अब ब्लाॅक स्तर पर मौसम पूर्वानुमान देने की योजना

देश की आबादी के तकरीबन 57 फीसदी लोग जीवनयापन के लिए कृषि पर आधारित हैं। इतनी बड़ी आबादी की कृषि पर निर्भरता के बावजूद भारतीय कृषि अब भी मोटे तौर पर बारिश के पानी पर निर्भर है। बारिश के अलावा सिंचाई के दूसरे साधन अब भी काफी सीमित हैं।

ऐसे में कृषि के लिहाज से मौसम पूर्वानुमानों की भूमिका बढ़ जाती है। इसमें भी सही मौसम पूर्वानुमान आए, यह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए पिछले दिनों भारत मौसम विभाग यानी आईएमडी के अधिकारियों ने यह जानकारी दी कि विभाग इस योजना पर काम कर रहा है कि अगले साल से ब्लाॅक स्तर पर मौसम पूर्वानुमान उपलब्ध कराए जाएं।

भारत में अभी 660 जिले हैं। इनमें कुल ब्लाॅकों की संख्या 6,500 है। मौसम विभाग अभी 200 ब्लाॅकों में पायलट परियोजना चला रहा है। ब्लाॅक स्तर पर मौसम पूर्वानुमान उपलब्ध कराने की योजन पर काम कर रहे मौसम विभाग का अनुमान है कि इससे तकरीबन 9.5 करोड़ किसानों को लाभ मिलेगा।

अभी मौसम विभाग जिला स्तर पर मौसम पूर्वानुमान उपलब्ध कराता है। इससे तकरीबन चार करोड़ किसानों को लाभ मिल रहा है। जिला स्तर पर किसानों को मौसम पूर्वानुमान उपलब्ध कराने के लिए एसएमएस और एमकिसान पोर्टल का सहारा लिया जा रहा है।

मौसम विभाग ने ब्लाॅक स्तर पर पूर्वानुमान उपलब्ध कराने के लिए इंडियन काउंसिल फाॅर एग्रीकल्चर रिसर्च के साथ समझौता किया है। मौसम विभाग के अधिकारियों का दावा है कि 2018 में आईसीएआर के साथ समझौता होने के बाद से इस योजना पर तेजी से काम चल रहा है। जरूरी बुनियादी ढांचा विकसित किया जा रहा है और इस काम के लिए लोगों को नियुक्त करने और उन्हें प्रशिक्षित करने का काम चल रहा है।

मौसम विभाग के पास अभी 130 जिलों में ऐसा ढांचा है जिसके जरिए मौसम पूर्वानुमान उपलब्ध करने के लिए जानकारियां जुटाई जाती हैं। विभाग की योजना यह है कि ये सुविधाएं 530 अन्य जिलों में भी विकसित कर ली जाएं। विभाग यह काम कृषि विज्ञान केंद्र के तहत ग्रामीण कृषि मौसम सेवा के जरिए करने की योजना पर काम कर रहा है।

मौसम पूर्वानुमानों के सबसे बड़ी समस्या यही है कि इनके सही होने को लेकर लोगों के मन में काफी संदेह रहता है। कई मौके ऐसे आए हैं जब मौसम पूर्वानुमान पूरी तरह गलत साबित हुए हैं। ऐसे में सिर्फ ब्लाॅक स्तर पर मौसम पूर्वानुमान उपलब्ध करा देना पर्याप्त नहीं होगा। मौसम विभाग को इस दिशा में में करना होगा कि ब्लाॅक स्तर पर और जिला स्तर पर उपलब्ध कराए जा रहे मौसम पूर्वानुमान अधिक से अधिक सही हों।

क्योंकि यह बात तो विशेषज्ञ भी मानते हैं कि मौसम पूर्वानुमान सौ फीसदी सही नहीं हो सकते। क्योंकि पूर्वानुमानों के लिए जिन मानकों का अध्ययन किया जाता है, उनमें प्रकृति कई बार बदलाव भी करती है। लेकिन साथ ही विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि अधिक से अधिक सही पूर्वानुमान सुनिश्चित करने की दिशा में बढ़ा जा सकता है।

भारत में मौसम पूर्वानुमानों के साथ दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि अब भी किसानों में इस स्तर की जागरूकता नहीं है कि वे मौसम पूर्वानुमानों का सही ढंग से इस्तेमाल कर सकें। इसके लिए मौसम विभाग के साथ-साथ कृषि विभाग को भी कार्य करना होगा। किसानों को इसके लिए प्रशिक्षित करना होगा कि मौसम पूर्वानुमानों का वे सही इस्तेमाल कर सकें। मौसम विभाग और कृषि विभाग को किसान संगठनों और अन्य सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर किसानों को जागरूक बनाने के लिए अभियान चलाना होगा।

गांव की यादें और शहरों में अजनबी

समय आगे बढ़ता है और हम जैसे लोग अपने जीवन में हर वक्त इस विरोधाभास को सामने खड़ा पाते हैं। बल्कि, गांव जाकर अपने भाई-बंधुओं को यह बताने लगते हैं कि अपने भरोसे रहो, जो करो खुद करो, किसी की मदद न लो, अपने बल पर आगे बढ़ो। पर, वे नहीं समझते कि उन्हें ‘क्या’ समझाया जा रहा है। बल्कि ‘क्या’ से अधिक बड़ा ‘क्यों’ होता है, उन्हें ‘क्यों’ समझाया जा रहा है। समझाने की यह प्रक्रिया खुद के लिए किसी दिलासा से कम नहीं होती। तब लगता है कि हमने गांव के प्रति, अपनी धरती के प्रति और वहां रह रहे (छूट गए) लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन कर लिया है।

अपने गांव में आउटसाइडर

मेरे परिचित एक इंजीनियर साहब कुछ साल पहले रिटायर होने के बाद स्थायी तौर पर गांव चले गए। उनके मन में वैसे ही ऊंचे आदर्श थे, जैसे कि गांव से उजड़े हम जैसे ज्यादातर लोगों के मन में हैं या होते हैं। कुछ दिन गांव में उन्हें खूब तवज्जो मिली, हर कोई सलाह-मशवरे के लिए उनके पास जाता था। इंजीनियर साहब को अपनी विवेक-बुद्धि पर पूरा भरोसा था। लेकिन, वक्त ने जल्द ही उन्हें बता दिया कि अब वे ‘आउटसाइडर’ हैं। हुआ यह कि इंजीनियर साहब के परिवार के एक व्यक्ति ने दूसरे की जमीन पर कब्जा कर लिया और जिसकी जमीन हड़पी उसी पर मुकदमा भी करा दिया। पीड़ित आदमी सिर पटक कर रह गया, कहीं से कोई मदद नहीं मिली। इस पूरी घटना से इंजीनियर साहब की न्याय-बुद्धि को झटका लगा, उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भला-बुरा कहा और पीड़ित की जमीन लौटाने पर जोर दिया। अगले दिन परिवार के लोगों ने इंजीनियर साहब को कुनबे से बाहर कर दिया और ये भी समझा दिया कि अब ज्यादा दिन गांव में रहोगे तो किसी दिन लौंडे-लफाड़े हाथ रवा कर देंगे! इंजीनियर दोबारा शहर में आ गए हैं और गांव में अपने हिस्से की जमीन को बेचने की तैयारी में हैं! क्या ये ही था सपनों का गांव!

जवाब बेहद मुश्किल है। क्योंकि इंजीनियर साहब एक सपना लेकर गए थे, गांव में एक अच्छे स्कूल का, एक डिस्पेंसरी का और जवान होती पीढ़ी के लिए एक स्किल एंड काउंसलिंग सेंटर का। इनमें से एक भी सपना पूरा नहीं हुआ क्योंकि गांव की जिंदगी उस 30-40 साल पहले के दौर में नहीं है, जब किसी एक पीढ़ी के कुछ उत्साही युवाओं ने अपने सपनों के लिए गांव की धरती छोड़ी थी। इस उम्मीद के साथ छोड़ी थी कि एक दिन फिर लौट कर आएंगे और इस धरती को सूद समेत उसका हक अदा करेंगे। लेकिन, कुछ भी अदा नहीं होता क्योंकि आप जिस धरातल पर लौटना चाहते हैं, उस धरातल का लेवल बदल चुका है। तब, सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि उस लेवल के साथ खुद को किस प्रकार एडजस्ट करें। इस पूरी प्रक्रिया में ‘सत्य’ ऐसे विरोधाभास का सामना करना है, जिसकी कोई काट आमतौर पर हमारे सामने नहीं होती।

नये जमानेे से कदमताल की जटिलता

यह सच है कि गांव की नई पीढ़ी को कॅरियर और शैक्षिक परामर्श की जरूरत है। उन्हें नहीं पता कि शहर में रहने वाले उनके जैसे युवा बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, उनसे प्रतिस्पर्धा के लिए यह जरूरी है कि गांव के युवाओं को काउंसलिंग और गाइडेंस मिले। कोई उन्हें यह बता सके कि वे अगर बीए भी करना चाहते हैं तो किन विषयों के साथ करें और किस काॅलेज या विश्वविद्यालय करें! जब वे बीटेक के पीछे दौड़ रहे होते हैं तब उन्हें पता चलता है कि फैक्ट्रियों में तो पाॅलीटेक्निक डिप्लोमा वालों की मांग है और जब वे बार-बार इंटरमीडिएट की परीक्षा में फेल होते हैं तो तब उन्हें शायद पता ही नहीं होता कि आईटीआई की किसी ट्रेड में दाखिल होकर भविष्य में ठीक-ठाक नौकरी पा सकते थे। यह विरोधाभास सतत रूप से गांव की जिंदगी का हिस्सा बना रहता है।

अपवाद हर जगह हो सकते हैं कि लेकिन यह सच्चाई है कि गांव में अब भी सबसे बड़ा कॅरियर या तो इंजीनियर बनना है या फिर डाॅक्टरी की पढ़ाई करना है। जब तक उन्हें नए जमाने की पढ़ाई के बारे में पता चलता है तब तक ‘नया जमाना’ और आगे जा चुका होता है। यही आज के गांव का सच है और उस गांव में आप चारों तरफ एक परेशान पीढ़ी को पाएंगे, यह पीढ़ी खेतों में खट रही है। उन खेतों में खट रही है जहां पूरे परिवार को साल भर की सतत मेहनत के बावजूद न्यूनतम मजदूरी जितनी आय भी नहीं होती। ये सब कुछ जानते हुए भी कोई व्यक्ति गांव के साथ अपने रिश्ते को किस प्रकार पुनर्निधारित और पुनर्परिभाषित करेगा, यह काफी चुनौतीपूर्ण है। चुनौती इसलिए भी बहुत बड़ी है क्योंकि शहर की जिंदगी का बाहरी पक्ष काफी प्रभावपूर्ण है और यह पक्ष गांव की नई पीढ़ी को आकर्षित करता है।

जब भी गांव में जाता हूं तो नई पीढ़ी वो शाॅर्टकट जानना चाहती है, जिस पर चलकर वह भी शहर की चमकीली दुनिया में खुद के लिए जगह पा सके। काश, ऐसा कोई शाॅर्टकट होता और उस शाॅर्टकट का मुझे भी पता होता! जारी…..

गांव को याद करते गांव के अजनबी

रोजी रोटी की तलाश में गांव से विस्थापित होकर शहर में आए हम जैसे लोग अक्सर गांव के साथ अपने रिश्ते को वक्त-बेवक्त परिभाषित करने की कोशिश करते रहते हैं। इस कोशिश में अक्सर निराशा हाथ लगती है।

ये कड़वा सच है कि हम जैसे लोगों की पीढ़ी न तो शहरी है और न ही अब गांव की रह गई है। शहर में होते वक्त दिमाग में गांव होता है और गांव पहुंचने पर ऐसा अजनबीपन घेर लेता है जिसकी कोई काट दिखाई नहीं पड़ती। गांव छोड़ते वक्त कोई भी किशोर या युवा पीछे मुड़कर देखता रहता है। उसे लगता है कि उसका गांव, उसकी धरती उसे पुकार रही है। यह पुकार बरसों-बरस तक सुनाई देती है। शुरु के बरसों में लगातार गांव आना-जाना बना रहता है, लेकिन बीतता समय इस बात की ज्यादा अनुमति नहीं देता कि आप बार-बार गांव जाएं। धीरे-धीरे रिश्ता पुराना पड़ने लगता है और हम गांव के किस्सों के साथ शहर में जीने लगते हैं।

गांव की दहलीज पर दस्तक देने का सिलसिला होली-दिवाली या शादी-ब्याह तक सीमित रह जाता है। और जब किसी दिन जोड़ लगाने बैठते हैं तो पता चलता है कि गांव छोड़े तो 20, 25 या 30 साल हो गए हैं। फिर किसी दिन गांव जाते हैं तो पाते हैं कि अब उन युवाओं की संख्या बढ़ रही जो आपको सीधे तौर पर नहीं पहचानते क्योंकि जब गांव छोड़ा था तो उनमें से कई का तो जन्म भी नहीं हुआ था और कुछ बच्चे ही थे। जबकि, अब वे निर्णायक स्थिति में हैं और जो परिचय हम जैसों के साथ नत्थी थे अब वे बुजुर्ग हो गए हैं। इस पूरी प्रक्रिया में शहर को लगातार नकारने और गांव को छाती से चिपटाए रखने का सिलसिला चलता रहता है। कुल मिलाकर दिमाग में एक गुंझल मौजूद रहती है कि आप का जुड़ाव किस जगह से है! जहां पर रोटी खा-कमा रहे हैं, वो बेगाना लगता है और जिससे भावात्मक रिश्ता है, वहां का होने की पहचान या तो खत्म हो गई है या फिर बेहद सिकुड़ गई हैै।

जिन लोगों के साथ मैंने प्राइमरी और हाईस्कूल स्तर की पढ़ाई की, उनमें से ज्यादातर अब भी गांव में हैं। खेती करते हैं या फिर बड़े किसानों के साथ मजदूरी करते हैं। इनमें मेरे कुनबे के लोग भी हैं, पड़ोसी भी हैं और वे लोग भी है जिन्हें मैं अपने मां-पिता के निकटतम दोस्तों-परिचितों में शामिल करता हूं। ऐसा भी नहीं है कि गांव ने पूरी तरह मुझे या मेरे जैसे लोगों को नकार दिया हो, वहां स्वीकार्यता तो है, लेकिन उसका स्तर बदल गया है। एक ऐसे सम्मान का दर्जा मिल जाता है, जिसे परिभाषिक करना प्रायः मुश्किल होता है। जिनके साथ बचपन में यारी-दोस्ती का नाता रहा है, उनके बच्चे अब बड़े हो गए हैं। ज्यादातर के सामने रोजगार का संकट है। खेती की जमीन सिकुड़ गई है। बड़े परिवारों के बीच जमीन इस तरह बंटी है कि दो पीढ़ी पहले जिस परिवार के पास 200-250 बीघा जमीन थी, अब तीसरी पीढ़ी के लोगों के पास 10-15 बीघा रह गई है। इस जमीन के भरोसे कैसे नई पीढ़ी जिंदा रहेगी? इस सवाल से मेरे वे दोस्त जूझते हैं जो गांव में रह गए हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि किसी भी तरह एक बच्चे को शहर में नौकरी मिल जाए। उनमें से ज्यादातर का जोर सरकारी नौकरी पर है। वे नौकरी के स्तर की बात नहीं करते, चपरासी, चैकीदार, बेलदार, डेजीवेजिज……………कुछ भी हो, बस सरकारी नौकरी मिल जाए।

न वे जानते, न समझते कि अब सरकारी दफ्तरों में चपरासियों की भर्ती बंद है। उन्हें यही लगता है कि हम जैसे लोग भी रिश्वत के आदी हो गए हैं। इसलिए वे धीरे-धीरे पैसों की बात करते हैं। फिर जिंदगी भर की जमा पूंजी को सामने रखकर नौकरी दिलाने के लिए गुहार लगाते हैं। क्या जवाब दिया जाए ऐसे हालात में ? कोई जवाब बनता ही नहीं! बस, यही कहना पड़ता है कि, मैं देखता हूं, जो भी हो सकेगा पैसों के बिना ही होगा। एक बार तो मामला टल जाता है, लेकिन अगली मुलाकात में फिर वही सवाल, वही गुहार! अंततः रिश्ते सिमट जाते हैं, बचपन की दोस्ती संदेह में बदल जाती है। दुआ-सलाम घटती जाती है। एक दूरी और दुराव जैसे हालात बन जाते हैं।

वक्त के साथ आप अपने गांव में ‘अजनबी’ हो जाते हैं, खुद को सैलानी की तरह पाते हैं। रिश्तों में ठंडापन पसर जाता है। फिर आप चाहें या न चाहें, आपको गांव बिसरा देना पड़ता है। मन के अनंत कोनों में पछतावा विराट आकार लेता रहता है। जिन दुश्वारियों से खुद निकलकर आए हैं, वे ही तमाम दुश्वारियां लोगों को घेरे हुए हैं। उनकी जिंदगी को मुश्किल बना रही हैं, लेकिन आपके पास सीधे तौर पर कोई समाधान नहीं होता। आप केवल सुन सकते हैं, कोई सैद्धांतिक रास्ता बता सकते हैं, लेकिन धरातल पर कुछ कर पाना उतना आसान नहीं होता, जितना कि कई बार लगता है। कभी-कभी उपदेश दे सकते हैं कि बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दो, जिले के सरकारी अस्पताल में मां का ईलाज करा लो, बेटी की शादी में ज्यादा दहेज मत देना, बैंक से बेमतलब कर्ज मत लेना…………………पर, ये उपदेश किसी काम नहीं आते।

गांव के लोग सच्चाई को ज्यादा गहरे तक जानते-समझते हैं, उन्होंने सिस्टम की ज्यादा मार झेली हुई है, उन्हें किसी उपदेश और दिलासा पर यकीन नहीं होता। उन्हें ज्यादातर बातें झूठी लगने लगती हैं, उनका विश्वास उठने लगता है और इस उठते हुए विश्वास की एक वजह हम जैसे लोग भी होते हैं। जारी…………….