चालू खरीफ में चावल का क्षेत्रफल पिछले साल से 35.46 लाख हैक्टेयर कम, कुल खरीफ रकबा 18.26 लाख हैक्टेयर कम

एक सप्ताह के अंतराल के बाद सरकार ने आखिरकार चालू खरीफ सीजन में चावल के बुआई रकबे के आंकड़े जारी कर दिये हैं। कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा 29 जुलाई की शाम को जारी आंकड़ों के मुताबिक चालू खरीफ सीजन में चावल का क्षेत्रफल पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 35.46 लाख हैक्टेयर कम बना हुआ है। क्षेत्रफल में कमी वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और तेलंगाना शामिल है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में बारिश का स्तर सामान्य से 40 से 50 फीसदी तक कम बना हुआ है। जुलाई माह के लगभग समाप्त होने तक क्षेत्रफल में यह गिरावट चावल उत्पादन में गिरावट का कारण बनेगी यह बात अब लगभग तय होती जा रही है। अगर क्षेत्रफल में सुधार होता भी है और अगले कुछ दिनों में यह पिछले साल के बराबर हो भी जाता है तो भी उत्पादकता में कमी उत्पादन में गिरावट का कारक बन सकती है क्योंकि धान की समय पर रोपाई नहीं होने का मतलब है प्रति हैक्टेयर उत्पादकता का गिरना।

सरकार ने पिछले सप्ताह 22 जुलाई को आधिकारिक रूप से खरीफ सीजन में चावल के क्षेत्रफल के प्रोग्रेसिव आंकड़े जारी नहीं किये थे। हालांकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की वेबसाइट पर दालों और तिहलन के आंकड़े उपलब्ध थे। इसके चलते चावल के मामले में हर स्तर पर 15 जुलाई , 2022 के आंकड़ों को ही आधार माना जा रहा था। उम्मीद है भारतीय रिजर्व बैंक की मॉनेटरी पॉलिसी कमेटी अब महंगाई के आकलन लिए ताजा आंकड़ों पर गौर कर सकेगी।

कृषि मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 29 जुलाई तक देश में चावल का कुल क्षेत्रफल 231.59 लाख हैक्टेयर तक पहुंचा है। जो पिछले साल इसी समय तक 267.05 लाख हैक्टेयर था। यानी इस साल चावल का रकबा पिछले साल के मुकाबले 35.46 लाख हैक्टेयर कम बना हुआ है।

चालू खरीफ सीजन की फसलों का कुल रकबा 29 जुलाई को पिछले साल के मुकाबले 18.26 लाख हैक्टेयर कम बना हुआ है। यह अभी तक 823.40 लाख हैक्टेयर पर पहुंचा है जो पिछले साल इसी अवधि में 841.66 लाख हैक्टेयर रहा था।

चावल के रकबे में 10.62 लाख हैक्टेयर की गिरावट के साथ पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर है। जबकि उत्तर प्रदेश में चावल का रकबा पिछले साल के मुकाबले 6.68 लाख हैक्टेयर कम बना हआ है। बिहार में 5.61 लाख हैक्येटर कम है , झारखंड में 4.72 लाख हैक्टेयर कम है जबकि छत्तीसगढ़ में 2.73 लाख हैक्टेयर कम है और तेलंगाना में 4.06 लाख हैक्टेयर कम है। वहीं उड़ीसा में चावल का क्षेत्रफल पिछले साल से 2.60 लाख हैक्टेयर कम है। इनके अलावा 10 अन्य राज्यों में यह पिछले साल से कम है लेकिन यह कमी बहुत अधिक नहीं है।

हालांकि दालों का कुल रकबा पिछले साल से अधिक है। यह 106.18 लाख हैक्टेयर है और पिछले साल के इसी अवधि के 103.23 लाख हैक्टेयर के मुकाबले 2.95 लाख हैक्टेयर अधिक है। लेकिन दालों में अरहर का रकबा 5.64 लाख हैक्टेयर कम है। यह अभी तक 36.11 लाख हैक्टेयर पर पहुंचा है जो पिछले साल इसी समय तक 41.75 लाख हैक्टेयर पर था। उड़द दाल का रकबा 28.01 लाख हैक्टेयर पर जो पिछले साल के इसी अवधि के क्षेत्रफल 27.94 लाख हैक्टेयर के काफी करीब है। मूंग का रकबा पिछले साल के मुकाबले 3.96 लाख हैक्टेयर अधिक है। यह 29.26 लाख हैक्टेयर है जो पिछले साल इसी समय तक 25.29 लाख हैक्टेयर रहा था। अन्य दालों का रकबा पिछले साल से 4.63 लाख हैक्टेयर अधिक है। दालों में सबसे अधिक बढ़ोतरी राजस्थान में मूंग का रकबा करीब 10 लाख हैक्टेयर बढ़ने की वजह से अधिक है। जबकि महाराष्ट्र, कर्नाटक में दाल का रकबा पिछले साल से कम है। खरीफ तिलहनों का रकबा 164.34 लाख हैक्टेयर है जो पिछले से इसी समय के रकबे 163.03 लाख हैक्टेयर से 1.31 लाख हैक्टेयर अधिक है। मूंगफली का रकबा 37.41 लाख हैक्टेयर के साथ पिछले साल से 3.92 लाख हैक्टेयर कम है। जबकि सोयाबीन, सुरजमुखी, तिल और कैस्टर का रकबा पिछले से अधिक है।

8 साल में 22 करोड़ ने मांगी सरकारी नौकरी, मिली केवल 7 लाख 22 हजार को!

हर साल दो करोड़ युवाओं को नौकरी दने के वादे के साथ 2014 में केंद्र की सत्ता में आई सरकार ने बुधवार को संसद में जो आंकड़े पेश किए हैं, वे मोदी द्वारा 2014 में किए वादों की पोल खोल रहे हैं. हैरान करने वाली बात है कि सरकार इन आठ सालों में औसतन हर साल एक लाख युवाओं को भी पक्की नौकरी नहीं दे सकी है. लोकसभा में सरकार की ओर से पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक मई 2014 में प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता संभालने से लेकर अब तक अलग-अलग सरकारी विभागों में केवल 7 लाख 22 हजार 311 आवेदकों को सरकारी नौकरी दी गई है.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सबसे कम नौकरी 2018-19 में केवल 38,100 लोगों को नौकरी मिली, जबकि उसी साल सबसे ज्यादा यानी 5,करोड़ 9 लाख 36 हजार 479 लोगों ने नौकरी के लिए आवेदन किया था. वहीं साल 2019-20 में सबसे ज्यादा यानी 1 लाख 47 हजार 96 युवा सरकारी नौकरी पाने में कामयाब हुए. हर साल दो करोड़ नौकरी देेने का वादा करने वाली सरकार केवल एक फीसदी यानी हर साल दो लाख नौकरियां देने में भी नाकामयाब रही है.

वहीं इन पिछले आठ साल में सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करने वालों की संख्या बताती है कि देश में बेरोजगारी का स्तर बहुत ज्यादा है. इस दौरान कुल 22 करोड़ 6 लाख लोगों ने आवेदन किया था. सरकार की और से यह जानकारी भी दी गई है कि हर साल कितने लोगों ने आवेदन किये हैं.

पिछले महीने ही प्रधानमंत्री दफ्तर ने अगले डेढ़ साल में 10 लाख नौकरियां देने का दावा किया है. पीएमओ इंडिया ने ट्वीट करते हुए सभी मंत्रालयों में अगले डेढ़ साल के भीतर 10 लाख लोगों की भर्ती करने के निर्देश दिए थे.

वहीं बेरोजगारी के मुद्दे पर मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए राहुल गांधी ने कहा

वहीं CMIE यानी सेंटर फॉर इकनॉमिक डाटा एंड एनालिसिस की एक रिपोर्ट के अनुसार 2020 में भारत की बेरोजगारी दर 7 फीसदी को पार कर 7.11 फीसदी हो गई थी. मुंबई स्थित सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के आंकड़ों के मुताबिक तब से देश में बेरोजगारी दर 7 प्रतिशत से ऊपर ही बनी हुई है. वहीं रिपोर्ट के अनुसार बेरोजदारी के मामले में पूरे देश में हरियाणा पहले स्थान पर है.

5 साल में केंद्र सरकार ने मीडिया को विज्ञापन के लिए दिये 3 हजार 305 करोड़!

भारत सरकार ने पांच सालों, यानी 2017 से 2022 के बीच प्रिंट मीडिया को 1736 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 1569 करोड़ रुपए के विज्ञापन दिए हैं. यानी इस दौरान भारत सरकार द्वारा कुल 3305 करोड़ रुपए विज्ञापनों पर खर्च किए गए. यह जानकारी राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के लिखित जवाब में सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने दी है.

वहीं वित्त वर्ष 2022-23 में 12 जुलाई तक प्रिंट मीडिया को 19.26 करोड़ तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 13.6 करोड़ रुपए के विज्ञापन दिए जा चुके हैं.

28 जुलाई को राज्यसभा में कांग्रेस के सांसद जी सी चंद्रशेखर ने सवाल पूछा कि सरकार द्वारा वर्ष 2017 से आज तक, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक विज्ञापनों पर व्यय का वर्षवार और मंत्रालय वार आंकड़ा क्या है?

सरकार की ओर से इसका जवाब केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने दिया. उनके जवाब के मुताबिक 2017 से 2022 के बीच प्रिंट मीडिया पर 1736 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर 1569 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च हुए. वहीं वित्त वर्ष 2022-23 में 12 जुलाई तक प्रिंट को 19.26 करोड़ तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 13.6 करोड़ के विज्ञापन दिए गए हैं. ये सभी विज्ञापन केंद्रीय संचार ब्यूरो (सीबीसी) के माध्यम से दिए गए.

इस खर्च को अगर वर्षवार देखें तो 2017-18 में प्रिंट मीडिया को 636.36 करोड़ तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 468.92 करोड़, 2018-19 में प्रिंट मीडिया को 429.55 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 514.28 करोड़, 2019-20 में प्रिंट मीडिया को 295.05 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 317.11 करोड़, 2020-21 में प्रिंट को 197.49 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक को 167.86 करोड़ तथा 2021-22 में प्रिंट को 179.04 करोड़ रुपए और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 101.24 करोड़ रुपए विज्ञापनों के लिए दिए गए.

वहीं वित्त वर्ष 2022-23 में 12 जुलाई तक, प्रिंट मीडिया के विज्ञापनों पर 19.26 करोड़ रुपए और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विज्ञापनों पर 13.6 करोड़ रुपए सरकार के द्वारा खर्च किए गए.

अनुराग ठाकुर ने मंत्रालय वार खर्च के आंकड़े भी दिए हैं. 2017 से 12 जुलाई 2022 तक के आंकड़ों के मुताबिक 615.07 करोड़ रुपए के साथ विज्ञापनों पर सबसे ज्यादा खर्च वित्त मंत्रालय द्वारा किया गया. इस मामले में दूसरे नंबर पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय है. जिसने इस अवधि में 506 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च किए. तीसरे नंबर पर स्वास्थ्य मंत्रालय रहा, जिसकी ओर से 411 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च किए गए.

वहीं रक्षा मंत्रालय ने 244 करोड़, महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने 195 करोड़, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने लगभग 176 करोड़ और कृषि मंत्रालय ने 66.36 करोड़ रुपए विज्ञापनों पर खर्च किए. रोजगार एवं श्रम मंत्रालय ने भी लगभग 42 करोड़ खर्च किए. हालांकि इसी दौरान कोरोना के कारण लाखों की संख्या में मज़दूरों का पलायन भी हुआ था.

जी सी चंद्रशेखर ने सरकार द्वारा विदेशी मीडिया में विज्ञापन पर किए गए खर्च की जानकारी भी मांगी. इसके जवाब में अनुराग ठाकुर ने बताया कि भारत सरकार के किसी विभाग या मंत्रालय द्वारा, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के माध्यम से विदेशी मीडिया में विज्ञापन पर कोई व्यय नहीं किया गया है.

साभार- न्यूजलॉंड्री

आंधी-बारिश में यूपी के केला किसानों को भारी नुकसान, मुआवजा न मिलने से बढ़ी परेशानी!

पिछले 3 दिनों में मौसम के बदले मिजाज से उत्तर प्रदेश में गर्मी से झुलसते रोगों को राहत तो मिली, लेकिन केला और आम समेत कई फसलें उगाने वाले किसानों का भारी नुकसान हो गया। आंधी और बारिश के चलते प्रदेश कई जिलों में केले के पेड़़ टूट गए, घार टूट कर नीचे गिर गईं।

मौसम विभाग के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 23 से 24 मई तारीख की सुबह तक करीब सामान्य के 0.5 मिलीमीटर बारिश के मुकाबले 12.2 मिलीमीटर बारिश हुई जो सामान्य से 2324 फीसदी ज्यादा थी।

बाराबंकी जिले के सूरतगंज ब्लॉक दौलतपुर गांव के प्रगतिशील किसान अमरेंद्र सिंह के पास करीब 8 एकड केला है। सोमवार 23 मई 2022 को दिन में आई आंधी और बारिश में उनकी फसल को भारी नुकसान हुआ है। उनकी फसल अगले दो महीने में तैयार होने वाली थी, कुछ पौधों घार (फल) आ गए थे तो कुछ में आने वाले थे।

अमरेंद्र सिंह बताते हैं, “आंधी-तूफान में करीब 1500 पेड़़ पूरी तरह टूट गए हैं। केले की फसल को तेज हवा से काफी नुकसान होता है। हम लोग पेड़ बांधकर रखते हैं लेकिन आंधी में नुकसान हो ही जाता है।” 

अमरेंद्र सिंह के पड़ोसी जिले बहराइच में रविवार (22 मई) की रात को भी भीषण आंधी आई थी। बहराइच जिले के किसान विष्णु प्रताप मिश्रा के पास करीब 3 एकड़ केला था, जिसमें करीब 3 लाख रुपए की लागत लग चुकी थी, फसल भी 2 महीने में तैयार होने वाली थी, लेकिन 22 मई की रात आई आंधी में उनका करीब 1 एकड़ खेत बर्बाद हो गया।

बहराइच जिले के फकरपुर ब्लॉक में भिलोरा बासु गांव के रहने वाले विष्णु प्रताप के बेटे अमरेंद्र मिश्रा डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “आंधी रात को आई थी सुबह देखा तो कम से कम 3-4 बीघे (5 बीघा-1एकड) में पेड़़ पूरी तरह टूट कर गिर चुके थे।”

यूपी में उद्यान विभाग में बागवानी विभाग में उपनिदेशक वीरेंद्र सिंह बताते हैं, “यूपी में बाराबंकी, अयोध्या, गोंडा, बहराइच, सीतापुर, देवरिया, लखनऊ, लखीमपुरखीरी, कौशांबी,  फतेहपुर, प्रयागराज, गोरखपुर और कुशीनगर में केले की बडे़ पैमाने पर नुकसान हुआ है। रविवार को आए तूफान से पूर्वांचल में ज्यादा नुकासन हुआ, जिसमें गोंडा बहराइच भी शामिल हैं जबकि सोमवार को आईं आधी में ज्यादा नुकसान की खबर आ रही है।” सीतापुर में एक हफ्ते में तीसरी बार आंधी आई है।

भारत दुनिया का सबसे ज्यादा केला उत्पादन करने वाला देश है। विश्व के कुल केला उत्पादन में भारत की करीब 25.88 फीसदी हिस्सेदारी है। देश में सबसे ज्यादा केला आंध्र प्रदेश में होता है, 72-73 हजार हेक्टेयर के रकबे के सात उत्तर प्रदेश पांचवें नंबर पर आता है।

यूपी में साल 2020-21 में 73.8 हजार हेक्टेयर में केले की खेती हुई थी। करीब 12-13 महीने की फसल केले को नगदी फसल माना जाता है। केला ऐसा फल है जो पूरे साल बिकता है। केले की एक एकड़ खेती में एक से डेढ़ लाख की औसत लागत आती है, अगर उत्पादन सही हुआ और भाव मिला तो डेढ़ से 2 लाख रुपए प्रति एकड़ तक का मुनाफा हो जाता है। लेकिन आंधी और जलभराव होने पर पेड़ गिर जाने का खतरा रहता है। समस्या ये भी है कि केले समेत कई बागवानी फसलों का बीमा कई जिलों में होता है तो कई जगह इसका फायदा किसानों को नहीं मिलता है।

बाराबंकी के किसान अमरेंद्र सिंह बताते हैं, “साल 2019 में हमारे यहां आए आंधी-तूफान से किसानों का बहुत नुकसान हुआ था, जिसके बाद हम लोगों ने दौड़भाग करके अपने ब्लॉक को बीमा एरिया में शामिल कराया था, इसके बाद हमने 2020 में बीमा कराया तब कोई नुकसान नहीं हुआ तो 2021 में कराया नहीं, क्योंकि प्रति एकड़ करीब 7 हजार रुपए का प्रीमियम देना होता है।

 वहीं बहराइच के अमरेंद्र मिश्रा के मुताबिक उनके यहां केले का बीमा कोई करता नहीं है। उन्होंने कहा, “हमारे यहां कच्ची फसलें (केला आदि) का बीमा कोई करता नहीं है। पिता जी ने किसान क्रेडिट कार्ड पर लोन लिया था तो धान-गेहूं का बीमा हुआ था।” वो आगे जोड़ते हैं कि हमारे यहां जब हुदहुद तूफान आया था तो बहुत नुकसान हुआ था, उस समय सर्वे हुआ था, लेकिन कोई मुआवजा नहीं मिला।”

डाउन टू अर्थ ने इस संबंध में यूपी में कार्यरत बीमा कंपनियों के अधिकारियों से भी बात की। बहराइच में कार्यरत बीमा कंपनी  एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ़ इंडिया (एलटीडी) के जिला संयोजक मुकेश मिश्रा ने बताया कि जिले में केले का बीमा किया जाता है। हमारे हर ब्लॉक में मौसम मापी यंत्र लगे हैं, उसमें हवा, पानी या प्राकृतिक आपदाएं होती है, उसकी रिपोर्ट के आधार पर क्लेम दिया जाता है। इसमें न आवेदन किया जाता है, न सर्वे होता है।”

मुकेश ने आगे बताया, “इन फसलों का बीमा पुर्नगठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना के अंतर्गत होता है, जो हर जिले में फसल के अनुसार अलग-अलग हो सकती है। जैसे बहराइच में केला है, तो कहीं आम, तो कहीं पान भी दायरे में आता है। जबकि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत धान-गेहूं जैसी फसलें आती हैं।

मुकेश के मुताबिक अगर कोई किसान एक हेक्टेयर में केला लगाने के लिए लोन (केसीसी) लेता है उसमें स्केल ऑफ फाइनेंस के आधार पर 5 फीसदी तक प्रीमियम देना होता है। यानि अगर एक लाख रुपए का खर्च आया तो 5 हजार प्रीमियम देना होगा और अगर 100 फीसदी नुकसान हुआ तो पूरा पैसा दिया जाएगा।

वहीं सीतापुर और लखीमपुर जिलों में कार्यरत कंपनी यूनिवर्सन सोम्पो जनरल इंश्योरेंस प्रा. लिमिटेड के जिला कॉर्डिनेडर आशीष अवस्थी के मुताबिक उनके जिलों में भी आंधी बारिश से केले की फसल को नुकसान हुआ है। पिछले साल भी किसानों को नुकसान हुआ था, जिसका मुआवजा दिया गया था। इससाल भी बीमित किसानों को क्लेम दिया जाएगा।

आशीष बताते हैं, “फसल बीमा कंपनियों के हर ब्लॉक में 2-2 वेदर स्टेशन लगे हैं, जिनमें लगे 5 सेंसर के आधार पर क्लेम तय होते हैं। अगर 100 मिलीमीटर बारिश होने चाहिए और 200-300 मिलीमीटर हुई है तो कंपनी बीमा देगी। पिछले साल (2020) में हुए नुकसान के लिए हमारी कंपनी ने लखीमपुर के 55 किसानों को 72 लाख और सीतापुर के 35 किसानों को 45 लाख रुपए का बीमा हाल ही में दिया है। इस आंधी और बारिश जो नुकसान हुआ है उसका भी रिपोर्ट के मुताबिक क्लेम दिया जाएगा।

सीतापुर में बडे़ पैमाने पर केले की खेती होती है लेकिन यहां पर गिनती के किसानों ने बीमा कराया है। आशीष कहते हैं, “सीतापुर में सिर्फ 71 किसानों ने इस साल बीमा कराया है। हम जिला उद्यान अधिकारी से बात कर रहे हैं कि कैसे किसानों को इस दायरे में लाया जाए। क्योंकि मौसम लगातार प्रतिकूल हो रहा है। कहीं ज्यादा गर्मी कहीं तेज आंधी तो कहीं सूखा पडा रहा है। ऐसे में किसानों के लिए बीमा जरुरी है।”

साभार- डाउन-टू-अर्थ

पंजाब में Scholarship का भुगतान नहीं होने पर 2 लाख एससी छात्रों ने कॉलेज की पढ़ाई बीच में छोड़ी

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) ने बुधवार को कहा कि पंजाब सरकार द्वारा एक छात्रवृत्ति योजना (Scholarship Scheme) के तहत करीब 2,000 करोड़ रुपये के बकाये का भुगतान नहीं करने के चलते अनुसूचित जाति (SC) कैटेगरी के करीब दो लाख छात्रों ने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने मैट्रिक बाद दी जाने वाली छात्रवृत्ति योजना में कथित अनियमितता की व्यापक जांच के पिछले हफ्ते आदेश दिए थे। यह कथित अनियमितता राज्य में पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के दौरान सामने आई थी।

पंजाब सरकार ने नहीं जमा की छात्रों की फीस

एनसीएससी के अध्यक्ष विजय सांपला ने पत्रकारों को बताया कि आयोग ने राज्य सरकार से इस बात पर स्पष्टीकरण मांगा है कि केंद्र द्वारा बकाये का भुगतान किए जाने के बावजूद कॉलेजों को पैसे का भुगतान क्यों नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, “हमने मामले का स्वत: संज्ञान लिया है। इस तरह की कई शिकायतें हैं कि एससी समुदाय के छात्रों को कॉलेज में प्रवेश नहीं दिया जा रहा है, क्योंकि सरकार ने उनका शुल्क जमा नहीं किया है।” सांपला ने कहा, “करीब तीन लाख छात्र 2017 में योजना से लाभांवित हुए थे और यह संख्या 2020 में घटकर एक लाख से लेकर सवा लाख के बीच रह गई। हमने जब राज्य सरकार से पूछा तो उसने बताया कि इन छात्रों ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी है।”

पंजाब सरकार से अगले बुधवार तक स्पष्टीकरण देने को कहा

सांपला ने बताया कि सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय और पंजाब सरकार के अधिकारियों के बीच सोमवार को इस विषय पर बैठक हुई थी। उन्होंने कहा, “बैठक में यह बात सामने आई कि केंद्र सरकार पर कुछ भी बकाया नहीं है जबकि राज्य सरकार को इन कॉलेजों को 2 हजार करोड़ रुपये का बकाया अदा करना है। जो रकम बकाया है, वह कहां गई?” सांपला ने बताया कि पंजाब सरकार से अगले बुधवार तक स्पष्टीकरण देने को कहा गया है।

2020-21 में भी सरकार ने नहीं किया भुगतान

आपको बता दें कि इससे पहले 2020-21 में भी सरकार ने छात्रों को स्पष्ट निर्देशों के अभाव में पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति राशि का कुछ हिस्सा छात्रों के खाते में वितरित किया था और छात्र उस राशि का भुगतान कॉलेजों को नहीं कर रहे थे। इतना ही नहीं 90 करोड़ पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप की भरपाई नहीं की गई थी जो विभिन्न तकनीकी पाठ्यक्रमों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए थी।

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

अधिक तापमान के कारण मक्का किसानों को झेलना पड़ा भारी नुकसान

इस साल अचानक तापमान बढ़ने से फसलों को काफी नुकसान हो रहा है। इस साल बढ़ते तापमान से गेहूं की उपज में 15 से 20 फीसदी के गिरावट  दर्ज की गई थी। अब  पूर्वांचल के  किसानों के सामने  अधिक तापमान के चलते एक और समस्या आ गई है। मार्चऔर अप्रैल में बोई जाने वाली  मक्का की जायद फसल में बालियों में  दाने नहीं बनने के मामले सामने आये हैं।  पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों का कहना है कि मक्का की  फसल में बालियां  तो बन गई लेकिन इन बालियों  में दाने नही बने हैं  इससे  उनको भारी नुकसान हुआ है।

किसानों के मुताबिक सरसों, मटर और चना इत्यादि फसलों की कटाई करके जायद वाली मक्का की बुवाई मार्च – अप्रैल में करते है और हर साल अच्छी फसल होती है। लेकिन इस  फसल अच्छी हुई बालियां भी बनी  लेकिन बालियों में दाने नहीं पड़े है। गांव पराना पट्टी जिला वाराणसी के किसान फौजदार यादव ने रूरल वॉयस को बताया कि उन्होंने 15 से 20 अप्रैल के बीच में ढाई एकड़ में  भुट्टे वाले मक्के की बुवाई की थी। उनकी मक्के की फसल का  बढ़वार भी अच्छा हुआ और पौधे में बालियां भी लगी । लेकिन  मक्के की  बालियों में दाने नहीं बने है। जिससे उनको काफी नुकसान हुआ है । उन्होंने बताया  कि हम हर साल मक्के फसल बोते थे ।हमारी फसल बहुत अच्छी होती थी। लेकिन इस साल बीज का भी दाम नहीं निकल पाया है।

इस संबध में संबध में रूरल वॉयस ने रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के फसल विज्ञान के कृषि वैज्ञानिक और  प्रसार निदेशक डॉ. एस. एस. सिहं के साथ बातचीत की तो उन्होंने बताया कि जायद मक्के की फसल के परागण के वक्त तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहता है तो कोई ज्यादा दिक्कत नहीं  होती है।  अगर इससे ऊपर तापमान चला जाता है तो परागण में  दिक्कत हो जाती है । लेकिन  इस साल  जिस एरिया में मक्के के परागण के वक्त  तापमान 40  या उससे अधिक  था। उस एरिया में  मक्के की फसल के  परागकण झुलस गये औऱ नष्ट हो गये । इस काऱण से मक्के फसल में परागण नहीं  हो पाया है औऱ मक्के की बालियों मे  दाने नहीं बन पाएं  है।

ग्राम मनोलेपुर जिला वाराणसी के राममनोहर सिंह ने रूरल वॉयस को बताया की वह हर साल अप्रैल में भुट्टे  वाली  मक्के की खेती करते  हैं और अच्छी पैदावार मिलती है। लेकिन इस साल दो एकड़ में मक्के की फसल लगाई थी। लेकिन अधिक तापमान के कारण  मक्के बालियों में दाने नहीं बने जिससे उन्हें काफी नुकसान हो गया । उन्होंने आगे  बताया कि इस साल आम बाग में  फलत  कम आने से पहले से काफी नुकसान में थेऔर अब मक्के की खेती से और अधिक आर्थिक नुकसान हो गया है।

गांव पांडे चौरा जिला आजमगढ़  के किसान राम बचन राय ने कहा कि उनके पास सिंचाई की सुविधा थी। इस साल हमने चना की कटाई कर जायद वाले मक्के बुवाई मार्च में करके ज्यादा लाभ कमाना चाहा औऱ  हमारी फसल भी अच्छी थी। हर पौधे में तीन से चार बालियां लगी थी, लेकिन  बालियों में दाने नहीं पड़े । उन्होंने बताया कि हमारे एरिया के बहुत से किसानों के मक्के के फसल में दाने नहीं बने हैं।इससे किसानों का बहुत ही नुकसान हुआ है।

इस संबध में संबध में रूरल वॉयस ने रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के फसल विज्ञान के कृषि वैज्ञानिक और  प्रसार निदेशक डॉ. एस. एस. सिहं के साथ बातचीत की तो उन्होंने बताया कि किसी भी फसल की अच्छी या खराब पैदावार में मौसम के तापक्रम का बड़ा योगदान होता है।  उन्होंने बताया कि मक्का का फूल निकलने के समय और ग्रेन सेटिंग के वक्त एक निश्चित तापमान का रहना जरूरी है, क्योंकि मक्का में दाने  बनने के लिए परागण होना जरूरी है। लेकिन इस साल अचानक तापमान में बढ़ोतरी हो गई। इससे मक्का में परागण की क्रिया बाधित हुई और बालियों  में दाने  नहीं बन पाए ।

डॉ एस. एस. सिंह ने कहा कि  किसी भी फसल के अंकुरण , बढ़वार, और परागण और दाना सेट होने के लिए एक निश्चित तापमान होता है और  उस निश्चित तापमान पर ही  बीज अंकुरित होते हैं, बढ़वार करते हैं , परागण होता है औऱ बालियों में दाने सेट होते है। इसमे भी  परागण और दाना सेट होने की अवस्था  तापमान के प्रति बेहद संवेदनशील होती है ।अगर इस अवस्था पर तामपान में अंतर आता है तो फसल में परागण नहीं  होता है और दाने नहीं बनते हैं । इससे फसल की उपज में गिरावट होती है।

(रूरल वॉइस से साभार)

संयुक्त किसान मोर्चा ने MSP पर गठित सरकार की कमेटी में शामिल होने से किया इनकार!

संयुक्त किसान मोर्चा ने सरकार की एमएसपी व अन्य मुद्दों पर बनी कमेटी को खारिज कर दिया है. संयुक्त किसान मोर्चा ने कमेटी में कोई प्रतिनिधि नामांकित नहीं करने का फैसला लिया है. संयुक्त किसान मोर्चा ने एक प्रेस नोट जारी करते हुए भारत सरकार द्वारा एमएसपी समेत अन्य मुद्दों पर बनाई गई समिति को सिरे से खारिज करते हुए कमेटी में कोई भी प्रतिनिधि न भेजने का फैसला लिया है.

पढ़िये, संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा जारी प्रेस नोट.

इस कमेटी के बारे में मोर्चे की सभी आशंकाएं सच निकली; ऐसी किसान-विरोधी कमेटी से मोर्चे का कोई संबंध नहीं हो सकता. संयुक्त किसान मोर्चा ने भारत सरकार द्वारा एमएसपी व अन्य कई मुद्दों पर बनाई गई समिति को सिरे से खारिज करते हुए इसमें कोई भी प्रतिनिधि नामांकित न करने का फैसला लिया है. प्रधानमंत्री द्वारा 19 नवंबर को तीन काले कानून रद्द करने की घोषणा के साथ जब इस समिति की घोषणा की गई थी, तभी से मोर्चा ने ऐसी किसी कमेटी के बारे में अपने संदेह सार्वजनिक किए हैं. मार्च के महीने में जब सरकार ने मोर्चे से इस समिति के लिए नाम मांगे थे तब भी मोर्चा ने सरकार से कमेटी के बारे में स्पष्टीकरण मांगा था, जिसका जवाब कभी नहीं दिया गया.

3 जुलाई को संयुक्त किसान मोर्चा की राष्ट्रीय बैठक ने सर्वसम्मति से फैसला किया था कि “जब तक सरकार इस समिति के अधिकार क्षेत्र और टर्म्स ऑफ रेफरेंस स्पष्ट नहीं करती तब तक इस कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि का नामांकन करने का औचित्य नहीं है.” जाहिर है ऐसी किसान-विरोधी और अर्थहीन कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि भेजने का कोई औचित्य नहीं है.

जब सरकार ने मोर्चा से इस समिति के लिए नाम मांगे थे तब उसके जवाब में 24 मार्च 2022 को कृषि सचिव को भेजी ईमेल में मोर्चा ने सरकार से पूछा था:
i) इस कमेटी के TOR (टर्म्स आफ रेफरेंस) क्या रहेंगे?
ii) इस कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा के अलावा किन और संगठनों, व्यक्तियों और पदाधिकारियों को शामिल किया जाएगा?
iii) कमेटी के अध्यक्ष कौन होंगे और इसकी कार्यप्रणाली क्या होगी?
iv) कमेटी को अपनी रिपोर्ट देने के लिए कितना समय मिलेगा?
v) क्या कमेटी की सिफारिश सरकार पर बाध्यकारी होगी?

एसकेएम की ओर से पूछे गए इन सवालों का सरकार ने इन सवालों का कोई जवाब नहीं दिया. लेकिन कृषि मंत्री लगातार बयानबाजी करते रहे कि संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधियों के नाम न मिलने की वजह से कमेटी का गठन रुका हुआ है.

SKM ने सरकार पर आरोप लगाया कि संसद अधिवेशन से पहले इस समिति की घोषणा कर सरकार ने कागजी कार्यवाही पूरी करने की चेष्टा की है. लेकिन नोटिफिकेशन से इस कमेटी के पीछे सरकार की बदनीयत और कमिटी की अप्रासंगिकता स्पष्ट हो जाती है:

कमेटी के अध्यक्ष पूर्व कृषि सचिव संजय अग्रवाल हैं जिन्होंने तीनों किसान विरोधी कानून बनाए. उनके साथ नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद भी हैं जो इन तीनों कानूनों के मुख्य पैरोकार रहे. विशेषज्ञ के नाते वे अर्थशास्त्री हैं जो एमएसपी को कानूनी दर्जा देने के विरुद्ध रहे हैं. कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा के 3 प्रतिनिधियों के लिए जगह छोड़ी गई है. लेकिन बाकी स्थानों में किसान नेताओं के नाम पर सरकार ने अपने 5 वफादार लोगों को रखा गया है जिन सबने खुलकर तीनों किसान विरोधी कानूनों की वकालत की थी.

यह सब लोग या तो सीधे भाजपा-आरएसएस से जुड़े हैं या उनकी नीति की हिमायत करते हैं. कृष्णा वीर चौधरी, भारतीय कृषक समाज से जुड़े हैं और भाजपा के नेता हैं. सैयद पाशा पटेल, महाराष्ट्र से भाजपा के एमएलसी रह चुके हैं. प्रमोद कुमार चौधरी, आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य हैं. गुणवंत पाटिल, शेतकरी संगठन से जुड़े, डब्ल्यूटीओ के हिमायती और भारतीय स्वतंत्र पक्ष पार्टी के जनरल सेक्रेटरी हैं. गुणी प्रकाश किसान आंदोलन का विरोध करने में अग्रणी रहे हैं. यह पांचों लोग तीनों किसान विरोधी कानूनों के पक्ष में खुलकर बोले थे और अधिकांश किसान आंदोलन के खिलाफ जहर उगलने का काम करते रहे हैं.

कमेटी के एजेंडा में एमएसपी पर कानून बनाने का जिक्र तक नहीं है. यानी कि यह प्रश्न कमेटी के सामने रखा ही नहीं जाएगा. एजेंडा में कुछ ऐसे आइटम डाले गए हैं जिन पर सरकार की कमेटी पहले से बनी हुई है. कृषि विपणन में सुधार के नाम पर एक ऐसा आइटम डाला गया है जिसके जरिए सरकार पिछले दरवाजे से तीन काले कानूनों को वापस लाने की कोशिश कर सकती है.

इन तथ्यों की रोशनी में संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा इस कमेटी में अपने प्रतिनिधि भेजने का कोई औचित्य नहीं रह जाता. किसानों को फसल का उचित दाम दिलाने के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी हासिल करने के वास्ते संयुक्त किसान मोर्चा का संघर्ष जारी रहेगा.

नूहं: अवैध खनन रोकने गए डीएसपी को डंपर से कुचला, मौके पर मौत!

नूंह जिले के ताबड़ू में खनन माफियाओं ने डीेएसपी सुरेंद्र सिंह पर डंपर चढ़ा दिया. डीएसपी सुरेंद्र सिंह अवैध खनन की सूचना मिलने के बाद ताबड़ू की पहाड़ी पर छापा मारने पहुंचे थे. पहाड़ी पर उन्हें पत्थर ले जाते वाहन मिले, जिसे उन्होंने रोकना शुरू कर दिया. इसी बीच माफियाओं ने डीेएसपी सुरेंद्र सिंह पर पत्थरों से भरा डंपर चढ़ा दिया और उन्की मौके पर ही मौत हो गई.

दरअसल तावड़ू पुलिस को पंचगांव की पहाड़ी में बड़े स्तर पर अवैध खनन की सूचना मिली थी. डीेएसपी सुरेंद्र सिंह अपनी टीम के साथ पहाड़ी पर अवैध खनन को रोकने के लिए पहुंचे थे जिसके बाद खनन माफियाओं ने डीएसपी पर डंपर चढ़ा कर उन्की हत्या कर दी.

मीडिया में छपी खबरों के अनुसार डीएसपी सुरेंद्र सिंह अपनी सरकारी गाड़ी के पास खड़े थे. डंपर की टक्कर से वह नीचे गिर गए और डंपर उनको रौंदता हुआ ऊपर से निकल गया और डीएसपी सुरेंद्र सिंह ने मौके पर ही दम तोड़ दिया. वारदात के बाद आरोपी मौके से फरार हो गए. घटना की जानकारी के बाद बड़ी संख्या में अफसर और पुलिस टीम मौके पर पहुंची और सर्च अभियान शुरू किया गया.

नूहं के तावड़ू क्षेत्र में अरावली की पहाड़ियों पर लंबे समय से बड़े स्तर पर अवैध खनन किया जा रहा है. प्रशासन ने इस पर रोक लगाने के लिए पिछले महीने ही उपमंडल स्तर पर एक स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया था. इसमें कई विभागों के अधिकारी शामिल किये गए थे. डीएसपी सुरेंद्र सिंह को भी तावड़ू क्षेत्र में स्थित अरावली की पहाड़ियों पर अवैध खनन रोकने की कमान दी गई थी.

वहीं इस घटना पर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने डीएसपी को शहीद का दर्जा देने और परिजनों को एक करोड़ की आर्थिक सहायता देने की बात कही.

मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने ट्वीट करते हुए लिखा, “DSP तावडू (नूंह) सुरेंद्र सिंह जी की हत्या के मामले में कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने के आदेश दे दिए गए हैं, एक भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा. शोकाकुल परिजनों के साथ मेरी गहरी संवेदनाएं हैं. ईश्वर दिवंगत आत्मा को अपने श्रीचरणों में स्थान दें.

डीएसपी सुरेंद्र सिंह हिसार जिले के आदमपुर क्षेत्र के गांव सारंगपुर के रहने वाले थे. 12 अप्रैल 1994 को हरियाणा पुलिस में ASI के पद पर भर्ती हुए सुरेंद्र सिंह की 31 अक्टूबर को सेवानिवृत्ति होनी थी.

पूर्व कृषि सचिव की अध्यक्षता में सरकार ने बनाई MSP कमेटी, SKM के शामिल होने की संभावना कम!

सरकार द्वारा जून, 2020 में लाये गये तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ चले किसान आंदोलन को समाप्त करने के लिए सरकार और संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के बीच सहमति के बिंदुओं में शामिल न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर समिति गठित करने के  मुद्दे पर कदम उठाये हुए सरकार ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अधिक प्रभावी बनाने के लिए समिति का गठन कर दिया है। पूर्व कृषि सचिव संजय अग्रवाल इस समिति के अध्यक्ष बनाए गए हैं। इसमें संयुक्त किसान मोर्चा के तीन प्रतिनिधि भी होंगे। हालांकि अभी उनके नाम तय नहीं हैं। इस बीच एसकेएम के सदस्यों ने संकेत दिये हैं कि मोर्चा इस समिति में शामिल नहीं होगा। विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ एक साल से अधिक समय तक चले आंदोलन के बाद पिछले साल नवंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कानूनों को वापस लेने की घोषणा की थी और तभी एमएसपी पर समिति बनाने की बात भी कही थी। इस तरह घोषणा के करीब 8 महीने बाद सरकार ने यह समिति बनाई है।

सरकार द्वारा सोमवार को समिति गठित करने संबंधी जारी गजट में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की 12 जुलाई,2022 की अधिसूचना को प्रकाशित किया गया है। इसके मुताबिक समिति में नीति आयोग के सदस्य (कृषि) रमेश चंद, कृषि अर्थशास्त्री सीएससी शेखर, आईआईएम अहमदाबाद के सुखपाल सिंह और कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के वरिष्ठ सदस्य नवीन पी सिंह शामिल किए गए हैं।

किसान प्रतिनिधि के तौर पर राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किसान भारत भूषण त्यागी को भी समिति में रखा गया है। अधिसूचना के मुताबिक संयुक्त किसान मोर्चा के 3 सदस्य समिति में होंगे जिनके नाम मोर्चा उपलब्ध कराएगा। अन्य किसान संगठनों के सदस्यों में गुणवंत पाटिल, कृष्णबीर चौधरी, प्रमोद कुमार चौधरी, गुनी प्रकाश और सैयद पाशा पटेल को इसमें रखा गया है। इनके अलावा सहकारी संगठन इफको के चेयरमैन दिलीप संघाणी और सीएनआरआई के महासचिव विनोद आनंद भी समिति का हिस्सा होंगे। कृषि विश्वविद्यालयों के वरिष्ठ सदस्य, केंद्र सरकार के पांच सचिव स्तर के अधिकारी और कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, सिक्किम तथा उड़ीसा के मुख्य सचिव को भी समिति में शामिल किया गया है।

अधिसूचना के मुताबिक यह समिति मौजूदा एमएसपी व्यवस्था को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के उपायों पर विचार करेगी। यह सीएसीपी को अधिक स्वायत्तता देने पर भी अपने सुझाव देगी। सीएसीपी ही हर साल फसलों के एमएसपी की सिफारिश करता है।

अधिसूचना के मुताबिक यह समिति कृषि मार्केटिंग व्यवस्था को मजबूत करने के उपायों पर गौर करेगी। इसका मकसद घरेलू और निर्यात बाजार में अधिक अवसर उपलब्ध कराकर किसानों को उनकी उपज की अधिक कीमत दिलाना है।

समिति प्राकृतिक खेती, फसल विविधीकरण और लघु सिंचाई योजना को बढ़ावा देने पर भी अपने सुझाव देगी। समिति यह भी बताएगी कि कृषि विज्ञान केंद्र और अन्य अनुसंधान एवं विकास संस्थानों को नॉलेज सेंटर के तौर पर कैसे विकसित किया जा सकता है।

सरकार के इस कदम पर संयुक्त किसान मोर्चा की कोर कमेटी के सदस्य और भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव युद्धवीर सिंह ने रूरल वॉयस को बताया कि मोर्चा ने जिस कमेटी के गठन की मांग की थी यह समिति उससे मेल नहीं खाती है। जिन अधिकारियों ने तीन कृषि कानूनों का समर्थन किया था या उनको लागू करने में भूमिका निभाई थी वह इसमें शामिल हैं। साथ ही हमारी मांग है कि सरकार पहले एमएसपी की कानूनी गारंटी दे और उसे लागू करने के लिए जरूरी कदम सुझाने के लिए कमेटी का गठन करे। लेकिन सरकार ने एमएसपी की कानूनी गारंटी की कोई बात नहीं की है और वह मौजूदा एमएसपी व्यवस्था को प्रभावी बनाने की बात कर रही है। साथ ही प्राकृतिक खेती, फसल विविधिकरण, कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) को प्रभावी बनाने से मुद्दे इसमें जोड़कर इसे एक बड़ा एजेंडा दे दिया गया है। इसलिए ऐसी कमेटी में जहां हमारे मुद्दों का विरोध करने वाले लोेगों का वर्चस्व है वहां संयुक्त मोर्चा और भारतीय किसान यूनियन के प्रतिनिधियों के शामिल होने के कोई मायने नहीं हैं। संयुक्त किसान मोर्चा की कमेटी के दूसरे सदस्य और स्वराज अभियान के सदस्य योगेंद्र यादव ने भी एक बयान जारी कर समिति को किसानों के साथ छलावा बताया है।

हालांकि यह मार्च के पहले ही तय हो गया था कि सरकार को जो समिति बनाएगी उसका दायरा बड़ा होगा। उस समय राज्यों की विधान सभा चुनावों के चलते इसे टाल दिया गया था। मार्च में भी रूरल वॉयस ने एक खबर प्रकाशित कर समिति के संभावित स्वरूप की जानकारी दी थी। किसान संगठनों की समिति के गठन पर रुख को देखते हुए लगता है कि बड़े किसान संगठन इस समिति से उसी तरह दूर रह सकते हैं जिस तरह उन्होंने किसान आंदोलन का हल निकालने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति से खुद को दूर रखा था।  

साभार- रूरल वॉयस

समझिये, रोजमर्रा की वस्तुओं पर लगे GST का खेल!

जीएसटी की नई दरें लागू हो गई हैं. पिछले महीने चंडीगढ़ में हुई GST काउंसिल की बैठक में जीएसटी दरें बढ़ाने और नईं वस्तुओं को जीएसटी के दायरे में लाने का फैसला लिया गया था जिसके चलते हर रोज प्रयोग में आने वाली वस्तुएं और खाद्य पदार्थ मंहगे हो गए हैं. खाद्य पदार्थों की बढ़ी हुई कीमतें लागू हो चुकी हैं. मंहगे होने वाले पदार्थों में दूध, दही, लस्सी, पनीर, आटा और चावल समेत कईं जरुरत की चीजें शामिल हैं. दरअसल ये खाद्य पदार्थ पहले जीएसटी के दायरे से बाहर थे लेकिन सरकार ने अब इन जरूरी चीजों पर भी पांच फीसदी जीएसटी यानि माल एवं सेवा कर लगा दिया है जिसका सीधा असर आम जनता की जेब पर पड़ने जा रहा है.

भारत के इतिहास में 18 जुलाई का दिन आम आदमी के उपयोग में आने वाले नॉन ब्रांडेड सामान जैसे आटा, चावल, दूध, दही, लस्सी जैसी वस्तुओं पर टैक्स लगाये जाने के लिए याद रखा जाएगा. आजादी के सात दशक बाद ऐसा पहली बार हुआ है, जब बिना ब्रांड वाले लोकल खाद्य पदार्थों पर भी GST वसूला जाएगा. दरअसल अब तक खाद्य पदार्थों में दो श्रेणियां थीं, एक ब्रांडेड और दूसरी नॉन ब्रांडेड. पैकेट बंद ब्रांडेड खाद्य वस्तुओं जैसे आटा, मैदा, सूजी, दाल, चावल, गेहूं आदि पर पांच फीसदी GST पहले से लागू था लेकिन सरकार ने अब इसमें बदलाव करते हुए नॉन ब्रांडेड प्रोडक्ट्स पर भी GST लगा दिया है.

ब्रांडेड प्रोडक्ट्स का मतलब है जिसपर उस प्रोडक्ट के नाम का लेबल लगा है और वह ट्रेडमार्क में रजिस्टर्ड हो, लेकिन अब नये नियमों के तहत रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क की अनिवार्यता को ही खत्म कर दिया गया है यानि अब अगर कोई खाद्य पदार्थ पैकिंग में है और उस पर किसी भी तरह की पहचान का लेबल है तो उस पर सीधे पांच फीसदी GST देना होगा. अभी तक केवल रजिस्टर्ड ब्रांड पर ही 5% GST लगता था लेकिन अब सब पर GST देना होगा. नये नियमों के अनुसार प्री-पैकेज्ड वह है जिसमें पैकेज सील्ड हो या अनसील्ड, दोनों ही प्री-पैकेज्ड माने जाएंगे बशर्ते वह सामान एक निर्धारित मात्रा में पैक किए गए हों.

GST अधिनियम के नये नियम के अनुसार रिटेल व होलसेल दोनों प्रकार के पैकेज पर लेबल लगाना अनिवार्य कर दिया गया है.यहां लेबल्ड का मतलब है किसी पैकेज पर लिखित, प्रिंटेड, ग्राफिक , स्टांप या मार्का लगा होना. अनब्रांडेड आइटम खुले में यानि बिना पैकिंग बेच रहे हैं तो अब उस पर भी GST देना होगा इसके अलावा कोई आइटम सिंपल पैकिंग में बिना किसी लेबल मार्का के बेचते हैं तो भी 5 फीसदी GST देना होग. वहीं पैकेट बनाकर उस पर लेबल लगाकर संस्था का नाम लिखकर बेच रहे हैं तो उसपर भी 5 फीसदी GST देना होगा.

जो लोग अनब्रांडेड सामान उपयोग में लाते हैं यानि जो लोग लोकल प्रोडक्ट ही खरीदते हैं जिसपर लोकल कारोबारियों का अपना मार्का लगा होता है अब यह सारा सामान लोगों को महंगा मिलेगा, क्योंकि अब लेबल या मार्का लगाने की वजह से यह सामान GST के दायरे में आ जायेगा. कुल मिलाकर कोई भी खाद्य पदार्थ जो किसी भी फूड प्रोसेसिंग यूनिट, फैक्ट्र या फ्लोर मिल में प्रोसेस होकर बाजार में आ रहा उस पर जीएसटी देना होगा.वहीं साथ ही खुले में बिकने वाले दूध, दही, लस्सी, पनीर, शहद, मक्खन सूखे दाल-दलहन, सूखी हल्दी  अन्य मसालों और गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा समेत सभी प्रकार के अनाज और आटा-चावल जैसे खाद्य पदार्थों पर भी 5 फीसदी GST लागू हो गया है.

वहीं प्रिंटिंग/राइटिंग या ड्रॉइंग इंक, एलईडी लाइट्स, एलईडी लैम्प पर 12 फीसद की जगह 18 फीसद जीएसटी देना होगा साथ ही मैप, एटलस और ग्लोब पर 12 फीसद जीएसटी लगा दिया गया है.

ब्लेड, चाकू, पेंसिल शार्पनर, चम्मच, कांटे वाले चम्मच, स्किमर्स आदि पर जीएसटी 12% से बढ़ाकर 18% कर दिया गया है.   

साथ ही होटल में रुकना और अस्पताल में ईलाज करवाना भी मंहगा हो गया है. अस्पताल में 5 हजार रुपए प्रतिदिन से अधिक का रूम पर 5% की दर से जीएसटी देना होगा. उदाहरण के तौर पर 5500 रुपये के रूम के लिए अब 5775 रुपये देने होंगे वहीं आईसीयू, आईसीसीयू रूम पर छूट जारी रहेगी. वहीं अब तक एक हजार से कम के होटल रूम पर GST नहीं लगता था, लेकिन अब एक हजार से कम किराये वाले रूम में रुकने के लिए भी 12% की दर से GST देना होगा.