आंदोलनकारियों का चुनावी राजनीति में जाना: अन्ना आंदोलन से किसान आंदोलन तक के अनुभव

किसान आंदोलन स्थगित हो गया है लेकिन किसानों के कुछ संगठन और किसान नेताओं की तरफ से हरियाणा और पंजाब में चुनाव लड़ने की खबर आ रही है। वैसे तो संयुक्त किसान मोर्चा ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया है लेकिन हरियाणा के किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी, जो मूलतः पंजाब के हैं, उन्होंने चुनाव लड़ने की इच्छा जतायी है तो दूसरी ओर प्रतिष्ठित किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने भी चुनाव में उतरने का ऐलान किया है।

आंदोलनकारियों का चुनाव लड़ने का फैसला हमेशा से विवादास्पद रहा है। छात्र युवा संघर्ष वाहिनी, नक्सल आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, छत्तीसगढ़ के शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में आंदोलन, सीपीआइ(एमएल) लिबरेशन, अन्ना आंदोलन जैसे कई आंदोलन हुए हैं जहां बाद में उनके एक गुट के द्वारा चुनाव लड़ने का फैसला किया गया। पंजाब में वामपंथी संगठन जो “नागी रेड्डी गुट” के नाम से जाना जाता है, उसने चुनाव लड़ने का फैसला नहीं किया है लेकिन सीपीआइ(एमएल) बिहार में कुछ सीटों पर हमेशा जीतने की स्थिति में रहती है और इस बार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन करके उसने अपनी सीटों की संख्या दो अंकों में कर ली।

सवाल यह है कि आंदोलनकारियों का चुनाव में उतर के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का उद्देश्य कितना सफल हो पाता है। एक आंदोलनकारी के रूप में हमने महसूस किया है कि आंदोलनकारी कुछ बुनियादी लक्ष्य को लेकर आंदोलन करते हैं जिनके मन में ढेर सारे सपने रहते हैं। ऐसे में जब यह चुनाव में उतरने का फैसला करते हैं तो उसी सपने या आदर्श को लेकर सामने आते हैं लेकिन उनके सामने वहां पर एक अलग तरह की परिस्थिति नजर आती है जो उनके आदर्श से बिल्कुल विपरीत रहती है। चुनाव लड़ने वाली मुख्यधारा की पार्टियों ने भी चुनाव को बहुत महंगा कर ऐसी परिस्थिति बना दी है। यह भी प्रत्यक्ष देखने को मिलता है यही आंदोलनकारी पार्टी भविष्य में ऐसी पार्टी से गठबंधन करती है जो पूरी तरह आदर्श से विमुख हो चुकी होती है। जब आंदोलनकारी राजनीति में उतरने का फैसला करते हैं तो उसी संगठन में कई गुट सामने आते हैं! कुछ गुट को यह फैसला पसंद नहीं आता है और आंदोलन में विभाजन भी हो जाता है और बाद में आंदोलन का पराभव भी हो जाता है।

जब अन्ना आंदोलन के गर्भ से निकलकर आम आदमी पार्टी बनी तो उसमें भी विभाजन हुआ और भारत के कई सामाजिक संगठनों के लोगों के लिए वह आकर्षण का केंद्र बन गया। इलाहाबाद स्थित आजादी बचाओ आंदोलन के महानायक स्वर्गीय डॉ. बनवारी लाल शर्मा ने उस आंदोलन तथा बाद में बनी पॉलिटिकल पार्टी से जुड़ने से इनकार कर दिया लेकिन देशभर के कुछ साथी उस आंदोलन में जुड़ गए। उस घटना को उस वक्त छात्र आंदोलनकारी के रूप में आजादी बचाओ आंदोलन में रहकर मैंने नजदीक से महसूस किया कि किस प्रकार सामाजिक संगठन को आर्थिक संसाधन मुहैया कराने वाले संवेदनशील लोग भी उस धारा में बह कर सामाजिक संगठन को पैसे न दे कर अन्ना आंदोलन तथा आम आदमी पार्टी को पैसे देने लगे। यह चीज इस बात को भी जाहिर करती है कि इस देश का मानस अंततः यही सोचता है कि राज्य सत्ता पाकर ही हम अंतिम लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं जो बिल्कुल गलत है।

उपरोक्त बातें इस बात की ओर भी इंगित करती हैं कि आंदोलनकारी लगातार आंदोलन नहीं चला सकते हैं। वह भी आंदोलन समाप्त करने का कुछ स्पेस ढूंढते हैं। राज्य सत्ता के पास अपनी पुलिस, कानून, संविधान आदि होता है। उसके सामने आंदोलनकारी लगातार लंबे समय तक मैदान में नहीं टिके रह सकते। संसाधन भी एक मुख्य कारण होता है। महात्मा गांधी भी समय-समय पर आंदोलन को स्थगित करते रहे हैं ताकि पुनः एकाग्र होकर संचित ऊर्जा के साथ आंदोलन में कूदा जाए। किसान आंदोलन को स्थगित करने के फैसले में तमाम कारणों में यह भी एक कारण था, अन्यथा आंदोलनकारी एमएसपी समाप्त करने के बाद भी हट सकते थे।

मैं ऐसे तीन आंदोलनकारी का नाम गिना सकता हूं जो राजनीति में आने के बाद आसानी से सत्ता पा सकते थे और शायद कुछ बुनियादी बदलाव कर सकते थे। ये नाम हैं महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण और डॉ. बनवारी लाल शर्मा, लेकिन तीनों की अंतर्दृष्टि स्पष्ट थी कि आप राजनीति में जाकर थोड़ा बहुत सुधार भले कर लें (हालांकि अब यह भी बाजार संचालित व्यवस्था में नहीं दिखता) लेकिन जिन बुनियादी बदलाव को लेकर आंदोलन किया जाता है तो वह लक्ष्य कभी हासिल नहीं हो सकता।

गांधीवाद तो प्रेम और करुणा के बल पर यह लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करता रहा है और कुजात गांधीवादी के तौर पर मेरा यह मानना है कि आप किसी एक वाद के बल पर समाज निर्माण नहीं कर सकते हैं इसलिए आंदोलन के बल पर लोगों को जागरूक कर हम सत्ता पर इतना दबाव डाल सकते हैं कि राजनीति में जो खेल के नियम हैं और उस नियम के कारण ही इसे “काजल की कोठरी” कही जाती है उस नियम में हम बदलाव कर सकें। जब यह बदलाव होगा तभी राजनीति में जाकर हम उन आदर्शों को पूरा कर सकेंगे वरना राजनीति में जाकर हम अपनी महत्वाकांक्षा को जरूर तुष्ट कर लें, आपका “धर्म परिवर्तन” आदर्श आंदोलनकारी से सुविधाभोगी और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ में होकर रहेगा।

आंदोलनकारियों को इस बात का भी अहसास होना चाहिए कि उन्हें जनसमर्थन आंदोलन के लिए मिलता है न कि सत्ता के लिए। 2014 के आम चुनाव में इस बात को बहुत से आंदोलनकारी न समझ कर आम आदमी पार्टी के तरफ से चुनाव में उतरने का फैसला किये और अपनी जमानत तक नहीं बचा सके।

बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी, पिछले 70 सालों में यह दो ऐसी पार्टियां हैं जो आंदोलन के गर्भ से निकलकर एक से अधिक राज्यों के अपना जनाधार समय-समय पर फैलाती रही हैं। पंजाब और उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी को इस बार सत्ता मिलेगी कि नहीं यह तो नहीं पता लेकिन इतनी सीट अवश्य जीतने जा रही है कि वह मुख्यधारा की पार्टी बन जाए। उपरोक्त दोनों पार्टियां जिन आदर्शों के लेकर चली थीं उसकी कीमत पर वह ऐसा करती हैं।

इसलिए व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि एक आंदोलनकारी को अगर उसी आदर्श और सपने को लेकर आगे बढ़ना है तो हमेशा चैतन्य रहना होगा। वैसे भी अब वर्तमान जीवनशैली, पारिवारिक दबाव और संगठन की खराब आर्थिक हालत आपको पूर्णकालिक समाजकर्मी बनने नहीं देता। अतः अगर हम आदर्श के प्रति चैतन्य नहीं रहे, तो उससे भटकने का खतरा मैं हमेशा प्रत्यक्ष रूप से आस-पास महसूस करता हूं।


लेखक पीयूसीएल इलाहाबाद के जिला सचिव हैं

राजनीतिक और आर्थिक परिदृष्य पर किसान लॉबी की वापसी

गुरू पर्व के मौके पर 19 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीन विवादास्पद कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा करने के साथ ही यह बात अब साफ हो गई है कि देश के राजनीतिक और आर्थिक परिदृष्य पर किसान लॉबी की वापसी हो गई है। आने वाले दिनों में राजनीति की दिशा के साथ ही आर्थिक नीतियों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा। 1991 की आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद से कृषि क्षेत्र की अहमियत घटती गई और सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्र रहे। इन तीन दशकों में सरकार के फैसलों में कृषि मंत्रालय का दखल भी कमजोर होता गया। लेकिन 1991 के आर्थिक सुधारों के इतिहास को दोहराने के फेर में तीन कृषि कानूनों को लाने का कदम नरेंद्र मोदी सरकार के लिए महंगा साबित हो गया। पांच जून, 2020 को अध्यादेशों के जरिये लाए गये तीन कृषि कानून कृषि क्षेत्र में सुधारों के उद्देश्य से लाये गये थे। उस समय सरकार को यह अहसास नहीं था कि यह कानून इतिहास तो बनायेंगे लेकिन जो इतिहास बनने जा रहा है वह बहुत कुछ बदलने जा रहा है जिनका असर आने वाले दशकों तक जारी रहेगा।

तीन कानून, आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन) कानून, 2020, द फार्मर्स प्रॉडयूस ट्रेड एंव कामर्स (प्रमोशन एंड फेसिलिटेशन) एक्ट, 2020 और फार्मर्स (इंपावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट आन प्राइस एश्यूरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट, 2020 आने के कुछ दिन बाद ही इनका विरोध शुरू हो गया था। इन कानूनों को बड़े सुधारों के रूप में पेश किया गया, साथ ही अध्यादेशों के जरिये लागू किये गये इन कानूनों को लाने में जल्दबाजी भी की गई। किसानों के बढ़ते विरोध और राजनीतिक दलों द्वारा सवाल उठाने के बावजूद इन कानूनों से जुड़े विधेयकों को सितंबर, 2020 में संसद के दोनों सदनों में पारित कर कानून की शक्ल दे दी गई। संसद में और खासतौर से राज्य सभा में कानूनों को पारित कराने के तरीके पर सवाल उठे और राज्य सभा में विपक्ष का विरोध तीखा रहा। सरकार के रूख से साफ हो गया था कि वह इन कानूनों को किसी भी कीमत पर लागू करना चाहती है। लेकिन उसे इस बात का अहसास नहीं थी कि कोरोना महामारी के बीच कानूनों का विरोध किसानों द्वारा इतने बड़े पैमाने पर किया जाएगा। किसानों में सबसे अधिक आशंका मंडी से जुड़े कानून और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के भविष्य को लेकर खड़ी हुई। इसलिए मुखर विरोध की शुरुआत पंजाब से हुई। वहां करीब तीन माह तक किसानों ने रेल रोको आंदोलन के साथ ही बड़े धरने दिये। उसके बाद सितंबर, 2020 में तीन कानूनों को रद्द करने की मांग लेकर राष्ट्रव्यापी बंद का आह्वान किया गया। इसका सबसे अधिक असर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई इलाके में रहा। किसानों द्वारा कानून वापसी नहीं होने की स्थिति में 26 नवंबर, 2020 को दिल्ली कूच करने का आह्वान किया गया और 8 दिसंबर को राष्ट्रव्यापी बंद का आह्वान किया गया। किसानों के सबसे बड़े जत्थे पंजाब से चले और हरियाणा पुलिस द्वारा उन्हें रोकने की तमाम कोशिशों को नाकाम करते हुए किसान 27 नवंबर को दिल्ली की सीमा पर पहुंचे जहां दिल्ली पुलिस ने उनको दिल्ली में प्रवेश से रोक दिया। उसी दिन से दिल्ली के सिंघु बार्डर और टीकरी बार्डर पर किसानों ने मोर्चा लगा दिया। वहीं गाजीपुर बार्डर पर किसान 29 नवंबर को पहुंचे। तभी से दिल्ली की इन सीमाओं पर किसानों के धरने जारी हैं। कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे आंदोलन को साल भर होने में अब सप्ताह भर से भी कम का समय बचा है। इस दौरान आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे।

किसानों के दिल्ली की सीमाओं पर आने से 22 जनवरी के बीच सरकार और किसान संगठनों के संयुक्त मोर्चा के प्रतिनिधियों के बीच 11 वार्ताएं हुईं लेकिन किसान तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग पर अडिग रहे। इस बीच एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग भी मजबूत होती गई। वार्ता टूटने के बाद 26 जनवरी, 2021 के दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च के दौरान बड़ी संख्या में किसनों के लाल पहुंचने के साथ ही हिंसा भी हुई। जिसके बाद लगा कि आंदोलन समाप्त हो जाएगा। लेकिन 28 जनवरी की शाम सरकार की सख्ती के बीच गाजीपुर बार्डर पर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की भावनात्मक अपील ने आंदोलन को नया जीवन दे दिया। इस घटनाक्रम ने नाटकीय ढंग से रातोंरात गाजीपुर बार्डर को किसान आंदोलन के सबसे मजबूत केंद्र के रूप में स्थापित कर दिया। वहीं राकेश टिकैत को आंदोलन और देश में किसानों के बड़े नेता के रूप में स्थापित कर दिया। इस घटना के बाद ही किसान संगठनों ने आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने के लिए हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में किसान पंचायतें की।

वहीं 22 जनवरी, 2021 के बाद से किसानों और सरकार के बीच कोई वार्ता भी नहीं हुई और दोनों अपने रुख पर कायम रहे। इस बीच कुछ संगठनों के सुप्रीम कोर्ट में जाने के चलते सुप्रीम कोर्ट ने 11 जनवरी, 2021 को एक आदेश जारी कर अगले आदेश तक तीनों कानूनों के अमल पर रोक लगा दी। जो अभी तक जारी है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने एक चार सदस्यीय समिति गठित की जो किसानों और संबंधित पक्षों से बात कर एक रिपोर्ट कोर्ट को दे। इसके एक सदस्य भूपिंद्र सिंह मान ने समिति से इस्तीफा दे दिया और बाकी तीन सदस्यों, अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, कृषि विशेषज्ञ डॉ. पी के जोशी और शेतकारी संघटना के अध्यक्ष अनिल घनवत ने तय समयावधि के भीतर 19 मार्च को सुप्रीम कोर्ट को एक सीलबंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से तीनों कानून लागू ही नहीं हैं। लेकिन अहम बात यह रही कि सरकार भी इन कानूनों के ऊपर से रोक हटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट नहीं गई। हालांकि इस दौरान सरकार द्वारा कानूनों के पक्ष में तर्क के बावजूद दालों और खाद्य तेलों के दाम बढ़ने पर उसी पुराने आवश्यक वस्तु अधिनियम के  प्रावधानों का कई बार इस्तेमाल किया गया जिसे उसने बदल दिया था।

भले ही सरकार इन कानूनों के मुद्दे पर किसानों से बात नहीं कर रही थी लेकिन यह लगातार देश की राजनीति का केंद्र बने रहे। किसान संगठनों ने पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ प्रचार किया। एक हाई पिच चुनाव में भाजपा पश्चिम बंगाल के चुनाव बहुत बुरी तरह हार गई। इस बीच विपक्षी दल किसानों के पक्ष में खड़े रहे। यही नहीं उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में राष्ट्रीय लोकदल ने ताबड़तोड़ रैलियां की और सरकार से नाराजगी के चलते उसकी रैलियों में किसानों की भारी भीड़ जुटती रही। धीरे-धीरे आंदोलन के राजनीतिक नुकसान का अहसास भाजपा को होने लगा क्योंकि करीब 100 सीटों वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम का गठजोड़ दोबारा बनने लगा जो 2013 के मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के बाद बिखर गया था। पांच सितंबर, 2021 की भारतीय किसान यूनियन और संयुक्त किसान मोर्चा की मुजफ्फरनगर में आयोजित किसान महापंचायत की जबरदस्त कामयाबी ने आंदोलन को मजबूती दी और जाट-मुस्लिम गठजोड़ की मजबूती पर मुहर लगा दी।

आगामी फरवरी-मार्च में पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं। इनमें राजनीतिक रूप से सबसे अहम उत्तर प्रदेश शामिल है जहां भाजपा सत्ता में है। साथ ही पंजाब और उत्तराखंड में विधान सभा चुनाव होने हैं जहां आंदोलन का असर है। इस बीच इन कानूनों के चलते भाजपा ने पंजाब में अपने सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल को भी खो दिया। अकाली दल को भी राजनीतिक रूप से इन कानूनों के चलते पंजाब में बड़ा राजनीति खामियाजा भुगतना पड़ रहा है क्योंकि कानूनों के लागू होने के समय अकाली दल केंद्र सरकार में भाजपा की सहयोगी थी। मूल रूप से जाट किसानों की पार्टी मानी जाने वाली अकाली दल के लिए यह काफी महंगा सौदा रहा। पंजाब में भाजपा को कोई खास प्रदर्शन की उम्मीद नहीं है हालांकि वह पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई पार्टी के साथ गठबंधन के जरिये वहां अपनी खोई जमीन तलाशने की कोशिश कर सकती है। अमरिंदर सिंह की शर्त थी कि अगर सरकार कानून वापस ले लेगी तो वह भाजपा के साथ गठबंधन कर सकते हैं। यह बात भी सच है कि आंदोलन में सबसे बड़ी भूमिका पंजाब के सिख किसानों की रही। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सिखों के उससे दूर जाने की चिंता भी इस आंदोलन के जारी रहने में साफ दिख रही थी। इसमें लखीमपुर खीरी की दुर्घटना में भाजपा के नेता और केंद्र में गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के शामिल होने के आरोप ने भाजपा और आरएसएस की असहजता बढ़ा दी।

ऐसे में उत्तर प्रदेश के चुनावों में कोई भी जोखिम लेने से भाजपा बचना चाहती है क्योंकि दिल्ली की केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है। वहीं राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज होती जा रही है कि भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में दोबारा सत्ता हासिल करना उतना आसान नहीं है जितना दिखाने की कोशिश हो रही है। पश्चिम में राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष जयंत चौधरी की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही है और मध्य व पूर्वी उत्तर प्रदेश में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की यात्रा में भारी भीड़ जुटा रही है।

वहीं इन राजनीतिक घटक्रमों के अलावा किसान आंदोलन के घटकों के बीच कोई विवाद न होना और उसकी एकजुटता के बरकरार रहने व सामूहिक फैसले लेने की प्रक्रिया ने उसके लगातार जारी रहने की स्थितियां बनाये रखी। किसान संगठन लगातार भाजपा के खिलाफ अधिक मुखर होते गये। करीब 700 किसानों की आंदोलन के दौरान मौत के बावजूद किसान आंदोलन अहिंसक बना रहा। इस आंदोलन में राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के साथ मध्य प्रदेश के किसानों की मौजूदगी बनी रही। साथ ही आंदोलन के नेतृत्व ने खुद को राजनीतिक मंचों से दूर रखा और न ही राजनीतिक दलों को अपना मंच दिया। जो इसके टिकाऊ होने की बड़ी वजह रही।

यह वह परिस्थियां और समीकरण रहे जिनके चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरू पर्व के शुभ दिन को मौके के रूप में इस्तेमाल कर तीन कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा कर दी।

सरकार के इस फैसले की आने वाले दिनों में कई तरह से समीक्षा होगी। आर्थिक उदारीकरण के पक्षधर इसे सरकार का आत्मघाती यू टर्न बताने लगे हैं और इसे देश में आर्थिक सुधारों की गति को रोकने वाला कदम बताएंगे। साथ ही कृषि सुधारों को लेकर भविष्य में कोई भी सरकार कोई भी फैसला लेने के पहले कई बार सोचेगी। एक भारी बहुमत और मजबूत नेतृत्व वाली सरकार से कई लोगों को इन कानूनों को वापस लेने की उम्मीद दूर-दूर तक नहीं थी। इसलिए इन कानूनों की वापसी के फैसले के बाद देश में नीतिगत जड़ता (पॉलिसी पैरालाइसिस) की बात भी कही जाएगी। आर्थिक फैसलों और तरक्की की जगह राजनीतिक मौकापरस्ती की बातें भी कही जाने लगी हैं। खास तौर से उदार आर्थिक नीतियों के समर्थक अर्थविद और कारपोरेट जगत इस फैसले से अधिक परेशान है। कुछ लोग भारत में विदेशी निवेश की संभावनाओं के कमजोर होने की बात भी इन फैसलों से जोड़कर करेंगे और कहेंगे कि इसका विदेशी निवेशकों के बीच सही संदेश नहीं जाएगा। इस तरह की तमाम बातें, चर्चा और विचार आने वाले महीनों तक सामने आएंगे। लेकिन यह भी सच है इस फैसले का असर दशकों तक देश की नीतियों और फैसलों में देखने को मिलेगा।

हां, इस बात पर शायद लोग कम चर्चा करेंगे लेकिन जो एक सीख की तरह है। देश में जनता के बड़े वर्ग से जुड़े फैसलों को लेने की परिपाटी अब बदल जाएगी। देश में नीति निर्माण और फैसले लेने में नौकरशाही और कुछ एक्सपर्ट्स का जो दबदबा बन गया था वह अब कमजोर होगा। सरकार का कानूनों को वापस लेने का यह फैसला इस बात को साबित करता है कि फैसलों से प्रभावित होने वाले पक्षों की फैसले लेने और नीति निर्माण में भागीदारी जरूरी है। इन तीन कृषि कानूनों में सबसे बड़े पक्ष किसानों को कानून बनाने की प्रक्रिया में भागीदार नहीं बनाया गया। इसलिए जब प्रधानमंत्री ने कानूनों को वापस लेने की घोषणा की तो उसके साथ यह भी कहा कि सरकार एमएसपी की व्यवस्था को मजबूत करना चाहती है। इसके लिए एक कमेटी बनाई जाएगी जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकार, किसानों के प्रतिनिधि, कृषि अर्थशास्त्री और कृषि विशेषज्ञों को शामिल किया जाएगा। यह एक सकारात्मक संकेत है।

साथ ही यह आंदोलन और इसकी जो परिणति कानूनों के रद्द होने के रूप में होने जा रही है उससे साफ हो गया है कि किसान संगठनों के रूप में देश में एक किसान लॉबी का उदय हो गया है। जिस अनुशासन और दृढ़ता से यह आंदोलन चल रहा है वह साफ करता है कि कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े मसलों के बारे में नीतियों और फैसलों में इस लॉबी का दखल रहेगा। साथ ही राजनीतिक रूप से इस आंदोलन के साथ खड़े होने की जो होड़ दिख रही है वह भविष्य की राजनीति में किसानों की भूमिका बढ़ने का संकेत है। पंजाब सरकार ने आंदोलन के दौरान दिल्ली में गिरफ्तार हुए किसानों को मुआवजा देने का फैसला लिया और आंदोलन में शहीद किसानों की याद में स्मारक बनाने की घोषणा की है तो सुदुर दक्षिण के राज्य तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने आंदोलन में शहीद 700 किसानों के परिवारों को तीन लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की है। यह फैसले भविष्य की राजनीति का संकेत देने के लिए काफी हैं।

इस पूरे घटनाक्रम के साथ आने वाले दिन काफी अहम हैं। प्रधानमंत्री की कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद भी किसान संगठनों ने अपने कार्यक्रम जारी रखे हैं। उनका कहना है कि संसद में कानून रद्द होने की प्रक्रिया पूरी होने तक वह धऱने जारी रखेंगे। इसके साथ ही एमएसपी पर कानूनी गारंटी की मांग पर भी वह अडिग हैं। उनका कहना है कि सरकार 29 नवंबर से शुरू हो रहे संसद के आगामी सत्र में एमएसपी पर कानूनी गारंटी का कानून लेकर आए। प्रधानमंत्री द्वारा एमएसपी के मुद्दे पर समिति बनाने की घोषणा से वह बहुत आश्वस्त नहीं दिख रहे हैं। इससे यह संकेत भी मिलता है कि सरकार और किसान संगठनों के बीच जनवरी में टूटी वार्ता का दौर फिर से शुरु हो सकता है क्योंकि सबसे विवादास्पद मुद्दे पर किसानों की मांग सरकार ने स्वीकार कर ली है। सभी को इस बात का इंतजार है कि देश के इतिहास में सबसे लंबे चले किसान आंदोलन की समाप्ति कैसे होगी और कब होगी, हालांकि अब इसकी समाप्ति की संभावनाएं काफी मजबूत हो गई हैं। लेकिन यह आने वाले दिनों में ही पता लगेगा कि कानून वापसी का फैसला सरकार के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद साबित होगा या नहीं। हां यह बात तय है कि अब देश में किसानों के मुद्दों पर उनके हित संरक्षण के लिए किसान संगठनों का एक ऐसा ढांचा व नेतृत्व तैयार हो गया है जो किसान हित में सरकार के फैसलों में बदलाव का माद्दा रखता है। 

किसान लामबंदी (1920 – 2020)

“ एक वह हैं जो अपनी ही सूरत को लेते हैं बिगाड़,

एक वह है जिसे तस्वीर बनानी आती है ”

आज देश में जगह जगह किसान सरकार की नीतियों से नाराज होकर सड़कों पर रोषप्रकट कर रहें हैं. किसान की उपज की लूट चल रही है, किसान कर्ज में डूबते जा रहें हैं, जिस कारण किसान की ख़ुदकुशी के केस बढ़ते जा रहें हैं, सरकार किसान हितैषी होने का दम भरती है और लीपापोती के लिए ऐसे ऐसे कानून बनाती है कि उनसे आखिर में बाजार को ही मुनाफा होता दिखता है. आज देश में अनेकों किसान संगठन हैं बावजूद इसके इन समस्याओं का कोई ठोस समाधान नहीं हो पा रहा है ! इस लेख में 1920 से लेकर अबतक यानि 2020 तक के हालातों पर चर्चा करेंगे कि कैसे किसान पहले लामबंद थे, कैसे देश की राजनीति किसान के इर्दगिर्द घुमती थी, और क्यों अब किसान की लामबंदी पर ही सवालिया चिन्ह लग गया ?

आज़ादी पूर्व संयुक्त पंजाब में साहूकारों का पूरा आतंक था. देश में जितने साहूकार थे उसका एक चौथाई पंजाब में थे. किसानों की कमाई इन साहूकारों के चक्रव्रधि ब्याज चुकाने में चली जाती. कर्ज न चूका पाने की स्थिति में साहूकार किसान की ज़मीन, बैल आदि सब कुर्क करवा देते थे. पंजाब में आर्थिक तौर पर भेदभाव की बहुत गहरी खाई बन चुकी थी. शत प्रतिशत किसान कर्जे में डूब चूका था. ज़मींदार (किसान) के हालात ये थे कि रिश्तेदारी में भी जाने के लिए एक दुसरे के कपडे मांग कर जाना पड़ता था. सरकारी अफसरों के दौरे के समय उनका सामान ढोने के लिये ज़मींदारों की गाड़ियाँ बेगार में और घी-दूध मुफ्त में लिये जाते थे. बड़े अफसर तो छोडिये छोटे छोटे मुलाजिम भी उनसे ढंग से पेश नहीं आते थे. कहावतें तक बन गई थी कि ‘हाकिम के पीटे का और कीचड़ में फिसलने का कोई डर शर्म नहींया फिर ‘अफसर की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से बचना चाहिए. उस समय ज़मींदार (किसान) की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दशा क्या थी इसका अनुमान हम सर छोटूराम के रोहतक में वकील के तौर पर शुरुआती जीवन की घटना से लगा सकते हैं. सर छोटूराम ने सितम्बर,1912 में रोहतक में वकालत शुरू की थी. उस दिनों वकील लोग अपने को हाकिमों जैसा ही समझते थे. वकीलों व् हाकिमों में एक नेक्सस सा बन गया था. वकीलों का दिमाग भी ऐसा बन गया था कि वे शेष जनता से और खास तौर से देहातियों से अपने को ऊँचा समझते थे. उन्हें बैठने के लिए कुर्सी मुढे न देते थे. सर छोटूराम जो एक साधारण ज़मींदार परिवार से थे इसलिए वह इस सबसे अंजान नहीं थे. जब उन्होंने वकालत शुरू की तो वह अपने देहाती मुवकिल को अपने बराबर मुढे कुर्सी पर बैठाते उनके साथ हुक्का गुडगुडाते. इससे कोर्ट में अन्य वकीलों में बेचैनी पैदा हो गई कि ये तो जाहिल देहातियों का दिमाग ख़राब कर रहा है. वकीलों ने उनसे इस बारे में बात की तो उनका जवाब था, ‘मुझे ताज्जुब है कि मजदुर मालिक से अपने आपको ऊँचा मानता है? मुवकिल की अशिक्षा और भोलेपन से आप लोग नाजायज लाभ उठाते हैं. जिससे हम मुंह मांगी मजदूरी लेते हैं उसके साथ अच्छा व्यवहार भी न करें और उसे अनादर का पात्र समझें, क्या यह अन्याय और असमर्थ नहीं है? इस वाक्या के बाद चौधरी छोटूराम की देहातियों में और ज्यादा पैठ बननी शुरू हो गई. चौधरी छोटूराम ने देहातियों में चेतना के लिए 1916 में जाट गजट नाम से साप्ताहिक अख़बार निकालना शुरू किया और किसानों में जाग्रति और उनकी लामबंदी के लिए ज़मीन्दरा लीग (सभा) की स्थापना की. इसी वर्ष में वे गाँधी जी के आज़ादी आन्दोलन से जुड़ गए और कांग्रेस के रोहतक जिले के प्रथम प्रधान बने. पर यह सफ़र लम्बा न चल सका. 1920 में कलकत्ता में असहयोग आन्दोलन प्रस्ताव पारित किया गया. इसमें छात्रों को स्कुल छोड़ देने, काश्तकारों को लगान न देने, मुलाजिमों से सरकारी नौकरियों से इस्तीफा देने के लिए कहा गया था. चौधरी छोटूराम की सोच व् राजनीति पूरी तरह व्यावहारिक एवं किसान हितों तक सीमित थी. इसलिए उन्हें इस प्रस्ताव से आपत्ति थी. आपत्ति का मुख्य कारण ‘किसान लगान देना बंद कर दे’ था. और उस समय पंजाब में राजस्व कानून के मुताबिक लगान का कोई भी अंश रोकने पर सारी ज़मीन जब्त होती थी. चौधरी छोटूराम ने इसमें ज़मींदार का सर्वनाश देखा और उन्हें ऐसा भी लगा कि किसान की जब्त की हुई ज़मीनों को जब नीलाम करेंगे तब यही महाजन उन्हें नीलामी में लेंगे. ऐसे हालातों में उन्होंने यही निश्चय किया कि असहयोग प्रस्ताव के लगान बंदी अंश को निकलवाने की कोशिश की जाये. इस के लिए वे भिवानी की कांफ्रेंस में पहुंचे और जब अपने विचार व्यक्त करने लगे तो लोगों ने हुल्लड़ मचा दिया. जैसे आज लोग राष्ट्रवाद में अंधे हैं वैसे ही उस वक्त भी थे, पर उस वक्त राज गैरों का था सो उनकी समझ आती है पर आज वाले राष्ट्रवादियों का अंधापन समझ से परे है ! इसके बाद रोहतक में एक सभा बुलाई गई, इसमें देहाती भी काफी बड़ी संख्या में आये हुए थे. जब सर छोटूराम ने अपने विचार रखने चाहे तो यहाँ भी शहरी लोगों ने शोर-गुल किया. देहाती लोगों ने भी सर छोटूराम का इस मुद्दे पर साथ नहीं दिया और सभा में असहयोग का प्रस्ताव पास हो गया. कम समझ के लोग समझते थे कि प्रस्ताव पास होते ही लोग उस पर अमल कर देंगे और अंग्रेज सहज ही भाग जायेंगे इसलिए उन्होंने प्रस्ताव का पूर्णरूपेण पास हो जाना ही बेहतर समझा. चौधरी छोटूराम का हित इसी में था कि वे हवा के रुख के साथ चलते, बहाव के साथ बहते, किन्तु वह उनके स्वभाव के प्रतिकूल था, इसलिए वे कांग्रेस से त्याग पत्र देकर अलग हो गए. जब उनसे कहा गया कि जिन ज़मींदारों का आप लगान बंदी में अहित देखते हैं वे भी तो इस प्रस्ताव के पक्ष में हैं तो चौधरी साहब ने कहा, वे भाववेश में हैं. जब जोश उतर कर उन्हें होश आएगा तब वह पछताएंगे.

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत में क्या राजनीतिक सुधार किये जाएँ, इस सम्बन्ध में तत्कालीन भारतमंत्री सर मोंटेग्यू की अध्यक्षता में एक कमीशन भारत आया. इस कमीशन के सामने पंजाब ज़मींदार सभा की तरफ से चौधरी छोटूराम के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल पेश हुआ. मोंटेग्यू तहकीकात के सिलसिले में प्रत्येक प्रान्त से सम्मति ली गई और यह प्रश्न पंजाब कौंसिल के सामने भी आया. चौधरी छोटूराम की सलाह पर चौधरी लालचंद ने निम्नलिखित तीन प्रस्ताव कौंसिल के सामने रखे –

  1. देहाती तथा शहरी इलाके अलग-अलग हों.
  2. जनसँख्या और करों की वसूली की दृष्टि से 90% सीटें देहात को और 10% शहरों को दी जाएं.
  3. देहाती हलकों से देहाती उम्मीदवार ही खड़ें हो सकें.

ये तीनों ही प्रस्ताव स्वीकृत हो गए. देहाती अधिकारों की यह शहरी क्षेत्रों पर पहली जीत थी और इस से चौधरी छोटूराम के भावी राजनैतिक कार्यक्रम की रुपरेखा की एक झलक स्पष्ट रूप से सामने आई. इस कमीशन की रिपोर्ट के बाद जो सुधार किये गए वे मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड योजना के नाम से भारतीय राजनैतिक इतिहास में प्रसिद्द हैं.

इस सुधारों के बाद से पंजाब की राजनीति में एक नया मोड़ आया या यूँ कहें कि यह पंजाब के किसान की दशा सुधार में टर्निंग पॉइंट था. चौधरी छोटूराम अपना पहला चुनाव हार गए थे. पर यह हार उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी क्योंकि अर्जुन की तरह उन्हें भी अपना लक्ष्य साफ़ दिख रहा था. 1923 में सर फजले हुसैन की रूरल ब्लॉक व् चौधरी छोटूराम की ज़मीन्दरा सभा ने यूनियनिस्ट पार्टी को जन्म दिया. यह सिर्फ राजनीतिक पार्टी ही नहीं थी बल्कि एक किसान तहरीक थी. एक ऐसी तहरीक जिसने न सिर्फ पंजाब बल्कि पंजाब से बाहर राजस्थान, उत्तर प्रदेश तक के किसान में लामबंद होने की चेतना भर दी. सर छोटूराम की इस किसान लामबंदी ने ही अलवर रजवाड़े और सीकर के ठिकानेदारों के विरुद्ध किसान आन्दोलन किया. ऐसी किसान लामबंदी की कि 1923 से 1947 तक पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी अर्थात किसान राज रहा. जिसमें कई किसान हितैषी कानून बनाए गए. जिनमें प्रमुख कानून थे – 1. कर्जा माफ़ी अधिनियम-1935 2. पंजाब कर्जा राहत कानून-1935 3. साहूकार पंजीकरण एक्ट -1938 4. गिरवी ज़मीन की मुफ्त वापसी एक्ट-1938 5. कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम-1938 6. व्यवसाय श्रमिक एक्ट – 1940. ये कानून पंजाब के इतिहास में सुनहरे कानूनों के नाम से जाने जाते हैं. इसके इलावा किसान कल्याण कोष की स्थापना, जिसके तहत कई किसान मजदूरों के लड़के पढ़ कर बड़े बड़े ओहदों पर गए. पाकिस्तान के साइंटिस्ट अब्दुस सलाम जिनका नाम नोबेल प्राइज के लिए नामित हुआ था वे भी इसी कोष की मदद से पढ़े थे. वह दौर किसान के लिए सुनहरे दौर की बुनियाद था. उस दौर में किसान कमेरे की ऐसी लामबंदी की मिसाल देश में कहीं और न थी. चौधरी छोटूराम हर तबके के, चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम, किसान हो या मजदुर, हरमन प्यारे नेता बन गए थे, मुस्लिम उन्हें रहबरे आजम कहते तो दलित उन्हें दीनबंधु कहते. यह उनके द्वारा की गई किसान की लामबंदी की ताकत ही थी कि जिस जोर पर उन्होंने वोइसरॉय को भी झुकने पर मजबूर कर दिया था. दुसरे विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार को गेहूं की जरुरत थी, वोइसरॉय वेवल ने सारे भारत के प्रान्तों के प्रीमियरों की मीटिंग बुलाई. मद्रास से श्री राजगोपालाचार्य आये और पंजाब से चौधरी छोटूराम. वोइसरॉय चाहता था कि युद्ध की जरुरत के लिए खाद्द्यवस्तुएं विशेषकर गेहूं का भाव सस्ता किया जाए. वह गेहूं का 7 रुपया प्रति मण का भाव नियत करना चाहते थे. श्री राजगोपालाचार्य कांग्रेस के प्रतिनिधि थे उन्होंने वोइसरॉय का यह सुझाव मान लिया. चौधरी छोटूराम ने इसका विरोध करते हुए कहा कि गेहूं मद्रास का किसान नहीं, पंजाब का किसान पैदा करता है. हम 10 रुपया प्रति मण से कम गेहूं नहीं देंगे. इस पर वोइसरॉय ने चौधरी छोटूराम पर दबाव ही नहीं बल्कि धमकी भी दी कि हमने युद्ध में व्यापारी वर्ग की मदद लेनी है, वे भाव सस्ता चाहते हैं. सरकार इतना महंगा भाव नहीं देगी और किसान को सरकारी भाव पर गेहूं देना होगा. इस पर चौधरी छोटूराम ने कहा, हमने व्यापरी का नहीं किसान का लाभ देखना है. किसान युद्ध के लिए जवान भी दे और घाटा खा कर गेहूं भी दे, दोनों बात नहीं हो सकती. लड़ाई व्यापरियों से नहीं किसानों के बेटों से जीती जायेगी. चौधरी साहब यह कह कर मीटिंग से खड़े हो गए और कहा कि 10 रुपया प्रति मण से कम किसान का गेहूं नहीं दूंगा. वरना खड़ीं फसल में आग लगवा दूंगा. यह कह कर वह पंजाब लौट आए. वोइसरॉय ने चौधरी छोटूराम की गिरफ़्तारी का सुझाव दिया. तब सर सिकंदर हयात खान वोइसरॉय के पास गए और उन्हें चौधरी छोटूराम की किसानों में लोकप्रियता से अवगत करवाया कि चौधरी छोटूराम पंजाब के किसान और सिपाही का महान नेता है और वह जो कहता करता है. क्या किसान को नाराज करके और उसका अलाभ करके युद्ध पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा ? इस पर वोइसरॉय को झुकना पड़ा और उन्हें किसान को 10 रुपया प्रति मण का भाव देना पड़ा. चौधरी छोटूराम किसान के लिए जीते मरते थे. उनकी राजनीति की धुरी ही किसान बनाम साहूकार और शहरी बनाम देहात थी. यहाँ तक कि मृत्यु से एक दिन पहले वह किसानों को भाखड़ा बाँध की बहुत बड़ी सौगात देकर गए. चौधरी छोटूराम ने एक सभा में कहा कि पंजाब के किसान को जो रास्ता मैंने दिखलाया है अगर वह उस पर चलेगा तो हमेशा उसकी सत्ता रहेगी. किसान से आह्वान करते हुए कहते हैं – “ए ज़मींदार (किसान) तू समाज का निचला भाग नहीं है, बल्कि सबसे श्रेष्ठ है. तू हलपति ही नहीं, देख तू खेडापति और गढ़पति भी है ; तू हुकूमत का तख़्त-ए-मश्क बनने के लिए पैदा नहीं हुआ है बल्कि हुकूमत करने के लिए पैदा हुआ है ; तू अपने असली स्वरूप को पहचान ले…”.

पंजाब में 1923 से लेकर 1947 तक यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार रही और उस सरकार ने विकास की जो बुनियाद रखी उसका फर्क आज भी अन्य राज्यों से तुलना करके देख सकते हैं. जबकि आज़ादी के बाद पश्चिम बंगाल में किसान मजदुर की बात करने वाली कम्युनिस्ट सरकार रही बावजूद उसके पश्चिम बंगाल में किसान और मजदुर के हालात देख लीजिये. पश्चिम बंगाल से ही हथियार बंद नक्सलवाद आन्दोलन की शुरुआत हुई और आजतक जारी है. जबकि सर छोटूराम ने ब्रिटिश हुकूमत के समय ही बिना किसी हथियारबद आन्दोलन के ये चमत्कार करके दिखाया. उन्होंने न सिर्फ किसान को कर्ज से राहत दिलवाई बल्कि सिंचाई योजनाओं से पंजाब को अनाज का टोकरा बना दिया. 2019 में केरल सरकार ने अपने राज्य में कर्जा माफ़ी मॉडल लागु किया तो योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री प्रभात पटनायक ने मीडिया के सामने कहा कि उन्हें इस मॉडल की प्रेरणा पंजाब में सर छोटूराम कर्जा राहत योजना से मिली, जिसमें उन्होंने एक आयोग बनाया और उस आयोग के सदस्य गाँव गाँव जाकर हालातों का जायजा लेते. ये थे उनकी किसान लामबंदी के कारण.

 सर छोटूराम के जाने के बाद देश के किसान की लामबंदी उनसे अगले पायदान के नेता चौधरी चरण सिंह ने की. जो कानून पंजाब में लागु हुए थे वे कानून चौधरी चरण सिंह ने यूपी में लागू करवाए. चौधरी चरण सिंह ही थे जिन्होनें अपनी ही पार्टी के नेता और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु का रूस की तर्ज पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात का विरोध किया था. चौधरी चरण सिंह के समय में किसान की लामबंदी की मिसाल उनके द्वारा 27 दिसम्बर, 1977बोट क्लब दिल्ली में की गई रैली थी, जो आजतक एक रिकोर्ड है. इस रैली में पंजाब से अकाली, बिहार से कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी नेता महाराष्ट्र से शरद जोशी जैसे किसान नेता जिनकी अगुवाई में महाराष्ट्र के तम्बाकू किसानों ने एक बड़ा आन्दोलन किया था, सब शरीक हुए. दिल्ली में किसानों की इस रैली से देश की राजनीति में एक नया सन्देश गया. इस किसान रैली से कांग्रेस पार्टी समझ चुकी थी कि अब देश में किसान ही राजनीति की धुरी होंगें इसलिए श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 16 नवम्बर, 1981में दिल्ली में एक बड़ी किसान रैली का आयोजन किया जो उस समय की मीडिया ने बहुत सफल रैली बताई थी ज्सिमें देश से लाखों की संख्या में किसान आए.

चौधरी चरण सिंह के बाद देश का किसान चौधरी देवीलाल की अगुवाई में लामबंद हुआ. इनका साथ दिया किसान नेता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेताओं ने, पंजाब के अकाली गुजरात के पटेलों ने तो बिहार से लालूप्रसाद यादव, नितीश कुमार व् मुलायम सिंह यादव, शरद यादव जैसे नेताओं ने. केंद्र की सत्ता में आते ही चौधरी देवी लाल ने देश के किसानों का कर्जा माफ़ किया. चौधरी देवी लाल ने भी दिल्ली में एक सफल किसान रैली का आयोजन किया. पर यह किसान लामबंदी ज्यादा लम्बी न चल सकी. इसके टूटने के दो कारण बने. पहला वीपी सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करना. इस रिपोर्ट में किसी राज्य की एक जाति को ओबीसी में शामिल कर लिया गया तो वहीँ दुसरे राज्य कि इसी जाति को अगड़ा की श्रेणी में मान लिया गया.  यहाँ से किसान लामबंदी ओबीसी के जाल में उलझ गई. दूसरा कारण बना, उस समय बीजेपी नेता श्री लाल कृष्ण अडवाणी द्वारा शुरू की गई राम मंदिर रथ यात्रा. चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की रैलियों में कभी किसान एक ही मंच से नारा लगाया “अल्लाह-हु-अकबर. हर-हर महादेव”. राम मंदिर रथ यात्रा के बाद किसान भी धर्मो की राजनीति में बंटता गया और उनका “अल्लाह-हु-अकबर, हर-हर महादेव” का नारा अब “बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का” का हो गया था.   

 नब्बे के दशक से राष्ट्रीय स्तर पर किसान राजनीति हाशिये पर जाना शुरू हो गई. ऐसा कोई नेता नहीं रहा जिसके चेहरे से राष्ट्रिय स्तर पर किसान लामबंदी हो सके. जो किसान नेता ओबीसी की राजनीति में बंट कर खुद को किसान की बजाए अब ओबीसी वर्ग का अगुवा कहने लगे थे उन्हें तो इस ओबीसी वर्ग की अगुवाई भी करनी नहीं आई. सबसे पहले तो कोर्ट ने मंडल कमीशन की सिफारिश पर जो कोटा घटाया उस पर भी ये चुप रहे और उसके बाद आये साल कितनी ही वैकेंसियाँ बैकलॉग की खाली रह जाती हैं उन पर भी ये आजतक कुछ नहीं कर पाए.  इन्हें तो ठीक से ओबीसी वर्ग का नेतृत्व करना भी नहीं आया और यही कारण है कि किसान के बंटवारे के बाद अब ओबीसी वर्ग भी दो हिस्सों में बंटता जा रहा है, एक वर्ग खुद को मूल ओबीसी कह दुसरे वर्ग का विरोध कर रहा है.  और राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी यही चाहते थे कि किसी न किसी तरह किसान केंद्र की राजनीतिक धुरी से हटे. इसके लिए इन राजनीतिक दलों ने एक डाव और चला, इन दलों ने अपने-अपनी पार्टियों में अलग से किसान प्रकोष्ठ बना दिए. जैसे कि कांग्रेस का किसान खेत मजदुर कांग्रेस तो बीजेपी का भाजपा किसान मोर्चा. ये सब संगठन दरअसल किसान यूनियनों की पीठ तोड़ने के लिए बनाए गए हैं और किसान की आँख में धुल झोंकने के लिए कि देखिये हमारी पार्टी किसान के चिंतित है इसलिए अलग से किसान प्रकोष्ठ भी है. और कभी कभी कोई बड़ा किसान आन्दोलन हो तो ये पार्टियों के किसान संगठन उस आन्दोलन को भटकाने या ख़त्म करने के काम भी आते हैं.

किसान लामबंदी ख़त्म होने का एक और कारण हैं और वह यह कि कभी जिन चेहरों पर किसान लामबंद हुआ करते थे आज उनमें से अधिकतर की अगली पीढियां भ्रष्टाचार में लिप्त हैं. भ्रष्ट्र व्यवस्था से लड़ते लड़ते पता ही नहीं चला कि कब खुद उस पाले में आ गए. आज ये गाँव में चालीस-पचास लाख की गाड़ियों में जाते हैं, कलाई पर पांच-दस लाख की ब्रांडेड घडी बंदी होती है, और फिर उस ब्रांडेड घडी वाली कलाई को हवा में लहराते हुए कहते हैं कि हम किसान की आवाज़ हैं, हम किसान के लिए लड़ेंगे. अब जिस किसान की कोशिश यही रहती है कि अगर इस साल ढंग की फसल हो जाए तो ढंग का मकान बना लूँ, छोरी का ब्याह ढंग से कर दूँ, या बालकों का किसी अच्छी शिक्षण संस्था में दाखिला करवा दूँ, क्या ऐसा करके ये नेता उस किसान को खिझा नहीं रहे ? अब तो किसान भी थक हार कर इन नेताओं की चापलूसी सीख गया है. किसान को अब तरक्की का यही शॉर्टकट लगने लगा है. और जो किसान के बच्चे इनकी चापलूसी करके राजस्व विभाग में, कृषि विभाग में या अन्य जिस भी विभाग में जिनका वास्ता आए दिन किसान देहातियों से पड़ता रहता है उनसे ही रिश्वत लेने में हिचक नहीं करते. हमारे नेता तो पूंजीवादी व्यवस्था का शिकार हुए ही हुए, किसान भी शिकार होता जा रहा है, और पैसा ही पीर है मानने लगा है. यही कारण है कि आज देहात अनाथ है, शहर आबाद हैं. सरकार गाँव गोद लेने की बात करती है और शहर को स्मार्ट बनाने की. सर छोटूराम हमें जो बुनियादी विचार देकर गए थे यदि हम उन पर चलते तो क्या आज गाँव अनाथ होते ?

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।

अब देखने में आता है कि देश में जगह जगह किसान आन्दोलन करते हैं पर वह देश व्यापी तो छोडिये राज्य व्यापी भी करने में सफल नहीं हो पाते हैं. 2017 में तमिलनाडु के किसान काफी दिनों तक दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना दिए रहे थे. मैं खुद भी अपने साथियों के साथ दो बार उनके धरने पर गया था. वहां हरियाणा यूपी से काफी संगठन उनकी हौसलाफजाई के लिए आते,  पर उनके साथ भाषा की दिक्कत थी, और हम लोकल भी जो जाते वह सिर्फ औपचारिकता पूरी करने जा रहे थे. यदि कोई बड़ा चेहरा होता तो उनकी सुनवाई में इतना वक्त न लगता. पर अब जब ऐसा कोई बड़ा चेहरा किसान के पास है नहीं जिसके चेहरे पर देश का किसान लामबंद हो सके तो ऐसे हालतों में बंटे हुए किसान के पास एक ही विकल्प है कि उनके जितने भी छोटे छोटे संगठन हैं वह “एक प्रतीक” का विकल्प चुनें. आप हम सब देखते हैं कि आज दुनियाभर के दलित संगठन हैं पर जब उनकी कोई मांग होती है तो सरकार तुरंत हरकत में आती है, हरकत में आने का कारण है सभी संगठनों का प्रतीक एक, और वह है डॉक्टर आंबेडकर. सो ऐसे ही किसान संगठनों को एक प्रतीक चुनना होगा और मेरी समझ अनुसार उस प्रतीक के लिए सर छोटूराम से बढ़कर कोई नहीं. केरल योजना आयोग वाले भी कर्जा माफ़ी मॉडल बनाते वक्त सर छोटूराम को पढ़ रहें हैं तो फिर “सर छोटूराम” सबका एक साँझा प्रतीक क्यों न हो ? दुनिया प्रतीकों से चलती है. दुनियां में जितने भी धर्म हैं इन्हें ही देख लीजिये, इनको बनाने वाले सदियों पहलें जा लिए पर इनके अनुयायी आज भी उनके प्रतीकों के सहारे उनके बनाए धर्मों को चला रहें हैं. सो किसान को भी ये प्रतीक वाला दस्तूर समझना और अपनाना होगा. सभी संगठनों का प्रतीक एक होगा तो अलग अलग होते हुए भी सब एक दिखेंगे. “एक प्रतीक” ही “अनेकता में एकता” और किसान लामबंदी का सूत्रधार है अब.

कृषि मंत्रालय से बालियान की छुट्टी, अब 4 मंत्री करेंगे किसान कल्‍याण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रियों को ताश के पत्‍तों की तरह फेट दिया है। 19 नए चेहरों को मंत्रिमंडल में जगह दी गई है जबकि स्‍मृति ईरानी जैसे कई दिग्गजों के विभाग बदले गए। लेकिन जैसी उम्‍मीद जताई जा रही थी कृषि राज्‍य मंत्री संजीव बालियान को न तो कैबिनेट मंत्री बनाया गया है और न ही स्‍वतंत्र प्रभार मिला है। अलबत्‍ता, उन्‍हें कृषि मंत्रालय से हटाकर जल संसाधन जैसे लो-प्रोफाइल मंत्रालय में जरूर भेज दिया गया है। इसका सीधा मलतब यह निकाला जा रहा है कि पीएम मोदी कृषि मंत्रालय में संजीव बालियान के कामकाज से खुश नहीं थे। बालियान के अलावा एक अन्‍य राज्‍य मंत्री गुजरात के मोहनभाई कल्याणजी भाई कुंंदारिया की भी कृषि मंत्रालय से छुट्टी हो गई है। कुंदारिया भी दिल्‍ली या गुजरात में कुछ खास नहीं कर पाए थे। बालियान और कुंदारिया की जगह कृषि मंत्रालय में 3 नए राज्‍य मंत्री बनाए गए हैं। इस तरह किसान कल्‍याण का जिम्‍मा एक-दो नहीं बल्कि चार-चार मंत्रियों पर रहेगा।

मंत्रिमंडल में हुए व्‍यापक फेरबदल के बावजूद कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह इस बार भी बच गए हैं। न उनका मंत्रालय बदला और रुतबा कम हुआ है।

ग्रामीण विकास से बीरेंद्र सिहं की विदाई, घटा जाट नेताओं का कद 

5ZkwjoKzहरियाणा के जाट नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह की ग्रामीण विकास मंत्रालय से विदाई हो गई है। भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर सरकार की नाकामी के बाद से ही उन पर तलवार लटक रही थी। मोदी सरकार में ग्रामीण विकास जैसे अहम मंत्रालय के बजाय बीरेंद्र सिंह को इस्‍पात मंत्रालय की जिम्‍मेदारी दी गई है। इस तरह देखा जाए तो मोदी मंत्रिमंडल में दोनों जाट नेताओं का रुतबा घटा है। किसान और ग्रामीण पृष्‍ठभूमि वाले बीरेंद्र सिंंह और संजीव बालियान को ग्रामीण विकास और कृषि जैसे मंत्रालय वापस ले लिए हैं।

मोदी मंत्रिमंडल में बीरेंद्र सिंह और संजीव बालियान के रुतबे में आई कमी को हरियाणा और पश्चिमी यूपी की राजनीति से जोड़कर भी देखा जा सकता है। हरियाणा में जाट आंदोलन से निपटने में बीरेंद्र सिंह की भूमिका से पार्टी को कोई खास मदद नहीं मिली पाई थी। राज्‍य के राजनैतिक समीकरण भी उनके खिलाफ गए।

पश्चिमी यूपी की राजनीति में संजीव बालियान की सक्रियता और विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मंत्रिमंडल में उनका कद बढ़ने की अटकलें लगाई जा रही थी। बालियान की कृषि मंत्रालय से विदाई और स्‍वतंत्र प्रभार भी न नहीं मिलना काफी अप्रत्‍याशित रहा है। संवारलाल जाट के इस्‍तीफे के बाद जातीय संतुलन बनाए रखने के लिए राजस्‍थान के जाट नेता सीआर चौधरी को मंत्रिमंडल में जगह दी गई है।

बच गए राधा मोहन, अब कृषि मंत्रालय में 4 मंत्री 

22-ss-ahluwalia-300कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब रहे हैं। उन्‍हें कृषि मंत्रालय से हटाए जाने की काफी अटकलें लगाई जा रही थींं। लेकिन अपनी किसान विरोधी छवि से चिंतित मोदी सरकार ने कृषि मंत्रालय में 3 नए राज्‍य मंत्री बनाए हैं। ये नए कृषि राज्‍य मंत्री हैं – एसएस अहलूवालिया, पुरुषोत्‍तम रूपाला और  सुदर्शन भगत।
6E3-k9W9सुरेंद्रजीत सिंह (एसएस) अहूलवालिया पश्‍चिम बंगाल की दार्जिलिंग सीट से भाजपा सांसद हैं। वह पीवी नरसिम्‍हाराव की कांग्रेस सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं।कांग्रेस से मोहभंग हाने के बाद उन्‍होंने भाजपा का दामन थामा था। फिलहाल वह भाजपा के राष्‍ट्रीय उपाध्‍यक्ष हैं।
imagesपुरुषोत्‍तम रूपाला गुजरात के कडवा पाटीदार समुदाय से ताल्‍लुक रखते हैं और पीएम मोदी के करीब माने जाते हैं। संगठन में रहते हुए रूपाला ने पाटीदार आरक्षण आंदोलन से सीधी टक्‍कर ली थी। वह गुजरात में कृषि मंत्री रह चुके हैं और उन्‍हें हाल ही में राज्‍य सभा में लाया गया था।

सुदर्शन भगत झारखंड से नक्‍सल प्रभावित लोहरदगा से सांसद हैं। वे साफ छवि और विवादों से दूर रहने वाले नेता माने जाते हैं। इससे पहले वह ग्रामीण विकास मंत्रालय में राज्‍य मंत्री थे।