जल संकट: खेत सूख रहे हैं और लोग आर्सेनिक का पानी पी रहे हैं!

आज से कुछ साल पहले भी जल संकट पर चर्चा होती थी, पर इसकी याद तब आती थी जब गर्मियों का मौसम नजदीक होता था. पानी के लिए लंबी कतारें, सूखते तालाब, गिरता जलस्तर, हर चीज पर चर्चा होती थी, खबरें आती थीं! मीडिया फोटो वीडियो दिखाता था. इसके बाद  बारिश होती थी और फिर सब ठीक हो जाता था. तालाब, नदी, पोखर पानी से भर जाते और लोग साल के नौ महीनों के लिए फिर राहत की सांस लेते थे. पर अब पूरा साल पानी चर्चा का विषय बना हुआ. दूरदराज के इलाके में जलस्तर 700 तो कहीं 1000 फुट तक पहुँच चुका है. कई जानकार इसकी वजह जलवायु परिवर्तन को मानते हैं.

राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात और कुछ दक्षिण के राज्य तो पहले भी पानी की समस्या से जूझ रहे थे लेकिन अब  बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश भी पानी के संकट से जूझने वाले राज्यों में शामिल हो चुके हैं. यूं तो  कहने के लिए इन राज्यों में गंगा और नर्मदा जैसी नदियां बह रही हैं पर इनके किनारे पर ही संकट ज्यादा है. पानी की इस विकराल समस्या को देखते हुए मोबाइलवाणी ने एक अभियान चलाया- क्योंकि जिंदगी है जरूरी- जहाँ अब तक 1000 से ज्‍यादा लोगों ने अपनी राय और पानी से उनके जीवन में आ रही कठिनाइयों को साझा किया है. इस लेख में कुछ चुनिन्दा राय और परिशानियों को शामिल करेंगे जिससे मुद्दे की भयावहता का अंदाज़ा हो पाएगा.

बिहार के जमुई सोनो प्रखंड के ठाकुर आगरा गांव से मनजीत कहते हैं कि पहले गांव में पानी की कमी नहीं थी. कुएं थे, तालाब और पोखर थे. चापाकलों से भी खूब पानी निकलता था. इसके बाद धीरे—धीरे कुएं और तालाब सूख गए इसलिए उन्हें बंद कर दिया. फिर कुछ साल से चापाकल में भी पानी नहीं है. अब हम लोग जो पानी पी रहे हैं वो प्रदूषित है. जब घर के लोग बीमार हुए तो डॉक्टर ने कहा कि हमारे यहां का पानी खराब हो गया है. साफ पानी नहीं पीएंगे तो ऐसे ही बीमार होते जाएंगे. गांव में कई गर्भवती औरतें हैं पर वो सभी यही पानी पी रही हैं. बच्चों का भी पेट दुखता रहता है, कई बार तो जन्म लेते टाइम ही बच्चे मर जाते हैं और ये सब इसलिए है क्योंकि हमारे गांव और आसपास का पानी साफ नहीं है.

मनजीत ने जो कहा, वैसे हालात बताने वालों की संख्या सैकडों में है. अभियान के तहत बिहार, झारखंड के ग्रामीण इलाकों से बड़ी संख्या में लोगों ने ये शिकायतें की हैं कि उनके यहां दूषित पानी आ रहा है. इनर वॉयस फाउंडेशन की एक रिपोर्ट बताती है कि सिंधु-गंगा के मैदानों में कई ऐसे गांव हैं जिनको विधवा-गांव का नाम दिया जाता है. यहां के काफी पुरुषों की आर्सेनिकयुक्त पानी पीने से मृत्यु हो गई है. इस इलाके में शादी होकर आने वाली महिलाओं का भी जीवन बाद में इससे प्रभावित हो जाता है. गंगा के तटों पर बसे गांवों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा इतनी ज्यादा है कि पानी प्रदू​षण के मानक स्तर को पार कर गया है. असल में गंगा बेसिन के भूजल आपूर्ति में आर्सेनिक स्वाभाविक रूप से होता है. इसके अलावा औद्योगिक प्रदूषण और खनन से भी आर्सेनिक आता है. इसकी वजह से अकेले भारत में ही 5 करोड़ लोगों के प्रभावित होने का अनुमान है. इनमें से भी सबसे ज्यादा प्रभावित लोग बंगाल, बिहार और झारखंड में बसे हैं. कुछ स्थानों पर तो आर्सेनिक, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित सुरक्षित मानकों से 300 गुना अधिक तक पहुंच गया है.

गंगा के किनारे बसे गांवों में लाखों लोग त्वचा के घावों, किडनी, लीवर और दिल की बीमारियों, न्यूरो संबंधी विकारों, तनाव और कैंसर से जूझ रहे हैं. ये लोग हैंडपंपों और यहां तक कि पाइप के जरिये आने वाले पानी को लंबे समय से पीते रहे हैं जिनमें आर्सेनिक की काफी मात्रा होती है. भारत के राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल 2019 (NHP) के अनुसार, उत्तर प्रदेश के 17 जिलों, बिहार के 11 जिलों के पानी में आर्सेनिक की उच्च मात्रा है. उत्तर प्रदेश के बलिया,  बिहार के भोजपुर और बक्सर और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में आर्सेनिक का स्तर 3,000 पार्ट्स पर बिलियन  (ppb) पहुंच गया है. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुमेय सीमा 10 pbb से 300 गुना अधिक है. डब्ल्यूएचओ के अनुसार, आर्सेनिक के लगातार संपर्क में आने से त्वचा संबंधी समस्याएं होती हैं. साथ ही आर्सेनिक, न्यूरोलॉजिकल और प्रजनन प्रक्रिया को प्रभावित करने के अलावा हृदय संबंधी समस्याओं, डायबिटीज, श्वसन और गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल रोगों और कैंसर का कारण बनता है.

समस्तीपुर जिले के मोइनुद्दीनगर ब्लॉक के छपार गांव के निवासी 63 वर्षीय कामेश्वर महतो आर्सेनिक के जहर से प्रभावित हैं. उन्हें रक्तचाप की परेशानी हो गई. इसकी  वजह से वह कांपने लगते हैं. डॉक्टर कहते हैं कि वो साफ पानी पीते रहें पर कामेश्वर के लिए यह संभव नहीं हो पा रहा है. वो कहते हैं कि पहले गांव में कुएं पोखर थे. गर्मी के दिनों में यहां पानी कम होता था पर होता था. फिर सरकार ने चापाकल लगा दिए, गांव में पाइपलाइन डाल दी और कहा अब घर पर नल में पानी आएगा पर ऐसा हुआ नहीं. इस पर से कुएं और तालाब भी बंद कर दिए. यानि प्राकृतिक पानी के सारे स्रोत बंद हैं.

मधुबनी से मुन्ना महेरा ने बताया कि गांव के सारे कुएं और पोखर बंद कर दिए हैं. चापकलों से जो पानी आ रहा है उसमें आर्सेनिक है. अब बच्चे वो पानी पीकर बीमार होने लगे हैं. बुजुर्गों को भी पेट दर्द और दूसरी बीमारी हो रही हैं. जब इलाज करवाने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र जाते हैं तो वहां डॉक्टर तक नहीं होते.

महिलाओं और बच्चों पर असर 

पटना स्थित महावीर कैंसर संस्थान ने पाया कि छपार गांव में 100 घरों के 44 हैंडपंपों में डब्ल्यूएचओ की अनुमेय सीमा से अधिक आर्सेनिक की मात्रा थी. डॉक्टर्स कहते हैं कि गर्भावस्था के दौरान आर्सेनिक की उच्च सांद्रता के चलते गर्भपात, स्टिलबर्थ, प्रीटर्म बर्थ, जन्म के समय बच्चे के वजन का कम होना और नवजात की मृत्यु का जोखिम छह गुना अधिक होता है. साल 2017 में ‘भूजल आर्सेनिक संदूषण और भारत में इसके स्वास्थ्य प्रभाव’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई. एक रिपोर्ट में एक केस का जिक्र है. नादिया जिले की एक महिला थी, जिसका पहला गर्भ प्रीटर्म बर्थ पर समाप्त हुआ. दूसरी बार गर्भपात हो गया और तीसरी बार गर्भ पर बच्चे की नियोनेटल मृत्यु का सामना करना पड़ा. इसके पीछे वजह आर्सेनिकयुक्त पानी का होना था. उसके पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा 1,617 ppb और उसके मूत्र में आर्सेनिक की मात्रा 1,474 ppb थी.

बिहार में पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट भोजपुर और बक्सर जैसे प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए काम कर रहा है. नमामि गंगे और ग्रामीण जल आपूर्ति विभाग के तहत उत्तर प्रदेश में जल निगम परियोजना शुरू हुई है. इन योजनाओं के तहत घर घर नल कनेक्शन बांटे जा रहे हैं पर दिक्कत ये है कि भूजल आर्सेनिक पानी से युक्त है. ऐसे में हर नल से पानी निकल भी जाए तो वो दूषित ही कहलाएगा. जल जीवन मिशन का उद्देश्य 2024 तक प्रत्येक ग्रामीण परिवार को नल का जल उपलब्ध कराना है, हालांकि जब हम आंकड़ों पर गौर करते हैं तो पाते हैं कि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 5.62% है. आश्चर्यजनक रूप से बिहार में यह आंकड़ा उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से काफी अधिक 52% है.

जमुई जिले में जिला मुख्यालय से तक़रीबन 10 किलोमीटर दूर एक गाँव है मंझ्वे – इस गाँव के आखिरी छोर पर सारकारी एक नल लगा है यहीं से सम्पूर्ण ग्रामीण पानी भरते हैं. गाँव के सभी चापाकल सूख गए हैं. अब इस गाँव में 700 फुट से ज्यादा पर पानी मिलता है जिसका खर्च आम तौर दलित मोहल्ला के वासी नहीं कर पाते हैं. गर्मियों के मौसम में पानी की समस्या की वजह से बहुएं अपने मायके चली जाती हैं, गाँव के कई युवकों की शादी नहीं हो रही है क्योंकि जब शादी करके कोई महिला आएगी तो उसे पाने लेने के लिए दूर गाँव के छोड़ पर जाना पड़ेगा. इस गाँव में नल जल की टंकी तो लगी है लेकिन पानी का पता नहीं.

दिल्ली के खजुरी खास से नज़मा बी कहती हैं कि इलाके में जो पानी सप्लाई ​हो रहा है उससे पेट दर्द की समस्या होने लगी है. डॉक्टर कहते हैं साफ पानी पीना है नहीं तो ये खतरा और ज्यादा बढ जाएगा.

और खेतों का क्या?

ये तो बात हुई उन क्षेत्रों की जहां लोगों को दूषित पानी पीना पड रहा है पर एक दूसरी समस्या है सूखा. जहां दूषित पानी है वहां लोग बीमार हैं और जहां पानी नहीं है वहां खेत सूख रहे हैं.  नतीजतन किसानों का खेती से मोह खत्म होने लगा है. भारत में तीन चौथाई से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं रोजगार के लिए जमीन पर आश्रित हैं जबकि पुरूषों के लिए यह आंकड़ा करीब 60 फीसदी है. इसके पीछे वजह यह है कि समय पर बारिश ना होने से खेत सूख रहे हैं. फसलें पानी के इंतजार में खराब हो जाती हैं. कुल मिलाकर खेती से अब पहले जैसी कमाई नहीं हो रही जिसके कारण पुरूष नौकरी के लिए शहरों का रुख कर लेते हैं. बावजूद इसके ज्यादातर जमीनें पुरूषों के ही नाम होती हैं. केवल 13 फीसदी महिलाएं ही जमीनों की मालकिन हैं. 

जो पुरूष पैसों के चक्कर में शहर आ गए हैं वो यहां आकर भी मजदूरी ही कर रहे हैं पर पानी का संकट तो शहर में भी है. अपने खेत छोडकर काम की तलाश में आए बहुत से मजदूर दिल्ली के गोविंदपुरी के नवजीवन कैंप में रह रहे हैं. यहां उन्हें एक​ दिन के पानी के लिए 100 रुपए खर्च करने पडते हैं. जिनके पास पैसे नहीं है वो दूषित पानी पी रहे हैं या फिर प्यासे हैं. कापसहेड़ा से बबलू कुमार बताते हैं कि जो लोग खेती से निराश होकर शहर में काम कर रहे हैं उन्हें साफ पानी के लिए 700 से 800 रुपए महीने का खर्च है. कई जगहों पर तो लोग 2 हजार रुपए तक खर्च कर रहे हैं. नलों में जो पानी सप्लाई हो रहा है वो इतना खराब है कि उससे घर के बच्चे बीमार हो गए.

शहर में आये कामगारों को नहाने धोने, शौच जाने के लिए के लिए पानी की जरूरत पडती है. मकान मालिक ने बिजली और पानी का मीटर लगा दिया है. सर्दियों में तो पानी का बिल 200 रुपये तक आता है लेकिन यही बिल गर्मियों में 500-700 हो जाता है. इसके अलावा पीने के पानी पर 20-30 रूपये प्रत्येक दिन का खर्च करना पड़ता है, वो भी कामचलाऊ पीने के पानी के लिए.

ऐसे में खेत आते हैं महिला किसानों के हिस्से और उन्हें सींचने की जिम्मेदारी भी. देखा जाए तो आपदा की स्थिति में सबसे पहले और सबसे बड़ा नुकसान महिलाओं और बच्चों का होता है. उन्हें पानी भरना, खाने का इंतजाम करना, मवेशियों की देखभाल और फसलों की चिंता करनी होती है. बिहार मोबाइलवाणी पर राजेश बताते हैं कि उनके खेत पानी की कमी से सूख गए हैं. पहले साल में 3 फसलें होती थीं, अब मुश्किल से 1 फसल होती है उसमें भी नुकसान होता है. ज्यादातर किसानों ने खेतों में नलकूप लगवाए थे पर उसमें से भी अब इतना पानी नहीं निकल रहा है कि पूरे खेत की अच्छे से सिंचाई हो जाए. जो किसान खेती कर रहे हैं उनके घर की महिलाएं, मवेशी सभी पानी ढोने का काम करते रहते हैं, फिर भी खेत को सींचना ​इतना आसान नहीं है.

भारत में जल का संकट जनजीवन पर गहराता नज़र आ रहा है. साल 2018 में नीति आयोग द्वारा किये गए एक अध्ययन में 122 देशों के जल संकट की सूची में भारत 120वें स्थान पर खड़ा था. ये स्थिति और भी भयावह हो सकती है, शायद हो भी गई हो! संकट का मतलब ये पानी की कमी है और जहाँ पानी उपलब्ध है वहां पीने लायक पानी की कमी- खेतों, मवेशियों और आम लोगों के लिए!

साभार: जनपथ

बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे, राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कोरवा जनजाति के लोग!

ग्रामीण क्षेत्रों के विकास को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से बड़ी-बड़ी योजनों की घोषणा की जाती हैं लेकिन गांव-देहात के लिए बनाई गईं अधिकतर सरकारी योजनाएं कागजों तक ही सिमटकर रह जाती हैं. छत्तीसगढ़ से एनबीटी में मुनेश्वर कुमार की रिपोर्ट के अनुसार बलरामपुर जिले के मानपुर गांव में कोरवा जनजाति के लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे हैं. राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र के नाम से जाने जानी वाली कोरवा जनजाति के लोग पीने के साफ पानी के लिए दर-दर भटक रहे हैं. साफ पानी न मिलने के चलते कोरवा जनजाति के लोग गंदे नाले से पानी पीने के लिए मजबूर हैं.   

छत्तीसगढ़ में रहने वाले कोरवा आदिवासियों की आदिम नस्ल है. इनका अपना विशिष्ट रहन-सहन, खान-पान, सभ्यता और संस्कृति है. इस जनजाति पर बढ़ रहे खतरे और घटती आबादी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कोरवा जनजाति को संरक्षित सूची में शामिल किया है. संविधान की संरक्षित सूची में शामिल होने के बाद भी कोरवा जनजाति के लोग मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं.

कोरवा जनजाति के लोग कहने को तो राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र हैं लेकिन गांव के लोग एक-एक बूंद साफ पानी के लिए तरस रहे हैं. छत्तीसगढ़ के कई आदिवासी गांवों में हर साल खराब पानी के कारण मलेरिया का प्रकोप फैलता है जो आदिवासी क्षेत्रों में मौतों की वजह बनता है.   

बलरामपुर के मानपुर गांव में कोरवा जनजाति के 25 परिवार में लगभग 150 लोग रहते हैं. गांव में पानी न होने के कारण कोरवा जनजाति की महिलाएं और बच्चे नाले से पानी भरकर लाने को मजबूर हैं. गांववासियों ने बताया, “नेता चुनाव के दौरान वोट के लिए आते हैं और आश्वासन देकर चले जाते हैं, लेकिन आजतक गांव में पीने के साफ पानी की व्यवस्था नहीं हुई.”

वहीं सरपंच ने कहा, “मोहल्ले में पानी की व्यवस्था के लिए प्रयास किया जा रहा था लेकिन पंचायत को मिलने वाले राशि को दूसरे कामों में खर्च करा दिया गया.”   

इस विधानसभा क्षेत्र से विधायक पूर्व की सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं वहीं मौजूदा कांग्रेस विधायक भी राज्य सरकार में मंत्री है. लेकिन इसके बावजूद भी इन जनजातियों की सुध लेने वाला कोई नहीं है.

सामान्य रहेगा मानसून, औसत से 2% ज्यादा बारिश का अनुमान

आखिरकार मौसम विभाग ने भी मानसून के केरल पहुंचने का ऐलान कर दिया है। इससे पहले प्राइवेट मौसम पूर्वानुमान एजेंसी स्काइमेंट ने 28 मई को मानसून के केरल पहुंचने का दावा किया था।

मौसम विभाग के अनुसार, मानसून एक जून को केरल पहुंच गया है। मानसून के आने की सामान्य तिथि एक जून ही है। आज मौसम विभाग ने मानूसन वर्षा का दीर्घावधि पूर्वानुमान भी अपडेट किया है। इस साल मानसून सीजन यानी जून से सितंबर के दौरान देश में सामान्य बारिश का अनुमान है। पूरे देश में मानसून वर्षा दीर्घावधि औसत का 102 फीसदी होने की संभावना है। इसमें 4 फीसदी कम या ज्यादा की मॉडल त्रुटि हो सकती है।

अगर क्षेत्रवार देखें तो उत्तर पश्चिमी भारत में औसत के मुकाबले 107 फीसदी, मध्य भारत में 103 फीसदी, दक्षिणी प्रायद्वीप में 102 फीसदी और पूर्वोत्तर भारत में 96 फीसदी बारिश का अनुमान है। मतलब, उत्तर पश्चिमी भारत में जहां औसत से 7 फीसदी ज्यादा बारिश की संभावना है, वहीं पूर्वोत्तर में बारिश औसत से 4 फीसदी कम रह सकती है।

देश में साल 1961 से 2010 के दौरान मानसून वर्षा के सालाना औसत को दीर्घावधि औसत माना जाता है जो 88 सेंटीमीटर है। इसके मुकाबले 96-104 फीसदी बारिश को सामान्य माना जाता है। औसत के मुकाबले 96 फीसदी से कम बारिश को सामान्य से कम और 104 फीसदी से ज्यादा बारिश को सामान्य से अधिक माना जाता है। इस साल औसत के मुकाबले 102 फीसदी बारिश का अनुमान है, इसलिए मानसून को सामान्य माना रहा है।

देश की अर्थव्यवस्था और कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर करती है। इसलिए  कोराना संकट से जूझ रहे देश के लिए मानसून का सामान्य रहना राहत की बात है।

इस बीच, अरब सागर में चक्रवाती तूफान की चेतावनी दी गई है जो 3 जून की शाम या रात को उत्तरी महाराष्ट्र और दक्षिणी गुजरात के तटों पर पहुंच सकता है। चक्रवात के मद्देनजर कर्नाटक, गोवा, केरल, लक्षद्वीप और महाराष्ट्र में मछुवारों को समुंद्र में न जाने की सलाह दी गई है। चक्रवाती तूफान के कारण 3 जून को मुंबई भी भारी आंधी और बारिश हो सकती है। 

 

 

 

आ गया मानसून, मगर सरकार ने खारिज किया स्काइमेट का दावा

इस साल मानसून को लेकर विचित्र स्थिति पैदा हो गई है। भारत सरकार का मौसम विभाग और देश की प्रमुख मौसम पूर्वानुमान एजेंसी स्काइमेंट मानसून को लेकर अलग-अलग दावें कर रहे हैं।

स्काइमेट के अनुसार, मानसून 30 मई को केरल पहुंच चुका है। बंगाल की खाड़ी में उठे सुपर साइक्लोन अंपन के बावजूद मानसून ने दो दिन पहले ही केरल में दस्तक दे दी। राज्य में कई जगह बारिश शुरू हो चुकी है। स्काइमेट ने केरल समेत पश्चिमी तटों पर भारी बारिश की संभावना जताई है।

उधर, केंद्र सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव एम. राजीवन ने मानसून के केरल पहुंचने की खबर को गलत करार दिया है। उनका कहना है कि मानसून अभी केरल नहीं पहुंचा। मौसम विभाग के मुताबिक, एक जून से मानसून के केरल पहुंचने की स्थितियां बन जाएंगी। मौसम विभाग पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत काम करता है।

इस साल स्काइमेट ने मानसून के समय से पहले 28 मई को केरल पहुुंचने की संभावना जताई थी। कंपनी ने इसमें 2 दिन का एरर मार्जिन दिया है। जबकि मौसम विभाग ने मानसून के सामान्य रहने का अनुमान देते हुए 1 जून को केरल पहुंचने की उम्मीद जताई थी।

स्काइमेट मुताबिक, मानसून आगमन की घोषणा के लिए कुछ तय मापदंड होते हैं। इन मापदण्डों में भूमध्य रेखा के उत्तर में यानी भारत की तरफ वायुमंडलीय स्थितियों में बदलाव और लक्षद्वीप, केरल तथा कर्नाटक में बारिश प्रमुख हैं। ये सभी मापदंड पूर्ण हो रहे हैं। खासतौर पर बारिश, आउटगोइंग लॉन्गवेव रेडिएशन (ओएलआर) वैल्यू और वायुगति उस स्थिति में पहुंच चुकी हैं जब मानसून के आगमन की घोषणा की जा सके।

स्काइमेट के अनुसार, मुंबई और उपनगरीय इलाकों में 2 से 4 जून के बीच अच्छी बारिश होने के आसार हैं। इस दौरान कोंकण गोवा के तटीय भागों में भारी बारिश की भी संभावना है।

हाल के वर्षों में कई बार मौसम विभाग की बजाय प्राइवेट कंपनी का अनुमान सही निकला। यही वजह है कि मौसम पूर्वानुमान सरकारी विभाग और प्राइवेट एजेंसी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। हालांकि, सरकारी विभाग होने केे नाते अंतत: मौसम विभाग की बात ही आधिकारिक मानी जाएगी।

 

AC में सूखे का पता ही नहीं चला? जानिए, कितने भीषण हैं हालत

जब तक फ्रीज में पानी की बोतलें भरी हैं और नल में पानी आ रही है, तब तक देश में सूखे का अहसास होना मुश्किल है। ठीक उसी तरह जैसे जब तक दिल्ली का दम स्मॉग में नहीं घुटने लगा, तब तक बहुत कम लोगों को वायु प्रदूषण की गंभीरता का अहसास था।

बहरहाल, देश के तकरीबन आधे हिस्से में सूखे के हालत हैं। इस स्थिति का अंदाजा तो मार्च-अप्रैल से ही होने लगा था, मगर तब पूरा देश चुनावी चर्चा में मशगूल था। अब मानसून का इंतजार करते-करते एक-एक दिन गुजर रहा है तो सूखे की तरफ ध्यान गया। हालांकि, देश में नए बने जल शक्ति मंत्रालय के मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत जल संकट की खबरों को “मीडिया हाइप” करार दे चुके हैं। फिर भी जान लीजिए, देश में सूखे की स्थिति कितनी गंभीर है।

  1. मौसम विभाग ने इस साल मानसून में सामान्य के मुकाबले 96 फीसदी बारिश का अनुमान लगाया है। प्राइवेट एजेंसी स्काईमेट का अनुमान और भी कम है। स्काईमेट के अनुसार, इस बार मानसून सीजन में 93 फीसदी बारिश होगी। यानी मानकर चलिए इस बार बहुत से इलाके बारिश के लिए तरस जाएंगे।
  2. पिछले पांच वर्षों में 2017 को छोड़कर हर साल मानसून में बारिश सामान्य से कम रही। लेकिन इस साल मानसून से पहले ही सूखे की मार पड़नी शुरू हो गई थी। बीते 1 मार्च से 31 मई के दौरान देश में सामान्य से 25 फीसदी कम यानी 99 मिलीमीटर हुई है। पिछले 65 वर्षों में यह दूसरा मौका है जब मानसून से पहले इतनी कम बारिश हुई और प्री-मानसून सूखे की स्थिति पैदा हो गई।
  3. आईआईटी, गांधीनगर की सूखा पूर्व चेतावनी प्रणाली के मुताबिक, देश का 44.41 फीसदी हिस्सा सूखे की स्थितियों का सामना कर रहा है जबकि पिछले साल इसी समय देश के 33.24 फीसदी हिस्से में सूखे के हालात थे। यानी पिछले साल के मुकाबले स्थिति काफी खराब है।
  4. इस साल मानसून देरी से पहुंचने के बाद बेहद धीमी गति से आगे बढ़ रहा है। इस बीच, अरब सागर में उठे ‘वायु’ चक्रवात ने भी इसकी गति को बाधित किया है। अब उम्मीद जताई जा रही है कि 20 जून के बाद मानसून जोर पकड़ेगा।
  5. इस मानसून सीजन में 1-19 जून के दौरान देश में सामान्य से 43 फीसदी कम बारिश हुई है। देश के 36 मौसम क्षेत्रों में से 30 क्षेत्रों में सामान्य से कम बारिश है जबकि केवल 6 मौसम क्षेत्रों में सामान्य या इससे अधिक बारिश हुई है। विदर्भ में सामान्य से 89 फीसदी, मराठवाडा में 75 फीसदी, पश्चिमी यूपी में 73 फीसदी, पूर्वी यूपी में 84 फीसदी और झारखंड में 71 फीसदी कम बारिश से सूखे के खतरे को समझा जा सकता है।
  6. महाराष्ट्र और कर्नाटक के ज्यादातर जिले सूखे के संकट से जूझ रहे हैं। 47 साल का सबसे भीषण सूखा झेल रहे महाराष्ट्र की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है। पश्चिमी महाराष्ट्र के कई गांवों से लोग पलायन करने पर मजबूर हैं। कई जिलों में टैंकरों से पानी पहुंचाया जा रहा है। राज्य के 35 बड़े बांध लगभग खाली हो चुके हैं, नदियां सूखी हैं और करीब 20 हजार गांव सूखे की चपेट में हैं।
  7. यूपी के बुंदेलखंड से भी सूखे के चलते लोग गांव छोड़नेे को मजबूूूर हैं। बिहार में लू लगने से 108 लोगों के मरने की पुष्टि खुद राज्य सरकार कर चुकी है। अकेले गया जिले में लू लगने से 33 लोगों की मौत हो चुकी है। भीषण गर्मी को देखते हुए बिहार के 6 जिलों में धारा 144 लगा दी गई है।
  8. सूखे के इस संकट का सीधा संबंध बढ़ती गर्मी और मरुस्थलीकरण से है। इस साल पहली बार दिल्ली का तापमान 48 डिग्री सेल्सियस के पार चला गया, जबकि 50.8 डिग्री तापमान के साथ राजस्थान के चुरू में गर्मी के सारे रिकॉर्ड टूट गए।
  9. नीति आयोग की एक रिपोर्ट देश में भीषण जल संकट से आगाह करती है। रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 तक दिल्ली, बेंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद जैसे 21 महानगरों में भूजल समाप्त हो जाएगा और 2030 तक देश की 40 फीसदी आबादी पेयजल के लिए तरसेगी। फिलहाल, भारत में करीब 60 करोड़ लोग पानी की किल्लत का सामना कर रहे हैं।
  10. नीति आयोग की आशंका चेन्नई में सच साबित होती दिख रही है। शहर में पानी की इतनी किल्लत है कि कई आईटी कंपनियों ने कर्मचारियों को दफ्तर आने से मना कर घर से काम करने को कहा है। चेन्नई को जलापूर्ति करने वाले चार प्रमुख जलाशय लगभग सूख चुके हैं। शहर में हाहाकार मचा है। देश-विदेश का मीडिया चेन्नई के जल संकट को कवर कर रहा है।
  11. केंद्रीय भूजल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। दक्षिण और पश्चिमी भारत के जलाशयों में जलस्तर 10 साल के औसत यानी सामान्य स्तर से नीचे चला गया है। हालांकि, देश में कुल मिलाकर जलाशयों में जलस्तर पिछले साल से बेहतर है लेकिन देश के 91 में से 71 जलाशयों में पानी घट रहा है।
  12. देश के बड़े हिस्से में सूखे का असर सोयाबीन, कपास, धान और मक्का जैसी खरीफ फसलों की बुवाई पर भी पड़ रहा है। कृषि मंत्रालय के अनुसार, 14 जून तक खरीफ की बुवाई पिछले साल की तुलना में 9 फीसदी कम है। असिंचित क्षेत्रों में किसान खरीफ की बुवाई के लिए बारिश की आस लगाए बैठे हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जैसे गन्ना उत्पादक राज्यों में सूखे की वजह से चीनी का उत्पादन 15 फीसदी घट सकता है। विदर्भ में संतरे के आधे से ज्यादा बगीचे सूखकर बर्बाद होने की खबरें आ रही हैं।

 

 

सूखा क्यों नहीं बन पाया चुनावी मुद्दा?

लोकसभा चुनावों के चार चरण के मतदान हो गए हैं। तीन चरण के चुनाव अभी बाकी हैं। इस लिहाज से देखें तो अब भी देश के बड़े हिस्से में लोकसभा चुनावों को लेकर राजनीतिक प्रचार जोर-शोर से चल रहा है। इसमें कई मुद्दे उठाए जा रहे हैं। लेकिन सूखे का मुद्दा नहीं उठ रहा है।

जबकि देश भयानक सूखे की ओर बढ़ रहा है। विभिन्न स्रोतों से जो जानकारी आ रही है, उससे पता चल रहा है कि देश का तकरीबन आधा हिस्सा सूखे की चपेट में आ गया है। इनमें से भी कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां सूखे की स्थिति बहुत बुरी है।

इंडियास्पेंड सूखे की स्थिति के बारे में बता रहा है कि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना, बिहार, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और पूर्वोत्तर के कुछ राज्य सूखे से बुरी तरह से प्रभावित हैं। इंडियास्पेंड की रिपोर्ट में बताया गया है कि दक्षिण भारत के 31 जलाशयों में कुल क्षमता का सिर्फ 25 प्रतिशत ही पानी बचा हुआ है। जबकि नवंबर, 2018 में यह आंकड़ा 61 फीसदी था। इसका मतलब यह हुआ कि पिछले चार-पांच महीनों में इन जलाशयों के पानी में 36 फीसदी कमी आई।

आंध्र प्रदेश के रायलसीमा क्षेत्र के चार जिलों अनंतपुर, कुरनुल, चित्तूर और वाईएसआर कड़प्पा में बेहद भयानक सूखा है। खबरों में यह बताया जा रहा है कि यहां लगातार नौवें साल सूखा पड़ा है। 2000 से लेकर 2018 के बीच इस क्षेत्र में 15 साल ऐसे रहे हैं जब यहां सूखा पड़ा है। बताया जाता है कि सूखे की वजह से यहां के लोगों को पलायन लगातार हो रहा है। 2018 में सिर्फ सात लाख लोगों का पलायन इस क्षेत्र के गांवों से हुआ है। कई गांव तो ऐसे हैं जहां सिर्फ बुजुर्ग लोग ही रह रहे हैं।

इसी तरह की खबर महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों के बारे में भी आ रही है। मराठवाड़ा क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित है। बीड़ जिले में तो लोग सूखे से बुरी तरह बेहाल हैं। तेलंगाना के कुछ क्षेत्र भी भयंकर सूखे की चपेट में हैं। इसके बावजूद इन राज्यों में सूखा चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया है।

कुछ साल पहले इंडियन प्रीमियर लीग चल रहा था तो उस वक्त सूखे का मुद्दा बहुत जोर-शोर से उठा था। दबाव में मुंबई के मैच को कहीं और कराना पड़ा था। इस बार तो आईपीएल और लोकसभा चुनाव दोनों चल रहे हैं लेकिन सूखा कोई मुद्दा बनता हुआ नहीं दिख रहा है।

सूखा का चुनावी मुद्दा नहीं होना भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है। भारत की कुल आबादी के 57 फीसदी लोग अब भी जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भर हैं। कृषि पानी पर निर्भर है। ऐसे में सूखे की समस्या हर तरह से एक राष्ट्रीय समस्या है लेकिन देश के सबसे बड़े चुनाव में यह कोई मुद्दा नहीं है।

सूखे की समस्या को कोई भी दल नहीं उठा रहा है। केंद्र की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अगर इस मसले को नहीं उठा रही है तो समझ में आता है कि भला वह खुद अपनी नाकामी को कैसे चुनावी मुद्दा बनाए। लेकिन विपक्षी दल भी अगर सूखे की समस्या को चुनावी मुद्दा नहीं बना रहे हैं तो सवाल उठता है कि आखिर इसकी वजह क्या है?

एक वजह यह समझ में आती है कि प्रमुख विपक्षी दलों की सरकारें जिन राज्यों में हैं, वे राज्य भी कम या ज्यादा सूखे से प्रभावित हैं। इसलिए इन्हें लगता है कि अगर ये सूखा को चुनावी मुद्दा बनाते हैं तो इसकी आंच इन तक भी आएगी और इन्हें भी चुनावों में नुकसान उठाना पड़ेगा। इसलिए सभी दलों में एक तरह से यह आम सहमति दिखती है कि लोकसभा चुनाव 2019 में सूखा को चुनावी मुद्दा नहीं बनने देना है।

एक चौथाई स्वास्थ्य केंद्रों पर पर्याप्त पानी भी नहीं!

सरकारें स्वास्थ्य क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए नहीं थकती हैं। केंद्र की मौजूदा सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है। स्वास्थ्य क्षेत्र में किए गए कार्यों का हवाला देते हुए सरकार एक सांस में कई योजनाएं गिना देती है और फिर अंत में यह भी कहती है कि उसने नई स्वास्थ्य नीति 2017 में लाई और इसके तहत पूरे देश में 1.5 लाख वेलनेस केंद्र खोले जाने हैं और स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ाया जाना है। सरकार बीमा आधारित स्वास्थ्य योजनाओं को भी अपनी बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश करती है।

लेकिन सच्चाई तो यह है कि आज भी स्वास्थ्य केंद्र बुनियादी सुविधाओं की कमी का सामना कर रहे हैं। इस वजह से यहां आने वाले लोगों का ठीक से ईलाज नहीं हो पा रहा। वहीं दूसरी तरफ बीमा आधारित योजनाओं का लाभ उठाकर निजी अस्पताल अपना कारोबार विस्तार लगातार कर रहे हैं।

इस भयावह स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाली एक रिपोर्ट हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तैयार की है। इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए वैश्विक स्तर पर अध्ययन किया गया। इसमें यह बताया गया है कि दुनिया के 25 फीसदी स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां पर्याप्त पानी भी उपलब्ध नहीं है। वहीं 20 फीसदी स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां साफ-सफाई के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि इस वजह से दुनिया के दो अरब से अधिक लोग प्रभावित हो रहे हैं। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इन स्वास्थ्य केंद्रों पर मेडिकल कचरे को अलग-अलग करने और फिर उनके निस्तारण के लिए भी पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं।

इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कम विकसित देशों में यह स्थिति और भी बुरी है। इन देशों में 45 फीसदी स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां पानी की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक ऐसे केंद्रों पर हर साल 1.7 करोड़ महिलाएं अपने बच्चों को जन्म देती हैं।

रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर किसी बच्चे का जन्म ऐसी जगह पर हो जहां न तो पर्याप्त पानी हो और न ही पर्याप्त साफ-सफाई तो बच्चे और मां पर कई बीमारियों के साथ-साथ जान से हाथ धोने का खतरा भी बना रहता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि इस वजह से हर साल तकरीबन दस लाख मौतें हो रही हैं। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पानी और साफ-सफाई में कमी की वजह से नवजात बच्चों और बच्चों को जन्म देनी वाली महिलाओं में जो संक्रमण होता है, उससे सबसे अधिक प्रभावित कम विकसित देश और विकासशील देश हैं।

नवजात बच्चों की कुल मौतों में इस वजह से होने वाली मौतों की हिस्सेदारी 26 फीसदी है। जबकि बच्चों के जन्म देने या इसके थोड़ी ही समय बाद पूरी दुनिया में जितनी महिलाओं को जान गंवानी पड़ रही है, उसमें पर्याप्त पानी और साफ-सफाई के अभाव के माहौल में बच्चों को जन्म देने वाली महिलाओं की हिस्सेदारी 11 फीसदी है।

भारत के भी सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर पानी और साफ-सफाई का अभाव स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। अगर भारत के संदर्भ में इस तरह का कोई अध्ययन हो तो इससे भी कहीं अधिक भयावह आंकड़े सामने आ सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य केंद्रों का तो और भी बुरा हाल है। यहां तक की प्रमुख शहरों के प्रमुख स्वास्थ्य केंद्रों में पर्याप्त पानी और साफ-सफाई नहीं है। दूसरी बुनियादी सुविधाओं की भी यही स्थिति है।

ऐसे में इस दिशा में काम होना चाहिए कि कैसे भारत के स्वास्थ्य केंद्रोें पर बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। क्योंकि यह एक स्थापित तथ्य है कि जिस भी समाज में शिक्षा और स्वास्थ्य की बुरी स्थिति रहती है, वह समाज न तो आर्थिक तौर पर अच्छा प्रदर्शन कर पाता है और न ही मानव विकास के पैमाने पर उसका प्रदर्शन सुधरता है।

क्या देश में भयानक सूखे की आहट अभी से मिलने लगी है?

मार्च का महीना अभी खत्म भी नहीं हुआ। अभी भी देश के कई हिस्सों में हल्की सर्दी का अहसास बचा हुआ है। गर्मी अभी आई भी नहीं। लेकिन देश के कई हिस्सों में भयानक सूखे की आहट अभी से मिलने लगी है।

भारत में सूखे की स्थिति पर वास्तविक समय में नजर रखने का काम गांधीनगर का भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान करता है। हाल ही में इसने बताया कि देश का आधा हिस्सा अभी ही सूखे की चपेट में आ गया है। इनमें से 18 फीसदी हिस्से में स्थिति बेहद गंभीर है। संस्थान का कहना है कि इससे गर्मियों में जल संकट का सामना करना पड़ सकता है।

संस्थान का कहना है कि झारखंड, दक्षिणी आंध्र प्रदेश, गुजरात, उत्तरी तमिलनाडु और अरुणाचल प्रदेश के हिस्से सूखे की चपेट में आ गए हैं। इस काम में लगे वैज्ञानिक मान रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है और सूखा पड़ने की वजह से भूजल स्तर पर भी काफी बुरा प्रभाव पड़ेगा। इससे अधिक जल के इस्तेमाल से पैदा होने वाली फसलों का उत्पादन मुश्किल हो जाएगा। पंजाब जैसे राज्य में धान की खेती मुश्किल हो जाएगी।

संस्थान ने अभी की सूखे की स्थिति का जो मूल्यांकन किया है, उसमें बताया है कि सूखे से सबसे अधिक परेशानी गरीब लोगों को होगी। इस अध्ययन में लगे विशेषज्ञों का कहना है कि इस स्थिति से निपटने के लिए और भारत के एक बड़े हिस्से को हर साल सूखे की मार से बचाने के लिए यह जरूरी है कि सरकार दीर्घकालिक कदम उठाए। सिर्फ सूखा पड़ने पर पीड़ितों को राहत दे देने भर से काम नहीं चलेगा।

सूखे का प्रमाण नदियों की स्थिति से भी मिल रहा है। कई राज्यों में नदियों का प्रवाह न सिर्फ घटा है बल्कि कई नदियों में तो प्रवाह या तो पूरी तरह खत्म हो गया है या फिर नाम मात्र का बचा है। अगर अभी यह स्थिति है तो फिर जब भयानक गर्मी पड़ेगी तब क्या होगा, इसका अंदाज करके ही भय पैदा होता है।

पर्यावरण के लिए काम करने वाली मुदिता विद्रोही ने ट्विटर पर मध्य प्रदेश और गुजरात से संबंधित कुछ जानकारियां साझा की हैं। इसमें उन्होंने बताया है कि नर्मदा में अधिकांश जगहों पर पानी नहीं है। उनका कहना है कि अधिकांश जगहों पर नदी में एक बूंद भी पानी नहीं है। वे इस पर हैरानी जताते हुए आशंका व्यक्त करती हैं कि अभी यह स्थिति है तो गर्मी में क्या हाल होगा!

इसके अलावा उन्होंने ट्विटर पर अहमदाबाद के पास नर्मदा नदी के बारे में भी जानकारियां भी साझा की हैं। उन्होंने बताया है कि एक तरफ तो अहमदाबाद शहर में नर्मदा में कृत्रिम रूप से जल प्रवाह बनाए रखा गया है लेकिन शहर के बाहर नर्मदा की काफी खराब हालत है। उन्होंने अहमदाबाद के बाहर की नर्मदा की तस्वीरें साझा की हैं जिनमें नदी पूरी तरह से सूखी हुई दिख रही है।

मुदिता विद्रोही ने गुजरात के भावनगर जिले की भी एक तस्वीर साझा की है। इसमें पानी में समाहित रहने वाली जमीन पूरी तरह से सूखी दिख रही है और वहां प्रवासी पक्षी दिख रहे हैं। उन्होंने इन पक्षियों के बारे में कहा है कि पानी नहीं है तो फिर ये पक्षी गर्मियों में कैसे बचे रहेंगे। उन्होंने इस बात पर भी चिंता जताई कि इस सूखे का सामना आम लोग कैसे करेंगे।

क्या ‘गंगा‘ का हाल 2019 लोकसभा चुनावों में चुनावी मुद्दा बन पाएगा?

2014 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में अपने चुनावी अभियानों की शुरुआत करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा था कि मुझे मां गंगा ने बुलाया है। वे अपनी चुनावी सभाओं में गंगा को ‘मां गंगा’ और ‘गंगा मईया’ कहकर संबोधित करते हुए इसकी बुरी हालत के लिए उस समय की सत्ताधारी पार्टियों पर हमले करते थे और यह दावा करते थे कि अगर उनकी सरकार बनी तो गंगा की सेहत ठीक कर देंगे।

केंद्र में सरकार बनते हुए जब उन्होंने जल संसाधन मंत्रालय के नाम के साथ ‘गंगा पुनरुद्धार’ भी जोड़ दिया तो लोगों को लगा कि वे वाकई मां गंगा की सेहत सुधारने को लेकर संजीदा हैं। लेकिन बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पांच साल के कार्यकाल में गंगा की स्थिति में खास सुधार नहीं दिखता।

यह बात केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की हालिया रिपोर्ट से भी साबित होती है। इसमें यह बताया गया है कि माॅनसून खत्म होने के बाद के दिनों में जिन क्षेत्रों का उसने अध्ययन किया, उनमें सिर्फ एक क्षेत्र ऐसा था जहां का पानी पीने लायक था। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 36 जगहों से जानकारी जुटाकर बोर्ड ने यह रिपोर्ट तैयार की है। इनमें से 25 स्थान उत्तर प्रदेश में हैं। इनमें से कोई एक भी जगह ऐसी नहीं है जहां गंगा का पानी पीने लायक हो।

गंगा की स्थिति सुधारने में केंद्र सरकार की नाकाम ही वजह है कि न तो इस बार अपनी चुनावी सभाओं में नरेंद्र मोदी गंगा को लेकर अपनी कोई उपलब्धि गिनाते हुए दिख रहे हैं और न ही भविष्य से संबंधित दावे वे कर रहे हैं। भाजपा के दूसरे नेता भी गंगा को लेकर कोई बड़ी बातें नहीं कर रहे हैं।

इसी स्थिति को कांग्रेस कम से कम उत्तर प्रदेश में एक अवसर के तौर पर देख रही है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश में अपने चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत गंगा नदी से ही की। प्रयागराज से बनारस की यात्रा प्रियंका गांधी ने गंगा नदी पर नाव से की।

अपनी इस यात्रा के दौरान गंगा के प्रदूषण पर तो वे बहुत आक्रामक होकर नहीं बोलीं लेकिन माना जा रहा है कि गंगा के जरिए यात्रा करके उन्होंने भाजपा को यह संकेत दे दिया है कि आने वाले दिनों में कांग्रेस गंगा के प्रदूषण को मुद्दा बना सकती है।

हालांकि, उनके सामने भी दिक्कत यही है कि अगर गंगा की स्थिति की बात होगी और इसके इतने अधिक प्रदूषण की बात होगी तो सवाल सिर्फ मोदी सरकार के कार्यकाल पर नहीं उठेंगे बल्कि पहले की कांग्रेस सरकारों के कामकाज पर भी सवाल उठेंगे। भाजपा यह कहेगी कि कांग्रेस ने दशकों में गंगा में इतना प्रदूषण फैलने देने का काम किया कि उसे पांच सालों में साफ करना आसान नहीं है।

ऐसे में लोगों के मन में यही सवाल चल रहा है कि क्या गंगा का हाल इस बार के चुनावों में कोई मुद्दा बन भी पाएगा? क्या लोग राजनीतिक दलों से गंगा की इस स्थिति पर सवाल पूछेंगे? क्या लोग गंगा की इस हालत के लिए राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी तय करेंगे? क्या लोग गंगा के मुद्दे पर वोट देंगे? आने वाले दिनों में इनमें से कुछ सवालों के जवाब मिल सकते हैं।

क्या नर्मदा परियोजना से संबंधित बड़े-बड़े दावे खोखले साबित हो रहे हैं?

नर्मदा परियोजना को लेकर गुजरात में बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं। पिछले छह दशकों से नर्मदा परियोजना गुजरात में एक बड़ा मुद्दा रहा है। इस परियोजना के समर्थक कहते हैं कि गुजरात की सिंचाई और पेयजल से संबंधित समस्याओं का रामबाण इलाज नर्मदा परियोजना है।

नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब भी वे नर्मदा परियोजना को अपनी एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश करते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे नर्मदा परियोजना की सफलता का जिक्र अक्सर करते हैं।

पिछले कुछ दशकों में गुजरात में नर्मदा के पानी को गुजरात में चुनावी मुद्दा भी बनाया गया है। प्रदेश का एक बड़े हिस्से में पानी की कमी बनी रहती है। इस वजह से लोगों को पानी दिलाने के वादे का चुनावी लाभ भी गुजरात के राजनीतिक दलों को मिलता है।

इस परियोजना के अब तक के क्रियान्वयन से संबंधित जो अध्ययन हुए हैं, उनमें यह माना गया है कि इस परियोजना ने पेयजल से संबंधित समस्याओं का काफी हद तक समाधान करने में सफलता हासिल की है। खास तौर पर उत्तरी गुजरात और सौराष्ट्र में रहने वाले लोगों की पेयजल आपूर्ति संबंधित जरूरतों को इस परियाजना ने पूरा किया है।

लेकिन सिंचाई संबंधित जरूरतों को पूरा करने से संबंधित जो दावे किए गए थे, उन्हें अब तक पूरा नहीं किया जा सका है। अभी भी बड़ी संख्या ऐसे गांवों की है जिन्हें अब भी नर्मदा के पानी का इंतजार है।

इस परियोजना के तहत लक्ष्य यह रखा गया था कि 17.92 लाख हेक्टेयर को सिंचाई की सुविधा मुहैया कराई जाएगी। लेकिन अभी तक सिर्फ 6.4 लाख हेक्टेयर जमीन को ही सिंचाई की सुविधा मिल रही है। इसका मतलब यह हुआ कि कुल लक्ष्य के मुकाबले सिर्फ एक तिहाई जमीन की ही सिंचाई इस परियोजना के जरिए हो रही है।

नर्मदा नहर परियोजना द्वारा सिंचाई संबंधित जरूरतों को नहीं पूरा किया जाने की एक प्रमुख वजह यह बताई जा रही है कि नर्मदा नदी में जल का प्रवाह कम हुआ है। खास तौर पर पिछले दो साल में कम बारिश होने की वजह से यह कमी और अधिक दिख रही है।

वहीं इसकी दूसरी वजह यह बताई जा रही है कि मध्य प्रदेश ने अपने नहर नेटवर्क को बेहतर किया है। इस वजह से पहले जो पानी गुजरात के इस्तेमाल के लिए बच रहा था, उसके एक हिस्से का इस्तेमाल पहले ही मध्य प्रदेश कर ले रहा है।

हाल के अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि सरदार सरोवर बांध और नर्मदा नहर का काम तो करीब-करीब पूरा हो गया है लेकिन सिंचाई के लिए खेतों तक पानी के लिए जो जल नेटवर्क विकसित किया जाना था, उसका काफी काम अब भी बचा हुआ है। इस वजह से भी मुख्य नहर से पानी गांवों तक नहीं पहुंच पा रहा है।

नर्मदा नदी गुजरात की जीवनरेखा है। अनुमान है कि प्रदेश की 6.5 करोड़ आबादी में से 4.5 करोड़ लोग नर्मदा के पानी पर आश्रित हैं। ऐसे में अगर नर्मदा का प्रवाह बाधित होता है और यह सूखने की ओर बढ़ती है तो इससे गुजरात को काफी नुकसान उठाना पड़ेगा। न सिर्फ सिंचाई के पानी का संकट पैदा होगा बल्कि जिन इलाकों में पेयजल की स्थिति सुधरी है, उन इलाकों में फिर से पीने के पानी का संकट पैदा हो सकता है। ऐसे में प्रदेश की एक बड़ी आबादी के सामने कई तरह की मुश्किलें पैदा हो जाएंगी।

असल सवाल यही है कि नर्मदा नदी की सेहत सुधारने के साथ नर्मदा परियोजना की समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार क्या करती है। क्योंकि अगर जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो यह जानबूझकर मुश्किलों को दावत देने सरीखा होगा।