मध्य प्रदेश का नया पुलिस कानून सुप्रीम कोर्ट की जांच के दायरे में, DNT समुदायों के खिलाफ भेदभाव का आरोप!

 

मध्य प्रदेश सरकार द्वारा लागू किए गए नए पुलिस एवं कारागार कानून के कुछ प्रावधानों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में गंभीर सवाल उठे हैं. याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि यह कानून विमुक्त घुमंतू एवं विमुक्त जनजातियों (Denotified Tribes – DNT) के खिलाफ भेदभावपूर्ण है और औपनिवेशिक दौर की ‘जन्मजात अपराधी’ सोच को दोबारा जीवित करता है.

यह मामला मध्य प्रदेश सुधरात्मक सेवाएं एवं बंदीगृह अधिनियम, 2024 से जुड़ा है, जो 1 जनवरी 2025 से लागू हुआ है. इस अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट में पहले से चल रहे जेलों में जाति-आधारित भेदभाव से जुड़े एक मामले में अंतरिम आवेदन के माध्यम से चुनौती दी गई है.

याचिका में कहा गया है कि नया कानून ‘आदतन अपराधी’ की परिभाषा को अस्पष्ट और व्यापक बनाता है, जिससे डीएनटी समुदायों को मनमाने ढंग से इस श्रेणी में डाला जा सकता है. आदतन अपराधियों को अन्य उच्च-जोखिम कैदियों के साथ रखने की व्यवस्था करता है, जो व्यक्तिगत आकलन के बजाय सामाजिक पहचान पर आधारित है. ऐसे कैदियों के लिए पैरोल और फर्लो जैसी सुविधाओं को सीमित करता है. पुलिस को बिना पर्याप्त सुरक्षा उपायों के आपराधिक रिकॉर्ड तक पहुंच देता है, जिससे निगरानी और उत्पीड़न का खतरा बढ़ता है.

याचिका के अनुसार, ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव निषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन करते हैं.

डीएनटी वे समुदाय हैं जिन्हें ब्रिटिश शासन के दौरान क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के तहत अपराधी घोषित किया गया था. स्वतंत्रता के बाद इन्हें विमुक्त किया गया, लेकिन सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर इनके खिलाफ भेदभाव आज भी जारी रहने के आरोप लगते रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में मध्य प्रदेश सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है. साथ ही, केंद्र सरकार से यह भी पूछा गया है कि क्या अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भी इस तरह के प्रावधान मौजूद हैं. कोर्ट ने इस व्यापक मुद्दे पर अध्ययन और रिपोर्ट के लिए एमिकस क्यूरी की नियुक्ति भी की है, ताकि देशभर की कारागार नीतियों में मौजूद जातिगत भेदभाव की समीक्षा की जा सके.

यह मामला सिर्फ एक राज्य के कानून तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सवाल उठाता है कि क्या आज भी आपराधिक कानूनों के जरिए कुछ समुदायों को सामूहिक रूप से संदिग्ध माना जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला भविष्य में पुलिस सुधार, कारागार व्यवस्था और सामाजिक न्याय से जुड़े कानूनों की दिशा तय कर सकता है.