जाट और आरएसएस (संघ) का संग?

 

आजकल देश में हर तरफ आरएसएस यानि संघ के चर्चे हैं. आज से कुछ साल पहले तक आरएसएस शहरियों का संगठन कहलाता था, देहात में तो शायद ही इसके बारे में लोग जानते थे, पर अब इससे देहात भी अछूता नहीं है, देहात के लोग भी जुड़ना शुरू हो चुके हैं. देहातियों के संघ के प्रति झुकाव के कई कारण हैं और यह कितना सही या गलत है इसको समझना जरूरी है.

सबसे पहले तो हम यह समझ लें कि आरएसएस यानि संघ क्या है और कैसे इसका गठन हुआ. आरएसएस का गठन काकोरी रेल घटना के बाद डॉक्टर हेडगेवार के नेतृत्व में महाराष्ट्र के नागपुर शहर में किया. दरअसल, ग़दर के करतार सिंह सराभा जैसे युवाओं व हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के युवाओं द्वारा काकोरी रेल घटना के बाद से देश के युवाओं का झुकाव इन संगठनों के प्रति बढ़ता जा रहा था. इस सब से शायद गांधी जी और उनके हेडगेवार जैसे साथियों में बेचैनी और चिंता हुई कि आज़ादी के बाद देश पर राज की जो योजना तुम लोगों ने बनाई हैं कहीं उस पर पानी ना फिर जाए! इसी कारण डॉक्टर हेडगेवार ने आरएसएस की स्थापना की और आरएसएस की इस करतूत को तुषार गांधी का सरदार भगत सिंह पर दिया गया बयान और भी पुख्ता करता हैं. तुषार गांधी ने कहा था कि भगत सिंह शहीद होना चाहते थे ताकि उनका मैसेज देश में अधिक से अधिक युवाओं तक पहुंचे, लेकिन उनकी शहादत का उतना असर नहीं पड़ा.

तुषार गांधी के इस बयान से साफ है कि काकोरी रेल घटना के बाद आरएसएस की स्थापना कोई इत्तफाक नहीं एक सोची समझी साजिश थी! और आज के समय में भी मोदी जी का लाल किले की प्राचीर से यह कहना कि अब हमें और भगत सिंह नहीं चाहिए ये सब कोई इतिफाक नहीं हैं. ऐसा नहीं हो सकता कि यह सब मोदी जी की निजी राय हो और संगठन का इससे कोई वास्ता ना हो. शहीदे आज़म भगत सिंह की शहादत पर संघ के दो प्रमुख नेताओं के इन बयानों से हिसाब लगा सकते हैं कि संघ कि स्थापना क्यों और किस एजेंडा के तहत की गई थी. “-जेल जाना फांसी चढ़ना कोई देशभक्ति नहीं बल्कि छिछोरी देशभक्ति और प्रसिद्धि की लालसा है! ( संघ वृक्ष के
बीच) — लेखक –केशवराव बलिराम हेडगेवार (आरएसएस प्रकाशन) , — शहीद भगत सिंह राजगुरु सुखदेव

इन की कुर्बानियों से देश का कोई हित नहीं होता! (बंच ऑफ़ थॉट्स—लेखक — एमएस गोलवलकर
(आरएसएस प्रकाशन) “.

ये सब वाक्य इस ओर इशारा करते हैं कि आरएसएस की स्थापना दूरदर्शी सोच के तहत की गई थी. देश में अलग-अलग क्रांन्तिकारी संगठनों द्वारा आज़ादी की आवाज़ बुलंद करना और अंग्रेजों द्वारा यह कहना कि भारत उसकी विश्व युद्ध में मदद कर दे तो वह भारत को आजाद कर
देगा. हालाँकि, पहले विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने अपना कहा पूरा नहीं किया. पर, आरएसएस यह सब अच्छी तरह से जानती थी कि एक न एक दिन सत्ता हस्तांतरण होना है और कहीं यह सत्ता हस्तांतरण करतार सिंह सराभा, भगत सिंह या फिर सर छोटूराम जैसे यूनियनिस्ट नेताओं की तरफ न हो जाए इसके लिए ही संघ की स्थापना की गई थी.

यूनियनिस्ट नेता सर छोटूराम की तरफ इसलिए लिखा क्योंकि प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने भारतीय सेना में जितने सैनिक भर्ती किये उसके आधे सैनिक पंजाब, पश्चिम यूपी, राजस्थान से थे. सब जानते हैं कि यह क्षेत्र जाट बाहुल्य है.

यह हम देहातियों का दुर्भाग्य रहा कि सरदार करतार सिंह सराभा, सरदार भगत सिंह या सर छोटूराम हों, यह सब समय से पहले ही इस दुनिया से चले गए.

सर छोटूराम एक ऐसे दूरदर्शी नेता थे जो यह सब चालें समझ रहे थे. सर छोटूराम शहरियों की नीति समझ गए थे कि यदि गोरों ने देश को आजाद किया तो सत्ता सीधी इन्हीं शहरियों के हाथों में जाएगी. उन्होंने शहरी प्रभाव में पल रही कांग्रेस से त्यागपत्र देकर एक मुस्लिम सर मिया फैजली हुसैन के साथ मिलकर नेशनल यूनियनिस्ट पार्टी का गठन किया. तब पत्रकारों ने सर छोटूराम से पूछा भी कि क्या आपको आज़ादी नहीं चाहिए? सर छोटूराम ने बड़े साफ शब्दों में कहा कि कौन नहीं चाहता कि उनका स्वराज हो? पर मेरा यह मानना है कि स्वराज आने से पहले मैं समाज के उस तबके को तो जागरूक कर लूँ जो व्यवस्था का मारा हुआ है, पिछड़ा है. वरना तो इस स्वराज के कोई मायने नहीं होंगे. यह फिर ऐसा ही होगा कि अभी गोरें अंग्रेजों का राज है फिर काले अंग्रेजों का राज होगा. इसके बाद सर छोटूराम ने यही अपना मिशन बना लिया और अपने इस आन्दोलन को सिर्फ रोहतक तक ही सिमित नहीं रखा. उन्होंने इसका विस्तार पेशावर से लेकर मुज्जफरनगर और शिमला से लेकर जोधपुर तक किया.

1915- 1925 तक ऐसा काफी कुछ घटा इन्हीं सब घटनाओं को मध्यनजर रखते हुए विजयदशमी के दिन नागपुर में डॉक्टर बलिराम हेडगेवार और उनके साथियों ने आरएसएस की स्थापना की.

आरएसएस और देहातियों का संगठन कही जाने वाली यूनियनिस्ट पार्टी दोनों ही समकालीन हैं. फर्क इतना है कि आरएसएस कहने को गैर-राजनितिक संगठन है पर उस ज़माने में हिन्दू महासभा, बाद में जनसंघ और अब बीजेपी इसकी राजनैतिक शाखा है. गौर करने वाली बात यह है कि एक ज़माने में पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी की तूती बोलती थी, हिन्दू महासभा मुस्लिम लीग जैसी साम्प्रदायिक ताकतों व कांग्रेस आदि सब नाममात्र ही थे.

1937 के चुनाव में तो सर छोटूराम के जलवे ने इन सबको कोने में लगा दिया था. पर 1945 में सर छोटूराम के देहांत के बाद यूनियनिस्ट पार्टी ने पंजाब में अपनी पकड़ खो दी और पंजाब में साम्प्रदायिक ताकतों ने अपनी जड़ें जमा ली.

जिस पंजाब का हिन्दू-मुस्लिम- सिक्ख किसान मजदूर सब एक थे मुस्लिम लीग और संघ के साम्प्रदायिक मंसूबों ने इन सबको बाँट दिया. पाकिस्तान मुल्क की आवाज़ पुरे जोर-शोर से उठना शुरू हो गई इधर संघ भी पंजाब में अपने हिन्दुत्व वाले एजेंडा पर सक्रिय हुआ.

1947 आते आते पंजाब के हालात बहुत गंभीर हो गए, शहरों में दंगे शुरू हो गए. तत्कालीन यूनियनिस्ट पार्टी के पंजाब के प्रीमियर सर खिजर हयात टिवाना ने 25 जनवरी , 1947 को पंजाब में मुल्सिम लीग और आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगा दिया. यह प्रतिबन्ध तीन दिन तक ही रहा उसके बाद 28 जनवरी को यह प्रतिबन्ध हटा लिया गया और सिर्फ इतना ही प्रतिबन्ध रहा कि दोनों संगठन कोई पब्लिक मीटिंग आदि नहीं करेंगे पर तब तक हालात काबू से बाहर जा चुके थे और 15 अगस्त, 1947 को मुल्क की आज़ादी के साथ-साथ मुल्क का बंटवारा भी हो गया.

पाकिस्तान वजूद में आ गया. सर छोटूराम जैसा यौद्धा जो इन साम्प्रदायिक ताकतों से लोहा लेता रहा पर उनके जाते ही फिरकापरस्तों ने उनके पंजाब के टुकड़े करवा दिए जैसे कि यह सभी लोग उनकी मौत का ही इंतजार कर रहे थे!

मुझे तो हैरानी यह जानकर होती है कि आरएसएस जिसका गठन कुछ मराठी पेशवा ब्राह्मणों ने
महाराष्ट्र के नागपुर शहर में किया वह उस ज़माने में भी देश के हर कोने में इतनी जल्दी कैसे फैला? बताते हैं कि हमारे भिवानी शहर में 1940 में ही संघ की शाखा खुल चुकी थी! संघ का विस्तार और किसानों के संगठन यूनियनिस्ट पार्टी के खात्मे से एक बात तो सिद्ध होती है कि धर्म वाक्य ही नशीली दवा है. यूनियनिस्ट पार्टी जो सदा आर्थिक हितों की बात करती, जिसका एजेंडा आर्थिक मुद्दे होते, और लोग भी आर्थिक मुद्दों के कारण ही यूनियनिस्ट पार्टी की तरफ आकर्षित भी खूब हुए पर जरा सी ढील होते ही सभी वापिस धर्म की नशीली दवा से मूर्छित हो गए और धर्म-मजहब के नाप पर एक दूसरे को मारने लगे!

जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है कि संघ पहले शहरियों का संगठन माना जाता था और था भी क्योंकि देहात में लोग इसका नाम नहीं जानते होते थे पर देख रहा हूँ कि पिछले पच्चीस-तीस साल से संघ ने अपनी जड़ें देहात की तरफ फैलानी शुरू करी और आज हर गाँव में इसकी जड़ें घुस चुकी हैं. मुझे हैरानी तो तब हुई जब मैंने अपनी एक रिश्तेदारी में किसी निजी पारिवारिक कार्यक्रम में गया हुआ था. जब मैं वहां पहुंचा तो मुझे ऊपर चौबारे में बैठने को बोला गया. ऊपर चौबारे में महफ़िल चल रही थी, आठ- दस युवा बैठे चर्चा कर रहे थे, उनमें एक नौजवान जिसने संघ का नया-नया शिविर अटेंड किया था दबी-दबी आवाज़ में बाकियों को संघ के बारे में बता रहा था. जैसे ही उस नौजवान के शब्द मेरे कानों में पड़े मेरे कान खड़े हो गए और मेरी उत्सुकता बढ़ गई.

उत्सुकता बढ़ने कारण ठेठ देहात के चौबारे की शराबी महफ़िल में आरएसएस पर चर्चा! एक ने मुझ से पूछा कि भाईसाहब कुछ लेंगे? मैंने कहा कि कुछ नहीं बस इस नौजवान से संघ का ज्ञान लेना है.

मैंने उस नौजवान से संघ पर कुछ सवाल शुरू किये. अब उस लड़के ने शुरू किया कि मैं इसके बारे में ज़्यादा नहीं जानता अभी नया नया जुड़ा हूँ पर ये एक अच्छा राष्ट्रवादी संगठन है, हिंदू की सनातन की बात करता है. हमारे भिवानी शहर के रोहतक गेट पर भी इसका दफ़्तर है ……

मैंने बात काटते हुए कहा कि भिवानी में काफ़ी पुराना दफ़्तर है. आज़ादी से भी पहले का बताते हैं. उसके बाद मैंने उससे हिंदू रीति रिवाज और हमारे देहाती रिवाजों पर, संघ के झंडेवालान और नागपुर दफ़्तरों में हमारे किसी भी शहीद जैसे कि शहीद भगत सिंह की कोई तस्वीर है ….

ऐसे कई सवाल करता गया …. जाट नाम आते ही महफ़िल में जोश आ गया. ख़ुद वो लड़का बोला कि बात तो आपकी सही है संघ जाटों का नहीं. मुझे पता था कि ये लड़का मेरी हामी सिर्फ इसलिए भर रहा है क्योंकि इन्हें ट्रेनिंग ही इस बात की दी जाती है कि बहस नहीं करनी है, मैन टू मैन प्रचार करो बस. वो लड़का आगे बोला – एक बात माननी पड़ेगी कि मुसलमान देश के लिए ख़तरा है ये
लोग ग़द्दार है. मैंने कहा -मान ली, पर एक बात मेरी भी माननी पड़ेगी कि ये शहरी हिंदू भी इस
देश के लिए ख़तरा हैं,

आजतक देश में जितने भी महाघोटाले हुए हैं उनमें 99% हिंदू हैं, और इन घोटालों के कारण ही हमारा देहात सुविधाओं में पिछड़ा हुआ है, इन्हीं घोटालों से आर्थिक व्यवस्था बिगड़ती है, भ्रष्टाचार बढ़ता है, जिससे जनता में आक्रोश बढ़ता है और इसी से उग्रवाद और आंतकवाद की शुरुआत होती है.

महफ़िल में मौजूद एक बोला कि आप गहराई से संघ के बारे में जानते हैं आप
पक्का संघ में रहें हैं. मैंने कहा – मैं संघी नहीं छोटूरामवादी हूँ और सर छोटूराम का प्रचारक हूँ. तुम्हारी इस महफ़िल की चर्चा का विषय यह नहीं होना चाहिए था कि संघ राष्ट्रवादी है या क्या है.

चर्चा और चिंतन इस बात पर होना चाहिए कि ये संघ सर छोटूराम के संगठन यूनियनिस्ट पार्टी से उम्र में दो-तीन साल छोटा है और आज नब्बे साल बाद ये कहाँ है और हमारे दादा सर छोटूराम का बनाया हुआ संगठन कहाँ हैं? और ऐसा क्यों हुआ?

एक बार भिवानी बाज़ार में समान लेने गया तो किसी विषय पर चर्चा चली तो दुकानदार बोला कि वोट भाजपा को ही देना. मैंने कारण पूछा तो बोला कि नहीं तो हिंदू ख़त्म हो जाएगा, मुसलमान बढ़ रहे हैं हिंदू घट रहा है, हिंदू बचाना है तो भाजपा ज़रूरी है. मैंने पूछा कि 80% हिंदू होने के बाद भी ख़तरा है? बोला कि हाँ. मक्खा लाला जी किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखा लेना वरना एक दिन इस भय में घर से निकलना भी छोड़ दोगे, इस भय के कारण एक दिन ऐसा भी आएगा कि टोपी लगाए पुलिस का या अन्य सरकारी महकमे का मुलाजिम भी आपको मुस्लिम दिखने लगेगा.

संघ ने हिंदू को कायर बनाने का काम किया तो संघ की पॉलिटिकल विंग भाजपा ने फिर उस भय की फ़सल को काटते हुए यह सिद्ध किया कि ‘धर्म सत्य का नहीं ,सत्ता का मार्ग‘ है।

ऐसा ही एक किस्सा और हुआ. बात भिवानी शहर के एक पार्क की है मैं और मेरा एक मित्र जोकि
बनिया है दोनों शाम को पार्क में सैर करने जाते थे. पार्क के एक कोने में कुछ छोटे-छोटे बच्चे कसरत, परेड जैसी हरकत करते रहते.

मेरा बनिया मित्र बोला कि यह बच्चे रोजाना यहाँ यह क्या करते हैं? मैंने कहा कि लाला जी यह संघ की शाखा है और इसमें सभी लगभग आप वाले लोग मिलेंगे. लाला जी बोले कि चलो देखते हैं. हम वहां पहुंचे और जो उन बच्चों को यह सब सिखा रहा था उससे बातचीत शुरू हुई. बातों बातों में लाला जी ने उससे उसकी जाति पूछी तो वह नौजवान झट से बोला कि नहीं, हमारा राष्ट्रवादी संगठन है और इसमें जाति-पाती के लिए कोई स्थान नहीं.

लाला जी ने कहा कि पिताजी तो होगा आपका? तब उसने बताया कि वह उतराखंड का ब्राह्मण है. उसके तीन-चार दिन बाद एक कोई नया नौजवान उन बच्चों की क्लास ले रहा था. लाला जी बोले आज नया लड़का है चल इसका भी पता करते हैं. वहां गए , पहले इधर-उधर की वहीँ बातें की, फिर लाला जी ने उस लड़के से उसकी जाति पूछी. जाति पूछते ही उस नौजवान का भी वही घिसापिटा जवाब कि हमारा संगठन राष्ट्रवादी संगठन है और इसमें जाति-पाती के लिए कोई स्थान नहीं.

लाला जी ने फिर वही बात दोहराई कि पिता तो होगा? तब उस लड़के ने बताया कि वह राजस्थान का जाट है और यहाँ भिवानी में अपने एक रिश्तेदार के पास रहता है. लाला जी कटाक्ष करते हुए मुझे बोले कि ले देख ले यह तो तुम्हारे वाला (यानि जाट) ही है.

जब मैंने उस नौजवान के मुख से उसकी जाति सुनी तो एक बार को मुझे भी झटका लगा. मैंने उस जाट नौजवान से बातचीत शुरू की कि औरों की छोडो यह बातों कि क्या कभी आपने संघ के किसी मुख्यालय में सरदार भगत सिंह की फोटो देखी है?

वह युवक बोला कि नहीं देखी. मैंने पूछा कि क्या भगत सिंह से भी बड़ा देश भक्त हुआ या हो सकता है? संघ के लोगों ने तो कभी शहादतें दी हों मैंने ऐसा सुना या पढ़ा नहीं, हाँ इन लोगों के माफीनामों की तो जरुर पढ़ी है, फिर यह लोग राष्ट्रवादी कैसे?

मैंने उस युवक से पूछा कि क्या कभी सर छोटूराम का नाम सुना है? वह बोला कि सुना है, जाटों के नेता थे. अब यह जवाब सुनकर तो मुझे और भी हैरत हुई और उस बच्चे पर तरस भी आया कि कैसे हमारी पीढ़ी कि बुद्धि भ्रष्ट की जा रही है, संघियों ने अपने महापुरुषों को तो राष्ट्रवादी बता कर हमारे युवाओं के दिल-दिमाग में बैठा दिया और हमारे खुद के बुजुर्गों महापुरुषों को जातिवादी बता दिया कि वह तो सिर्फ एक जाति विशेष के नेता थे?

अगर गहराई से समझें तो आरएसएस एक अमर बेल की तरह है जो हमारे महापुरुषों, हमारी संस्कृति सब पर बड़े ही तरीके से फ़ैल रही है. अमर बेल जब किसी पेड़ पर पूरी तरह से फ़ैल जाती तो क्या होता है आप सब जानते ही होंगे?

गुडगाँव के सेक्टर 56 के हुड्डा मार्किट की बात है. मैंने देखा कि आरएसएस के दो संघी रोजाना टेबल-कुर्सी लेकर आते और कुछ किताबें रख कर स्टाल लगाते. आने-जाने वालों को संघ के बारे में समझाते, कुछ उनसे सहमत होते कुछ नहीं, जो सहमत होते उसकी वह लोग आरएसएस के मुखपत्र के पंच्यमय/पांच्जंय की मेम्बरशिप की रसीद काट देते. मैंने दो दिन तो उनका यह
खेल देखा तीसरे दिन मुझ से न रहा गया और मैंने उनके पास चला गया.

उनसे साधारण से सवाल किये कि संघ क्या? क्या इसका विज़न है? तो उनके वही घिसेपिटे जवाब कि संघ एक राष्ट्रवादी संगठन है, और भारत निर्माण इसका विज़न है? मैंने कहा कि भारत निर्माण से मतलब बड़ी-बड़ी इमारतों, मेट्रो, बाँध, रेल, टेक्नोलॉजी आदि सब से तो होगा नहीं? बोले नहीं, भारत निर्माण मतलब हिंदुत्व, हिंदुत्व के आधार पर भारत निर्माण.

मैंने फिर टोका कि हिंदुत्व से मतलब कि देश फिर से वर्ण व्यस्था जैसी चीजों को मानने लगे? और हिंदुत्व क्या है मुझे आजतक समझ नहीं आया? हम उत्तर भारत में गौ को माता का दर्जा देते हैं, शादी-ब्याह में गोत्र टालते हैं जबकि वहीँ दक्षिण-पूर्व का हिन्दू गाय खाता है और शादी-ब्याह में अपनी भांजी से शादी कर सकता है, यह कैसा हिंदुत्व? कैसी जीवनशैली जहाँ जरा भी मेल नहीं?

और जहाँ तक वर्ण की बात है तो कोई तीस बरस पहले हम दोनों भाइयों की जन्मपत्री बनवाई. मेरी जन्मपत्री में क्षत्रिय वर्ण लिखा है तो भाई के में शुद्र वर्ण, यह क्या है? उनमें से एक बोला कि वर्ण कर्म आधारित होता है.

मैंने पूछा कि फिर जन्मपत्री बनाने वाले पंडित जी को मेरे भाई के ऐसे क्या कर्म दिखे कि उसका वर्ण शुद्र लिखा? जबकि उस दौरान हम दोनों ही पढाई कर रहे थे? इस पर वह लोग चुप हो गए, उनके पास आगे कि बहस के लिए कोई जवाब नहीं था, बोले कि आप अपना नम्बर दे दीजिये हम आपसे कल बात करेंगे.

दरअसल यह एक कड़वी हकीकत है कि आरएसएस को हमें (जाट, गुर्जर, अहीर आदि) मज़बूरी में साथ लेना पड़ रहा है पर इनके दिल में कभी भी हमारे लिए वह सम्मान नहीं रहा. इसका एक प्रमाण तो अभी हाल ही में बीजेपी नेता सुब्रमन्यम स्वामी का वह बयान जिसमें उसने जाटों को शुद्र बताया है. और दूसरा प्रमाण मराठा सीरियल कि वह क्लिप जो आप लोग यू-टयूब पर देख सकते हैं, जिसमें महाराजा सूरजमल, मराठा पेशवा भाऊ से कहते हैं कि युद्ध पश्चात् दिल्ली हमारी होगी.

पेशवा भाऊ कहता है कि नहीं, दिल्ली हम नहीं लेंगे, दिल्ली मुगलों की है वही लेंगे. इस पर महाराजा सूरजमल नाराज हो जाते हैं और कहते हैं कि दिल्ली जाटों की है, इसे वही लेंगे.

अब इसमें देखने वाली बात यह है कि एक तरफ तो पेशवा भगवा झंडे यानि हिन्दू राज का परचम लहराने की बात कर रहे थे दूसरी तरफ जब महाराजा सूरजमल ने दिल्ली लेने की बात कही तो पेशवा ने झट से कह दिया कि दिल्ली मुगलों की है वही लेंगे.

अब यह कैसा हिंदुत्व था मेरे समझ से परे है! आरएसएस भी इन्हीं पेशवाओं की संतानों का बनाया हुआ संगठन है जिन्होंने दिल्ली को मुगलों को देने की बात कही थी. संगठन के मुख्या पदों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि वहां सिर्फ कुछ उच्च जातियों का ही वर्चस्व है.

यह संघ नामक अमर बेल अब देहात में भी फैलती जा रही है और इसका नतीजा यह देखने को मिल रहा है कि इनके हिंदुत्व के मायाजाल में उलझ कर हमारे युवा अपने महापुरुषों को बुरा-भला कहने लगें हैं. यह लोग खुद कुछ नहीं बोलते, बस तरीके से हमारे लोगों के मुख में शब्द डालते हैं और फिर हमारे लोग इनका शंख बन कर बजते रहते हैं.

इन लोगों ने हमारे यानि किसान-मजदूर कौम के रहबर, रहबरे आज़म दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम को भी अंग्रेजों का पिट्ठू कहलाना शुरू कर दिया है. पर अभी ऐसा कहने वालों कि संख्या कम है. अगर समय रहते इस अमर बेल को नहीं ख़त्म किया गया तो यह अमर बेल हमारा सब कुछ ख़त्म कर देगी. जरा सोच कर देखो कि यूनियनिस्ट पार्टी और संघ दोनों समकालीन हैं, आज संघ कहाँ है और हमारी अपनी कही जाने वाली यूनियनिस्ट पार्टी कहाँ है?

हमारे देहात के लोग कोई राजनीतिक दल या संगठन बना लो उसमें दो-फाड़ हुए बिना नहीं रहती, पर संघ जिसको नब्बे साल हो गए बने क्या कभी सुना कि संघ में दो फाड़? इन सब बातों पर गौर करो कि क्यों हमारे संगठनों में दो फाड़ होती है.

हिंदुत्व के नाम पर भावुक होने कि जरुरत नहीं है. मुग़ल काल और उससे पहले के कालों में भी तुम्हें कोई खतरा नहीं हुआ, जबकि वो तलवार का जमाना था तो अब कैसे खतरा हो सकता है?

कभी मुस्लमान का भय दिखाते हैं तो कभी पाकिस्तान का. कभी सोचना कि हमारे देश कि सीमा बांग्लादेश, चीन, बर्मा, पाकिस्तान से लगती है, पाकिस्तान से तो गुजरात से शुरू होकर कश्मीर तक लगती है. पर क्या कारण है कि जैसा नजारा वाघा बॉर्डर पर होता है वैसा दूसरी जगह किसी भी सीमा पर नहीं होता?

एक शब्द पर गौर करना संघी हमेशा राष्ट्रवाद शब्द पर जोर देते हैं. पीछे लोकसभा चुनाव में हमारे
प्रधानमंत्री मोदी जी ने ही हिन्दू राष्ट्रवादी शब्द का इस्तेमाल किया था. जबकि हमारे जितने भी
क्रान्तिकारी हुए जैसे कि शहीदे आज़म भगत सिंह, इन सबके लिए देशभक्त शब्द इस्तेमाल होता है.

राष्ट्रवादी और देश भक्त शब्द में अंतर समझना बहुत जरुरी है. राष्ट्रवाद संस्कृति और भाषाई समता के आधार एक राष्ट्र के एकीकरण में रूचि दिखाने में शामिल है. दूसरी तरफ देशभक्ति अपने मूल्यों और विश्वासों के आधार पर किसी देश के लिए प्रेम विकसित करने में होती है.

देशभक्ति में प्रेम स्नेह निहित है जबकि राष्ट्रवाद प्रतिद्वंद्विता और नफरत की भावना में निहित है. देशभक्ति शांति के आधार पर काम करती है. वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रवाद आतंकवाद, दुश्मनी, नफरत की भावना के आधार पर काम करता है.

राष्ट्रवादी होने के लिए किसी दल विशेष का फ़ॉलोवर होना जरुरी है जबकि देशभक्त होने
के लिए ऐसा जरुरी नहीं है. एक राष्ट्रवादी राष्ट्र के लिए जान लेने की बात करता है और देशभक्त देश के लिए जान देने की बता करता है. अब यह आप लोगों को तय करना है कि आप लोगों को आरएसएस वालों की तरह राष्ट्रवादी बनना है या फिर शहीदे आज़म की तरह देशभक्त?

मेरी सलाह तो यही है कि हमारा और हमारे देश का भला देशभक्त बनने में ही है. हमारे सभी महापुरुष देश भक्त हुए हैं यही आरएसएस के राष्ट्रवाद में ऐसा ही कुछ अलग रस होता तो हमारे सभी महापुरुष इससे एक बार तो जरुर जुड़ते?

इसीलिए कहता हूँ कि देश और समाज को बचाना है तो इस अमर बेल को उखाड़ फेंको. इतिहास सबक लेने के लिए होता है इसीलिए ठन्डे दिमाग और इतिहास को ध्यान में रखते हुए सोचना
कि हिंदुत्व से तुम्हारे हाथ क्या आयेगा? अभी भी बेटा-बेटी बाप के घर हैं, अभी भी कुछ खास नहीं बिगड़ा. बाद तो फिर बाद है, बाद में फिर सिर्फ पछतावे के कुछ हाथ नहीं रहता.