फसल बीमा के लिए 6 महीने से जारी किसान की बेटी का संघर्ष

पिछले सप्ताह केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के 5 साल पूरे होने का जश्न बड़े जोरशोर से मनाया। लाखों करोड़ रुपये की योजना है। किसानों को आपदा से बचाने का बड़ा दावा है तो जश्न भी बड़ा ही मनना चाहिए। मना भी। लेकिन इस शोरगुल के बीच फसल बीमा का क्लेम पाने के लिए भटक रहे किसानों पीड़ा अनसुनी रह गई। इसलिए असलीभारत.कॉम ने उन किसानों की सुध लेने का बीड़ा उठाया है जो फसल बीमा के लिए बैंक, बीमा कंपनियों और कृषि विभाग के चक्कर काटने का मजबूर हैं। इस श्रृंखला की पहली कड़ी में पेश है राजस्थान के एक कृषक परिवार की आपबीती जो फसल बीमा योजना की पेचीदगियों को उजागर करती है और शिकायत निवारण की व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाती है 

– संपादक

मैं एक किसान परिवार से ताल्लुक रखती हूं और खेती ही हमारा मुख्य व्यवसाय है। साल 2019 में अतिवृष्टि के कारण राजस्थान के कई जिलों में किसानों की फसलें खराब हुई थीं। हमारी भी हुई। चूंकि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत पंजीकरण करवा रखा था, इसलिए उम्मीद थी कि नुकसान की कुछ न कुछ भरपाई हो जाएगी। इसी आस में पिता जी ने बीमा क्लेम के लिए आवेदन भी किया।

पिछले साल जुलाई महीने की बात है। मेरे पास पिताजी का गांव (राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के निम्बाहेडा ब्लॉक में भावलियां गांव) से फोन आया कि बीमा कंपनी के नंबर 0141-4042999 पर लगातार फोन कर रहे हैं, लेकिन कोई उठाता ही नहीं है। एक बार तुम भी इस नंबर पर बात करने की कोशिश करना। यह नंबर जयपुर का है और तुम जयपुर में हो तो बीमा कंपनी के ऑफिस जाकर पता करना कि 2019 में बर्बाद हुई खरीफ फसलों का बीमा क्लेम हमें क्यों नहीं मिला है। बैंक से पूछने पर मुझे जवाब मिला कि बीमा कंपनी से बात करो, हमें कोई जानकारी नहीं है। बीमा कंपनी कौन-सी है? उससे कैसे बात होगी? यह पूछने पर बैंक अधिकारी ने कहा कि हमें बीमा कंपनी के बारे में भी कोई जानकारी नहीं है। आपने आप पता करो! बैंक का यह रवैया बहुत हैरान और हताश करने वाला था।

इसके बाद मैंने बीमा कंपनी को गूगल पर सर्च किया तब कही जा कर मुझे एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया के जयपुर क्षेत्रीय प्रबंधक का मोबाइल नंबर और ईमेल आईडी मिला। मैंने सभी बैंक खातों का विवरण देते हुए एक लंबा मेल अंग्रेजी में लिखा और पूछा कि एक साल बाद भी बीमा क्लेम क्यों नहीं मिला है। मैंने बीमा कंपनी के क्षेत्रीय प्रबंधक को फोन किया और अंग्रेजी में बात करते हुए पूरा मामला बताया। यहां ये बताना जरुरी है कि अगर यह बातचीत और ईमेल अंग्रेजी में नहीं होते शायद मेरी बात सुनी भी नहीं जाती।

बहरहाल, दो दिन बाद बीमा कंपनी का एक मेल आता है कि आपके तीन खातों में से दो खातों की कोई जानकारी हमें राष्ट्रीय बीमा पोर्टल पर प्राप्त नहीं हुई है। एक खाते की जानकारी मिली है, जिसका क्लेम मंजूर हो गया है और क्लेम की राशि एक सप्ताह में आपके बैंक खाते में पहुंच जाएगी। बाकी दो खातों की जानकारी मांगने पर बीमा कंपनी के क्षेत्रीय प्रबंधक ने बताया कि बैंक ने आधार विवरण भारत सरकार के नेशनल क्रॉप इंश्योरेंस पोर्टल पर अपलोड ही नहीं किया होगा, इसलिए हमारे पास इन खातों की सूचना नहीं पहुंची है। जब कोई विवरण ही नहीं आया है तो बीमा भी नहीं हुआ और इस वजह से क्लेम राशि भी नहीं मिल सकती है। तब तक नेशनल क्रॉप इंश्योरेंस पोर्टल वर्ष 2019 के लिये बंद हो चुका था। इस बीच पोर्टल को पुनः खोला गया था लेकिन फिर भी बैंकों ने ये त्रुटियां नहीं सुधारी।

हमने सम्बंधित बैंक शाखा (स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, निम्बाहेडा, चित्तोड़गढ़, शाखा कोड-31238) से वापस संपर्क किया तो बैंक ने स्वीकार किया कि आधार विवरण पोर्टल पर अपलोड नहीं हो पाया, इसलिए बीमा नहीं हो पाया। इसके बाद मैंने राजस्थान के कृषि मंत्री, कृषि आयुक्त, कृषि विभाग के क्षेत्रीय निदेशकों और बीमा कंपनी को मेल भेजकर पूरे मामले से अवगत कराया। इनमें से सिर्फ बीमा कंपनी का जवाब आया, जिसमें कहा गया था कि अगर राष्ट्रीय बीमा पोर्टल पर किसानों का डाटा अपलोड नहीं हुआ है तो उनका बीमा भी नहीं हुआ है। और किसी भी माध्यम से किसानों के बारे में कोई जानकारी नहीं ली जाएगी। योजना के दिशानिर्देशों के अनुसार, सिर्फ वित्तीय संस्था यानी बैंक ही किसानों का विवरण राष्ट्रीय बीमा पोर्टल पर अपलोड कर सकता है।

इस मुद्दे को लेकर मैं पिछले 6 महीनों में कृषि विभाग, बैंक और बीमा कंपनियों से गुहार लगा रही हूं। बैंक ने मौखिक रूप से अपनी लापरवाही स्वीकार की है लेकिन लिखकर यह दिया है कि किसानों का आधार डेटा अपलोड नहीं होने और आधार व बैंक खातों में नाम मिस-मैच होने की वजह से विवरण अपलोड नहीं हो पाया। जबकि बैंक बिना आधार के ना तो आजकल खाते खोलता है और ना ही ऋण देता है। ये सभी कृषक क्रेडिट कार्ड योजना के ऋणी किसान हैं। इसलिए ऐसा होना भी मुश्किल है कि बिना आधार ये खाते संचालित हो रहे हो। अगर हो भी रहा है तब भी इस प्रकार की विसंगतियां दूर करना बैंकों और बीमा कंपनियों की जिम्मेदारी है।  

मतलब, किसानों से आधार विवरण लेने के बाद भी यदि बैंक वो विवरण पोर्टल पर अपलोड नहीं करता है तो उसकी जवाबदेही किसकी होगी? किसानों पर यह दोहरी मार है। पहले मौसम की मार और फिर सिस्टम की खामियों या लापरवाही की मार! इस मामले को लेकर राजस्थान सरकार के कृषि विभाग को भी ईमेल भेजा गया पर किसी का कोई जवाब नहीं आया था। कृषि उपनिदेशक, चित्तौड़गढ़ को कई बार फोन किया था, लेकिन जैसे ही उन्हें यह पता चला कि अमुक केस से सम्बंधित फोन है तो उन्होंने फोन उठाना ही बंद कर दिया। ऐसी परिस्थितियों में किसान कहां जाए? किससे मदद की उम्मीद करे?

बीमा पंजीकरण कराने और प्रीमियम की राशि कटने के बाद भी बैंक, बीमा कंपनी और कृषि विभाग के चक्कर काटने पर क्यों मजबूर होना पड़ रहा है। इस बीच, इस मुद्दे को ‘असलीभारत.कॉम’ नाम ने उठाया। इसी दौरान मैंने इस मामले पर संसदीय समिति और रिजर्व बैंक को भी लिखा। रिजर्व बैंक से यह मुद्दा बैंकिंग लोकपाल तक भी पहुंच गया था। संभवत: इसी तरह के प्रयासों का ही परिणाम था कि भारत सरकार ने सिर्फ राजस्थान के लिए राष्ट्रीय बीमा पोर्टल को 2 से 7 नवंबर, 2020 के मध्य पुनः खोल कर बैंकों से डेटा अपलोड करने को कहा। बैंकों ने अपनी भूल सुधारते हुए ये कर भी दिया।

कई बीमा कंपनियां किसानों को बकाया क्लेम राशि वितरित कर भी चुकी हैं। परंतु राज्य के 13 जिलों (हनुमानगढ़, चित्तौड़गढ़, बाड़मेर, अलवर, बारां, बीकानेर, धौलपुर, झालावाड़, झुंझुनूं, करोली, सिरोही, गंगानगर, उदयपुर) में फसल बीमा करने वाली बीमा एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया ने किसानों को क्लेम राशि देने से साफ इंकार कर दिया है। अभी कुछ दिनों पूर्व कृषि आयुक्त से बात करने पर पता चला कि अब यह मामला भारत सरकार के पास विचाराधीन है।

कहा जा रहा है कि भारत सरकार जब तक बीमा कंपनी को पाबंद नहीं करेगी, तब तक 2019 के बीमा क्लेम से वंचित राजस्थान के इन किसानों को उनका हक नहीं मिल सकेगा। देखना है अभी और कितना इंतजार और कितना संघर्ष बाकी है। जिस योजना के 5 साल पूरे होने को उत्सव की तरह मनाया गया, अगर इतना ही ध्यान इसकी कमियों को दूर करने और शिकायत निवारण व्यवस्था को मजबूत करने पर दिया जाता तो मेरी जैसी किसान की बेटी को इतना जद्दाेजहद ना करनी पड़ती।

सरकारी खरीद और मंडी सिस्टम से आगे सोचना क्यों जरूरी?

आज सभी मानते हैं कि कृषि के क्षेत्र में सुधार के लिए खेत से बाजार और बाजार से उपभोक्ता तक एक नई प्रणाली और तंत्र बनना बहुत जरूरी है। सारे देश में, मुख्य तौर पर कृषि आधारित पिछड़े राज्य जैसे बिहार में नई व्यवस्था की जरूरत है। इसके लिए पंजाब, हरियाणा जैसे जिन राज्यों में मंडी सिस्टम मजबूत है उसे बरकरार रखते हुए भी आगे बढ़ा जा सकता है। देखा जाए तो पंजाब और हरियाणा में अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और मंडी प्रणाली को बचाये रखने के लिए भी खेती से जुड़े ये नए कानून जरूरी हैं।

इस बात को समझने के लिए हमें देखना होगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, मंडी प्रणाली और सरकारी खरीद किस तंत्र पर टिकी है। आज से करीब पांच दशक पहले सरकारी मंडी और एमएसपी सिस्टम की शुरुआत देश को भुखमरी से बचाने के लिए हुई थी। इस सिस्टम के तहत सरकार ने शुरुआत में पंजाब और हरियाणा, और बाद में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के किसानों को खूब गेहूं और धान उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य का भरोसा अज्ञैर खरीद की गारंटी मुख्य प्रोत्साहन हैं। फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया अनाज उत्पादक राज्यों से एमएसपी पर अनाज खरीदकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये अन्य राज्यों तक पहुंचाती है। मतलब, हरियाणा-पंजाब का किसान बिहार, झारखंड और अन्य राज्यों के लिए अनाज उगाता है। पीडीएस के राशन की सस्ती दरों का असर इन राज्यों के अनाज बाजार और मार्केट दरों पर भी पड़ता है, जिसका नुकसान वहां के किसान उठाते हैं।

अक्सर हमें यह सुनने को मिलता है कि बिहार में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद क्यों नहीं होती है? बिहार में हरियाणा-पंजाब की तरह मंडी सिस्टम क्यों नहीं है? मान लीजिए कि बिहार भी न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली मंडी प्रणाली लागू कर देता है। इससे क्या होगा? फूड कॉरपोरेशन को पंजाब और हरियाणा से कम अनाज खरीदना पड़ेगा। क्योंकि तब बिहार को दूसरे राज्यों से अनाज मंगाने की उतनी जरूरत नहीं रहेगी। इसीलिए भी फूड कॉरपोरेशन बिहार में अनाज की खरीद नहीं करता, ताकि हरियाणा-पंजाब में अनाज की सरकारी खरीद जारी रख सके।

फूड कॉरपोरेशन की समस्या यह है कि उसके पास हर साल जरूरत से ज्यादा अनाज जमा होता है, क्योंकि साल दर साल अनाज का उत्पाद और सरकारी खरीद बढ़ती गई। हम अनाज की कमी से अनाज के सरप्लस की स्थिति में आ पहुंचे हैं। अब सरकार चाहे भी तो पूरे देश के किसानों से सारा अनाज एमएसपी पर नहीं खरीद सकती है। एक तो सरकार के पास इतना पैसा नहीं है और दूसरा पीडीएस की खपत की एक सीमा है। फिर सरकारी खरीद के लिए हरियाणा-पंजाब, यूपी, मध्यप्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में भंडारण आदि की व्यवस्थाएं भी नहीं है। इसलिए एमएसपी पर सरकारी खरीद कुछ ही फसलों और कुछ ही राज्यों तक सीमित है।  

इसमें कोई दोराय नहीं है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों ने देश को भुखमरी से बचाया है। इन राज्यों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद की व्यवस्था बनी रही, इसके लिए बिहार जैसे राज्यों में गेहूं और धान की खरीद की बजाय अन्य फसलों को बढ़ावा देने की जरूरत है। इसके लिए बेहतर बाजार और खरीद तंत्र बनाने की जरूरत है। यह नई व्यवस्था प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी के बिना संभव नहीं है। और इस व्यवस्था को सिर्फ सरकारी खरीद और एमएसपी के बूते नहीं चलाया जा सकता है। क्योंकि अनाज तो पीडीएस में बंट सकता है, इसलिए सरकारी खरीद संभव है। लेकिन बाकी उपज और फल-सब्जियों को एमएसपी पर खरीदने की न तो सरकार की क्षमता है और न ही इतने संसाधन हैं। इसलिए कृषि व्यापार की ऐसी व्यवस्थाएं बनानी होंगी, जिसमें सरकारी खरीद के बगैर भी किसानों के हितों और लाभ को सुनिश्चित किया जा सके। इसमें किसान को बाजार के उतार-चढ़ाव और जोखिम से बचाना और कृषि क्षेत्र में नई तकनीक, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश लाना भी शामिल है।

आज जगह-जगह सुपर मार्केट के जरिये खाने की चीज़ें, फल, सब्जियों इत्यादि बिकने की संभावनाएं बढ़ रही हैं। इस क्षेत्र की  कंपनियों को किसान से भागीदारी करने की जरूरत है। यहां सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। सरकार का काम है कि इस भागीदारी में किसान के अधिकार और हितों को मजबूत करे। जिस तरह सरकारी खरीद में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया अनाज के दाम और खरीद की गारंटी देता है, उसी तरह किसान के साथ कॉन्ट्रैक्ट में खरीद और दाम को सुनिश्चित करना होगा। नए कृषि  कानून उस दिशा में एक कदम हैं। लेकिन अभी उसमें किसानों के लिए और भी सुरक्षा प्रावधानों को जरूरत है।

केंद्र सरकार ने किसान और खेती के लिए जो नए कानून बनाये हैं, उनमें किसानों के अधिकारों को और भी मजबूत किया जाना चाहिए। लेकिन सरकार पर किसानों का विश्वास न होना मोदी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। इसके लिए खुद मोदी सरकार जिम्मेदार है। इसके लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

(अनूप कुमार अमेरिका की क्लीवलैंड स्टेट यूनिवर्सिटी में जनसंचार के प्रोफेसर हैं)

समझाने की बजाय किसानों पर नीतियां थोपने के दुष्परिणाम

अभी कुछ महीनों पहले मैं प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से जुडी विसंगतियों को लेकर सभी किसानों के हकों के लिए लड़ रही थी। इसके लिए मुझे मीडिया, संसदीय समिति, राज्य कृषि विभाग, केंद्रीय कृषि विभाग, बीमा कंपनी, भारतीय स्टेट बैंक, राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति, रिजर्व बैंक से होते हुए बैंकिंग लोकपाल तक जाना पड़ा, तब कहीं जाकर भारत सरकार थोडा सक्रिय हुई और बंद हो चुकी क्लेम प्रक्रिया को राजस्थान के लिये पुनः चालू करवाया। अगर यह निर्णय नहीं होता तो मैं इस प्रक्रिया को उपभोक्ता अदालत में चैलेंज करती या क़ानूनी प्रक्रिया अपनाती। मैं ऐसा इसलिए कर सकती थी क्योंकि मुझे इन सबके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी पहले से है या फिर मैं वह जानकारी हासिल करने की स्थिति में हूँ। लेकिन किसी आम आदमी या साधारण किसान के पास न तो इतनी जानकारियां हैं और न ही इतनी जागरूरकता है कि वह सरकारी नियम-कानूनों की पेचीदगियों से जूझ सके।

जब मैंने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के बारे में कृषि विभाग के जिला स्तरीय अधिकारियों से योजना के बारे में जानकारी लेनी चाही, तब उन्हें यह भी नहीं पता नहीं था कि मैं उनसे क्या पूछ रही हूँ। जो योजना उन्हें अपने जिले में लागू करवानी थी, उसके  दस्तावेज हिंदी में भी उपलब्ध थे। मैं उन्हें हर एक क्लॉज के तहत उनकी जिम्मेदारियां और भूमिकाएँ बताती जा रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे यह सब वे पहली बार ही सुन रहे हो। मैं अपने साथ एक कॉपी ले गई थी जो उन्होंने फोटोकॉपी करवा कर अपनी फाइल में लगाई।

मैंने ऐसे प्रशासनिक अधिकारी भी देखे हैं जो कागजों को पढ़े बिना ही सिर्फ चिड़ियाँ बिठा दिया करते हैं। बहुत कम ही ऐसे होते हैं जो सब कुछ पढ़ लिख कर अपना निर्णय फाइल पर लिखते हैं। यह सन्दर्भ इसलिये रखने जरुरी है कि जब प्रक्रियाएं व तंत्र की कार्यप्रणाली ऐसी होती है तो किसानों से सरकारें ऐसी उम्मीद कैसे कर लेती है कि उन तक सारे कानून और योजनाएं पहुँच जायेगी और वे उन्हें ठीक से पढ़-समझ लेंगे।

अब कृषि कानूनों को ही देखें तो क्या देश के सभी किसानों तक ये कानून पहुंचे हैं? जब मैंने इन कानूनों को पढ़ना चाहा तो सोचा कि कृषि विभाग की वेबसाइट पर तो ये होंगे ही। वेबसाइट पर जा कर देखा तो तीन में से दो ही कानूनों की जानकारी वहां दिखाई दी और वह भी अंग्रेजी में। देश के किसानों से यह उम्मीद करना कि वे वेबसाइट का पता लगाकर कानून खोज भी लेंगे और अंग्रेजी में पढ़-समझ भी लेंगे, यह मेरी नजर में किसानों के साथ-साथ सरकार को भी अंधेरे में रखने के बराबर है। कृषि संबंधी तीसरा कानून तो किसी और ही विभाग का मामला है अतः वो उस विभाग की वेबसाइट पर जा कर खोजना पड़ेगा। कुल मिलाकर बात यह है कि लोगों तक कानूनों की कॉपी पहुंचेगी तभी तो वे उनका विश्लेषण कर अपना निर्णय ले पाएंगे।

अब रही बात कानूनों की भाषा की! अगर किसी ने प्रयास करके इन कृषि कानूनों को खोज भी लिया तो इनकी भाषा इतनी क्लिष्ट है कि समझना मुश्किल है। कोरोना संकट के काल में जब संसद चल भी नहीं पा रही थी, तब भारत सरकार इन कानूनों को अध्यादेश के रूप में लाती है और कुछ महीनों बाद संसद में ध्वनिमत से इन्हें पास कराया जाता है। इस दौरान संसदीय समिति के स्तर पर विचार-विमर्श और आम सहमति बनाने की कोशिश भी नहीं की गई। यहां तक कि संसद में बहस के दौरान विपक्षी दलों को इन बिलों पर बोलने का बहुत कम मौका मिला।  

अध्यादेश सरकार के लिए एक विशेषाधिकार है। इसकी जरूरत तब पड़ती है, जब सरकार किसी बेहद खास विषय पर कानून बनाने के लिए बिल लाना चाहे, लेकिन संसद के दोनों सदन या कोई एक सदन का सत्र न चल रहा हो। संविधान का अनुच्छेद-123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है। संविधान कहता है कि अगर कोई ऐसा मुद्दा है, जिस पर तत्काल प्रभाव से कानून लाने की जरूरत हो, तो संसद के सत्र का इंतजार करने की बजाय सरकार अध्यादेश के जरिए उस कानून को लागू कर सकती है। लेकिन इस अनुच्छेद में यह भी स्पष्ट है कि अध्यादेश को बेहद जरूरी या आपात स्थितियों में ही लाया जाना चाहिए। जब देश और पूरी दुनियां एक भयावह महामारी से जूझ रही है तो कृषि व्यापार में बदलाव के लिए अध्यादेश लाने की क्या हड़बड़ी थी? सरकार के इस कदम से यह संदेश गया कि कृषि सुधारों पर आम सहमति बनाने की बजाय सरकार किसानों पर ये कानून थोपना चाहती है। किसानों को आंदोलन के रास्ते पर ले जाने के पीछे यह एक बड़ी वजह है।  

सूचना का अधिकार के तहत सरकारी कार्यालयों को आम जन से जुड़े महत्वपूर्ण मामलों में सूचना का पूर्व-प्रकटीकरण (Predisclosure) करना होता है। कृषि कानूनों के मामले में बिलों के मझौदों पर आम जनता के सुझाव/आपत्तियां भी नहीं ली गईं।

हैरानी की बात है कि नए कृषि कानूनों के तहत किसान अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ सिविल कोर्ट भी नहीं जा सकते। उन्हें सिर्फ प्रशासनिक अधिकारियों (SDM) से ही न्याय की गुहार लगानी पड़ेगी। जो सरकार पूंजीपतियों के दबाव में कृषि कानून लागू करके पीछे हटने को तैयार नहीं है तो किसी विवाद की स्थिति में SDM बड़ी कंपनियों के खिलाफ फैसले दे पाएंगे, इस पर संदेह होता है। और फिर ब्यूरोक्रेसी तक पहुंच और उसे प्रभावित करने की क्षमता किसकी ज्यादा है? किसान की या बड़ी कंपनियों की? आर्बिट्रेशन के नाम पर किसानों को अधिकारियों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे, इसकी क्या गारंटी है?

नए कृषि कानूनों के तहत व्यापार या कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए कंपनियों के साथ होने वाले एग्रीमेंट इतने जटिल हैं कि कोई वकील या सीए ही समझ सकता है। बड़ी कंपनियां अपने साथ क़ानूनी सलाहकार ले कर चलती हैं जो किसानों के लिए संभव नहीं हैं। फसल बीमा के कानूनी दांव-पेंच में प्राइवेट कंपनियों किसानों को कैसे चक्कर कटवाती हैं, यह सबके सामने हैं।



गुजरात: राजनीति और इंजीनियरिंग के लिहाज से क्‍यों खास है सौनी प्रोजेक्‍ट?

अपने महत्‍वाकांक्षी सौनी प्रोजेक्‍ट के जरिये गुजरात की सियासी इंजीनियरिंग को साधने में जुटे हैं नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंगलवार को गुजरात के जामनगर पहुंचे और ‘सौराष्ट्र नर्मदा अवतरण फॉर इरिगेशन’ (SAUNI) यानी सौनी प्रोजेक्‍ट के पहले चरण का लोकार्पण किया। साल 2012 में विधानसभा चुनाव से पहले बतौर सीएम नरेंद्र मोदी ने ही इस सिंचाई परियोजना का ऐलान किया था। एक बार फिर चुनाव से पहले 12 हजार करोड़़ रुपये की यह महत्‍वाकांक्षी परियोजना सुर्खियों में है। उम्‍मीद की जा रही है कि यह प्रोजेेक्‍ट सौराष्‍ट्र से सूखा पीड़‍ि़त किसानों के लिए बड़ी राहत लेकर आएगा। लेकिन इसका सियासी महत्‍व भी कम नहीं है। विपक्षी दल कांग्रेस ने परियोजना पूरी होने से पहले ही प्रथम चरण के लोकार्पण और प्रधानमंत्री की जनसभा को चुनावी हथकंंड़ा करार दिया है। पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी की आज गुजरात में पहली सभा थी।

जामनगर, राजकोट और मोरबी जिले की सीमाओं से सटे सणोसरा गांव मेंं एक जनसभा को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि सौनी प्रोजेक्ट पर हर गुजराती को गर्व होगा। किसान को जहां भी पानी मिलेगा, वह चमत्‍कार करके दिखाएगा। गुजरात के मुख्‍यमंत्री विजय रूपाणी का कहना है कि सौनी प्रोजेक्‍ट सूखे की आशंका वाले सौराष्‍ट्र के 11 जिलों की प्‍यास बुझाएगा। परियोजना के पहले चरण में राजकोट, जामनगर और मोरबी के 10 बांधों में नर्मदा का पानी पहुंचेेगा। अनुमान है कि सौराष्‍ट्र की करीब 10 लाख हेक्‍टेअर से अधिक कृषि भूमि को फायदा होगा।

सिविल इंजीनियरिंग का कमाल

सिविल इंजीनियरिंग के लिहाज से भी सौनी प्रोजेेक्‍ट काफी मायने रखता है। इसके तहत 1,126 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई जाएगी, जिसके जरिये सरदार सरोवर बांध का अतिरिक्‍त पानी सौराष्ट्र के छोटे-बड़े 115 बांधों में डाला जाएगा। पहले चरण में 57 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई गई है जिससे सौराष्‍ट्र में तीन जिलों के 10 बांधों में पानी पहुंचने लगा है। गुजरात सरकार का दावा है कि सभी 115 बांधों के भरने से करीब 5 हजार गांव के किसानों को फायदा होगा। गौरतलब है कि सौराष्‍ट्र के ये इलाके अक्‍सर सूखे की चपेट में रहते हैं। नर्मदा का पानी पहुंचने से यहां के किसानों को राहत मिल सकती है।

मोदी की रैली के सियासी मायने

हालांकि, सौनी प्रोजेक्‍ट 2019 तक पूरा होना है लेकिन अगले साल गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा और राज्‍य सरकार अभी से इसका श्रेय लेने में जुट गई है। आनंदीबेन पटेल के सीएम की कुर्सी से हटने और विजय रूपाणी के मुख्‍यमंत्री बनने के बाद यह पीएम मोदी की पहली गुजरात यात्रा है। उधर, पाटीदार आरक्षण और दलित आंदोलन भी भाजपा के लिए खासी चुनौती बना हुआ हैै। इसलिए भी पीएम मोदी के कार्यक्रम और जनसभा के सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। सौराष्‍ट्र कृषि प्रधान क्षेत्र है और यहां पटेल आरक्षण और दलित आंदोलन का काफी असर है।

परंपरागत सिंचाई योजना से कैसे अलग है सौनी

देखा जाए तो सौनी प्रोजेेक्‍ट नर्मदा प‍रियोजना का ही विस्‍तार है। लेकिन परंपरागत सिंचाई परियोजनाओं की तरह सौनी प्रोजेक्‍ट में नए बांध, जलाशयों और खुली नहरों के निर्माण के बजाय पहले से मौजूद बाधों में पानी पहुंंचाया जाएगा। इसके लिए खुली नहरों की जगह पाइपलाइन बिछाई जा रही है। उल्‍लेखनीय है कि भूमि अधिग्रहण के झंझटों को देखते हुए गुजरात सरकार ने खुली नहरों के बजाय भूमिगत पाइपलाइन का विकल्‍प चुना था। इसी पाइपलाइन के जरिये नर्मदा का पानी सौराष्‍ट्र के 115 बांधों तक पहुंचााने की योजना है। भूमिगत पाइपलाइन से बांधों में पानी डालने के लिए बड़े पैमाने पर पंपिंग की जरूरत होगी। इस पर आने वाले खर्च को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं।

परियोजना पर सवाल भी कम नहीं

12 हजार करोड़ रुपये केे सौनी प्रोजेक्‍ट पर सवाल भी कम नहीं हैं। दरअसल, राज्‍य सरकार का अनुमान है कि नर्मदा से करीब 1 मिलियन एकड़ फीट अतिरिक्‍त पानी सौराष्‍ट्र के 115 बांधों को मिल सकता है। गुजरात विधानसभा में विपक्ष के नेता शंकर सिंह वाघेला का कहना है कि सौनी प्रोजेक्‍ट की सच्‍चाई दो महीने बाद सामने आएगी। अभी तो बरसात की वजह से अधिकांश बांधों में बारिश का पानी पहुंंच रहा है। दो-तीन महीने बाद जब बांध सूख जाएंगे तब पता चलेगा सौनी प्रोजेक्‍ट से कितना पानी पहुंचता है। सरकार को कम से कम दो महीने का इंतजार करना चाहिए था।

पासवान ने मिलों पर फिर बनाया चीनी कीमतें कम रखने का दबाव

गन्‍ना किसानों को उचित दाम और बकाया भुगतान दिलाने में नाकाम रहने वाली केंद्र सरकार चीनी मिलों पर लगातार कीमतेंं काबू में रखने का दबाव बना रही है। पिछले वर्षों के दौरान चीनी की कीमतों में गिरावट के चलते ही न तो किसानों को उपज का सही दाम मिल पाया और न ही चीनी मिलें समय पर भुगतान कर पा रही हैं। घाटे के बोझ में कई चीनी मिलें बंद होने के कगार पर हैं जबकि किसानों का भी गन्‍ने से मोहभंग होने लगा है।

शुक्रवार को खाद्य एवं उपभोक्‍ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि चीनी के दाम मौजूदा स्तर से बढ़तेे हैं तो सरकार आवश्यक कार्रवाई करेगी। चीनी की कीमतों पर नजर रखी जा रही है। हालांकि, देश में चीनी की कमी नहीं है और आगे कीमतों में वृद्धि के आसार भी कम हैं। लेकिन किसान काेे अक्‍सर बाजार के हवाले छोड़ने वाली सरकार चीनी के मामले में जबरदस्‍त हस्‍तक्षेप करने पर आमादा है। पासवान ने मिलों से चीनी कीमतों में स्थिरता बनाए रखने की अपील की है। जबकि जगजाहिर है कि चीनी कीमतों में कमी की सबसे ज्‍यादा मार किसानों पर पड़ती है।

इंडियन शुगर मिल्‍स एसोसिएशन (इस्‍मा) के डायरेक्‍टर जनरल अबिनाश वर्मा ने असलीभारत.कॉम को बताया कि पहले सरकार को यह देखना चाहिए क्‍या चीनी के दाम वाकई अत्‍यधिक बढ़ गए हैं। इस समय दिल्‍ली के खुदरा बाजार में चीनी का दाम 42 रुपये किलो है। चीनी मिलों के गेट पर दाम 35.5-36 रुपये किलो के आसपास है जबकि चीनी उत्‍पादन की लागत करीब 33 रुपये प्रति किलोग्राम आ रही है। अगर मिलों को दस फीसदी मार्जिन भी नहीं मिलेगा तो कारोबार करना मुश्किल हो जाएगा। वर्मा का कहना है कि पिछले साल चीनी के दाम बुरी तरह टूट गए थे और जिसके चलते मिलों पर कर्ज का बोझ है। इससे उबरने के लिए भी जरूरी है कि चीनी के दाम ठीक रहें। वर्मा के मुताबिक, इस साल चीनी की कीमतों में जो थोड़ा सुधार दिखा है दरअसल वह पिछले साल का करेक्‍शन है और दो साल पुराना दाम है। सरकार खुद मान रही है देश में चीनी की कमी है। ऐसे में इतनी जल्‍दी पैनिक होने की जरूरत नहीं है।

एथनॉल एक्‍साइज ड्यूटी पर छूट खत्‍म, चीनी मिलों का झटका

इस बीच, केंद्र सरकार ने चीनी मिलों को एथनॉल पर दी जा रही एक्‍साइज ड्यूटी की छूट वापस ले ली है। सरकार का यह कदम भी चीनी मिलों को चुभ रहा है। घाटे से जूझ रही मिलों को उबारने के लिए केंद्र सरकार ने यह रियायत दी थी, जो पेराई सीजन खत्‍म होनेे से पहले ही वापस ले ली गई है।

किसानों का अब भी 4 हजार करोड़ बकाया

चीनी के दाम का सीधा संबंध किसान से है। इस साल मार्च से चीनी के दाम करीब 10-12 फीसदी बढ़े हैं। दूसरी तरहगन्‍ना किसानों का बकाया भुगतान घटकर करीब 4 हजार करोड़़ रुपये गया है जो पिछले साल इसी समय 18 हजार करोड़ रुपये से ज्‍यादा था। यह हालत तब हैै कि जबकि पिछले तीन साल से गन्‍नाा मूल्‍य में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। पिछले तीन-चार साल से उत्‍तर प्रदेश जैसे प्रमुख गन्‍ना उत्‍पादक राज्‍य में गन्‍नाा मूल्‍य 260-280 रुपये कुंतल के आसपास है। इस स्थिर मूल्‍य का भुगतान पाने के लिए भी किसानों को कई महीनों तक इंतजार करना पड़ रहा है।