नए लेबर कोड्स: ‘सुधार’ के नाम पर श्रमिक अधिकारों का दमन और कॉरपोरेट हितों को वैधता!

 

भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत चार नए लेबर कोड्स को बड़े उत्साह और गर्व के साथ ऐतिहासिक सुधार बताया जा रहा है. इन्हें आधुनिक भारत की सामरिक नींव के रूप में स्थापित करने की कोशिश हो रही है. लेकिन जब इन कोड्स की चमकदार बाहरी परत हटाकर गहराई से विश्लेषण किया जाए, तो यह साफ दिखाई देता है कि ये वास्तव में श्रमिक अधिकारों के दमन और कॉरपोरेट एकाधिकार की स्थापना की नीति को औपचारिक वैधता प्रदान करते हैं.

‘सुधार’ और ‘सरलीकरण’ के नाम पर एक ऐसा तंत्र खड़ा किया गया है, जो दशकों पुराने श्रमिक संघर्षों और उनकी सुरक्षा के अधिकारों को ताक में रखकर पूंजीपतियों की सुविधाओं को प्राथमिकता देता है. इसको समझने के लिए, सबसे पहले काम के समय और नौकरी की स्थिरता के संदर्भ में इन कोड्स में किए गए बदलावों पर गौर करना आवश्यक है.

कार्य-अवधि छंटनी संबंधी नियम 

सबसे पहले, काम के घंटों को लेकर ‘लचीलापन’ का वह भ्रम जो इन कोड्स में पेश किया गया है, वास्तव में श्रमिकों की पीड़ा को बढ़ाने वाला है. 12 घंटे की कार्य-अवधि को वैधता देना वस्तुतः उन्हें औद्योगिक क्रांति के पुराने युग में वापस ले जाने जैसा है, जहां श्रमिक मानव नहीं, बल्कि उत्पादन मशीन था. इस बदलाव का प्रभाव यह होगा कि मजदूरों की शारीरिक और मानसिक थकान इतनी बढ़ेगी कि उनकी कार्यक्षमता गिरने के साथ-साथ स्वास्थ्य संबंधी बीमारियां भी बढ़ने लगेंगी.

पर इस बदलाव को कहीं भी श्रमिक हितों के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि पूरा फायदा उद्योगपतियों को ‘उत्पादन बढ़ाने’ के लिए हुआ माना गया है. लचीलेपन का यह मतलब है कि मालिक कभी भी ज्यादा काम का भार डाल सकता है, जबकि मजदूरों की सहमति और भलाई को नजरअंदाज किया जा सकता है.

हालांकि कार्य-अवधि की यह समस्या गंभीर है, लेकिन नए श्रम कोड्स का सबसे भयावह पहलू ‘छंटनी’ के नियमों में किया गया बदलाव है. पहले जहां एक उद्योग में 100 से ज्यादा कर्मचारियों को बिना सरकार की अनुमति के निकालना संभव नहीं था, वहीं अब इस संख्या को बढ़ाकर 300 कर दिया गया है. इसका मतलब यह है कि भारत में लगभग 80 प्रतिशत औद्योगिक इकाइयों में मालिकों को बिना किसी कानूनी बाधा के मनमानी करने और कर्मचारियों को नौकरी से बाहर निकालने का अधिकार मिल गया है.

इस एक बदलाव से ‘हायर एंड फायर’ की निरंकुश नीति को प्रबल वैधता मिली है. स्थायी नौकरियां अब इतिहास बनती जा रही हैं, और उनकी जगह अस्थायी अनुबंध आधारित रोजगार ने ले ली है, जहां मजदूर अनिश्चितता और आर्थिक असुरक्षा के दायरे में आते हैं.

इस व्यवस्था का गहरा असर श्रमिकों की आत्मसम्मान और संघर्ष क्षमता पर पड़ता है.

जब किसी मजदूर को यह ज्ञात हो कि कभी भी बिना किसी कारण या नोटिस के नौकरी से निकाला जा सकता है, तो वह न केवल हक मांगने के लिए डरेगा, बल्कि शोषण के खिलाफ आवाज भी उठाने में हिचकिचाएगा. यह ‘छंटनी का डर’ एक ऐसी तलवार बन जाती है जो हमेशा उसके सिर पर लटकती रहती है, जिससे मजदूर हर परिस्थिति में मालिक के सामने अधीनस्थ हो जाता है.

इसके साथ ही, नई श्रम नीतियां ट्रेड यूनियनों और हड़ताल के अधिकार को भी ऐसी जटिल और कठोर शर्तों में बांधती हैं कि श्रमिक संगठनों का लोकतांत्रिक विरोध करना लगभग असंभव हो गया है. यूनियन की कमजोरी और छंटनी के भय का यह संयोजन श्रमिकों को पूरी तरह असहाय और निहत्था कर देता है.

गिग वर्कर्स अधिकारों से वंचित

इसी कड़वे सच को और गहरा करने वाला दूसरा पहलू है गिग-इकोनॉमी और प्लेटफॉर्म-आधारित रोजगार का वैधानिक रूप से अधिकारों से वंचित रह जाना.

लाखों गिग श्रमिकों को ‘पार्टनर’ या ‘स्वतंत्र ठेकेदार’ जैसे भ्रामक टैग के पीछे छुपा दिया गया है, जिससे उनके पारंपरिक श्रमिक अधिकार जैसे वेतन सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, बोनस, छुट्टियां, और हड़ताल का अधिकार को पूरी तरह से छीन लिया गया है.

इन श्रमिकों का रोजगार डिजिटल प्लेटफॉर्म पर निर्भर है, जहां ‘फेसलेस असेसमेंट’ की तकनीक का इस्तेमाल करके उनके काम का मूल्यांकन बिना किसी इंसान के हस्तक्षेप के किया जाता है.

इसका नतीजा यह हुआ है कि जमीनी निरीक्षण, पारदर्शिता और न्याय के रास्ते बंद हो गए हैं. मजदूरों का शोषण डिजिटल पर्दे के पीछे छिप गया है, जिसे उजागर करना और सुधार की मांग करना अत्यंत कठिन है. इन सारे संशोधनों को सरकार ने ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस’ की रणनीति के तहत पेश किया है, जिसका अर्थ वास्तव में ‘ईज़ ऑफ एक्सप्लॉयटेशन’ यानी शोषण की सुगमता बन गया है.

सरकारी नीतियां यह स्पष्ट कर रही हैं कि कंपनियों का मुनाफा और व्यापार की स्वतंत्रता श्रमिकों के आजीविका और अधिकारों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मानी जा रही है. इससे उत्पन्न स्थिति में न तो श्रमिकों की नौकरी सुरक्षित रहती है, न उनका समुचित संरक्षण हो पाता है, बल्कि वे बेरोजगारी और असुरक्षा के गहरे दलदल में धकेल दिए जाते हैं.

श्रमिकों के हिट पर भारी कॉरपोरेट हित

श्रम सुधारों का यह स्वरूप कारोबार के ऐसे माहौल का निर्माण कर रहा है जहां कॉरपोरेट हित सर्वोपरि हैं, और श्रमिकों की जायज मांगों को दमन और उपेक्षा के माध्यम से अनदेखा किया जाता है. श्रम बाजार को पूरी तरह असंतुलित कर, वह लाभ निजीकरण की ओर चला गया है, जबकि सामाजिक और आर्थिक जोखिमों की सारी जिम्मेदारी श्रमिकों के ऊपर डाल दी गई है. इससे देश में सामाजिक असमानताएं गहरी होंगी, श्रमिक वर्ग कमजोर होगा और उनका जीवन यापन अत्यंत कठिन हो जाएगा.

इस प्रक्रिया में जो ‘सुधार’ दिखाए गए हैं, वे वास्तव में मजदूर वर्ग के खिलाफ लगे मूर्खतापूर्ण षड्यंत्र के समान हैं. यदि भारत को एक समता मूलक और न्यायसंगत समाज बनाना है, तो श्रम सुधारों की इस घोर दुर्भावनापूर्ण दिशा को तुरंत बदला जाना चाहिए. श्रमिकों को उनके बुनियादी अधिकार, स्थायी रोजगार, उचित कार्य-समय, सामाजिक सुरक्षा और विरोध जताने के लोकतांत्रिक अधिकार वापस दिए जाने चाहिए.

सरकार को चाहिए कि वह मजदूरों से जुड़ी नीति निर्माण में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करे, और कॉरपोरेट्स के हितों और श्रमिकों के कल्याण के बीच संतुलन बनाए. यही असली राष्ट्रीय प्रगति और सामाजिक न्याय की नींव होगी.

इस कड़वे सच को देखते हुए, यह कहना गलत नहीं कि इन श्रम कोड्स ने श्रमिक वर्ग को नए युग के औद्योगिक गुलाम की स्थिति में ला दिया है, जहां उनकी मानवता और सम्मान को एक कागजी दस्तावेज के जरिए खत्म कर दिया गया है. लिए गए सुधार वास्तव में मजदूर-विरोधी और पूंजी समर्थक पैंतरे हैं, जो भारत के विकास के सपनों को धोखा देने वाले हैं. इसका सामना करने के लिए संगठित संघर्ष, जागरूकता, और ठोस राजनीतिक इच्छाशक्ति की सख्त जरूरत है ताकि यह व्यवस्था पुनः श्रमिकों के अधिकारों और गरिमा की रक्षा कर सके, न कि उन्हें मिटा दे.

By: कुमारी अनामिका

साभार: द वायर