MSP बढ़ाने से दूर होगा दाल संकट, आर्थिक सलाहकार की सिफारिश

नई दिल्ली। देश में दाल संकट दूर करने के लिए सरकार अब गंभीर प्रयास करने के मूड में दिख रही है। दालों का उत्‍पादन बढ़ाने के साथ-साथ किसानों को वाजिब कीमत दिलाने, खरीद, भंडारन आदि के लिए अब नए सिरे से तैयारी की जा रही है। इसके लिए केंद्र सरकार के चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर अरविंद सुब्रमण्यन की अगुआई में बनाई गई समिति ने ट्रेडर्स के लिए स्टॉक लिमिट खत्म करने, एक्सपोर्ट से बैन हटाने और चना-उड़द सहित कई दालों का एमएसपी बढ़ाने सहित कई सिफारिशें की हैं।

ताकि बनी रहे किसानों की रूचि

सुब्रमण्‍यन के अनुसार इस साल अच्‍छे प्रयास हुए तो किसानों ने दाल की ओर रुख किया और बहुत हद तक दाल की इस कमी को दूर किया जा सकता है। लेकिन, इसके लिए जरूरी है कि कुछ ऐसे प्रयास किए जाएं, जिनसे किसानों और ट्रेडर्स का मोह दोबारा से दाल से भंग न हो। उन्‍होंने दालों को एपीएमसी यानी एग्रीकल्‍चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी से बाहर करने की सिफारिश की। इससे लाभ होगा कि किसान सीधे अपनी फसल को बेच पाएंगे। बिचौलियों और ट्रेडर्स की मनमानी से उन्‍हें बचाया जा सकेगा। उन्‍होंने कहा कि देश में कम से कम 20 लाख टन भंडारण की क्षमता को विकसित करना चाहिए। हालांकि, कुछ दिन पहले सरकार ने भी दालों की बफर स्‍टॉक लिमिट को 20 लाख टन करने का निर्णय लिया है।

ये हैं मुख्‍य सिफारिशें

-दलहन बुआई पर किसानों को 10 से 15 रुपए प्रति किलोग्राम की सब्सिडी मिले।

-दालों के एक्‍सपोर्ट से बैन हटाया जाए।

-दालों की सप्‍लाई 8 फीसदी बढ़ाई जाए।

-दालों की खरीद-बिक्री की साप्‍ताहिक समीक्षा की जाए।

-एक्‍सपोर्ट पर बैन की बजाय टैक्‍स का प्रावधान होना चाहिए।

-उड़द का 2 लाख और तुअर का 3.5 लाख टन का बफर स्‍टॉक बनाया जाए।

-एमएसपी गणना एक बेहतर तरीका होना चाहिए।

-दालों का उत्‍पादन वृद्धि को 3 फीसदी से बढ़ाकर 8 फीसदी किया जाए।

6 हजार रुपए हो उड़द का एमएसपी

सीईए ने सिफारिश की है कि देश मे दालों की स्थिति के लिए एक प्रधान सचिवों की कमेटी बनाई जाए जो समय समय पर खरीद, बिक्री और इंपोर्ट एक्‍सपोर्ट का रिव्‍यू कर सके। उन्‍होंने कहा कि खरीफ 2017 में उड़द का एमएसपी कम से कम 6000 रुपए प्रति क्विंटल होना चाहिए। जोकि इस साल 425 रुपए बोनस के साथ 5000 रुपए प्रति क्विंटल है। इसके अलावा उन्‍होंने आने वाले रबी सीजन में चने का एमएसपी को 4000 रुपए प्रति क्विंटल करने की सिफारिश की है। पिछले साल चने का एमएसपी 75 रुपए प्रति क्विंटल के बोनस के साथ 3500 रुपए था। इसके साथ ही उन्‍होंने तुअर की एमएसपी को बढ़ाकर 7 हजार रुपए प्रति क्विंटल करने की सिफारिश भी की है।

पीपीपी मॉडल पर बने कंपनी

सुब्रमण्यन ने सरकारी खरीद, बिक्री, भंडारण आदि को भी मजबूत बनाने की सिफारिश की है। उन्‍होंने कहा कि फिलहाल नाफेड जैसी संस्‍थाएं दालों की खरीद कर रही हैं। निकट भविष्‍य में प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप यानी पीपीपी मॉडल पर एक कंपनी बननी चाहिए, जो सरकारी खरीद, बिक्री, एक्‍सपोर्ट-इंपोर्ट और वितरण सुनिश्चित करा सके। साथ ही उन्‍होंने अगले सीजन में दालों के एक्‍सपोर्ट बैन को भी हटाने की सिफारिश की है। सीईए का मानना है कि दालों के एक्‍सपोर्ट से देश में भी किसानों को और अच्‍छे दाम मिल सकेंगे।

MSP बढ़ाने से दूर होगा दाल संकट, आर्थिक सलाहकार की सिफारिश

देश में दाल संकट दूर करने के लिए सरकार अब गंभीर प्रयास करने के मूड में दिख रही है। दालों का उत्‍पादन बढ़ाने के साथ-साथ किसानों को वाजिब कीमत दिलाने, खरीद, भंडारन आदि के लिए अब नए सिरे से तैयारी की जा रही है

http://www.publicdomainpictures.net/pictures/190000/velka/pulses-particles-2.jpg
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नई दिल्ली। देश में दाल संकट दूर करने के लिए सरकार अब गंभीर प्रयास करने के मूड में दिख रही है। दालों का उत्‍पादन बढ़ाने के साथ-साथ किसानों को वाजिब कीमत दिलाने, खरीद, भंडारन आदि के लिए अब नए सिरे से तैयारी की जा रही है।  इसके लिए केंद्र सरकार के चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर अरविंद सुब्रमण्यन की अगुआई में बनाई गई समिति ने ट्रेडर्स के लिए स्टॉक लिमिट खत्म करने, एक्सपोर्ट से बैन हटाने और चना-उड़द सहित कई दालों का एमएसपी बढ़ाने सहित कई सिफारिशें की हैं।

ताकि बनी रहे किसानों की रूचि

सुब्रमण्‍यन के अनुसार इस साल अच्‍छे प्रयास हुए तो किसानों ने दाल की ओर रुख किया और बहुत हद तक दाल की इस कमी को दूर किया जा सकता है। लेकिन, इसके लिए जरूरी है कि कुछ ऐसे प्रयास किए जाएं, जिनसे किसानों और ट्रेडर्स का मोह दोबारा से दाल से भंग न हो। उन्‍होंने दालों को एपीएमसी यानी एग्रीकल्‍चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी से बाहर करने की सिफारिश की। इससे लाभ होगा कि किसान सीधे अपनी फसल को बेच पाएंगे। बिचौलियों और ट्रेडर्स की मनमानी से उन्‍हें बचाया जा सकेगा। उन्‍होंने कहा कि देश में कम से कम 20 लाख टन भंडारण की क्षमता को विकसित करना चाहिए। हालांकि, कुछ दिन पहले सरकार ने भी दालों की बफर स्‍टॉक लिमिट को 20 लाख टन करने का निर्णय लिया है।

ये हैं मुख्‍य सिफारिशें

-दलहन बुआई पर किसानों को 10 से 15 रुपए प्रति किलोग्राम की सब्सिडी मिले।

-दालों के एक्‍सपोर्ट से बैन हटाया जाए।

-दालों की सप्‍लाई 8 फीसदी बढ़ाई जाए।

-दालों की खरीद-बिक्री की साप्‍ताहिक समीक्षा की जाए।

-एक्‍सपोर्ट पर बैन की बजाय टैक्‍स का प्रावधान होना चाहिए।

-उड़द का 2 लाख और तुअर का 3.5 लाख टन का बफर स्‍टॉक बनाया जाए।

-एमएसपी गणना एक बेहतर तरीका होना चाहिए।

-दालों का उत्‍पादन वृद्धि को 3 फीसदी से बढ़ाकर 8 फीसदी किया जाए।

6 हजार रुपए हो उड़द का एमएसपी

सीईए ने सिफारिश की है कि देश मे दालों की स्थिति के लिए एक प्रधान सचिवों की कमेटी बनाई जाए जो समय समय पर खरीद, बिक्री और इंपोर्ट एक्‍सपोर्ट का रिव्‍यू कर सके। उन्‍होंने कहा कि खरीफ 2017 में उड़द का एमएसपी कम से कम 6000 रुपए प्रति क्विंटल होना चाहिए। जोकि इस साल 425 रुपए बोनस के साथ 5000 रुपए प्रति क्विंटल है।  इसके अलावा उन्‍होंने आने वाले रबी सीजन में चने का एमएसपी को 4000 रुपए प्रति क्विंटल करने की सिफारिश की है। पिछले साल चने का एमएसपी 75 रुपए प्रति क्विंटल के बोनस के साथ 3500 रुपए था। इसके साथ ही उन्‍होंने तुअर की एमएसपी को बढ़ाकर 7 हजार रुपए प्रति क्विंटल करने  की सिफारिश भी की है।

पीपीपी मॉडल पर बने कंपनी

सुब्रमण्यन ने सरकारी खरीद, बिक्री, भंडारण आदि  को भी मजबूत बनाने की सिफारिश की है। उन्‍होंने कहा कि फिलहाल नाफेड जैसी संस्‍थाएं दालों की खरीद कर रही हैं। निकट भविष्‍य में प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप यानी पीपीपी मॉडल पर एक कंपनी बननी चाहिए, जो सरकारी खरीद, बिक्री, एक्‍सपोर्ट-इंपोर्ट और वितरण  सुनिश्चित करा सके। साथ ही उन्‍होंने अगले सीजन में दालों के एक्‍सपोर्ट बैन को भी हटाने की सिफारिश की है। सीईए का मानना है कि दालों के एक्‍सपोर्ट से देश में भी किसानों को और अच्‍छे दाम मिल सकेंगे।

 

महाराष्ट्र के अकोला में चौथा राष्ट्रीय किसान एकता सम्मेलन

किसान एकता की भावी रणनीति पर विचार के लिए किसान संगठनों का चौथा राष्ट्रीय सम्मलेन महाराष्ट्र के अकोला में 12 और 13 सितम्बर को रहा है।

मौजूदा कृषि संकट के मद्देनज़र किसान एकता की भावी रणनीति पर विचार के लिए किसान संगठनों का चौथा राष्ट्रीय सम्मेलन महाराष्ट्र के अकोला जिले में 12 और 13 सितम्बर को रहा है। शेतकरी संगटना की मेजबानी में हो रहे इस सम्मलेन में देश भर के प्रमुख किसान और मछुवारा यूनियनों/संगठनों के 50 से ज्यादा नेता शामिल हो रहे हैं। उत्तर-पूर्व में मणिपुर से लेकर केरल में त्रिवेंद्रम तक और तमिलनाडु में कोयंबटूर से हिमाचल प्रदेश में शिमला से आये नेता ‘किसान एकता’ नाम से चलाये जा रहे एक राष्ट्रीय अभियान के तहत एकजुट हुए हैं।
विभिन्न किसान संगठनों और राजनीतिक दलों से जुड़े किसान नेताओं और गैर-सरकारी यूनियनों को एक मंच पर लाने का प्रयास जाने-माने कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा की पहल पर शुरू हुआ है। देविंदर शर्मा के साथ भारती किसान यूनियन, पंजाब के बलबीर सिंह राजेवाल और कर्नाटक राज्य रैयत संघा (केआरआरएस) के चंद्रशेखर कोडीहली ‘किसान एकता’ के समन्वयक हैं।

किसान आंदोलन के पुराने दौर को वापस लाने का प्रयास

देविंदर शर्मा बताते हैं कि ‘किसान एकता’ का बुनियादी विचार यह है की देश के 60 करोड़ किसान की आवाज़ को मजबूत करने के लिए किसान संगठनों के बीच आपसी समझ और एकता कायम होनी चाहिए। किसान आंदोलनों को 80 व 90 के दशक जैसी मजबूती देने के लिए इस तरह के प्रयास ज़रूरी हैं।

देविंदर शर्मा का कहना है कि आज तक राजनैतिक दलों ने सिर्फ दो मकसद से किसानों का इस्तेमाल किया है- वोट बैंक के तौर पर और लैंड बैंक के तौर पर। समय आ गया है जब किसान अपनी आवाज़ को इतनी मजबूती दे कि 2019 के चुनाव में किसान की अनदेखी ना हो सके।

सोमवार को अकोला के वेदनंदिनी फार्म में शुरू हुए किसान एकता सम्मेलन को संबोधित करते हुए किसान नेता और देशोन्नति समाचार-पत्र समूह के प्रधान संपादक प्रकाश पोहरे ने कहा कि देश के अलग-अलग हिस्सों में किसान अलग-अलग तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं। इन अलग-अलग आवाज़ों को एकजुट करने में किसान एकता अहम भूमिका निभा सकता है। इसी मुद्दे पर सम्मेलन के दौरान व्यापक चर्चा होगी।

शेतकरी संघटना के राष्ट्रीय समन्वयक विजय जावंधिया का कहना है कि जिस प्रकार 80 और 90 के दशक में किसान आन्दोलन ताकतवर बनकर उभरे वैसी ही ज़रूरत आज भी है। अपने अनुभवों से सीखते हुए किसान नेताओं को एकजुट होना पड़ेगा।

राष्ट्रीय किसान एकता सम्मेलन में आम किसान यूनियन, बुंदेलखंड किसान पंचायत, गुजरात खेडूत समाज, हिमाचल प्रदेश फल एवं सब्जी उत्पादक संघ, छत्तीसगढ़ कृषक बिरादरी, भारतीय किसान यूनियन (असली अराजनैतिक), किसान एकता मंच, धरतीपुत्र बचाओ संगठन जैसे कई संगठनों के नेता हिस्सा ले रहे हैं।

हमें जीएम सरसों की जरूरत ही क्‍या है?

जेनेटिक तौर पर संवर्धित (जीएम) सरसों को व्‍यवसायिक मंजूरी देने का मामला टालेे जाने के 13 साल बाद यह जिन्‍न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है। इस बार जीएम सरसों सरकारी भेष में व्‍यवसायिक खेती की मंंजूरी के लिए आई है। इस पर टैक्‍सपेयर का 70 करोड़ रुपया खर्च हुआ है, जिस पैसे से बहुत से स्‍कूल खुल सकते थे।

इस बार भी वही दावे हैं, वही भाषा है और हमारी आशंकाएं भी वही हैं। 13 साल पहले एग्रो-कैमिकल क्षेत्र की दिग्गज बहुराष्‍ट्रीय कंपनी बायर की सहायक प्रो-एग्रो सीड्स इंडिया लिमिटेड ने दावा किया था कि उसकी जीएम सरसों वैरायटी में चार विदेशी जीन हैं जो सरसों की उत्‍पादकता 20-25 फीसदी तक बढ़ा सकतेे हैंं और तेल की गुणवत्‍ता भी सुधरेगी। नई जीएम सरसों को दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर जेनेटिक मैनिपुलेशन ऑफ क्रॉप प्‍लांट्स ने विकसित किया है जिसमें तीन विदेशी जीन – बार, बारनेस और बारस्‍टार हैं। इस बार भी जीएम सरसों को लेकर वैसेे ही दावे किए जा रहे हैं जैसेे प्रो-एग्रो सीड्स ने किये थे। जीएम सरसों के ये दोनों पैरोकार, पहले प्रो-एग्रो सीड्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड और अब दिल्ली विश्वविद्यालय, हर्बिसाइड रिज़िस्टेेन्स यानी खरपतवार प्रतिरोध होने से इंकार करतेे हैं जबकि दोनों ने इसके लिए ज्ञात जीन का इस्‍तेमाल किया है।

जीएम समर्थन और तथ्‍यों से खिलवाड़

भारत हर साल करीब 60 हजार करोड़ रुपये के खाद्य तेलों का आयात करता है इसलिए तत्‍काल सरसों का उत्‍पादन बढ़ाना जरूरी है। खाद्य तेेलों का उत्‍पादन बढ़ेने से विदेशी मुद्रा की बचत होगी। इस विषय पर कई परिचर्चाओं और सर्वजनिक बहसों में मैंने दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति और नई जीएम सरसों विकसित करने वालों में अग्रणी डॉ. दीपक पेंटल को बार-बार जोर देते हुए सुना कि खाद्य तेलों के आयात पर खर्च हो रही विदेशी मुद्रा में कटौती की आवश्‍यकता हैै और भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह कितनी बड़ी बचत होगी! यह बिल्‍कुल वही दावा है जो 13 साल पहले प्रो-एग्रो की जीएम सरसों के पैरोकार किया करते थे। उस समय खाद्य तेलों का आयात घरेलू खपत का करीब 50 फीसदी था, जिस पर 12 हजार करोड़ रुपयेे खर्च होते थे।

कोई भी पढ़ा-लिखा व्‍यक्ति इस बात से सहमत होगा कि खाद्य तेलों के आयात पर होने वाले भारी खर्च में कमी आनी चाहिए। लेकिन जीएम लॉबी ने बड़ी चतुराई से इस तर्क का इस्‍तेमाल यह आभास दिलाने में किया है जैसे सरसों के उत्‍पादन में कमी की वजह से ही खाद्य तेलों का इतना अधिक आयात करना पड़ता है। जबकि असलियत में ऐसा नहीं है। खाद्य तेल के इतनी अधिक मात्रा में आयात के पीछे कई और भी कारण हैं। मिसाल के तौर पर, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी देश के बढ़ते आयात को लेकर चिंतित रहते थे। वह चालू खाते के घाटे को कम करने को बेताब थे। उस समय ईंधन, उर्वरक और खाद्य तेल का सबसे ज्‍यादा आयात होता था। खाद्य तेलों का सालाना आयात 1500 से 3000 हजार करोड़ रुपए के आसपास रहता था। यह बात समझते हुए कि भारत में घरेलू तिलहन उत्‍पादन बढ़ाने की क्षमता है और खाद्य तेलों का आयात कम किया जा सकता है उन्‍होंने 1985 में तिलहन में एक प्रौद्योगिकी मिशन आरंभ किया।

दस साल से भी कम समय यानी 1986 से 1993 के बीच देश में तिलहन उत्पादन दोगुना हो गया जो उल्लेखनीय वृद्धि है। खाद्य तेल आयात करने वाला भारत इस मामले लगभग आत्मनिर्भर हो गया। खाद्य तेल में देश की 97 प्रतिशत आत्मनिर्भरता थी और मात्र 3 फीसदी तेल आयात करने की जरूरत रह गई थी। लेकिन कुछ साल बाद भारत ने जानबूझकर आयात शुल्क घटाना शुरू किया और सस्ते व सब्सिडी वाले खाद्य तेल के बाजार में आने का रास्‍ता खोल दिया। जैसे-जैसे खाद्य तेल का आयात बढ़ा घरेलू ऑयल प्रोसेसिंग उद्योग बंद होते गए।

दरअसल खाद्य तेलों के आयात पर खर्च बढ़ने का कारण तिलहन के उत्पादन में गिरावट नहीं है। बल्कि यह सब आयात नीति की खामियों का नतीजा है। विदेशी खाद्य तेलों पर आयात शुल्क को लगभग शून्य़ कर दिया गया जबकि यह 70 फीसदी या इससे भी ज्‍यादा होना चाहिए था। (डब्ल्यूटीओ भारत को खाद्य तेलों पर आयात शुल्क अधिकतम 300 प्रतिशत करने की अनुमति देता है)। तिलहन का सही दाम और बाजार मुहैया कराया जाता तो हमारे किसान तेल की सारी कमी दूर कर देते।

दावा किया जा रहा है कि जीएम सरसों से उत्पादन में 20 से 25 फीसदी तक बढ़ोतरी होगी। यह एकदम बेतुुकी बात है। कहना पड़ेगा कि इस दावे के पीछे स्‍वार्थ निहित हैं। पहली बात तो यह है कि ऐसा कोई ज्ञात जीन (या जीन समूह) नहीं है जो उत्पादकता बढ़ा सकता है। दूसरी बात, कोई भी जीएम वैरायटी उतनी ही अच्छी होती है जितनी संकर किस्म जिसमें विदेशी जीन डाला जाता है। यदि कोई जीन संकरण की प्रक्रिया को सरल करता है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह उत्पादकता बढ़ा देगा।

पिछले 13 वर्षों में मैंने उपलब्ध सरसों के तेल की गुणवत्ता से कोई शिकायत नहीं सुनी है। हमारे देश में पारंपरिक रूप से सरसों का इस्तेमाल भोजन के लिए किया जाता है। इसकी पत्तियों को सरसों का साग के रूप में पकाया जाता है। इसलिए सरसों को केवल खाद्य तेल के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए। मैं कभी-कभी सरसों तेल का उपयोग कान और नाक के रोगों के उपचार और शरीर की मालिश के लिए भी करता हूं। इसके अलावा सरसों के तेल का उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में भी किया जाता है। इसलिए बीटी बैंगन पर रोक लगाते हुए 2010 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा व्‍यक्‍त की गई चिंताओं और जीएम फसलों पर संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट व सुप्रीम कोर्ट की तकनीकी समिति की सिफारिशों का पूरी तरह पालन करना आवश्यरक है।

मुझे समझ नहीं आ रहा है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश द्वारा जीएम फसलों पर रोक के समय पेश की गई 19 पेजों की रिपोर्ट को नतीजों को दरकिनार क्यों कर रही है? क्या जीएम इंडस्‍ट्री इतनी ताकतवर है कि जीईएसी एक पूर्व मंत्री के नेतृत्व में आरंभ हुई एक वैज्ञानिक बहस को नजरअंदाज कर देना चाहती है? जीएम सरसों का कोई प्रत्‍यक्ष लाभ न होने के बावजूद स्‍वास्‍थ्‍य और पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं की ऐसी अनदेखी?

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(देविंदर शर्मा कृषि और खाद्य नीति से जुड़े मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ हैं।)

यहां प्रस्‍तुत लेख मूलत: biospectrum पत्रिका में प्रकाशित हुआ था जो यहां पढ़ा जा सकता है http://www.biospectrumindia.com/biospecindia/views/223161/why-india-gm-mustard