभी इस विस्तृत रिपोर्ट का ड्राफ्ट सार्वजनिक हुआ है। 44 पन्नों के इस ड्राफ्ट में बताया गया है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से तकरीबन दस लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि इंसानों ने जिस तरह से सिर्फ अपने हितों का ध्यान रखते हुए संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया है, उसकी वजह से इस तरह के खतरे पैदा हो रहे हैं।

इस ड्राफ्ट रिपोर्ट में यह कहा गया है कि सिर्फ दस लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का ही खतरा नहीं मंडरा रहा बल्कि तकरीबन 25 फीसदी प्रजातियां दूसरे तरह के खतरों का सामना कर रही हैं। इसमें यह दावा किया गया है कि पिछले एक करोड़ साल में यह दौर ऐसा है जिसमें सबसे तेज गति से प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं।

इसकी वजह मुख्य तौर पर मनुष्य की गतिविधियां हैं। मनुष्य की बसावट, कृषि और अन्य जरूरतों की वजह से जंगलों की अंधाधुंध ढंग से नष्ट किया जा रहा है। इससे जानवरों के रहने की जगहें सीमित हो रही हैं। वहीं दूसरी तरफ पेड़-पौधों की प्रजातियां भी विलुप्त होते जा रही हैं। रिपोर्ट में प्रदूषण और जानवरों के अवैध व्यापार को भी मुख्य वजहों के तौर पर रेखांकित किया गया है।

इंसान ने खुद की गतिविधियों से दूसरी प्रजातियों के लिए जो संकट पैदा किए हैं, उसकी आंच खुद उस तक आनी है। इसकी पुष्टि संयुक्त राष्ट्र की यह ड्राफ्ट रिपोर्ट भी कर रही है। इसमें यह बताया गया है कि इससे खास तौर पर वैसे लोग प्रभावित होंगे जो गरीब हैं और हाशिये पर रहते हुए अपना जीवन जी रहे हैं। क्योंकि उनके पास इन बदलावों के हिसाब से जरूरी बंदोबस्त करने के लिए संसाधन नहीं होंगे।

इसके प्रभावों के बारे में यह भी कहा जा रहा है दीर्घकालिक तौर पर इससे पीने के पानी का संकट पैदा होगा। सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा का संकट होगा। कृषि उत्पादन नीचे जाएगा। इससे खाद्यान्न की कीमतों में तेज बढ़ोतरी हो सकती है और दुनिया के कई हिस्सों को खाद्य संकट का सामना करना पड़ सकता है।

इस ड्राफ्ट रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इससे समुद्र के पानी में प्रदूषण बढ़ेगा और जो मछलियां निकाली जाएंगी, उनमें प्रोटीन की मात्रा कम होगी। साथ ही उनमें दूसरे तरह के जहरीले रसायन बढ़ेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि जो लोग इन मछलियों को खाएंगे, उन्हें स्वास्थ्य संबंधित परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।

इसमें यह भी कहा गया है कि कई वैसे कीटों पर भी विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है जो परागन का काम करते हैं। अगर ऐसा होता है तो कई पौधों और फूलों का अस्तित्व बचना मुश्किल हो जाएगा।

अब सवाल यह उठता है कि इस स्थिति के समाधान के लिए क्या किया जाए? सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि इंसानी गतिविधियां इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं, इसलिए सुधार की शुरुआत भी मनुष्य की गतिविधियों से ही होनी चाहिए। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति की विभिन्न प्रजातियों में से मनुष्य भी एक प्रजाति है और प्राकृतिक संसाधनों पर सिर्फ हमारा ही हक नहीं है।

हमें यह भी समझना होगा कि अगर संसाधनों का सही और पर्याप्त इस्तेमाल करें तो इससे प्रकृति का पूरा चक्र बना रहेगा। जब प्रकृति का चक्र सही ढंग से चलता रहेगा तभी मनुष्य भी सामाजिक और आर्थिक रूप से आगे बढ़ता रहेगा। लेकिन अगर मनुष्य की गतिविधियों की वजह से प्राकृतिक चक्र गड़बड़ होता है तो इससे पूरी व्यवस्था गड़बड़ हो जाएगी।

जरूरत इस बात की है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से लाखों प्रजातियों पर विलुप्त होने के खतरे को वैश्विक स्तर पर समझा जाए और इसके समाधान के लिए दुनिया के अलग-अलग देश एकजुट होकर काम करें। पर्यावरण समझौतों को लेकर विकसित देशों और विकासशील देशों में विचारों की जो दूरी है, उसे पाटने की जरूरत है।

समाज और पर्यावरण के बीच से गुम होते घराट

घराट सिर्फ आटा पीसने या धान कूटने का यन्त्र नहीं है बल्कि अादिवासी/पर्वतीय क्षेत्र की एक संस्कृति और प्राकृतिक संसाधनों के बीच सामंजस्य का एक अनूठा नमूना है। हिन्द कुश हिमालय क्षेत्र मे 2 लाख घराटो का इतिहास मिलता है जो धीरे-धीरे समाप्त हो गए हैं।

हिंंदुुकुश-हिमालय क्षेत्र मेंं 2 लाख घराटोंं का इतिहास मिलता है जो धीरे-धीरे समाप्त हो गए हैं। हालांकि इन्‍हें बचाने के लिए कुछ सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर प्रयास भी हुए हैं लेकिन ज्‍यादातर अपनी पीठ थपथपाने तक ही सीमित रहे हैं ..।।

घराट जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) और ग्लोबल वार्मिंग का एक सरल जबाब भी है। आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज के खतरे से सहमी हुई है। कहींं बाढ़ तो कहींं बेमौसम बारिश या ओलावृष्टि मुसीबत बनकर आते हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर विद्वानोंं में दो मत हो सकते हैंं लेकिन यह मानव सभ्यता और पृथ्‍वी पर जनजीवन के लिए एक खतरा है इस पर किसी को भी संदेह नहीं है।

पूरी दुनिया के वैज्ञानिक और राजनैतिक नेतृत्व इस खतरे को कम करने या टालने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैंं। जहां एक तरफ ग्रीन टेक्नोलॉजी (green technology), फ्यूल एफिशिएंसी (fuel efficiency), रिन्यूअल एनर्जी ( renewable energy) और न जाने कितने नए-नए शब्द सुनाई दे रहे हैं। वहींं दूसरी तरफ प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाले किसी भी कार्य को करने में इन्सान जरा भी झिझक नहींं रहा है।

गेहूं पीसकर आटा बनाने या धान से चावल निकालने जैसे बेहद साधारण कामों के लिए भी बिजली/डीजल जैसे ऊर्जा के उच्चतम स्रोतों का प्रयोग कर रहा है, जबकि मानव सभ्यता के प्रथम चरण से ही आटा बनाने या धान कूटने जैसे साधारण कार्योंं के लिए ऊर्जा के न्यूनतम स्रोतों का सफलतापूर्वक प्रयोग मनुष्य करता आ रहा है।

घराट अर्थात पानी से चलने वाली चक्की या पनचक्की मानव निर्मित एक बेहद साधारण और प्राथमिक तकनीक है, जिसमें पानी की धारा को थोड़ा-सा मोड़कर काइनेटिक एनर्जी अर्थात गतिक ऊर्जा को मैकेनिकल एनर्जी अर्थात मशीनी ऊर्जा मेंं परिवर्तित किया जाता है। इस कार्य मेंं न तो पर्यावरण का कोई नुकसान होता है ओर न ही पानी मेंं किसी भी प्रकार का प्रदूषण। इस तरह प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाए प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाते हुए कुदरती शक्ति का इस्तेमाल किया जाता है।

पूरे हिंंदूकुश-हिमालय क्षेत्र में लगभग 2 लाख घराटोंं का इतिहास मिलता है जो धीरे –धीरे सरकारों की उदासीनता, गलत तकनीक के चयन और ऊर्जा के उच्‍चतम स्रोत के अंधाधुंंध इस्तेमाल के परिणामस्वरूप अाज लगभग समाप्त हो रहे हैंं। समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह किसी समाज और संस्कृति को गुलाम बनाने की मानसिकता का परिणाम है कि समाज से उसका ज्ञान, विज्ञान, तकनीक और संस्कृति छीन लो और फिर उसे अपने पर पूरी तरह से अाश्रित बना डालो। जिससे कि अाटा पीसने, धान कूटने और तिलहन से तेल निकालने जैसे साधारण कार्यों के लिए भी वो दूसरों पर अाश्रित रहे ताकि विकास के नाम पर उनके साथ मनमानी की जा सके।

तकनीकी इतिहास के जानकार मानते है कि तकनीक का उदय अचानक से नहीं होता है बल्कि तकनीक एक स्टेज (स्तर) से दूसरे स्टेज की तरफ जाती है, अर्थात तकनीक का विकास एक सतत प्रकिया है, बशर्ते उस पर ध्यान दिया जाए। लेकिन अफसोस ज्यादातर घराट अाज भी पुरानी तकनीक से ही चल रहे हैं और इसी कारण समय के साथ कदम ताल नही कर पा रहे हैं। लेकिन मामला सिर्फ गति का नहीं है, गति तो बढ़ाई भी जा सकती है।

घराटों को व्यापारिक तौर पर लाभप्रद भी बनाया जा सकता है, इसके लिए थोड़ा नीति में और थोड़ा तकनीकीी में बदलाव करना होगा। पहाडी क्षेत्रों में जो राशन जाता है उसमें आटे की जगह गेंहूं जाए। सरकारे घराट के आटे को प्रथमिकता देंं। इससे न सिर्फ स्वास्‍थवर्धक आटा मिलेगा बल्कि पर्यावरण की रक्षा भी होगी और पहाड़ोंं से पलायन रोकने में भी मदद मिलेगी।

हालांकि कुछ स्थानोंं पर घराट मेंं तकनीकी सुधार के लिए कुछ प्रयास भी किए गए हैं, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। यह तभी संभव है जब मुख्य धारा की राजनीति और तथाकथित मुख्य धारा का समाज अपनी साम्राज्यवादी सोच को बदलेंगे और उन तकनीक, विचारों ओर संस्कृतियों को आगे बढ़ने का मौका देंगे जो अाज किसी वजह से पीछे छूट गए हैं। घराटों का पुनर्जीवन इन समाजों को तकनीकी और अर्थिक तौर पर न सिर्फ सामर्थ्यवान बनाएगा, बल्कि आत्मनिर्भर भी बनाएगा। यही ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज जैसे सवालों का भी जबाब है।