फेल साबित हुए खाद्य सब्सिडी पर हमला बोलने वाले पीडीएस विरोधी अर्थशास्त्री

 

लगातार दो साल तक महामारी और लॉकडाउन की मार झेलने के बाद इस साल आम जनता पर महंगाई की मार पड़ रही है। खाने-पीने की वस्तुओं से लेकर निर्माण सामग्री, ईंधन और दैनिक उपयोग की लगभग सभी वस्तुओं के दामों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। गत मार्च महीने में थोक महंगाई दर चार माह के उच्चतम स्तर 14.55% थी जबकि खुदरा महंगाई दर 17 माह में सबसे ज्यादा 6.95% फीसदी रही है। थोक महंगाई साल भर से हर महीने 10 फीसदी के ऊपर बनी हुई है और पिछले साल के मुकाबले लगभग दोगुनी हो गई है। पिछले तीन दशक में यह महंगाई का सबसे भीषण दौर है जिसने आम जनता की कमर तोड़ दी है।

इस बेतहाशा महंगाई में सबसे ज्यादा चिंताजनक खाने-पीने की वस्तुओं की बढ़ती कीमतें हैं। महंगाई के साथ-साथ बढ़ती बेरोजगारी और आय में कमी देश की खाद्य सुरक्षा के लिए चिंता का सबब है। पेट्रोलियम और खाद्य तेलों जैसी जिन वस्तुओं के लिए देश आयात पर निर्भर है उनके दाम तो बढ़ ही रहे हैं लेकिन गेहूं जैसी जिन चीजों से देश के भंडार भरे पड़ रहते हैं उनकी महंगाई भी लोगों की रसोई का बजट बिगड़ रही है। खाने-पीने की चीजों में महंगाई का सिलसिला लॉकडाउन के दौरान ही शुरू हो गया था जो लगातार जारी है। महंगाई से निपटने के लिए जमाखोरी और कालाबाजारी पर अंकुश लगाना भी जरूरी था। इसलिए कृषि कानूनों के तहत जिस आवश्यक वस्तु अधिनियम को केंद्र सरकार निष्प्रभावी कर चुकी थी, आखिरकार उसी कानून का सहारा लेना पड़ा। जबकि बाजारवादी अर्थशास्त्री कृषि को बाजार के हवाले करने की पैरवी कर रहे थे।

कमरतोड़ महंगाई के लिए यूक्रेन-रूस युद्ध को प्रमुख वजह बताया जा रहा है। लेकिन घरेलू मोर्चे पर नीतिगत खामियों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। बढ़ती महंगाई के पीछे जमाखोरी और कालाबाजारी पर अंकुश लगाने में सरकार की नाकामी भी एक बड़ी वजह है। इसके अलावा पेट्रोल-डीजल और गैस पर ऊंची टैक्स दरों के जरिये ज्यादा से ज्यादा राजस्व जुटाने की नीति ने भी देश को महंगाई की आग में झोंक दिया है। वो तो भला हो देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली और खाद्यान्न की सरकारी खरीद व्यवस्था का, जिसके कारण देश के करोड़ों लोगों का पेट भर पाया।

बाजार समर्थन अर्थशास्त्री इसी पीडीएस सिस्टम की आलोचना करते हुए किसानों को कम अनाज उगाने और सरकार को अनाज की कम खरीद करने का सुझाव दिया करते थे। लेकिन कोविड काल में यही पीडीएस सिस्टम काम आया। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत देश भर में 5 किलो अतिरिक्त अनाज विधानसभा चुनावों में भी भाजपा की जीत की बड़ी वजह बना। मतलब, किसानों को बेहतर दाम और खरीद का भरोसा देकर खाद्यान्न उत्पादन व सरकारी भंडार बढ़ाने की नीति राजनीति और अर्थशास्त्र दोनों ही लिहाज से कारगर थी।

कृषि बाजार को निजी क्षेत्र के हवाले करने की दलीलें दी जा रही थी, अगर सरकार उस रास्ते पर चली होती तो सोचिये क्या होता? 80 करोड़ लोगों को 5 किलो अनाज कैसे मिलता? इस तरह देखा जाए तो आंदोलनकारी किसान गलत नीतियों के खिलाफ और देश की खाद्य सुरक्षा के हित में संघर्ष कर रहे थे। जबकि प्रो-मार्केट अर्थशास्त्री देश को जिस दिशा में ले जाना चाहते थे, उससे देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती थी। यह सरकार के लिए बड़ा सबक है।

पिछले तीन वर्षों में गेहूं और धान की सरकारी खरीद करीब डेढ़ गुना बढ़ी है। इसी के बूते करोड़ों लोगों को पीडीएस का अतिरिक्त अनाज मिल सका। क्योंकि भारत में कृषि उत्पादों के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार से कम थे। लेकिन इस साल हालात बदल गये हैं। मार्च-अप्रैल में ज्यादा गर्मी की वजह से गेहूं उत्पादन में कमी का अनुमान है। अगर मानसून ने गड़बड़ी की तो धन की उपज भी घट सकती है। दूसरी तरफ यूक्रेन संकट के कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की मांग बढ़ गई है। इन दो कारणों से इस साल गेहूं की सरकारी खरीद कम रहने का अनुमान है। इस सीजन में अब तक गेहूं की सरकारी खरीद पिछले साल के मुकाबले करीब 25% कम है। इसका सीधा असर केंद्रीय पूल में गेहूं के स्टॉक सरकार द्वारा मुफ्त में अनाज देने की योजना पर भी पड़ सकता है। अभी तक गेहूं की ज्यादातर खरीद पंजाब और हरियाणा में हुई है। यही दो राज्य देश की खाद्य सुरक्षा को मजबूती दे रहे हैं।

इस बीच केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को सितंबर तक बढ़ा दिया है। इसकी पूर्ति के कारण अगले साल तक केंद्रीय भंडार में बफर स्टॉक के आसपास ही अनाज बचेगा। यानी सितंबर के बाद अतिरिक्त राशन की योजना को जारी रखना मुश्किल होगा। यूक्रेन-रूस युद्ध के कारण दुनिया भर में उर्वरकों की आपूर्ति भी बाधित हुई है। इसका असर भी कृषि उत्पादन और कीमतों पर पड़ रहा है जिससे खाद्य वस्तुओं के दाम बढ़ रहे हैं। ऐसे में अगर कोरोना के केस बढ़ते हैं और फिर से लॉकडाउन की नौबत आती है तो स्थिति विकट होगी।

इस तरह खाद्य सुरक्षा के मामले में सरकार को कई मोर्चों पर जूझना पड़ेगा। निर्यात को नियंत्रित करने, सरकारी खरीद को बढ़ाने या फिर जमाखोरी पर अंकुश लगाने जैसे बेहद सीमित उपाय सरकार के सामने हैं। ऐसे में बहुत कुछ अच्छे मानसून और कोरोना की स्थिति पर भी निर्भर करेगा। लेकिन एक बात तो तय है कि खाद्य मुद्रास्फीति का यह दौर जल्द थमता नजर नहीं आता है।