पंजाब के दलित: चुनाव में दिखे जरूर, मगर असल मुद्दे गायब रहे

 

पंजाब विधानसभा चुनाव में भाग ले रहे मुख्य राजनीतिक दल प्रचारात्मक तौर पर दलितों को चुनाव में इस बार अधिक हिस्सेदारी की इश्तेहारी कर रहे हैं. शुरूआत पिछले साल भाजपा ने यह घोषणा कर की थी कि अगर वह जीतते हैं तो वे एक दलित मुख्यमंत्री को मुख्यमंत्री बनाएंगे. कांग्रेस ने आचार संहिता लगने से ठीक 111 दिन पहले दलित समुदाय के राजनेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया. आम आदमी पार्टी और शिरोमणि अकाली दल (बादल) के पास सामान्य जाति के मुख्यमंत्री चेहरे थे, लेकिन पंजाब में एक वोट बैंक के तौर पर दलितों की संख्या सबसे अधिक होने के कारण इन दोनों पार्टियों ने भी दलितों को उपमुख्यमंत्री बनाने का वादा करना पड़ा.

इन घटनाओं ने देश का ध्यान पंजाब के जातीय समीकरणों की ओर खींचा है. मगर 15 फरवरी की उस सर्द सुबह मलेरकोटला जिले के हथोआ गांव के दलित नौजवान बिकर सिंह ने जो बात मुझसे कही, उससे यह समझ आया कि दलितों को अपने पाले में खींचने के लिए सभी दल फिक्रमंद जरूर हैं, लेकिन उनके असल मुद्दों को हाथ लगाए बगैर. चूंकि यहां कुल आबादी का 33 प्रतिशत दलित हैं, और राजनीतिक दल आबादी के इतने बड़े हिस्से को दरकिनार नहीं कर सकते.

बिकर सिंह ने मुझे बताया, “जिस किस्म के विकास की बात सारे दल कर रहे हैं उसमें दलितों को आटा-दाल फ्री देने, हजार-दो हजार रूपया देने या किसी गली-नाली को बनवाना है. कोई भी दल यह बात नहीं कर रहा कि दलितों के जीवन स्तर को ऊपर कैसे उठाया जाए. न तो कोई उनके घरों की बात कर रहा है और न ही मुल्क में पैदावार के अलग-अलग साधनों में उनके हिस्से की.”  

बिक्कर पिछले 3 साल से जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी के मेंबर हैं जो मालवा इलाके के दलितों को उनके गांव की पंचायती जमीन में हिस्सेदारी दिलवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वह पैदावारी संसाधनों में दलितों की हिस्सेदारी समझाने के लिए अपने पास के ही एक गांव तोलेवाल में ले गए, जहां के दलितों ने साल 2019 में गांव की पंचायती जमीन के तीसरे हिस्से पर अपना कब्जा लिया.

14 फरवरी की उस सर्द सुबह तोलेवाल के दलित अपने गांव की रविदास धर्मशाला में जमा थे. वहां मौजूद रंजीत सिंह ने मुझे बताया, “साल 1961 में, राज्य ने पंजाब विलेज कॉमन लैंड्स अधिनियम पारित किया गया था, जिसमें अनुसूचित जाति के लिए गांव की 33% पंचायती जमीन आरक्षित थी, जिसमें दलित बोली के माध्यम से वार्षिक पट्टा प्राप्त कर सकते थे. इस कानून को आए 60 साल से ज्यादा हो गए हैं लेकिन आज भी पंजाब के 95 प्रतिशत गांव में दलित इस जमीन पर अपना हक नहीं जता सके हैं। वोट बटोरू पार्टियां इस मुद्दे पर एक शब्द नहीं बोलती. हम लोगों ने लाठियां खाकर एक लंबे संघर्ष के बाद इस जमीन का हक ले पाए हैं.” 

उनके बगल में बैठीं माया देवी की और हाथ करके रंजीत ने गुस्से में कहा, “इन महिलाओं के सर तक फाड़ दिए थे.” चुपचाप बैठीं माया देवी एकदम बोल पड़ती हैं, “भाई, डंडे खाए हैं तो क्या हो गया. लड़कर कम से कम हरे चारे लायक तो गए. अब पशुओं के लिए चारा भी कर लेते हैं और खाने जितने दाने भी.”

इस गांव के दलितों के पास इस समय साढ़े 5 एकड़ जमीन का पट्टा है, जिसपर सभी लोग मिलकर खेती करते हैं. बिक्कर बताते हैं, “पंचायती जमीन के अलावा निजूल की जमीन का भी मामला है. साल 1956 में दलित किसानों को जमीन का कुछ हिस्सा खेती करने के लिए मिला था, पर आज ज्यादातर जगहों पर उनकी जमीनों पर धननाड लोग अतिक्रमण किए हुए हैं. दलित किसानों की सभी कोशिशों के बाद भी उन्हें अपनी जमीन नसीब नहीं हो रही. इतने साल बीत जाने के बाद भी दलित किसानों को उनका मालिकाना हक नहीं मिला है और इस चुनाव में कोई भी पार्टी उनके इस हक को दिलवाने की बात नहीं कर रही.” 
पंजाब के मालवा इलाके में पिछले दस सालों में दलितों के लिए आरक्षित जमीन से जुड़े आंदोलन अनेकों गांव में उभरे हैं तो बहुतेरे गांव में घरों की जमीन के लिए भी आंदोलन उभरे हैं.

संगरूर से सिर्फ 3 किलोमीटर दूर खेड़ी गांव के दलित पिछले कई सालों से घर बनाने के लिए उस जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं जो उन्हें आज से करीब दस साल पहले मिली थी. सड़क किनारे नाले पर एक कमरा बनाकर रह रहे दर्शन ने मुझे बताया, “दस साल पहले हमारे गांव के 65  परिवारों को 5-5 मरले के प्लाट मिले थे, लेकिन वे हमें आज तक अलॉट नहीं हुए. हमारे नाम जो इंतकाल चढ़े थे, उलटा उन्हें तोड़ दिया गया है. अकाली सरकार भी राज कर गई और कांग्रेस भी. लेकिन हमारा कोई हल नहीं हो रहा। गांव के दलित लोग कोई दस गज में रह रहा है, कोई 20 गज में. लेकिन कोई भी राजनीतिक पार्टी इस मुद्दे पर अपना मुंह नहीं खोल रही.”

दर्शन बोलते बोलते बीच में रुक गए और गांव के ही दूसरे दलित परिवारों के घर दिखाने के लिए ले गए। गांव के लगभग परिवार माचिस जैसे घरों में रह रहे थे. जिस घर में भी जाते, घर की महिलाएं रोजमर्रा की दिक्कतें बताने लगतीं. कोई कहती, “मनरेगा का काम नहीं मिल रहा”, तो कोई कहती, “स्कूल बंद होने के कारण बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाती क्योंकि उनके पास बड़े वाला फोन (स्मार्टफोन) नहीं है.”

एक घर की जर्जर दीवार पर लगे चुनावी पोस्टरों की तरह हाथ करके दर्शन कहते हैं, “सारे नेता एक दूसरे को ललकारने में लगे हुए हैं, एक दूसरे को नीचा दिखाकर वोट मांग रहे हैं, लेकिन कोई भी हमारे असली मुद्दों की बात नहीं कर रहा.” 

दर्शन सिंह की बात सुनकर दिमाग में यह सवाल कौंधा कि क्या सच में मुख्य चुनावी पार्टियां पंजाब के दलितों के मुद्दों पर बात भी कर रही हैं? जिसके जवाब में पंजाबी यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान पढ़ाने वाले जतिंदर सिंह ने मुझे बताया, “भाजपा, पंजाब लोक कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल (यूनाइटेड) गठबंधन के 11 सूत्री संकल्प एजेंडे में दलितों की समस्याओं का जिक्र तक नहीं है. आम आदमी पार्टी के पांच वादों में महिलाओं के खाते में मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य और पैसे का जिक्र है, लेकिन इसमें संसाधनों के आवंटन और सरकारी संस्थानों में प्रतिनिधित्व का जिक्र नहीं है. शिरोमणि अकाली दल (बादल) के पास दलित उपमुख्यमंत्री के वादे के अलावा और कुछ नहीं है. मुख्यमंत्री बनाने के दम पर ही कांग्रेस दलित समुदाय का सबसे अधिक समर्थक होने का दावा कर रही है. दलितों की तथाकथित राजनीतिक पार्टी बसपा राजनीतिक अखाड़े से पूरी तरह गायब है. कोई भी स्थापित पार्टी दलित समाज के असल मुद्दों पर सही से बात नहीं कर रही.”

दलित समाज के असल मुद्दों की के सवाल पर जतिंदर बताते हैं, “उचित शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, भूमि का पुनर्वितरण, पंचायत भूमि की उचित बोली, मकान बनाने के लिए जमीन, मनरेगा का सही कार्यान्वयन, सहकारी समितियों की सदस्यता, शहरी सफाई कर्मचारियों को आधुनिक मशीनरी उपलब्ध करवाना, ऐसे कई मुद्दे हैं जोकि चुनाव के मुद्दे होने ही चाहिए.”

जतिंदर पंजाब चुनाव में एक मतदाता के तौर पर दलित समाज के अहम मुद्दों पर स्थापित पार्टियों की चुप्पी के पीछे एक कारण यह भी बताते हैं, “दरअसल सूबे में जातिगत भेदभाव और हिंसा के मुद्दे पर सामाजिक आंदोलनों की निरंतरता का अभाव है और शोषित वर्ग के सामाजिक आंदोलनों का वर्तमान स्वरूप खंडित है. दोआबा इलाका जाति और विभिन्न धार्मिक पहचान के आंदोलनों का केंद्र है. मालवा का एक हिस्सा ही पंचायत की जमीन, मकान के लिए प्लाट और शोषण की घटनाओं के खिलाफ सक्रिय है। माझा और अपवाद इलाके में दलितों के छिटपुट किस्म के ही आंदोलन हैं. नतीजतन, सामाजिक आंदोलनों की निरंतरता के बिना, राजनीतिक दल शोषित समाज के वास्तविक मुद्दों से दूरी बनाकर रखते हैं.”

पंजाब की कुल आबादी का 33 प्रतिशत दलित हैं, जिन्हें अपने पाले में खींचने के लिए सभी दल फिक्रमंद हैं, लेकिन उनके असल मुद्दों को हाथ लगाए बगैर. इस समाज के सामने जो समस्याएं आ रही हैं, वे राजनीतिक दलों के चुनावी अभियान का हिस्सा नहीं हैं, न वे मेनिफेस्टो का हिस्सा हैं, न कोई मुद्दा और न ही रैलियों में दिए जाने वाले भाषणों का.

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