जीडीपी ग्रोथ 6 साल में सबसे कम, एग्रीकल्चर ग्रोथ साल भर में हुई आधी   

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, जुलाई-सितंबर तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की ग्रोथ घटकर 4.5 फीसदी रह गई है जो पिछले छह वर्षों में सबसे कम है। पिछले साल इसी अवधि में जीडीपी ग्रोथ 7 फीसदी जबकि इससे पहली तिमाही में यह 5 फीसदी थी। जीडीपी ग्रोथ में गिरावट का सिलसिला पिछली 6 तिमाही से जारी है। डेढ़ साल पहले वित्त वर्ष 2017-18 की आखिरी तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 8.1 फीसदी थी जो अब 4.5 फीसदी रह गई है। इससे पहले इतनी कम जीडीपी ग्रोथ साल 2012-13 की आखिरी तिमाही में 4.3 फीसदी रही थी।

सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में कमी से अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों और उद्योगों की हालात को समझा जा सकता है। देश की आधी से ज्यादा आबादी की निर्भरता वाले कृषि क्षेत्र की ग्रोथ महज 2.1 फीसदी है जो पिछले साल की समान अवधि में 4.9 फीसदी थी। यानी एक साल में कृषि क्षेत्र की ग्रोथ घटकर आधी से भी कम रह गई है।

चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में भी कृषि क्षेत्र की ग्रोथ (जीवीए) 2 फीसदी थी। जबकि साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए कम से कम 10 फीसदी की ग्रोथ होनी चाहिए। लेकिन कृषि क्षेत्र की ग्रोथ बढ़ने के बजाय लगातार कम होती जा रही है। कुल मिलाकर ये आंकड़े गहराते कृषि संकट को बयान करते हैं।

इस समय सबसे बुरा हाल मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का है। मेक इन इंडिया के तमाम दावों के बावजूद जुलाई-सितंबर के दौरान मैन्युफैक्चरिंग की ग्रोथ -1.0 फीसदी रही जबकि पिछले साल इसी दौरान मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में 6.9 फीसदी की ग्रोथ दर्ज की गई थी। इसी तरह कंस्ट्रक्शन सेक्टर की ग्रोथ भी 8.5 फीसदी से घटकर 3.3 फीसदी रह गई है।

जीडीपी ग्रोथ में कमी का कारण कृषि, खनन और विनिर्माण जैसे अहम क्षेत्रों का फीका प्रदर्शन है। इस आर्थिक सुस्ती को उपभोक्ता मांग और निजी निवेश में कमी के अलावा वैश्विक सुस्ती से भी जोड़कर देखा जा रहा है। हाल के महीनों में केंद्र सरकार ने अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारने के लिए कॉरपोरेट टैक्स में कटौती जैसी कई राहतों और रियायतों को ऐलान किया है जिसका असर दिखना अभी बाकी है। आर्थिक चुनौतियों से उबरने के लिए मोदी सरकार कई सरकारी उपक्रमों का निजीकरण भी करने जा रही है।

देश की अर्थव्यवस्था को दोबारा 8-9 फीसदी की रफ्तार देना मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में निगेटिव ग्रोथ उपभोक्ता मांग में कमी की ओर इशारा कर रही है। इसका असर रोजगार के मौकों पर पड़ना तय है। इस आर्थिक चुनौती से उबरने के लिए सरकार को कुछ बड़े कदम उठाने पड़ेंगे, लेकिन सरकार पहले ही वित्तीय घाटे से जूझ रही है। नोटबंदी की मार और जीएसटी के भंवर में फंसी अर्थव्यवस्था कुछ बड़े उपायों का इंतजार कर रही है।

एमपी में यूरिया के लिए मारामारी, थाने से मिल रहे हैं टोकन

मध्य प्रदेश की जिस चंबल नदी के नाम पर देश की प्रमुख फर्टीलाइजर कंपनी का नाम पड़ा, उसी राज्य में यूरिया के लिए ऐसी मारामारी मची है कि किसानों को पुलिस थाने से टोकन बांटे जा रहे हैं। यूरिया के लिए पुलिस के डंडे खाते किसानों का एक वीडियो भी सामने आया है।

रबी की बुवाई के दौरान यूरिया की किल्लत ने किसानों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। एक-दो बोरी यूरिया के लिए भी किसानों को सुबह 4-5 बजे से लाइनों में खड़ा होना पड़ रहा है। इसके बावजूद मुश्किल से 2-4 बोरी यूरिया मिल पा रहा है। यह सब उस सरकार कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हो रहा है जो किसानों के मुद्दों पर सत्ता में आई है।

यूरिया की किल्लत के चलते हरदा, होशंगाबाद, रायसेन, विदिशा, गुना, सागर, नीमच समेत कई जिलों से कालाबाजारी की खबरें भी आने लगी हैं। कहीं 267 रुपये में मिलने वाली  यूरिया की बोरी 350-400 रुपये में मिल रही है तो कहीं किसानों को यूरिया के साथ 1,200 रुपये की डीएपी की बोरी लेने को मजबूर किया जा रहा है। राज्य सरकार और कृषि विभाग की ओर से पर्याप्त यूरिया होने के दावे तो जरूर किए जा रहे हैं मगर जमीन हालात अलग हैं।

इस यूरिया संकट के लिए मांग के अनुरुप आपूर्ति न होने को वजह माना जा रहा है। कई जिलों में अभी तक जरूरत के मुकाबले 50-60 फीसदी यूरिया ही पहुंचा है। जिसके चलते रबी की बुवाई में देरी हो रही है और बुवाई कर चुके किसानों को दुकानदारों से महंगा यूरिया खरीदना पड़ रहा है। इस साल अच्छी बारिश और गेहूं का रकबा बढ़ने की वजह से यूरिया की मांग बढ़ी है। इससे भी यूरिया की किल्लत बढ़ी है।

पिछले साल भी मध्य प्रदेश और राजस्थान में यूरिया को लेकर इसी तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा था। तब विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने तत्कालीन भाजपा सरकारों को इस मुद्दे पर खूब घेरा था। अब सरकारें बदल चुकी हैं लेकिन हालत नहीं बदले।

रबी बुवाई के दौरान यूरिया संकट को लेकर किसान संगठनों ने कमलनाथ सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। आम किसान यूनियन के समस्या का समाधान नहीं होने पर आंदोलन की चेतावनी दी है।

भाजपा का किसान मोर्चा राज्य सरकार को इस मुद्दे पर घेरने में जुटा है तो मध्य प्रदेश किसान कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष केदार सिरोही ने भी कृषि विभाग पर सवाल खड़े किए हैं। सिरोही का कहना है कि एमपी में यूरिया की किल्लत होती तो 400 रुपये में यूरिया कैसे मिल पा रहा है। यानी कृषि विभाग की नीयत और मैनेजमेंट ठीक नहीं है। विभाग को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। यूरिया की लाइनें खत्म होनी चाहिए।

इस यूरिया संकट के पीछे सरकार की बदइंतजामी के अलावा यूरिया की किल्लत के बहाने डीएपी बेचने की फर्टिलाइजर कंपनियों और डीलरों की कारगुजारी का भी बड़ा हाथ माना जा रहा है। पिछले एक सप्ताह में कालाबाजारी करने वाले कई खाद विक्रेताओं पर छापेमारी हुई है।

पक्षियों की कब्रगाह बनी सांभर झील, इलाज पशु चिकित्सकों के भरोसे!

राजस्थान की मशहूर सांभर झील में हजारों पक्षियों की मौत की वजह का अभी तक पता नहीं चला है। राजस्थान हाईकोई ने भी प्रवासी पक्षियों की मौत का संज्ञान लेते हुए वन और पर्यावरण विभाग से जवाब तलब किया है।

इस मामले ने देश-दुनिया के वन्यजीव प्रेमियों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है। राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी प्रवासी पक्षियों की मौत पर चिंता जताते हुए जांच के आदेश दिए हैं। मृत पक्षियों के नमूनों को जांच के लिए भोपाल के नेशनल इंस्‍टीट्यूट ऑफ हाई सिक्‍योरिटी एनिमल डिजीजेज (NHISAD) भेजा गया है, जिसकी रिपोर्ट का इंतजार है। कई दिन बीत जाने के बाद भी इस रहस्य से पर्दा नहीं उठ सका है।

राजस्थान के वन और पशुचिकित्सा विभाग के अधिकारी मामले को समझने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन मौके पर पहुंची जानी-मानी पर्यावरण पत्रकार बहार दत्ता ने वहां जो देखा, वह काफी हैरान करने वाला है। बहार दत्त ने ट्वीट किया कि सांभर झील में पक्षियों की मौत का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। वन्यजीव समूह कहां हैं? यहां विशेषज्ञ वन्यजीव चिकित्सकों और टॉक्सिकॉलजिस्ट की जरूरत है। जो डॉक्टर हैं वे मवेशियों का इलाज करते हैं। पर्यावरण से जुड़ी इतनी बड़ी घटना को लेकर यह स्थिति हैरान करने वाली है। स्थानीय लोग भी कई दिनों से पक्षियों की मौत के बावजूद वन विभाग के लापरवाह रवैया पर सवाल उठा रहे हैं।

बहार दत्त ने आगे ट्वीट किया है कि लोग दूर-दूर से पक्षियों को बचाने पहुंच रहे हैं। रेस्क्यू सेंटर में कई पक्षियों को इलाज़ देकर बचाया गया है। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के विशेषज्ञ भी पहुंच चुके हैं। लेकिन आसमान से बड़ी तादाद में मृत पक्षी कीड़े-मकोड़ों की तरह गिर रहे हैं।

शुरुआत में पक्षियों की मौत का आंकड़ा सैकड़ों में बताया जा रहा था। लेकिन अब तक चार हजार से ज्यादा पक्षियों को दफनाए जाने की जानकारी मिली है। इतना बड़ा मामला वन विभाग और पशुचिकित्सा विभाग के भरोसे होने का एक प्रमाण यह भी है बुधवार को ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और सलीम अली पक्षीविज्ञान केंद्र से विशेषज्ञों को बुलाने की बात कही थी। यानी राज्य में ऐसे विशेषज्ञों की कमी है।

खारेपन और जहरीले पानी का संदेह 

मुख्यमंत्री गहलोत का कहना है कि इस साल भारी बारिश के कारण सांभर झील के आसपास कई वाटर बॉडिज बन गई है जिससे खारेपन का स्तर बढ़ गया। गहलोत ने पक्षियों की मौत रोकने के लिए हरसंभाव कदम उठाने का दावा किया है। जांच कर पता चलाने की कोशिश की जा रही है कि क्या पक्षियों की मौत पानी में खारापन बढ़ने से हुई या पानी के जहरीले होने से। संदेह है कि फैक्ट्री का जहरीला कैमिकल झील में पहुंचने से यह सब हुआ। पानी के सैंपल भी टेस्ट कराए जा रहे हैं।

विशेषज्ञों की कमी बड़ा सवाल 

पक्षियों से जुड़े इस मामले में विशेषज्ञों की कमी बड़ा सवाल है। राजस्थान जैसा प्रदेश जहां कई नेशनल पार्क और वाइल्ड लाइफ सेंचुरी हैं, पक्षियों की मौत की जांच के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर है। पूरा मामला मवेशियों के इलाज के अनुभवी डॉक्टरों और वन विभाग के फील्ड स्टाफ के भरोसे है।

करीब 200 वर्ग किलोमीटर में फैली सांभर झील में हर साल साइबेरिया, नॉर्थ एशिया और हिमालय से लाखों की तादाद में प्रवासी पक्षी आते हैं। इस साल पक्षियों के आने का सिलसिला जल्द शुरू होने को भी इनकी मौतों से जोड़कर देखा जा रहा है।

बीमारियां फैलने का खतरा 

कम से कम 20-25 प्रजातियों के पक्षी मृत पाए गए हैं। इनमें नॉदर्न शावलर, पिनटेल, कॉनम टील, रूडी शेल डक, कॉमन कूट गेडवाल, रफ, ब्लैक हेडड गल, सेंड पाइपर, मार्श सेंड पाइपर, कॉमस सेंड पाइपर, वुड सेंड पाइपर पाइड ऐबोसिट, केंटिस प्लोवर, लिटिल रिंग्स प्लोवर, लेसर सेंड प्लोवर प्रजातियों के पक्षी शामिल हैं।

कभी पक्षियों के लिए जन्नत मानी जाने वाली सांभर झील इस साल उनकी कब्रगाह बन गई है। जो पक्षी झील के अंदर मरे पड़े हैं, उनसे बीमारियां फैलना का खतरा है। इन्हें पानी से कैसे बाहर निकाला जाएगा, यह भी बड़ा सवाल है।