आट्टे के दाम पर काबू पाने के लिए 30 लाख टन गेहूं बाजार में बेचने पर मजबूर हुई सरकार!

गेहूं के दाम में आई रिकॉर्ड तेजी के बाद केंद्र सरकार ने अपने भंडार से 30 लाख टन गेहूं खुले बाजार में बेचने का फैसला लिया है. केंद्र सरकार की ओर से 30 लाख टन गेहूं की बिक्री ओपन मार्केट सेल स्कीम (OMSL) के जरिए होगी.

सरकार की ओर से जारी एक आधिकारिक बयान के अनुसार विशेष ओपन मार्केट सेल स्कीम योजना के तहत खरीदार की बिक्री इस मकसद से की जाएगी कि वे इसका आटा तैयार करके 29.50 पैसे प्रति किलो अधिकतम खुदरा मूल्य (एमएसपी) पर बिक्री करें. बयान में कहा गया है कि योजना के तहत फ्लोर मिलर्स, थोक खरीदारों को ई नीलामी के माध्यम से गेहूं बेचा जाएगा. एक खरीदार को एक नीलामी में एफसीआई से अधिकतम 3 हजार टन गेहूं मिलेगा. इसके अलावा राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों को बिना ई-नीलामी के गेहूं उपलब्ध करवाया जाएगा.

इसके अलावा सरकारी पीएसयू, कोऑपरेटिव, केंद्रीय भंडार, एनसीसीएफ आदि को भी बिना ई-नीलामी के 2,350 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से गेहूं उपलब्ध करवाया जाएगा. वहीं सरकार की ओर से निजी ट्रेडर्स के लिए भी गोदाम खोलने का फैसला किया गया है.

बता दें कि बाजार में इस वक्त गेहूं की कीमत 31-32 रुपये किलो तक पहुंच गई है. बिजनैस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के अनुसार ट्रेडर्स ने कहा, ‘बिक्री शुरू होते ही बाजार भाव में कम से कम 2 रुपये किलो कमी आ सकती है’ उन्होंने कहा कि ज्यादातर गेहूं पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश में पड़ा है, जहां से गेहूं फ्लोर मिलर्स और आटा बनाने वालों को बेचा जाएगा. उन्होंने कहा कि अगले सप्ताह बिक्री खुलने की संभावना है.

आंकड़ों के अनुसार 1 जनवरी, 2023 को केंद्रीय पूल में भारत का गेहूं का अनुमानित स्टॉक करीब 171.7 लाख टन था, जो जरूरी रणनीतिक भंडार से 24.4 प्रतिशत ज्यादा है. खाद्य सचिव संजीव चोपड़ा ने 19 जनवरी को कहा था कि गेहूं और आटे की खुदरा कीमतें बढ़ गई हैं और सरकार जल्द ही बढ़ती दरों को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाएगी. ओएमएसएस नीति के तहत सरकार समय-समय पर थोक उपभोक्ताओं और निजी व्यापारियों को खुले बाजार में पूर्व-निर्धारित कीमतों पर खाद्यान्न, विशेष रूप से गेहूं और चावल बेचने के लिए सरकारी उपक्रम भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को अनुमति देती रही है. इसका उद्देश्य जब खास अनाज का मौसम न हो, उस दौरान इसकी आपूर्ति बढ़ाना और सामान्य खुले बाजार की कीमतों पर लगाम लगाना है.

गन्ने के रेट में बढ़ोतरी को लेकर आंदोलन तेज, अमित शाह की रैली का विरोध करेंगे किसान!

प्रदेश के गन्ना किसानों ने भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के बैनर तले किसानों ने गन्ने के राज्य सलाहकार मूल्य (एसएपी) में बढ़ोतरी की मांग पूरी नहीं होने पर सरकार के खिलाफ अपना आंदोलन तेज करने की घोषणा की. किसानों ने राज्य भर में कई विरोध प्रदर्शनों की घोषणा की, जिसमें ट्रैक्टर मार्च, गन्ने की ‘होली’ जलाना और शर्ट उतारकर गृह मंत्री अमित शाह की रैली का विरोध करना शामिल है.

गन्ने के रेट में बढ़ोतरी की मांग को लेकर किसान बुधवार को ट्रैक्टर मार्च निकालेंगे और मुख्यमंत्री का पुतला फुकेंगे.
26 जनवरी को सर छोटू राम की जयंती पर ‘गन्ने की होली’ जलाएंगे. 27 जनवरी को अनिश्चितकाल के लिए चीनी मिलों के बाहर सड़क जाम करेंगे. वहीं 29 जनवरी को गोहाना में गृह मंत्री अमित शाह की रैली में शामिल होंगे और उनके भाषण के दौरान शर्ट उतारकर अपनी नाराजगी जाहिर करेंगे.

एक बैठक के दौरान किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा, “किसान 25 जनवरी को अपनी चीनी मिलों से निकटतम शहर या कस्बे तक सीएम के पुतले के साथ ट्रैक्टर मार्च निकालेंगे और बाद में चीनी मिलों पर पुतला फूंकेंगे. 26 जनवरी को सर छोटू राम की जयंती पर किसान “गन्ने की होली” जलाएंगे. उन्होंने कहा कि वे अपनी मांगों को लेकर दबाव बनाने के लिए 27 जनवरी को अनिश्चित काल के लिए चीनी मिलों के बाहर सड़कों को जाम करेंगे.

साथ ही गोहाना में 29 जनवरी को गृह मंत्री अमित शाह की रैली में बड़ी संख्या में किसान शामिल होंगे. वे शाह के भाषण के दौरान अपनी शर्ट उतारकर नाराजगी जाहिर करेंगे. उन्होंने कहा, ‘हम अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार हमें ये नहीं दे रही है.’

किसान नेता एसएपी को मौजूदा 362 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 450 रुपये करने की मांग को लेकर राज्य की 13 चीनी मिलों के बाहर अनिश्चितकालीन धरना दे रहे हैं. किसानों ने आरोप लगाया कि सरकार ने किसी भी तरह की बढ़ोतरी की घोषणा नहीं की है. और जब विपक्षी नेताओं ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र में इस मुद्दे को उठाया, तो सीएम मनोहर लाल खट्टर ने एसएपी तय करने के लिए एक समिति गठित करने की घोषणा की थी. गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा, ‘हम चीनी मिलों के बाहर विरोध कर रहे हैं और अपनी मांगों को पूरा होने तक विरोध जारी रखेंगे.’

गन्ने की कीमत बढ़ाने की मांग को लेकर किसानों ने दूसरे दिन भी जड़ा शुगर मिलों पर ताला!

हरियाणा सरकार ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र के अखिरी दिन प्रदेश में गन्ने के दाम बढ़ाने की विपक्ष की मांग को नहीं माना था. गन्ने के दाम में बढ़ोतरी न होने से प्रदेश के किसान आक्रोषित हैं. जिसको लेकर आज नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन चढूनी ने प्रदेश की सभी शुगरमिलों को बंद

पिछले कईं दिनों से किसानों ने गन्ने की छिलाई बंद कर रखी है और किसान नेताओं की ओर से जारी कार्यक्रम के तहत प्रदेशभर की शुगर मिलों पर तालाबंदी की गई है. किसानों ने पानीपत ,फफड़ाना ,करनाल ,भादसोंभाली आनंदपुर शुगर मिल व महम शुगर मिल पर भी सुबह 9 बजे ताला लगाते हुए धरना शुरू किया. साथ ही जो भी गन्ने की ट्राली मिल पर पहुंची, उन्हें वापस लौटा दिया. उन्होंने कहा कि जब तक सरकार किसानों की मांग पूरी नहीं करती, तब तक शुगर मिलों को बंद रखते हुए प्रदर्शन किया जाएगा.

किसानों ने अम्बाला में नारायणगढ़ शुगर मिल के बाहर धरना दिया. सोनीपत के गोहाना में आहुलाना शुगर मिल पर ताला जड़कर किसानों ने सरकार के खिलाफ नारेबाजी की तो वहीं किसानों का शाहबाद शुगर मिल और करनाल शुगर मिल पर भी धरना जारी है.

किसान गन्ने के रेट को बढ़ाकर 450 रुपए करने की मांग कर रहे हैं. बता दें कि पंजाब में गन्ना किसानों को 380 रुपये प्रति किवंटल का रेट मिल रहा है.

दो दिन पहले किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने ट्वीट किया था, “आज रात के बाद कोई भी किसान भाई किसी भी शुगर मिल में अपना गन्ना लेकर ना जाए अगर कोई किसी नेता या अधिकारी का नजदीकी या कोई अपना निजी फायदा उठाने के लिए शुगर मिल में भाईचारे के फैसले के विरुद्ध गन्ना ले जाता है और कोई उसका नुकसान कर देता है तो वह अपने नुकसान का खुद जिम्मेदार होगा.”

किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने आज लिखा, “हरियाणा के सभी शुग़रमिल बंद करने पर सभी पदाधिकारियों व किसान साथियों का धन्यवाद, अगर सरकार 23 तारीख़ तक भाव नहीं बढ़ाती तो आगे की नीति 23 तारीख़ जाट धर्मशाला में बनायी जाएगी.”

सोनीपत गन्ना मिल के बाहर किसानों का प्रदर्शन.

आजमगढ़: जमीन अधिग्रहण के खिलाफ 100 दिन से किसानों का आंदोलन जारी!

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में संयुक्त किसान मोर्चा समेत कईं किसान संगठन पिछले 100 दिनों से आजमगढ़ मंडुरी हवाई अड्डे के विस्तार के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा ने पूर्वी यूपी के सभी किसानों से आजमगढ़ के धरने में शामिल होने का आह्वान किया है. वहीं धरना स्थल पर मौजूद किसानों ने आरोप लगाया कि ‘मोदी सरकार निजीकरण के नाम पर लगातार सरकार और सार्वजनिक संस्थानों को पूंजीपतियों को बेच रही है, जिससे जनता का इस सरकार पर से विश्वास उठ गया है.’

किसान संगठनों का आरोप है कि हवाई पट्टी, मंडी, हाईवे, एक्सप्रेसवे के नाम पर नए सामंत, बड़े जमींदार बनाए जा रहे हैं. उनका कहना है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में किसानों और मजदूरों को सबसे सस्ता और लाचार मजदूर बना दिया गया है और अब तैयारी उनके सम्मान और स्वाभिमान को छीन कर उन्हें बंधुआ मजदूर बनाने की है.

धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के विस्तारीकरण के लिए जमीन और मकान नहीं छोड़ेंगे. किसानों कि मांग है कि हवाई अड्डे का मास्टर प्लान रदद् किया जाए. वहीं रविवार को एक बार फिर बड़े स्तर पर संयुक्त किसान मोर्चा पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान नेता और किसान धरना स्थल पर जुटेंगे. वहीं इस बीच आजमगढ़ आंदोलन में जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे एक बुजुर्ग किसान का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है वीडियो में बुजुर्ग किसान जमीन छीन जाने के डर से रोते हुए नजर आ रहे हैं.

गन्ने का रेट नहीं बढ़ाया तो 20 जनवरी से सभी चीनी मील बंद करेंगे किसान!

भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू-चढूनी) के बैनर तले किसानों ने करनाल अनाज मंडी में गन्ने के (एसएपी) को मौजूदा 362 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 450 रुपये प्रति क्विंटल करने की मांग की. ‘किसान महापंचायत’ के दौरान बीकेयू अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी ने कहा अगर हमारी मांग नहीं मानी गई तो हम अपनी फसल को आग लगा देंगे और हम 20 जनवरी से सभी चीनी मिलों को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर देंगे. वहीं साथ ही 16 जनवरी को एसएपी तय करने के लिए राज्य सरकार द्वारा गठित समिति के साथ हुई बैठक में उनकी मांगों को नहीं माना गया तो किसानों ने 17 जनवरी से गन्ने की छुलाई बंद करने और चीनी मिलों को फसल नहीं भेजने की घोषणा की.

उन्होंने 20 जनवरी से अनिश्चितकाल के लिए राज्य की सभी चीनी मिलों को बंद करने की भी घोषणा की. बता दें कि राज्य सरकार ने गन्ने की कीमतों को देखने और 15 दिनों में एक रिपोर्ट देने के लिए एक समिति गठित की थी.

किसानों का एक प्रतिनिधिमंडल 16 जनवरी को पंचकूला में समिति से मुलाकात करेगा. किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने किसानों को संबोधित करते हुए कहा, ‘हम समिति के सदस्यों से मिलेंगे और अपनी मांग उठाएंगे. हम हर तरह की कुर्बानी के लिए तैयार हैं. अगर हमारी मांगें नहीं मानी गईं तो हम अपनी फसलों को आग लगा देंगे.’ आगे उन्होंने कहा, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की आय दोगुनी करने का आश्वासन दिया था, लेकिन लागत बढ़ रही है और हमारी आय कम हो रही है.’

हम अपनी मांगों की पूर्ति तक अपना संघर्ष जारी रखेंगे. हमारे निर्णय के अनुसार किसान 16 जनवरी से गन्ने की छुलाई नहीं करेंगे और अपनी फसल चीनी मिलों को नहीं भेजेंगे. अगर हमारी मांगें नहीं मानी गईं तो हम 20 जनवरी से सभी चीनी मिलों को अनिश्चित काल के लिए बंद कर देंगे. उन्होंने कहा, किसान पिछले आठ दिनों से मिलों में धरना दे रहे हैं, लेकिन सरकार ने हमारी मांगों पर विचार नहीं किया, इसलिए हमने यह किसान महापंचायत की है.

हाशिए पर रखी गई भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और इसकी चुनौतियां!

ग्रामीण अर्थव्यवस्था काफी जटिल है। इसमें कृषि के साथ उद्योग और सेवाएं भी हैं। लेकिन वहां ज्यादातर गतिविधियां असंगठित क्षेत्र में होती हैं। इनमें शहरी इलाकों की तुलना में आमदनी कम होती है। यही कारण है कि देश की 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण होने के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उनका योगदान शहरी क्षेत्रों की तुलना में बहुत कम है।
रोजगार के पर्याप्त अवसर न होने के चलते ग्रामीण क्षेत्र में समस्या ज्यादा है, हालांकि कृषि और असंगठित क्षेत्र को श्रम सघन माना जाता है। इन समस्याओं के चलते गांव से शहर की ओर लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। यह पलायन सिर्फ मौसमी नहीं, बल्कि स्थायी भी है। पहले जो चुपचाप होता था, वह लॉकडाउन के दौरान काफी खुलकर हुआ। लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए पैदल अपने गांव की ओर जा रहे थे। दुनिया की अन्य किसी बड़ी अर्थव्यवस्था में ऐसा पलायन कभी नहीं दिखा।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था का इस तरह हाशिए पर जाना नीति निर्माताओं के उस फोकस का नतीजा है जिसमें संगठित अर्थात अर्थव्यवस्था के आधुनिक हिस्से को वरीयता दी जाती है। अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण पश्चिम की आधुनिकता की नकल के तौर पर हुआ है। भारत में आधुनिकता के अपने तरीके का प्रयास नहीं किया गया। ऐसा प्रयास जो ग्रामीण इलाकों में बड़ी तादाद में रहने वाले लोगों की जरूरतें पूरी कर सके। इसलिए आश्चर्य नहीं कि खपत में सबसे महत्वपूर्ण सामग्री, यानी खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने वाला कृषि क्षेत्र हाशिए पर चला गया।

आजादी के बाद से नीतियां ट्रिकल डाउन सिद्धांत पर आधारित रही हैं। इस सिद्धांत के अनुसार आधुनिक सेक्टर आगे बढ़ेंगे और उनके फायदे छनकर हाशिए पर पड़े सेक्टर तक पहुंचेंगे। यह उम्मीद भी लगाई गई कि आधुनिक सेक्टर विकास करेगा और पिछड़े क्षेत्रों को अपने में शामिल कर लेगा। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि आधुनिक सेक्टर काफी पूंजी सघन है और इसमें रोजगार के अवसर ज्यादा नहीं निकलते। इसलिए जो लोग पिछड़े क्षेत्रों में कार्यरत थे वे वहीं रह गए। सिर्फ यही नहीं, आमदनी का बड़ा हिस्सा भी उन लोगों के हक में गया जो आधुनिक सेक्टर में हैं। बाकी सेक्टर में काम करने वालों को आमदनी का मामूली हिस्सा ही मिला।

यह भी दुर्भाग्य है कि असंगठित क्षेत्र में अधिकांश के आंकड़े स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए इनके प्रदर्शन को भी संगठित क्षेत्र के समान मान लिया जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि आर्थिक आंकड़े हकीकत से ज्यादा अच्छे नजर आते हैं। संगठित क्षेत्र भले ही आगे बढ़ रहा हो, असंगठित क्षेत्र स्पष्ट रूप से नीचे जा रहा है। इसलिए इस तरीके से भारत के आर्थिक प्रदर्शन का आकलन गलत है। वास्तविक आर्थिक विकास को दर्शाने के लिए इस तरीके में बदलाव की जरूरत है।

ग्रामीण क्षेत्र को नजरअंदाज करना और उपनिवेशीकरण, पहले नोटबंदी, उसके बाद वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), एनबीएफसी संकट और फिर लॉकडाउन, इन सबने असंगठित क्षेत्र को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है, जबकि सरकारी आंकड़ों में इन्हें कहीं नहीं दिखाया जाता है। अगर असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों को भी शामिल किया जाए तो आज भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7% से अधिक नहीं, बल्कि नकारात्मक होगी। इस तरह यह सेक्टर न सिर्फ आंकड़ों में हाशिए पर रहता है बल्कि नीतियों में भी इसे जगह नहीं मिल पाती है। इस खामी भरे आंकड़ों के बूते अगर अर्थव्यवस्था तेज गति से बढ़ती दिख रही हो तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट को दूर करने के लिए विशिष्ट नीतियों को अपनाया ही नहीं जाएगा। होता यह है कि सिर्फ फौरी राहत दी जाती है, समस्या का समाधान नहीं किया जाता। दूसरे शब्दों में कहें तो ग्रामीण क्षेत्र को आंकड़ों और नीति दोनों में अदृश्य कर दिया जाता है।

काले धन की अर्थव्यवस्था इस तस्वीर को और अधिक पेचीदा बना देती है। काला धन संगठित क्षेत्र में ही पैदा होता है, क्योंकि असंगठित क्षेत्र में ज्यादातर लोगों की आमदनी आयकर सीमा से कम ही होती है। दूसरी ओर काले धन पर लगाम लगाने के नाम पर असंगठित क्षेत्र में डिजिटाइजेशन, फॉर्मलाइजेशन जैसी नीतियां लागू की जाती हैं। इनसे असंगठित क्षेत्र को और नुकसान होता है। यहां यह बात भी महत्वपूर्ण है कि काले धन की मौजूदगी के कारण आंकड़े और अधिक गलत हो जाते हैं। इसलिए जो नीतियां बनती हैं, वह गलत आंकड़ों के आधार पर ही बनती हैं। यह सच्चाई है कि काला धन चुनिंदा लोगों तक ही सीमित है। इसलिए उनके और गरीबों के बीच असमानता काफी बढ़ी है। सरकारी आंकड़ों में इस हकीकत को भी शामिल नहीं किया जाता है।

कुल मिलाकर देखें तो असंगठित क्षेत्र न सिर्फ हाशिए पर रहता है बल्कि वह संगठित क्षेत्र के उपनिवेशीकरण का भी शिकार होता है। संगठित क्षेत्र का विकास असंगठित क्षेत्र की कीमत पर होता है क्योंकि असंगठित क्षेत्र ही संगठित क्षेत्र को बाजार उपलब्ध कराता है। यह ठीक उसी तरह है जैसा अंग्रेजी शासन के दौरान ब्रिटिश इंडस्ट्री के लिए भारत बाजार मुहैया कराता था।

असंगठित क्षेत्र को इस तरह हाशिए पर किया जाना और उसका उपनिवेशीकरण 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद अधिक तेजी से बढ़ा। ये नीतियां आधुनिक सेक्टर और बड़ी इंडस्ट्री के लिए ज्यादा मुफीद हैं। 1947 से जो नीतियां लागू थीं, उनके विपरीत नई आर्थिक नीतियां असंगठित क्षेत्र के लिए जुबानी खर्च भी नहीं करती हैं। यहां तक कि कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के लिए भी वे आधुनिकीकरण और मशीनीकरण की बात करते हैं, जबकि भारत के विशाल ग्रामीण आबादी की जरूरतें इन तरीकों से पूरी नहीं हो सकती हैं।

कृषि क्षेत्र में लोगों को रोजगार देने की लोचता शून्य रह गई है। गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों की संख्या सीमित है इसलिए लोग वहीं फंस कर रह गए हैं। इसका नतीजा बड़े पैमाने पर ‘प्रच्छन्न बेरोजगारी’ है। इससे गरीबी और बढ़ती है क्योंकि निर्भरता अनुपात बढ़ जाता है। आजादी के बाद से कृषि क्षेत्र के सरप्लस का इस्तेमाल शहरीकरण और उद्योगीकरण के लिए किया जाता रहा। किसान के लिए व्यापार के नियम कभी अनुकूल नहीं रहे। शहरीकरण और उद्योगीकरण दोनों काफी खर्चीले हैं, इसलिए ग्रामीण क्षेत्र के लिए बहुत कम संसाधन रह जाते हैं जिसका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ता है।

मार्जिनलाइजेशन का मैक्रोइकोनॉमी पर प्रभावः बढ़ती अस्थिरता असंगठित क्षेत्र भारत के 94% कार्यबल को रोजगार उपलब्ध कराता है और जीडीपी में 45% का योगदान करता है। जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 14% है। इसकी अनदेखी से मैक्रोइकोनॉमी को नुकसान होता है। इससे डिमांड में कमी आती है और अर्थव्यवस्था की गति धीमी होती है। नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था के बढ़ने की दर हर तिमाही घटती हुई 8% से 3.1% (2019 की चौथी तिमाही में) तक पहुंच गई। उसके ठीक बाद कोविड-19 महामारी ने भारत को अपनी गिरफ्त में लिया।

इन आंकड़ों पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब अर्थव्यवस्था के इतने बड़े हिस्से की अनदेखी होगी तो क्रय शक्ति कम होगी तथा गैर ग्रामीण क्षेत्र की विकास दर भी घटेगी। अगर अमीरों की बजाय गरीबों की आमदनी बढ़ी तो खपत भी बढ़ेगी। गरीबों की अनेक बुनियादी जरूरतें होती हैं। वे उन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी अतिरिक्त आमदनी खर्च करेंगे। जैसे कपड़े, भोजन आदि। संपन्न लोगों की आय बढ़ने पर आमतौर पर वे उसकी बचत करते हैं। जब तक उस अतिरिक्त आय का नए बिजनेस अथवा उद्योग में निवेश न किया जाए तब तक उससे अतिरिक्त मांग नहीं बढ़ती है।

संपन्न वर्ग की आय अधिक बढ़ी और उन्होंने निवेश ज्यादा किया तो असमानता भी बढ़ती रहेगी। अगर निवेश कम होता है तो मांग में भी कमी आएगी जिसका नतीजा अर्थव्यवस्था की विकास दर में गिरावट के रूप में सामने आएगा। यह किसी भी अर्थव्यवस्था में असमानता और अस्थिरता बढ़ाने की अच्छी रेसिपी है।

कृषि क्षेत्र की चुनौतियां कृषि क्षेत्र जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उनसे भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर असर होता है, क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा कृषि पर ही आश्रित है। गैर-कृषि क्षेत्र में पर्याप्त नौकरियां उपलब्ध न होना एक बड़ा मुद्दा है। बड़ी संख्या में लोग सिर्फ इसलिए खेती में जुटे हुए हैं क्योंकि उनके पास कहीं और जाने का उपाय नहीं है। इससे ग्रामीण परिवारों में गरीबी की समस्या और बढ़ जाती है। किसानों के खेत का आकार बहुत छोटा रह गया है। 85% किसानों के खेत 5 एकड़ से भी कम के हैं। ज्यादातर छोटे खेत ऐसे हैं कि उनसे पूरे परिवार के लिए पर्याप्त आमदनी नहीं हो सकती। आय का दूसरा विकल्प उनके लिए महत्वपूर्ण होता है।

सरप्लस के लीकेज का यह मतलब भी है कि निवेश और तकनीकी बदलाव लागू करने के लिए संसाधन कम रह जाते हैं, जिनसे आमदनी बढ़ाने में मदद मिल सके। इसका यह मतलब भी है कि बच्चों की अच्छी शिक्षा या जरूरत के समय परिवार को अच्छी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए लोगों के पास पर्याप्त पैसा नहीं होता। इस तरह परिवार का भविष्य सुधारने का अवसर खत्म हो जाता है और गरीबी बनी रहती है। सरकार का दावा है कि वह 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन उपलब्ध करा रही है। इसके बावजूद ग्रामीण इलाकों में गरीबी है। अर्थात अगर मुफ्त भोजन उपलब्ध न कराया जाता तो लोगों की गरीबी और अधिक होती। इसका यह अर्थ भी है कि इन लोगों को जो भी काम मिलता है उसके बदले उन्हें इतने पैसे नहीं मिलते कि वे अपना जीवन चला सकें। नतीजा, वे गरीब रह जाते हैं।

कृषि क्षेत्र की कमजोरी का एक कारण यह भी है कि खेती करने वाले परिवारों की संख्या बहुत अधिक है। इस वजह से बाजार में अपनी उपज की अधिक कीमत मांगने की उनकी क्षमता नहीं होती। गरीबी के कारण छोटे किसान व्यापारियों और साहूकारों की गिरफ्त में होते हैं। इसलिए किसानों को व्यापारियों और साहूकारों का मार्जिन चुकाने के बाद ही थोड़ी बहुत कमाई होती है। कई बार उनका मार्जिन बहुत ज्यादा होता है।

इसलिए किसान सरकार की तरफ से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित करने पर निर्भर रहते हैं। एमएसपी किसानों और व्यापारियों के लिए एक बेंचमार्क का काम करता है। दुर्भाग्यवश इसे लागू करने की व्यवस्था भी बहुत कमजोर है। इसी तरह कृषि मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन लागू करने की भी कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए बड़ी संख्या में किसान और कृषि मजदूर को मामूली आमदनी ही होती है।

खेती की लागत बढ़ती जा रही है जबकि कीमतें उस अनुपात में नहीं बढ़ाई गई हैं। इससे किसानों की आमदनी कम हुई है। अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए उनके पास एकमात्र जरिया यह है कि वे खेतिहर मजदूरों को कम पैसे दें। इसका असर यह होता है कि खाद्य पदार्थों की मांग कम हो जाती है और कृषि उपज की बाजार कीमत भी घटती है। ज्यादातर फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य ना होने का पर्यावरण पर भी असर होता है। धान, गेहूं और गन्ना जैसी फसलें बड़े पैमाने पर उगाई जाती हैं क्योंकि किसानों को इनमें ही लाभ होता है। मिलेट, तिलहन, दलहन जैसी अन्य आवश्यक फसलों के बजाय किसान फायदे वाली फसलों को उपजाते हैं। इनमें से कई फसलों की देश में कमी होती है जिसकी पूर्ति आयात से की जाती है। यही नहीं, किसान ऐसी फसलें भी उगाते हैं जो उनके कृषि जलवायु क्षेत्र के माफिक नहीं होता है। उदाहरण के लिए धान और गन्ना जैसी पानी का अधिक इस्तेमाल करने वाली फसलों की खेती अर्ध शुष्क इलाकों में की जाती है। इस तरह की नीति हर तरीके से पर्यावरण के लिए समस्या खड़ी करती है।

अधिक पैदावार के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर किया जाता है। इससे मिट्टी का क्षरण और पीने का पानी प्रदूषित हो रहा है। इसका परिणाम अनेक तरह की बीमारियां हैं। कृषि में मशीनीकरण और गैर कृषि क्षेत्र में ऑटोमेशन बढ़ने से गैर-कृषि क्षेत्र में नौकरियों की संख्या भी कम हो रही है। राजनीतिक चुनौतियां और सुधार की जरूरत
किसी भी लोकतंत्र में संख्या के लिहाज से अधिक किसान और ग्रामीण समुदाय अपने आप को हाशिए पर क्यों पाता है? इसका कारण यह है कि कृषि में अनेक आर्थिक हित होते हैं। किसानों की ही अनेक श्रेणियां हैं- अमीर, मध्यवर्गीय और छोटे, सिंचाई वाले और तथा बिना सिंचाई वाले क्षेत्रों में खेती करने वाले, फिर भूमिहीन मजदूर और छोटे किसान भी हैं जिनके पास खेती की जमीन बहुत कम होती है। इन सबके बीच हितों में टकराव होता है और उन्हें दूर करने की कोशिश भी नहीं की जाती है। राजनीतिक दल इसका फायदा उठाते हैं। जो किसान राजनीति में आते हैं वे अक्सर संपन्न होते हैं। उनके अपने बिजनेस हित होते हैं। वे देर-सबेर शहरी और बिजनेस एलीट वर्ग के लिए काम करना शुरू कर देते हैं।

जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण क्षेत्र और किसानों के नेता अपने आप ही मतभेद दूर करें। उनके मतभेद आपस में उतने नहीं होते जितने गैर-कृषि और शहरी हितों से होते हैं। अगर वे सभी फसलों के लिए ऐसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करें, जिसकी गणना कृषि मजदूरों की आजीविका पर आधारित हो, तो वह नाकाम नहीं होंगे। उन्हें फायदा होगा, क्योंकि उनकी उपज की मांग निकलेगी और बाजार में उनकी उपज की संभवतः एमएसपी से अधिक कीमत भी मिलेगी। इस तरह एमएसपी लागू करने की समस्या भी खत्म हो जाएगी।

जाहिर है कि इसका असर महंगाई बढ़ाने वाला होगा। मध्यवर्ग के साथ-साथ बिजनेस वर्ग भी इसका विरोध करेगा क्योंकि उन्हें अपने कर्मचारियों को अधिक वेतन देना पड़ेगा। लेकिन क्या मध्य वर्ग और विजनेस वर्ग का जीवन स्तर कृषि मजदूरों और ग्रामीण क्षेत्र की कीमत पर होना चाहिए? यह न्याय नहीं है। अर्थव्यवस्था में महंगाई का असर कम करने के लिए किसानों को अप्रत्यक्ष कर घटाने, प्रत्यक्ष कर बढ़ाने और काले धन की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करने की मांग करनी चाहिए। उन्हें ‘पूर्ण रोजगार’ के साथ कृषि मजदूरों के लिए उचित वेतन की भी मांग करनी चाहिए ताकि गरीबी दूर हो। कुल मिलाकर कहा जाए तो अर्थव्यवस्था के लिए एक संपूर्ण पैकेज की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं का समाधान मैक्रोइकोनॉमी में निहित है।

साभार- रुरल वॉइस

सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए साल भर नेताओं और सरकारी बाबुओं से भिड़ते रहे किसान!

एक ओर राज्य सरकार साल भर किसानों की आय दोगुनी करने का दावा करते हुए कृषि क्षेत्र के विकास पर जोर देने की बात करती रही वहीं दूसरी ओर किसान खराब फसलों के मुआवजे, एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) और खड़े पानी की निकासी जैसे मुद्दों से जूझते रहे. इन सब दिक्कतों के चलते किसान अपनी आय बढ़ाने के प्रयास में नई खेती नहीं अपना सके और गेहूं-और धान चक्र से बाहर निकलने में भी सक्षम नहीं रहे.

हरियाणा सरकार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट ने भी हरियाणा में कृषि के महत्व की ओर इशारा किया है. रिपोर्ट में कहा गया कि “हालांकि पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रदेश की आर्थिक वृद्धि, उद्योग और सेवा क्षेत्रों की वृद्धि पर ज्यादा निर्भर हो गई है लेकिन हाल के अनुभव बताते हैं कि निरंतर और तीव्र कृषि विकास के बिना उच्च सकल राज्य मूल्य (जीएसवीए) विकास से राज्य में मुद्रास्फीति में तेजी आने की संभावना थी, जिससे बड़ी विकास प्रक्रिया खतरे में पड़ गई. आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021-22 के अग्रिम अनुमानों के अनुसार, कृषि क्षेत्र से जीएसवीए में 2.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी.

हिसार क्षेत्र में किसानों ने बेमौसम बारिश और कपास में गुलाबी सुंडी के कारण खरीफ सीजन में हुए फसल के नुकसान के मुआवजे की मांग को लेकर आंदोलन का सहारा लिया. हालांकि कपास के उत्पादन में पिछले साल की तुलना में 30% से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अभी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है.

चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के डिस्टेंस एजुकेशन के पूर्व निदेशक डॉ. राम कुमार ने अंग्रेजी अखबार दैनिक ट्रिब्यून के पत्रकार दिपेंद्र देसवाल को बताया कि सरकार की किसान के लाभ के लिए बनाई गई कई योजनाओं के बावजूद किसानों को बहुत कम लाभ मिल पा रहा है.

उन्होंने कहा कि प्रदेश में गुणवत्ता वाले बीजों की उपलब्धता एक मुख्य मुद्दा है. खेतों में जरूरत पड़ने पर किसानों को खाद उपलब्ध की जानी चाहिए. सरकार की सूक्ष्म सिंचाई योजना ठीक ढंग से लागू नहीं होने के कारण किसानों को फायदा नहीं पहुंचा सकी है. साथ ही हरियाणा के अगल-अलग क्षेत्रों में मौजूदा पानी के आवंटन को बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने की जरूरत है. डॉ. राम कुमार ने कहा, “सरकारी संस्थान, किसानों को कपास और सरसों जैसी फसलों के अच्छे बीज उपलब्ध कराने में असमर्थ हैं जिसके कारण, किसान निजी कंपनियों के शिकार हो रहे हैं. हरियाणा और पंजाब में ऐसे उदाहरण हैं जहां खराब गुणवत्ता वाले बीजों के कारण किसानों की फसल को भारी नुकसान हुआ है.”

वहीं अंग्रेजी अखबार दैनिक ट्रिब्यून के अनुसार करनाल के 153 किसान, बीमा कंपनियों पर खराब फसलों का मुआवजा नहीं देने के आरोप लगा रहे हैं. वहीं करनाल, कैथल और अंबाला के किसान गन्ने के रेट में बढ़ोतरी की मांग को लेकर प्रदर्शन करते नजर आए. इस तरह प्रदेश के अलग अलग हिस्सों में किसान साल भर अपने मुआवजों को लेकर नेताओं और सरकारी अधिकारियों के दफ्तरों के चक्कर लगाते रह गए.

किसानों ने बीजेपी सांसद को घेरा, फसल के मुआवजे की रखी मांग!

आदमपुर, बालसमंद और खीरी चोपटा के किसानों ने आज आदमपुर के पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में हिसार से बीजेपी सांसद बृजेंद्र सिंह का विरोध किया. किसानों ने बीजेपी सांसद को काले झंडे दिखाते हुए नारेबाजी भी की. किसान आदमपुर के तहसील कार्यालय में पिछले तीन महीने से कपास की फसल के नुकसान के मुआवजे की मांग को लकेर धरना दे रहे हैं.

धरना दे रहे किसानों ने बीजेपी सांसद बृजेंद्र सिंह से शिकायत की कि सरकार ने उन्हें 2020 और 2021 में खराब हुई कपास की फसल के नुकसान का मुआवजा नहीं दिया है. वहीं एक किसान नेता ने सांसद को बताया कि किसान पिछले तीन साल से खरीफ सीजन की फसल में नुकसान झेल रहे हैं लेकिन सरकार की ओर से किसानों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया है.

किसानों ने सासंद से शिकायत करते हुए कहा कि सरकार ने 2020 के लिए मुआवजे को मंजूरी दी थी, लेकिन यह आज तक किसानों को नहीं दिया गया है. हमें पिछले तीन साल का मुआवजा मिलने की उम्मीद नहीं दिख रही और इस साल फिर से जिले के कई हिस्सों में ज्यादा जलभराव के कारण कपास को भारी नुकसान हुआ है. किसानों ने कहा कि उन्होंने मुआवजे के भुगतान को लेकर कृषि मंत्री जेपी दलाल समेत अन्य नेताओं से भी मुलाकात की है लेकिन कोई समाधान नहीं हुआ.

वहीं किसानों से घिरे सांसद ने कहा कि उन्होंने पहले भी राज्य सरकार के समक्ष किसानों की मांग उठाई थी और आगे भी उठाउंगा.

फसल अवशेष जलाने से रोकने के लिए खर्च किये 693 करोड़, कृषि विशेषज्ञों ने जताई घोटाले की आशंका!

हरियाणा सरकार द्वारा पिछले चार साल में फसल अवशेष प्रबंधन के नाम पर खेतों में लगाई जाने वाली आग को रोकने के लिए 693.25 करोड़ रुपये खर्च कर दिये हैं. सरकार ने फसल अवशेष प्रबंधन योजना के तहत किसानों को सब्सिडी देते हुए 31,466 कस्टम हायरिंग सेंटर (सीएचसी) स्थापित करने और 41,331 किसानों को धान की पुआल के निपटान के लिए वैकल्पिक तरीके अपनाने के लिए मशीनरी देने का दावा किया है.

एक तरफ सरकार फसल के अवशेष को जलाने से रोकने के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने का दावा कर रही थी वहीं कृषि विभाग के आंकड़े कुछ और ही तस्वीर बया कर रहे हैं. कृषि विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2021 में 14.63 लाख हेक्टेयर में हुई धान की खेती में से 3.54 लाख हेक्टेयर में फसल के जले हुए अवशेष की बात सामने आई है. इसके साथ ही फसल के अवशेष जलाने का क्षेत्र पिछले कुछ वर्षों में बढ़ा है. पिछले चार वर्षों में फसल के अवशेष जलाए जाने का रकबा 2021 में सबसे ज्यादा रहा है. 2018 में 2.45 लाख हेक्टेयर, 2019 में 2.37 लाख हेक्टेयर और 2020 में 2.16 लाख हेक्टेयर में फसल के अवशेष जलाए गए थे.

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय से आरटीआई के माध्यम से प्राप्त जानकारी से पता चला है कि केंद्र ने 2018-19 में 137.84 करोड़ रुपये जारी किए, जिसमें से 132.86 करोड़ रुपये खर्च किये गए. इसी तरह, 2019-20 में 192.06 करोड़ रुपये जारी किए गए, जिसमें से 101.49 करोड़ रुपये खर्च किये गए. अगले साल 2020-21 में केंद्र ने 170 करोड़ रुपये जारी किए, जबकि 205.75 रुपये खर्च किए गए. 2021-22 में 193.35 करोड़ रुपये जारी किए गए और 151.39 करोड़ रुपये खर्च किए गए. 2018-19 में 132.86 करोड़, 2019-20 में 101.49 करोड़, 2020-21 में 205.75 करोड़ और 2021-22 में 151.39 करोड़ यानी पिछले चार साल में कुल 693 करोड़ रुपए खर्च किये जा चुके हैं. लेकिन जमीनी असर नहीं दिखाई दे रहा है.

वहीं कृषि विशेषज्ञों डॉ.राम कुमार ने पंजाब की तरह हरियाणा में भी घोटाले की आशंका जताई है. उन्होंने कहा कि इससे पहले पंजाब में फसल अवशेष प्रबंधन के लिए सीएचसी को जारी की गई सब्सिडी के नाम पर बड़ा घोटाला सामने आया है. चौंकाने वाली बात यह है कि इन सीएचसी (कस्टम हायरिंग सेंटर) और सब्सिडी का कोई ऑडिट नहीं होता है. कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि पराली जलाना न केवल हरियाणा में बल्कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों के लिए भी चिंता का विषय है.

कपास बिजने वाले किसानों, इस महीने आपको सतर्क रहना होगा!

गुलाबी सुंडी (पिंक बॉलवर्म) के हमले के खतरे को देखते हुए कपास की फसल के लिए यह महीना बहुत मुश्किल भरा रहने वाला. हरियाणा के कृषि विभाग के अधिकारियों और वैज्ञानिकों ने किसानों और विभाग के फील्ड स्टाफ को सतर्क रहने और कपास के खेतों की निरंतर निगरानी रखने के लिए सतर्क किया है.

कृषि विशेषज्ञ प्रोफेसर बीआर कम्बोज ने बताया कि उन्होंने इस संबंध में एक बैठक की है, जिसमें हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के कृषि विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों और हरियाणा कृषि विभाग के अधिकारियों ने भाग लिया था. कम्बोज ने कहा कि कृषि वैज्ञानिक देश के उत्तरी क्षेत्र में कपास की फसल में गुलाबी सुंडी की समस्या की लगातार निगरानी कर रहे हैं.

किसानों को इस महीने में अपने कपास की फसल की सख्त निगरानी करने की जरूरत है, क्योंकि अध्ययनों से पता चला है कि कपास में जितनी भी बिमारियां फैलती हैं, उनकी शुरूआत लगभग इसी समय में होती है. इसलिए उनसे शुरुआती चक्र में ही निपटने की जरूरत है.

उन्होंने कहा कि कपास की फसल में गुलाबी सुंडी के नियंत्रण के लिए सभी हितधारकों को मिलकर काम करना होगा. पंजाब और राजस्थान सहित हरियाणा और आसपास के राज्यों में कपास पर गुलाबी सुंडी का व्यापक प्रसार चिंता का विषय है, जिसे सामूहिक प्रयासों से नियंत्रित किया जा सकता है. पिछले साल हरियाणा के 14 कपास उत्पादक जिलों में इसका प्रकोप देखा गया था.

पंजाब के बठिंडा और मानसा जिलों और राजस्थान के हनुमानगढ़ और श्रीगंगानगर जिलों में बीटी कॉटन पर गुलाबी सुंडी की घटनाओं की रिपोर्ट उपलब्ध है. साथ ही इस महीने से रेतीली मिट्टी में उगाई जाने वाली कपास की फसल में पोषक तत्वों की कमी होने लगी है. किसानों को अपनी आवश्यकता के अनुसार पोषक तत्वों की कमी पूरी करनी पड़ेगी.

प्रो कम्बोज ने बताया, “उत्तरी राज्यों में कपास की फसल के लिए समय पर सलाह के साथ किसानों तक पहुंचने की जरूरत है. अगला महीना कपास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इस समय गुलाबी सुंडी की निगरानी के साथ-साथ पोषक तत्वों के उपयोग पर भी ध्यान देने की बहुत आवश्यकता होगी. फसल में गुलाबी सुंडी के लार्वे, सफेद मक्खी के संक्रमण और कपास की पत्ती मरोड़ विषाणु रोग के प्रभावी प्रबंधन के लिए उन्हें सामूहिक रूप से काम करना होगा.”

कपास की फसल में गुलाबी सुंडी के नियंत्रण के लिए सभी हितधारकों को मिलकर काम करना होगा. हरियाणा और आसपास के राज्यों में कपास पर गुलाबी सुंडी का व्यापक प्रसार चिंता का विषय है.

इस बैठक का आयोजन हिसार एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में किया गया था, जिसमें निजी बीज कंपनियों के प्रतिनिधि भी मौजूद थे.