विश्व जल दिवस: कैसे दूर हो सकता है ग्रामीण भारत का जल संकट

कल्पना कीजिये। हर दिन आपको सिर पर 30-40 लीटर पानी लेकर 6-9 घंटे ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलना पड़े तो कैसा लगेगा। पानी के वजन के नीचे पीठ दब जाएगी। भीषण गर्मी में रोजाना 5-7 किलोमीटर पैदल चलने का असर आपके स्वास्थ पर भी पड़ेगा। यह मेहनत पैसा कमाने के लिए नहीं बल्कि खुद को जिंदा रखने के लिए करनी पड़ती है। भारत में 82% ग्रामीण परिवारों को पानी इसी तरह नसीब होता है। जल शक्ति मंत्रालय के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 18 करोड़ लोगों के पास पाईप से पानी नहीं पहुंच पा रहा है।

जल स्रोतों के कई किलोमीटर दूर होने के कारण ग्रामीण भारत की महिलाओं को रोजाना ये जद्दोजहद करनी पड़ती है । स्रोत में पानी अक्सर गंदा होता है और गर्मियों के महीनों में अधिकतर स्रोत सूख जाते हैं, जिसके चलते नए और दूर से पानी ढ़ोकर लाना पड़ता है। महिलाएं रोजाना पानी लाने का यह काम करती हैं, जिसे करने की हिम्मत शहरी भारत में रह रहे विशिष्ट परिवार शायद ही कर सकें।

ग्रामीण भारत में स्वच्छ पेयजल तक पहुंच एक बड़ी चुनौती है। नीति आयोग की रिपोर्ट बताती है कि भारत का 70 फीसद सतही जल – नदियां, झीलें, तालाब और नम भूमि (wetlands) आदि प्रदूषित हैं। इससे साफ पानी की उपलब्धता एक गंभीर समस्या बन जाती है। हमारी सरकारें, सार्वजनिक नीति-निर्माता, गैर-सरकारी संगठन और समाज के सभी हितधारक समस्या के विभिन्न समाधान सुझाते हैं। पानी एक ऐसा विषय है जो राज्य सरकारों के अंतर्गत आता है। लेकिन केंद्र सरकार ने ‘जल जीवन मिशन’ नामक एक बड़ी एकीकृत योजना की घोषणा की है। इस परियोजना पर 3.6 लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाने हैं, जिसका उद्देश्य 2024 तक प्रत्येक ग्रामीण परिवार तक पाइप से पानी पहुंचाना है।

पानी की व्यवस्था को समझने के लिए उसकी विशालता और जटिलताओं को समझना जरूरी है। पहली बात तो यह है कि किसी भी विकासशील देश में जल संरचना का निर्माण और प्रबंधन एक विशाल सामाजिक उद्यम है। पाइप से पानी का नेटवर्क बनाने के लिए बड़े पूंजीगत व्यय की आवश्यकता है। प्रस्तावित जल जीवन मिशन भी इसी का प्रमाण है। दूसरा, पानी का भंडारण आसान और सुविधाजनक है लेकिन पानी का वितरण मुश्किल और महंगा है। जैसे कि बिजली का वितरण तो आसान है लेकिन इसे जमा करना मुश्किल है। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि भारत के दूरदराज के क्षेत्रों में बिजली पानी से पहले पहुंच गई है। क्योंकि बिजली पहुंचाना पानी पहुंचाने के मुकाबले आसान काम है ।

तीसरा, दूषित पानी हमारी थाली में भोजन के रूप में लौटता है। हमारी अधिकांश नदियां भारी प्रदूषण और दोहन के कारण गंदे नालों में तब्दील हो चुकी हैं और खत्म होने के कगार पर हैं। कृषि में रसायनों के इस्तेमाल के कारण खेतों से होने वाली जल निकासी नदियों के लिए हानिकारक है। नदियों के तटों पर उपजी कोई भी फसल विषाक्त पदार्थों और रसायनों से भरपूर होती है। यह बात सही है कि सरकार की तरफ से नीतिगत हस्तक्षेप सरल होने चाहिए। सरकारों को व्यक्तियों के जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए। ग्रामीण भारत में पानी की समस्या के कई समाधान हो सकते हैं। लेकिन इस समस्या का सबसे सरल समाधान क्या है?

हमें भू-पृष्ठ जल को साफ रखने की जरूरत है। नीति आयोग ने जिन 70 फीसदी प्रदूषित भू-पृष्ठ जल स्रोतों की पहचान की है, उनमें प्रमुख नदियों की 35 सहायक नदियों के अलावा 13 हजार झीलें, तालाब और नम भूमि शामिल हैं। अगर हम इन 13 हजार जल स्रोतों को साफ कर लें तो इस गंभीर समस्या का केवल एक हिस्सा ही हल होगा। फिर भी हमें कहीं से तो शुरुआत करनी होगी। जल जीवन मिशन के ढांचे के भीतर एक ‘स्वच्छ जल मिशन’ शुरू किया जाना चाहिए, जिसे यदि सही ढंग से लागू किया जाता है तो इन 13 हजार भू-पृष्ठ जल निकायों को साफ किया जा सकता है। डी-सिल्टिंग मशीनरी और सफाई करने वाली मशीनों के द्वारा यह काम आसानी से किया जा सकता है।

आलोचक तर्क दे सकते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई नमामि गंगे योजना के तहत इसी तरह का तंत्र पहले से मौजूद है, जिसके कोई खास परिणाम नहीं दिख रहे हैं। इसकी वजह यह है कि गंगा सफाई मिशन में इस तंत्र की निगरानी पर जोर नहीं है। हर जिले में स्वच्छ जल केंद्र होना चाहिए जो जल निकायों में प्रदूषण स्तर की निगरानी के लिए तकनीक का इस्तेमाल कर सके। पूरी प्रक्रिया की निगरानी के लिए स्वतंत्र ऑडिट होने चाहिए।

ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ जल निकायों के लिए एक जागरूकता अभियान शुरू करने की जरूरत है। अनुमानित 15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जल निकायों को साफ करना होगा और यदि ऐसा हो पाया तो 2.33 करोड़ अतिरिक्त परिवारों को स्वच्छ जल उपलब्ध कराया जा सकता है। इससे करीब 13% परिवारों को लाभ होगा। इस प्रकार जिन 82 फीसदी परिवारों के पास पाईप द्वारा पानी नहीं पहुंचता है उनकी संख्या घटकर 68 फीसदी रह जाएगी। अनुमानित गणना के अनुसार, यदि एक सरल तंत्र के जरिये 13 हजार जल निकायों को स्वच्छ करने की प्रणाली अपनाई जाये तो इस पर तीन साल में 7,000 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। स्वच्छ जलापूर्ति के लिए सरकार जो खर्च करना चाहती है, उसकी तुलना में यह बहुत छोटा आंकड़ा है ।

जल हमारे अस्तित्व की जीवन रेखा है। यह सिर्फ एक आर्थिक द्रव्य नहीं है, बल्कि इसका सांस्कृतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय महत्व है। सभ्यताएं जल से जन्मी और नष्ट होती हैं। भारत में हमारे कुओं और बावड़ियों के माध्यम से जल संरक्षण की समृद्ध संस्कृति रही है। पानी की सफाई करना और इसे आर्थिक परिसंपत्ति के रूप में इस्तेमाल करना समय की मांग है। प्रकृतिः रक्षति रक्षितः – हम प्रकृति की रक्षा करेंगे तो प्रकृति हमारी रक्षा करेेगी।

(लेखक बेंगलुरु के तक्षशिला संस्थान में लोकनीति के अध्येता हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

न्यूनतम मजदूरी से भी कम पैसे में काम कर रहे हैं मनरेगा मजदूर

ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने में सक्षम महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत मजदूरों को काफी कम पैसे मिल रहे हैं
2005 में जब राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून पारित हुआ था तो लगा था यह योजना ग्रामीण भारत की तस्वीर बदल देगी। 2006 में यह योजना लागू हुई और लागू होने के कुछ ही समय के अंदर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इसने गहरी छाप छोड़ी।
बाद में इस योजना के आगे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम जोड़ दिया गया। उसके बाद से आम बोलचाल की भाषा में इसे मनरेगा कहा जाता है। मनरेगा ने न सिर्फ आम लोगों को अपने गांवों और अपने इलाके में रोजगार दिया बल्कि इसने दूसरे कई क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिकों की मजदूरी में बढ़ोतरी और उनकी कामकाजी परिस्थितियों में सुधार में भी योगदान दिया।
मनरेगा की वजह से ग्रामीण भारत में बुनियादी ढांचे का भी विकास हुआ। इसके तहत सौ दिन का निश्चित रोजगार मिलने की वजह से गांवों में बहुत सारे उत्पादों की मांग बढ़ी और इससे पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था में मांग और आपूर्ति के पहिये को गतिमान बनाए रखने में मदद मिली।
लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि मनरेगा का प्रभाव धीरे-धीरे कम करने की दिशा में काम हो रहा है। केंद्र सरकार ने इस योजना के तहत मजदूरी की दर में काफी कम बढ़ोतरी की है। हर राज्य का औसत निकाला जाए तो यह बढ़ोतरी सिर्फ 2.6 फीसदी की है।
कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां मनरेगा की मजदूरी में सिर्फ एक रुपये की बढ़ोतरी की गई है। पंजाब और हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्यों में शामिल हैं। जबकि मिजोरम में यह बढ़ोतरी 17 रुपये की है।
कुल मिलाकर छह राज्य ऐसे हैं जहां मनरेगा की मजदूरी में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। इन राज्यों में गोवा, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। इनके अलवा अंडमान द्वीपसमूह और लक्षद्वीप में भी मनरेगा की मजदूरी में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है।
इस वजह से आज स्थिति यह है कि देश के कुल 33 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में मनरेगा के तहत मजदूरी कर रहे श्रमिकों की मजदूरी कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी से भी कम के स्तर पर है। यह बात नरेगा संघर्ष मोर्चा के एक विश्लेषण में सामने आई है।
मोर्चा के विश्लेषण से पता चलता है कि कुछ राज्य ऐसे हैं जहां कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी और मनरेगा की मजदूरी में काफी फर्क है। गोवा में कृषि क्षेत्र की जो न्यूनतम मजदूरी है, उसके मुकाबले मनरेगा मजदूरों को सिर्फ 62 फीसदी मजदूरी ही मिल रही है।
60 से 70 फीसदी के दायरे में आने वाले राज्यों में गुजरात, बिहार और ओडिशा शामिल हैं। दूसरे कई प्रमुख राज्यों में स्थिति थोड़ी ही ठीक है। सिर्फ छह राज्य ऐसे हैं जहां मनरेगा की मजदूरी कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी के 90 फीसदी से थोड़ा अधिक है।
इस अध्ययन से यह बात भी निकलकर सामने आई कि मनरेगा के तहत सिर्फ नगालैंड ही ऐसा एकमात्र राज्य है जहां मनरेगा के मजदूरों को कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी से अधिक पैसे मिल रहे हैं। नगालैंड में कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी 115 रुपये है। जबकि मनरेगा के मजदूरों को 192 रुपये की मजदूरी मिल रही है।
मनरेगा के तहत अभी सबसे अधिक मजदूरी गोवा में दी जा रही है। गोवा में मनरेगा के तहत काम करने वाले एक श्रमिक को एक दिन की मजदूरी 254 रुपये दी जा रही है। लेकिन गोवा में कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी 405 रुपये प्रति दिन है। मनरेगा के तहत सबसे कम मजदूरी बिहार में 176 रुपये प्रति दिन दी जा रही है।
एक तथ्य यह भी है कि लगातार मनरेगा के तहत मजदूरी बढ़ाने की मांग उठी है। कई समितियों ने भी यह सिफारिश की है कि मनरेगा की मजदूरी बढ़नी चाहिए। अनूप सतपथी समिति ने यह सिफारिश की थी कि मनरेगा की न्यूनतम मजदूरी 375 रुपये तय की जानी चाहिए। लेकिन अब तक इन सिफारिशों पर ध्यान नहीं दिया गया है।
पहले से ही मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूर भुगतान में देरी की समस्या का सामना कर रहे हैं। ऐसे में मजदूरी में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं करके सरकार ने एक तरह से संकेत दिया है कि मनरेगा मजदूरों के हकों और हितों को लेकर वह कितनी गंभीर है।
कहां तो मनरेगा पर संघर्ष करने वाले संगठन 600 रुपये प्रति दिन की मजदूरी मांग रहे हैं और कहां उन्हें कृषि क्षेत्र की न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर काम करने को बाध्य होना पड़ रहा है। ऐसे में इस महत्वकांक्षी योजना का भविष्य क्या होगा, इसे लेकर तरह-तरह के सवाल पैदा हो रहे हैं।