क्रिसमस से पहले हिंसा और हमले: क्या ईसाई भारत के लोग नहीं हैं?
बड़ा दिन आने वाला है. बाज़ारों में रौनक़ लगने लगी है. रंग बिरंगे बिजली वाले दियों की जगमगाहट इशारा करती है कि क्रिसमस क़रीब है. सफ़ेद किनारीवाली लाल रंग की टोपियां पहने बच्चे, जवान और बूढ़े सड़कों पर फिरते दिखलाई देने लगे हैं. दुकानों पर ‘हैप्पी क्रिसमस’ के बोर्ड बिजली से चमक रहे हैं.
इस तरह हमें मालूम होता है कि बड़ा दिन या क्रिसमस क़रीब है. लेकिन आज मालूम हुआ कि क्रिसमस की बधाई का तरीक़ा आज के हिंदुस्तान में कुछ और है. छत्तीसगढ़ में 24 दिसंबर को, यानी क्रिसमस की पूर्व संध्या पर ईसाइयों के ख़िलाफ़ बंद का आह्वान किया गया है.
मुझे कनाडा की एक सिख मित्र ने बातचीत ख़त्म होते वक्त कहा, आप सबको क्रिसमस मुबारक हो. यह त्योहार का मौसम है. सब कुछ कितना ख़ुशगवार है! मैंने उन्हें जवाब दिया, अब कोई पर्व त्योहार क़रीब आता है तो दिल कांपने लगता है. क्रिसमस क़रीब है, यह ईसाई नहीं बताते, हिंदू बतलाते हैं. इसका पता हमें लगता है जब गिरिजाघरों पर हमलों की खबरें आने लगती हैं. ईसाइयों के घरों में घुसकर आपस में ख़ुशी मनाते ईसाइयों के साथ मारपीट की जाती है. उनकी प्रार्थना सभाओं को भंग किया जाता है.
पिछले सालों में यह सब कुछ नियमित हो गया है. यों तो साल भर ईसाइयों पर अलग-अलग तरह से हिंसा भी भारत में अब आम बात हो गई है. उसके लिए क्रिसमस का इंतज़ार नहीं किया जाता. इस साल कोई 100 ईसाई बिना किसी अपराध के भारत के अलग-अलग राज्यों में जेल में अपना क्रिसमस बिताएंगे. इस बीतते हुए 2025 में नवंबर तक 700 से अधिक ऐसे मामले दर्ज किए हैं जिसमें ईसाइयों पर हिंसा की गई है. यह मात्र संख्या है और यह उस हिंसा और क्रूरता का कोई अहसास नहीं कराती जो इनमें से हरेक ईसाई के साथ हिंदुत्ववादी गुंडों ने की है. ज़्यादातर मामलों में पुलिस गुंडों का साथ देती है.
इस एक घटना को देखिए: जबलपुर के एक चर्च में भारतीय जनता पार्टी की एक नेता एक नेत्रहीन महिला पर हमला कर रही है और उसे धमकी दे रही है. मौक़ा है क्रिसमस के जश्न के सिलसिले में नेत्रहीन बच्चों की दावत का. यह नेता अंजू भार्गव आरोप लगाती है कि इन सबका जबरन धर्मांतरण करवाया जा रहा है. पुलिसकर्मी जिस नरमी से इस पूरी हिंसा में अपना बीच में रखे हुए है, वह देखने लायक़ है. वह महिला हमला करके आराम से निकल जाती है. दावत में शामिल बच्चे बतलाते हैं कि धर्मांतरण के लिए कुछ भी कहा नहीं गया, उन्हें सिर्फ़ क्रिसमस पर भोज दिया गया था. लेकिन भाजपा को यह बर्दाश्त नहीं है.
जबलपुर में ही एक दूसरी जगह कुछ गुंडे एक चर्च में जय श्रीराम का नारा लगाते हुए घुस जाते हैं और वहां प्रार्थना को भंग कर देते हैं. वे भी आरोप लगाते हैं कि वहां धर्मांतरण किया जा रहा था.
दिल्ली के लाजपत नगर में सड़क पर सांता की टोपी पहने औरतों और बच्चों के साथ बजरंग दल के गुंडे बदतमीज़ी करते देखे जाते हैं. वे इल्ज़ाम लगाते हैं कि ये सब धर्म परिवर्तन के लिए सड़क पर चक्कर लगा रही हैं. वीडियो में आप देख सकते हैं कि इस हमले से वे औरतें किस कदर घबरा गई हैं. एक दूसरे वीडियो में तिलक लगाए हुए एक गुंडा चर्च के भीतर घुसकर धमकी दे रहा है. ज़्यादातर मामलों में पुलिस मूक दर्शक की तरह खड़ी दिखती है.
हरिद्वार में हिंदू संगठन आदेश जारी करते हैं कि होटल और दुकानें क्रिसमस की ख़ुशी मनाने वाले कोई कार्यक्रम नहीं कर सकते. एक होटल ने घोषित कार्यक्रम रद्द किया और कहा कि उस दिन गंगा आरती की जाएगी.
केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग स्कूलों पर दबाव डाल रहे हैं कि वे क्रिसमस के कार्ययक्रम रद्द करें. कई स्कूलों ने ऐसा किया भी है. सरकार इसकी जांच कर रही है. केरल में ही डाक विभाग के कर्मचारियों के बीच हर साल की तरह ही इस साल जब क्रिसमस के कार्यक्रम की घोषणा हुई तो आरएसएस के लोगों ने दबाव डाला कि इसमें गणेश वंदना भी की जाए. कार्यक्रम रद्द हो गया.
ओडिशा से मित्रों ने खबर भेजी कि सड़क पर सांता की ड्रेस बेचने वालों को धमकाया जा रहा है. देखा जा सकता है कि वे अपना सामान बांध रहे हैं. ज़ोमैटो जैसी कंपनियों में सामान लेकर आने वाले क्रिसमस के आसपास सांता की पोशाक पहनकर सामान लाते हैं. उन्हें धमकी दी जा रही है.
विश्व हिंदू परिषद ने बाक़ायदा बयान जारी करके हिंदुओं को कहा है कि वे किसी भी तरह क्रिसमस न मनाएं. उसके मुताबिक़ यह हिंदुओं को सांस्कृतिक रूप से जाग्रत करने के लिए किया जा रहा है. दुकानों और दूसरे प्रतिष्ठानों को भी क्रिसमस के ख़िलाफ़ जगाया जा रहा है.
यह सब कुछ धर्मांतरण के विरोध के नाम पर किया जा रहा है जिसका कोई प्रमाण नहीं है. दूसरे भारत के संविधान के अनुसार धर्म प्रचार और धर्म परिवर्तन कोई अपराध नहीं है. लेकिन अब कई राज्यों ने ऐसे क़ानून बना दिए हैं जिनके मुताबिक़ प्रलोभन देकर या जबरन धर्मांतरण को अपराध घोषित किया गया है.
इन क़ानूनों की आड़ में राह चलते किसी भी ईसाई पर हमला किया जा सकता है, किसी भी ईसाई के घर में घुसकर वहां हो रहे किसी भी घरेलू कार्यक्रम में भी मारपीट की जा सकती है और उसे रोका जा सकता है. सामूहिक प्रार्थनाओं पर हमला तो अब सामान्य बात हो गई है.
विडंबना यह है कि ऐसे मामलों में हिंसा के शिकार ईसाइयों को ही गिरफ़्तार किया जाता है और उन पर मुक़दमा दायर किया जाता है.
क्रिसमस ख़ास मौक़ा है जब ईसाइयों पर हिंसा की घटनाओं की संख्या तेज़ी से बढ़ती है. लेकिन जैसा पहले कहा, यह हिंसा साल भर चलती रहती है.
अभी पिछले महीने खबर मिली कि कर्नाटक में एक आंगनवाड़ी की कर्मचारी, निवेदिता के घर में क़रीब 20 लोग घुस आगे और उसे डराया धमकाया. यह सिलसिला आंगनवाड़ी में भी चलता रहा. किसी तरह उसने उनके ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज करवाई. लेकिन तुरत बाद पुलिस ने निवेदिता और अन्य 4 लोगों के ख़िलाफ़ एफआईआर दाखिल कर दी. गुंडे उन्हें जान से मारने की धमकी दे रहे है और उन सबको घर छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा है.
वैसे तो सारे राज्यों में ईसाइयों के ख़िलाफ़ रोज़ाना किसी न किसी तरह की हिंसा की खबर आती रहती है लेकिन छत्तीसगढ़ ईसाइयों के ख़िलाफ़ हिंसा का केंद्र बन गया है. अभी कुछ दिन पहले कांकेर में एक ईसाई आदिवासी का घर जला दिया गया, चर्चों में आग लगा दी गई. कारण यह था कि यह आदिवासी अपने मृत पिता को दफ़नाना चाहता था और गांव के लोग अड़े हुए थे कि वह अपने ही पिता के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो सकता क्यों उसने ईसाई धर्म अपना लिया है. उसने अपने खेत में पिता के शव को दफ़नाया.
गांववालों ने कहा कि यह ज़मीन गांव के देवता की है और उस पर हमला कर दिया. प्रशासन ने शव को कब्र से निकलवा लिया और बिना बेटे की इजाज़त के उसे ज़ब्त कर लिया.
यह सब कुछ इसलिए हो रहा है कि भारत की राजकीय संस्थाओं को, जिनमें अदालतें भी शामिल है, धर्मांतरण को लेकर एक गांठ है. वे मन में कहीं मानते हैं कि यह ग़लत है और इससे हिंदुओं की संख्या घट जाती है. भले ही वे यह न कहते हों, लेकिन ऐसे मामलों में उनका रुख़ यही रहता है. शायद ज़्यादातर पुलिस अधिकारी और प्रशासनिक अधिकारी भी ईसाइयों को पूरा भारतीय नहीं मानते.
इस साल की शुरुआत में कांकेर जैसा ही एक प्रसंग छिंदवाड़ा में घटित हुआ. एक पादरी की मौत हुई. उसके बेटे ने गांव के क़ब्रिस्तान में जब उसे दफ़्न करना चाहा तो गांववालों ने विरोध किया. उसे अपने खेत ने भी उसे दफ़नाने नहीं दिया गया. मामला सर्वोच्च न्यायालय के दो सदस्यों वाली पीठ तक पहुंचा. उनमें से एक ने तो बेटे के अधिकार के पक्ष में मत दिया लेकिन दूसरे ने कहा कि सार्वजनिक शांति -व्यवस्था अधिक महत्त्वपूर्ण है. आख़िरकार वरिष्ठ न्यायाधीश ने भी समझौता कर लिया और पादरी के शव को कहीं और दफ़नाने का आदेश दिया.
साल की शुरुआत एक ईसाई को अपने गांव में मिट्टी न मिलने से हुई थी और साल का अंत भी एक दूसरे ईसाई के शव को अपने गांव के बेदख़ल करने से हो रहा है.
भारत की कुल जनसंख्या के मात्र 2.3% ईसाई हैं. पिछले कई दशकों से भारत की आबादी में उनका हिस्सा लगभग यही रहा है. फिर धर्मांतरण से ईसाइयों की जनसंख्या में विस्फोटक बढ़ोत्तरी का ख़तरा क्यों सबको वास्तविक जान पड़ता है?
सच यह है कि ईसाइयों की वृद्धि दर पिछली जनगणना के मुताबिक़ 22% से घटकर 15% रह गई थी. फिर भी ईसाई हिंदुओं के लिए ख़तरा बने हुए हैं!
ईसाइयों के ख़िलाफ़ अभियान पिछले सालों में तेज़ होता चला जा रहा है. ईसाइयों ने स्कूल बनाए, हस्पताल बनाए, कुष्ठ रोगियों के इलाज के लिए अलग इंतज़ाम किया. उनके स्कूलों से निकलने वाले लाखों हिंदू बच्चे आज चुप क्यों हैं? और हम और आप चुप क्यों हैं? अदालतें ख़ामोश क्यों हैं? राजनीतिक दल क्यों चुप हैं? क्या ईसाई भारत के लोग नहीं? क्या वे इंसान नहीं?
साभार: पो.अपूर्वानंद
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