सांप्रदायिकताः ऑनलाइन अपराध के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संदर्भ

 

सुल्ली डील्स और बुल्ली बाई नाम के एप्स का कांड जिस तरह से उद्घाटित हो रहा है वह अत्यंत डरावना है। इस अर्थ में नहीं कि उससे कोई आतंककारी षडय़ंत्र सामने आ रहा है बल्कि इसलिए कि उससे निम्न मध्य और मध्यवर्ग के बच्चे कानून और काफी हद तक उस  राजनीति की जद में आ गए हैं जो अत्यंत हिंसक और विभाजनकारी है। मसला ऐसा नाजुक है कि कई होनहार बच्चे दागी होनेवाले हैं, कहना कठिन है, उनका भविष्य क्या मोड़  लेगा? पर समस्या का इसी विपदा के साथ अंत नहीं होनेवाला है, यह कई ऐसे स्तरों पर, जिनके लिए हमारा समाज तैयार नहीं है, अपनी उपस्थिति बनाए रखनेवाली है।

फिलहाल पूरा प्रसंग जो बतलाता है उसका लब्बो लुबाव यह है कि गलत राजनीति युवाओं को भटकाने में देर नहीं  लगाती और जरा सी चूक अच्छे खासे भविष्य को तबाह कर देने का कारण बन सकती है। विशेषकर उन बच्चों को जिनके मां बाप कम पढ़े लिखे हैं या पूरी तरह कंप्यूटर ‘इललिटरेट’ (अनभिज्ञ) हैं। उन्हें यह आभास तक नहीं हो पाता कि बच्चों के हाथ में  लैपटॉप या स्मार्ट फोन नाम का कितना विध्वंसक उपकरण है और इस में क्या गुल खिलाने की क्षमता है।  मुश्किल यह है कि यह तकनीकी इस हद तक व्यक्ति केंद्रित है कि घर के दूसरे सदस्यों को हवा तक नहीं लगती कि वह सदस्य, जो युवा लड़की या लड़का है, अपने कंम्यूटर अथवा स्मार्ट फोन से चिपका, कर क्या रहा है। दुर्भाग्य से वरिष्ठ पीढ़ी के लिए एक बड़ा छद्म यह है कि कम्यूटर/इंटरनेट सूचना और ज्ञानका पर्याय मात्र हैं। कोविड महामारी ने शिक्षा को ऑनलाइन कर इस छद्म को बढ़ाने में अतुलनीय योगदान दिया है। जबकि सच यह है कि व्यापारिक हितों के चलते कम्यूटर/इंटरनेट ज्ञान या कहिए सूचना का पर्याय मात्र नहीं रहा है बल्कि और भी बहुत कुछ हो चुका है: व्यापार, प्रचार, कामुकता, अश्लीलता, आक्रामकता, घृणा और असहिष्णुता फैलाने का सबसे कारगर और बर्बर माध्यम।  सोशल मीडिया नाम के मंचों की लाभ के चक्कर में , अधिक से अधिक डाटा इकट्ठा (माईनिंग) करने का लक्ष पाने के लिए रणनीतिगत लोगों को किसी भी बहाने अपने मंचों पर अधिक से अधिक सक्रिय रहने के लिए उकसाना है और यह आक्रामकता सेक्स, घृणा तथा हिंसा के कारोबार के माध्यम से ज्यादा प्रभावशाली तरीके से ही हासिल की जाती है। अंतत: ये मंच लोगों को वायवीय दुनिया का हिंसक, बर्बर और यौनविकृतियों के संसार का सूमो पहलवान बना देते हैं। एक नतीजा यह होता है कि इस तरह के पहलवान जीवंत समाज और दुनिया से कट कर अंतरमुखी ही नहीं हो जाते बल्कि ज्यादा खतरनाक यह है कि मासूम मन मस्तिष्क के युवा व्यक्तिवादी, आत्ममुग्ध और विकृतियों का शिकार बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में इस माध्यम का इस्तेमाल, कम से कम बच्चों और किशोरों द्वारा, बिना संरक्षकों की देखरेख के होना, घातक साबित हो सकता है, जैसा कि सुल्ली, बुल्ली तथा क्लबहाउस के मामले में हुआ है। भारतीय या कहिए तीसरी दुनिया के संदर्भ में इसकी एक सीमा यह है कि इसका अधिसंख्य कारोबार अंग्रेजी में है और उसकी तकनीकी शब्दावली इस कदर नई, संकेतों व कूट अक्षरों की है कि भारत जैसे समाज में, जहां शिक्षा और जीवन स्तर काफी कम है, वरिष्ठों के लिए यह पूरी तरह अजनबी दुनिया के रूप में सामने आता है।

दूसरी ओर, विशेषकर वे व्यक्ति, सामाजिक और धार्मिक  संगठन, जो अतिमानवीय या दैवीय चमत्कारों का धंधा करते हैं या अपनी धारणाओं में कट्टरता और विगत के अमूर्त वैभव, चमत्कारों तथा उपलब्धियों से प्रचालित हैं, उनके लिए यह माध्यम इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह बिना शोर शराबे के अपनी इच्छित बात/विचार लक्ष्य तक असानी से पहुंचने की क्षमता हासिल कर लेते हैं। अजीब विडंबना यह है कि स्वयं को धर्म विशेष से जोडऩेवाले, अपनी हीनता में, जब दूसरे धर्मों पर आक्रमण करते हैं तब वे मात्र तार्किक स्तर पर बात नहीं करते बल्कि हिंसा, यौन हिंसा, कुतर्क और अन्य विकृतियों का इस्तेमाल करते हैं। अक्सर ऐसी विभत्स भाषा और प्रतीकों का इस्तेमाल किया जाता है, जिनसे सामान्य जिंदगी में वे स्वयं भी जुडऩे का साहस नहीं करेंगे। बल्कि तब यह अपराध माना जाएगा।

इसलिए ऐसा नहीं है कि इस माध्यम का इस्तेमाल सिर्फ किसी धर्म विशेष के कट्टर पंथी ही करते हों बल्कि हर धर्म के स्वयंभू प्रचारक इस माध्यम से अपने ऐच्छित लक्षों पर हमला भी करते हैं। तर्क करने की जगह नास्तिकों, दूसरे धर्मावलंबियों और धर्म को लेकर उनसे प्रतिकूल समझ रखने वालों को आतंकित और प्रताडि़त किया जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह माध्यम लोगों को उनके एकांत में घेरता है और उन पर हर तरह का नैतिक, अनैतिक, व्यभिचारी हमला करता है, उस तरह की बर्बर और असामाजिक भाषा और संदर्भों से, जिन से कोई सामान्य जीवन में किसी से बात करने की हिम्मत नहीं कर सकता।

कारण जो भी हो, कट्टर धार्मिक व्यक्ति नहीं मानना चाहता कि मानव समाज जहां पहुंच चुका है उसमें धर्म और ‘ईश्वर’ का हस्तक्षेप समाप्त हो गया है। और उसके साथ वे सब चीजें जो कभी आदमी के जीवन को नियंत्रित करती थीं, अपना अर्थ खो चुकी हैं या बदल चुकी हैं।  इस तरह की पुरातन और जड़  सोच व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अंतत: घातक सिद्ध होती है। यह बात और है कि उन समाजों के लिए जो आधुनिक ज्ञान और सामाजिक परिवर्तन से तालमेल बैठाने में असफल हैं या इस दौड़ में पीछे छूट गए हैं विगत से आसानी से पीछा नहीं छुड़ा पाते। यह इसलिए भी नजर आता है क्यों कि भौतिक और सामाजिक प्रगति का फैलाव, विशेषकर तीसरी दुनिया में असमान है। इसी कारण इस समाज का बड़ा हिस्सा विगत को भव्य सपने की तरह याद करता रहता है। इस तरह के समाजों में प्रतिगामी नेतृत्व के तत्कालिक रूप से लाभान्वित होने की पूरी संभावना रहती है जैसा कि स्वयं हमारे समाज में हो रहा है। यह बात भी छिपी नहीं है कि अक्सर पुनर्थोनवादी विचारधारा राजनीति सत्ता पर कब्जा तो जमा लेती है पर वह समाज को न तो आधुनिक बनाती है और न ही तार्किक, क्यों कि वह स्वयं तार्किक हो या न हो पर देश और समाज को लगातार विगत में और विगत के नियमों से संचालित रखना चाहती है। इसलिए जनता का जो विश्वास वह विगत के वैभव और उपलब्धियों के नाम पर प्राप्त करती है, अपनी जड़ता और विरोधाभासों  के कारण जल्दी ही गंवा देती है और फिर दमन का सहारा लेती है। सच यह है कि विगत को लौटना न तो संभव है और न ही विगत भविष्य का निर्णायक, निर्धारक हो सकता है, इसलिए उसकी सीमाओं को उजागर होने में समय नहीं लगता। चूंकि मानव का भविष्य अंतत: नये ज्ञान और अनुसंधान पर ही निर्भर है परिणाम स्वरूप परंपरा की मानसिकता और नये बदलाव, लगातार एक दूसरे से टकराते रहते हैं।

इसी से जुड़ा दूसरा पक्ष यह है कि धर्म की अगर बिना ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझे, भाववादी व्याख्या की जाएगी तो उससे जो समझ बनेगी, वह लोगों को नियमों को वृहत्तर समाज के संदर्भ में न मानने को ही नहीं उकसायेगी बल्कि अंतत: हिंसक और समाज विरोधी बनाने में भी कसर नहीं छोड़ेगी। सच यह है कि सुल्ली-बुल्ली एप्स कांड कमोबेश इसी समझ का नतीजा है जिसमें विज्ञान पढऩेवाले और तकनीकी ज्ञान से लैस 18 से 30 वर्ष की आयु के अब तक कम से कम नौ युवा (इस आंकड़े  के बढऩे की पूरी संभावना है) अपराधी के रूप में सामने हैं। ये सभी बच्चे निम्नमध्य और मध्यवर्ग के हैं। अधिसंख्य ऐसे परिवारों से जिनके मां बाप पूरी तरह कंप्यूटर अपढ़ (इलिटरेट) हैं।

प्रतिनिधिक शिकार

इन पकड़े गए युवाओं में दो युवा विशेष ध्यान देने की मांग करते हैं। इसलिए कि वे इस प्रवृत्ति के प्रतिनिधिक शिकार हैं।

पहले 19 वर्षीय श्वेता सिंह पर बात करते हैं। उत्तराखंड के औद्योगिक शहर रुद्रुपुर की इस लड़की ने अभी सिर्फ 12वीं पास की है। उसकी मां का 10 वर्ष पहले कैंसर से देहांत हो गया था और गत वर्ष पिता भी कोविड का शिकार हो गए। तीन बहनों हैं सबसे छोटा भाई है। उन्हें कोविड से अनाथ होने वाले बच्चों को राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली तीन हजार रुपये प्रति माह की सरकारी मदद मिल रही है और साथ ही पिता, जिस कंपनी में काम करते थे, वहां से 10 हजार रुपये भी प्रति माह मिलते हैं। इससे उनका गुजारा चल रहा है। श्वेता को महाराष्ट्र पुलिस ने, जिसने इस कांड का सबसे पहले भंडा फोड़  किया था, तीन जनवरी को गिरफ्तार किया। पुलिस  का कहना है कि श्वेता सोशल मीडिया में पिछले एक वर्ष से जरूरत से ज्यादा सक्रिय थी और अक्सर ऑनलाइन अतिवादी बातें पोस्ट करती थी। यह वही दौर है जब उसके पिता का देहांत हुआ। उस पर गंभीर आरोप यह है उसने अपने मृत पिता का फर्जी एकाउंट बनवाया हुआ था।

श्वेता का पकड़ा जाना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं है क्यों कि उसके पक्ष में कोई खड़ा होनेवाला भी शायद ही मिले। उसे लेकर एक सवाल यह है कि आखिर वह धर्म को लेकर इतनी असहिष्णुता क्यों पाले है? क्या उसके परिवार की दुर्दशा के लिए दूसरे धर्म का कोई व्यक्ति जिम्मेदार है? उस विधर्मी ने उनका इलाज नहीं होने दिया या उन्हें बीमारी सराई? या फिर उन्होंने श्वेता के परिवार के सदस्यों के रोजगार हथियाए हुए हैं? अगर ऐसा नहीं है तो फिर श्वेता की सक्रियता का कारण क्या हो सकता है? बेहतर यह नहीं होता कि वह कुछ ऐसा करती जिससे जल्दी पढ़ लिख जाती। वह ग्रेजुएश में दाखिला लेने की तैयारी कर रही थी। इसके अलावा अपनी बड़ी बहिन का छोटे भाई बहन को पढ़ाने लिखाने में हाथ बंटाती? आखिर ऐसा क्या रहा होगा जिसने उसे इस अतिवादी दुनिया से जोड़ा? क्या देश में बढ़ती सांप्रदायिकता और नेताओं के भड़काऊ भाषण अथवा क्या यह शगल उसके लिए यथार्थ से मुंह छिपाने का एक रास्ता बना होगा?

इस संदर्भ में मुंबई पुलिस की बात महत्वपूर्ण है कि ”नेटवर्क को वास्तव में बड़ा होना चाहिए। यह 21 वर्ष के या 18 वर्ष के इंटरनेट पर सक्रिय बच्चों का काम नहीं हो सकता।‘’  इसी से जुड़ी एक शंका यह भी हो सकती है कि यह सब किसी प्रलोभन के  तहत किया जा रहा हो?  अगर ऐसा है तो यह इस पूरे एपिसोड का और ज्यादा भयावह और दुखद पक्ष है। इस कांड का दूसरा किरदार जोरहाट, असम का 21 वर्षीय नीरज बिशनोई है। उसका मामला भी खासा जटिल है। परिवार मूलत: राजस्थानी है और उसके पिता वहां आजीविका के लिए पंसारी की दुकान चलाते हैं। उसकी एक बहन कानून पढ़ रही है और दूसरी एमएससी में है। नीरज को उसके घर से दिल्ली पुलिस ने पकड़ा। पुलिस का मानना है कि वह इस षडय़ंत्र का सरगना है। उसने ‘गिटहब’ के माध्यम से बुल्ली बाई एप बनाया था जिसमें मुस्लिम महिलाओं को नीलाम किया जाता था। पुलिस का तो यहां तक मानना है कि बुल्ली एप के अलावा भी छह महीने पहले बनाए गए सुल्ली डील्स एप में भी उस का हाथ है ।

जो विवरण इस युवक के बारे में उपलब्ध हैं वे खासे हैरान करनेवाले हैं। इंजीनियरिंग का छात्र नीरज अति भक्त किस्म का आत्मकेंद्रित युवक है। बाहर के दोस्त मित्र की तो छोड़ें  वह अपने के लोगों से भी ज्यादा बातचीत नहीं करता। अंग्रेजी दैनिक द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार पढऩे लिखने में तेज इस युवक को अपनी प्रतिभा के बल पर इंजीनियरिंग में सीधे दाखिला मिला है।  22 जनवरी की इस रिपोर्ट के मुताबिक नीरज सुबह उठ कर मंदिर जाता है।  वहां शिव और हनुमान की कम से कम एक घंटे पूजा करता है। लौटकर कुछ घंटे लैपटॉप पर लगाने के बाद खाना खाता है। आराम करने के बाद उठ कर एक घंटे बिना नागा’सुंदर कांड’ (रामचरतिमानस ) का पाठ करता है। उसका कोई सामाजिक दायरा नहीं है, न दोस्त न मित्र। गोकि वह निजी स्कूल में पढ़ा है पर दुर्भाग्य से जब से उसे भोपाल के इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिला है, कोविड महामारी के कारण कालेज एक दिन नहीं खुला पाया है। संभव है अगर कालेज खुलता और उसे होस्टल में रहना पड़ता, उसका दायरा विस्तृत होता, तब शायद वह इतना आत्मकेंद्रित नहीं रहता।

विज्ञान के छात्र की अवैज्ञानिकता 

प्रश्न यह है कि विज्ञान का यह छात्र इस हद तक गैर वैज्ञानिक क्यों है? क्यों उसकी विज्ञान की समझ मात्र घोटा लगाने तक ही सीमित रही है जिसके चलते उसे इंजीनियरिंग में दाखिला मिला। क्या यह हमारी शिक्षा प्रणाली की कमियों की ओर कोई संकेत करता है, उसकी एक आयामिता को लेकर? किसी ग्रंथ के एक अध्याय को रोजबरोज आंखमूंद कर पढ़े चला जाना क्या इस बात का संकेत नहीं है कि वह आदमी यांत्रिकता का शिकार है? बिना विवेक का इस्तेमाल किए यह सोचना कि हम धर्म की सेवा कर रहे हैं या दूसरे धर्मवाले किसी भी हाल में सम्मान और समानता के अधिकारी नहीं हैं, किस हद तक खतरनाक हो सकता है क्या इस प्रसंग को इस बात का उदाहरण माना जाए?

द हिंदू के मुताबिक सुल्ली और बुल्ली कोई अकेले एप नहीं हैं। इसी तरह के ‘ट्रेड्स’ (ट्रेडिशनलिस्ट यानी परंपरावादी) भी हैं जो ज्यादा भयावह हैं।‘’ अखबार को ‘एल्ट न्यूज’ के जुबैर ने बतलाया की ”ट्रेडस मुसलमानों, उदार लोगों, दलितों, सिवा ब्राह्मणों के अन्य सभी जातियों के खिलाफ हैं। यहां तक कि ये जैनियों का भी विरोध करते हैं। ये औरतों के चित्रों पर अश्लील टिप्पणी करते हैं ये, सिर्फ ब्राह्मण औरतों को छोड़ कर बाकी हिंदू औरतों को भी नहीं बक्सते। ये सब जगह हैं: ट्वीटर, रेडिट, टेलीग्राम। हम इन लोगों पर यह मानकर ध्यान नहीं देते कि ये अधिकतर ट्रॉल हैं।‘’(  ‘द यंग एज्यूकेटेड हेट मौंगर्स’, द हिंदू 22 जनवरी, 2022)

पूरा कांड इस बात का भी प्रमाण है कि गलत राजनीति किस तरह से युवा पीढिय़ों को असामाजिक तत्वों में बदलने की संभावना रखती है। ये लोग सांप्रदायिक दंगा करवाने की सामर्थ्य तो रखते ही हैं, इनके कारण जातिवादी तनाव और दंगों की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

कहा नहीं जा सकता इन नौ-दस युवाओं में कितने सामान्य जीवन की ओर लौट पाएंगे। लंबी कानूनी प्रक्रिया और दंड उन्हें किस स्थिति में पहुंचाएगा, इसका भी अनुमान लगाना कठिन है। पर सच यह भी है कि हमारे सामने अभी तक सिर्फ नौ ही युवक आए हैं, और भी न जाने कितने इसकी चपेट में हैं कहा नहीं जा सकता।

(पंकज बिष्ट हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित पत्रकार, कहानीकार, उपन्यासकार व समालोचक है। वर्तमान में वे दिल्ली से प्रकाशित समयांतर नामक हिन्दी साहित्य की मासिक पत्रिका का सम्पादन व संचालन कर रहे हैं।)