सिंगुर फैसला: किसानों को बिना मुआवजा लौटाए वापस मिलेगी जमीन

किसान विरोधी भूमि-अधिग्रहण नीतियों को पश्चिम बंगाल में बड़ा झटका लगा है। टाटा मोटर्स के लिए सिंगुर में हुए भूमि अधिग्रहण को सुुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया है। साल 2006 में बुद्धदेव भट्टाचार्य की वामपंथी सरकार ने टाटा के नैनो प्रोजेक्‍ट के लिए एक हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। हालांकि, मामले के तूल पकड़ने और किसानों के भारी विरोध के चलते टाटा मोटर्स को अपना प्‍लांट गुजरात के साणंद में शिफ्ट करना पड़ा। लेकिन जमीन का मामला सुप्रीम कोर्ट में था।
आज सुप्रीम कोर्ट ने सिंगुर में हुए भूमि अधिग्रहण को पब्लिक परपज यानी जनहित में नहीं माना और टाटा मोटर्स को 12 हफ्तों के अंदर किसानों को जमीन वापस लौटाने का आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किसी कंप‍नी के लिए सरकार की ओर से भूमि अधिग्रहण ‘जन उद्देश्य’ नहीं माना जाएगा। फैसले की खास बात यह है कि किसानों को उनकी जमीन तो वापस मिलेगी लेकिन उनसे मुआवजा वापस नहीं लिया जाएगा। अदालत का मानना है कि ये किसान पिछले 10 वर्षों से अपनी जमीन से वंचित है इसलिए उन्‍हें मिला मुआवजा वापस नहीं लिया जाना चाहिए। सिंगुर के किसानों के साथ-साथ यह ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के लिए भी बड़ी कामयाबी है। ममता बनर्जी ने ही सिंगुर को लेकर आंदोलन छेड़ा था जो बंगाल से वामपंथी सरकार की विदाई का कारण बना।

प्राइवेट कंपनी के लिए भूमि अधिग्रहण ‘जन उद्देश्य’ नहीं!

सिंगुर मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भूमि अधिग्रहण से जुड़े कई अन्‍य मामलों में भी नज़ीर बन सकता है जहां सरकारें जनहित के नाम पर प्राइवेट कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण करती हैं। हाईवे, रियल एस्‍टेट और इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर से जुड़ी परियोजनाओं में ‘जन उद्देश्य’ के नाम पर होने वाले भूमि अधिग्रहण का फायदा निजी कंपनियां उठा जाती हैं। लेकिन अब ऐसे मामलों में कमी आने की उम्‍मीद जगी है।
सिंगुर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि किसी कंपनी के कार प्‍लांट के लिए किसानों से भूमि अधिग्रहण पब्लिक परपज के दायरे में नहीं आता है। यह अधिग्रहण निजी कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए हुआ था। गौरतलब है कि इस मामले में टाटा मोटर्स को राहत देते हुए कोलकाता हाईकोर्ट ने अधिग्रहण को सही ठहराया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश से न सिर्फ टाटा मोटर्स को झटका लगा है बल्कि मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (सीपीएम) के लिए स्थिति और भी असहज हो गई है। सिंगुर आंदोलन के बाद ही ममता बनर्जी बंगाल की राजनीति में सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरींं जबकि वामपंथी दलों की सियासी जमीन लगातार खिसक रही है।

सिंगुर भूमि अधिग्रहण में कई खामियां

सुप्रीम कोर्ट ने टाटा मोटर्स की नैनो परियोजना के लिए सिंगुर में हुए भूमि अधिग्रहण में कई खामियां पायी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि किसानों की आपत्तियों और शिकायतों की सही तरीके से जांच नहीं हुई। गैर-कानूनी तरीके से किसानों की जमीन लेने को लेकर अदालत ने तत्‍कालीन वामपंथी सरकार और टाटा मोटर्स को फटकार भी लगाई।

यह किसानों की जीत है: ममता बनर्जी

सिंगुर पर सर्वोच्‍च अदालत के फैसले को पश्चिम बंगाल की मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी ने ऐतिहासिक निर्णय और किसानों की जीत बताया है। एक पत्रकार वार्ता में उन्‍होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय को किस तरह लागू किया जाए, इस पर विचार करने के लिए कल एक रणनीतिक बैठक होगी। किसानों को जमीन लौटाने के लिए एक व्यवस्था बनाने पर काम करेंगे।

गुजरात: राजनीति और इंजीनियरिंग के लिहाज से क्‍यों खास है सौनी प्रोजेक्‍ट?

अपने महत्‍वाकांक्षी सौनी प्रोजेक्‍ट के जरिये गुजरात की सियासी इंजीनियरिंग को साधने में जुटे हैं नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंगलवार को गुजरात के जामनगर पहुंचे और ‘सौराष्ट्र नर्मदा अवतरण फॉर इरिगेशन’ (SAUNI) यानी सौनी प्रोजेक्‍ट के पहले चरण का लोकार्पण किया। साल 2012 में विधानसभा चुनाव से पहले बतौर सीएम नरेंद्र मोदी ने ही इस सिंचाई परियोजना का ऐलान किया था। एक बार फिर चुनाव से पहले 12 हजार करोड़़ रुपये की यह महत्‍वाकांक्षी परियोजना सुर्खियों में है। उम्‍मीद की जा रही है कि यह प्रोजेेक्‍ट सौराष्‍ट्र से सूखा पीड़‍ि़त किसानों के लिए बड़ी राहत लेकर आएगा। लेकिन इसका सियासी महत्‍व भी कम नहीं है। विपक्षी दल कांग्रेस ने परियोजना पूरी होने से पहले ही प्रथम चरण के लोकार्पण और प्रधानमंत्री की जनसभा को चुनावी हथकंंड़ा करार दिया है। पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी की आज गुजरात में पहली सभा थी।

जामनगर, राजकोट और मोरबी जिले की सीमाओं से सटे सणोसरा गांव मेंं एक जनसभा को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि सौनी प्रोजेक्ट पर हर गुजराती को गर्व होगा। किसान को जहां भी पानी मिलेगा, वह चमत्‍कार करके दिखाएगा। गुजरात के मुख्‍यमंत्री विजय रूपाणी का कहना है कि सौनी प्रोजेक्‍ट सूखे की आशंका वाले सौराष्‍ट्र के 11 जिलों की प्‍यास बुझाएगा। परियोजना के पहले चरण में राजकोट, जामनगर और मोरबी के 10 बांधों में नर्मदा का पानी पहुंचेेगा। अनुमान है कि सौराष्‍ट्र की करीब 10 लाख हेक्‍टेअर से अधिक कृषि भूमि को फायदा होगा।

सिविल इंजीनियरिंग का कमाल

सिविल इंजीनियरिंग के लिहाज से भी सौनी प्रोजेेक्‍ट काफी मायने रखता है। इसके तहत 1,126 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई जाएगी, जिसके जरिये सरदार सरोवर बांध का अतिरिक्‍त पानी सौराष्ट्र के छोटे-बड़े 115 बांधों में डाला जाएगा। पहले चरण में 57 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई गई है जिससे सौराष्‍ट्र में तीन जिलों के 10 बांधों में पानी पहुंचने लगा है। गुजरात सरकार का दावा है कि सभी 115 बांधों के भरने से करीब 5 हजार गांव के किसानों को फायदा होगा। गौरतलब है कि सौराष्‍ट्र के ये इलाके अक्‍सर सूखे की चपेट में रहते हैं। नर्मदा का पानी पहुंचने से यहां के किसानों को राहत मिल सकती है।

मोदी की रैली के सियासी मायने

हालांकि, सौनी प्रोजेक्‍ट 2019 तक पूरा होना है लेकिन अगले साल गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा और राज्‍य सरकार अभी से इसका श्रेय लेने में जुट गई है। आनंदीबेन पटेल के सीएम की कुर्सी से हटने और विजय रूपाणी के मुख्‍यमंत्री बनने के बाद यह पीएम मोदी की पहली गुजरात यात्रा है। उधर, पाटीदार आरक्षण और दलित आंदोलन भी भाजपा के लिए खासी चुनौती बना हुआ हैै। इसलिए भी पीएम मोदी के कार्यक्रम और जनसभा के सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। सौराष्‍ट्र कृषि प्रधान क्षेत्र है और यहां पटेल आरक्षण और दलित आंदोलन का काफी असर है।

परंपरागत सिंचाई योजना से कैसे अलग है सौनी

देखा जाए तो सौनी प्रोजेेक्‍ट नर्मदा प‍रियोजना का ही विस्‍तार है। लेकिन परंपरागत सिंचाई परियोजनाओं की तरह सौनी प्रोजेक्‍ट में नए बांध, जलाशयों और खुली नहरों के निर्माण के बजाय पहले से मौजूद बाधों में पानी पहुंंचाया जाएगा। इसके लिए खुली नहरों की जगह पाइपलाइन बिछाई जा रही है। उल्‍लेखनीय है कि भूमि अधिग्रहण के झंझटों को देखते हुए गुजरात सरकार ने खुली नहरों के बजाय भूमिगत पाइपलाइन का विकल्‍प चुना था। इसी पाइपलाइन के जरिये नर्मदा का पानी सौराष्‍ट्र के 115 बांधों तक पहुंचााने की योजना है। भूमिगत पाइपलाइन से बांधों में पानी डालने के लिए बड़े पैमाने पर पंपिंग की जरूरत होगी। इस पर आने वाले खर्च को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं।

परियोजना पर सवाल भी कम नहीं

12 हजार करोड़ रुपये केे सौनी प्रोजेक्‍ट पर सवाल भी कम नहीं हैं। दरअसल, राज्‍य सरकार का अनुमान है कि नर्मदा से करीब 1 मिलियन एकड़ फीट अतिरिक्‍त पानी सौराष्‍ट्र के 115 बांधों को मिल सकता है। गुजरात विधानसभा में विपक्ष के नेता शंकर सिंह वाघेला का कहना है कि सौनी प्रोजेक्‍ट की सच्‍चाई दो महीने बाद सामने आएगी। अभी तो बरसात की वजह से अधिकांश बांधों में बारिश का पानी पहुंंच रहा है। दो-तीन महीने बाद जब बांध सूख जाएंगे तब पता चलेगा सौनी प्रोजेक्‍ट से कितना पानी पहुंचता है। सरकार को कम से कम दो महीने का इंतजार करना चाहिए था।

यवतमाल: किसान बाप-बेटे ने एक ही पेड़ से लगाई फांसी

किसानों की आय दोगुनी करने के दावों और किसान कल्‍याण की तमाम योजनाओं के बावजूद देश में किसानों की खुदकुशी का सिलसिला थम नहीं रहा है। अब महाराष्‍ट्र के यवतमाल से एक किसान और उसके बेटे के कथित तौर पर खुदकुशी करने की खबर आई है। जबकि उत्‍तर प्रदेश के महोबा में फसल नुकसान के सदमे से एक किसान की मौत हो गई।

मिली जानकारी के अनुसार, यवतमाल की अर्णी तहसील में मंगलवार को किसान बाप-बेटे ने एक ही पेड़ से लटककर खुदकुशी कर ली। बताया जाता है कि यह परिवार कर्ज के बोझ तले दबा था और बेटा मानसिक तौर पर बीमार था। किसान काशीराम मुधोलकर और उसके बेटे अनिल ने पेड़ की एक ही डाल से लटककर खुद को फांसी लगा ली। अनिल कथित तौर पर अवसाद से ग्रस्त था। बतायाज जाता है कि काशीराम ने अपने बेटे के इलाज के लिए स्थानीय क्रेडिट सोसाइटी से एक लाख रुपये उधार लिए थे।

मृतक किसान काशीराम मुधोलकर (65) के पास पांच एकड़ जमीन थी और उन्‍होंने 14 एकड़ खेती बंटाई पर ली हुई थी। इस साल भयंकर सूखे और बारिश में कमी की वजह से उनकी खेती को नुकसान हुआ जिससे वह काफी परेशान थे। काशीराम का बेटा अनिल (20) भी कई महीने से बेरोजगार था। गौरतलब है कि इस साल महाराष्‍ट्र के यवतमाल जिले में सूखे और बाढ़ दोनों की मार पड़ी है। सूखे और बाढ़ प्रभावित किसान मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं और अवसादग्रस्‍त हो रहे हैं।

40 फीसदी बढ़े किसान आत्‍महत्‍या के मामले

देश में किसान आत्‍महत्‍या के मामले 40 फीसदी बढ़े हैं। अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन एक्‍सप्रेस’ में छपी एक खबर के अनुसार, वर्ष 2014 में किसान आत्‍महत्‍या के 5650 मामले सामने आए थे जबकि 2015 में यह आंकड़ा 8 हजार के ऊपर चला गया है। सबसे ज्‍यादा महाराष्‍ट्र के किसान खुदकुशी कर रहे हैं। वर्ष 2014 में महाराष्‍ट्र में 2568 किसानों ने आत्‍महत्‍या की थी जबकि 2015 में 3030 किसान आत्‍महत्‍या कर चुके हैं। महाराष्‍ट्र के बाद से ज्‍यादा किसान आत्‍महत्‍याएं तेलंगाना और कर्नाटक में हो रही हैं।

फसल बर्बाद, किसान की सदमे से मौत

उत्‍तर प्रदेश के महोबा जिले में बारिश से फसल की बर्बादी कुआं ढह जाने के सदमे से एक किसान की मौत हो गई। ग्राम नरेड़ी निवासी दुलीचंद्र (45) ने एक लाख रुपये खर्च कर एक कुआं खुदवाया था। फसल की बुवाई के लिए उसने उधार भी लिया था। लेकिन, खेतों में पानी भर जाने और कुआं धस जाने से उसे काफी सदमा लगा। उसे सीने में दर्द उठा। परिजन अस्पताल ले जा पाते इससे पहले ही रास्ते में उसकी मौत हो गई।

पासवान ने मिलों पर फिर बनाया चीनी कीमतें कम रखने का दबाव

गन्‍ना किसानों को उचित दाम और बकाया भुगतान दिलाने में नाकाम रहने वाली केंद्र सरकार चीनी मिलों पर लगातार कीमतेंं काबू में रखने का दबाव बना रही है। पिछले वर्षों के दौरान चीनी की कीमतों में गिरावट के चलते ही न तो किसानों को उपज का सही दाम मिल पाया और न ही चीनी मिलें समय पर भुगतान कर पा रही हैं। घाटे के बोझ में कई चीनी मिलें बंद होने के कगार पर हैं जबकि किसानों का भी गन्‍ने से मोहभंग होने लगा है।

शुक्रवार को खाद्य एवं उपभोक्‍ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि चीनी के दाम मौजूदा स्तर से बढ़तेे हैं तो सरकार आवश्यक कार्रवाई करेगी। चीनी की कीमतों पर नजर रखी जा रही है। हालांकि, देश में चीनी की कमी नहीं है और आगे कीमतों में वृद्धि के आसार भी कम हैं। लेकिन किसान काेे अक्‍सर बाजार के हवाले छोड़ने वाली सरकार चीनी के मामले में जबरदस्‍त हस्‍तक्षेप करने पर आमादा है। पासवान ने मिलों से चीनी कीमतों में स्थिरता बनाए रखने की अपील की है। जबकि जगजाहिर है कि चीनी कीमतों में कमी की सबसे ज्‍यादा मार किसानों पर पड़ती है।

इंडियन शुगर मिल्‍स एसोसिएशन (इस्‍मा) के डायरेक्‍टर जनरल अबिनाश वर्मा ने असलीभारत.कॉम को बताया कि पहले सरकार को यह देखना चाहिए क्‍या चीनी के दाम वाकई अत्‍यधिक बढ़ गए हैं। इस समय दिल्‍ली के खुदरा बाजार में चीनी का दाम 42 रुपये किलो है। चीनी मिलों के गेट पर दाम 35.5-36 रुपये किलो के आसपास है जबकि चीनी उत्‍पादन की लागत करीब 33 रुपये प्रति किलोग्राम आ रही है। अगर मिलों को दस फीसदी मार्जिन भी नहीं मिलेगा तो कारोबार करना मुश्किल हो जाएगा। वर्मा का कहना है कि पिछले साल चीनी के दाम बुरी तरह टूट गए थे और जिसके चलते मिलों पर कर्ज का बोझ है। इससे उबरने के लिए भी जरूरी है कि चीनी के दाम ठीक रहें। वर्मा के मुताबिक, इस साल चीनी की कीमतों में जो थोड़ा सुधार दिखा है दरअसल वह पिछले साल का करेक्‍शन है और दो साल पुराना दाम है। सरकार खुद मान रही है देश में चीनी की कमी है। ऐसे में इतनी जल्‍दी पैनिक होने की जरूरत नहीं है।

एथनॉल एक्‍साइज ड्यूटी पर छूट खत्‍म, चीनी मिलों का झटका

इस बीच, केंद्र सरकार ने चीनी मिलों को एथनॉल पर दी जा रही एक्‍साइज ड्यूटी की छूट वापस ले ली है। सरकार का यह कदम भी चीनी मिलों को चुभ रहा है। घाटे से जूझ रही मिलों को उबारने के लिए केंद्र सरकार ने यह रियायत दी थी, जो पेराई सीजन खत्‍म होनेे से पहले ही वापस ले ली गई है।

किसानों का अब भी 4 हजार करोड़ बकाया

चीनी के दाम का सीधा संबंध किसान से है। इस साल मार्च से चीनी के दाम करीब 10-12 फीसदी बढ़े हैं। दूसरी तरहगन्‍ना किसानों का बकाया भुगतान घटकर करीब 4 हजार करोड़़ रुपये गया है जो पिछले साल इसी समय 18 हजार करोड़ रुपये से ज्‍यादा था। यह हालत तब हैै कि जबकि पिछले तीन साल से गन्‍नाा मूल्‍य में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। पिछले तीन-चार साल से उत्‍तर प्रदेश जैसे प्रमुख गन्‍ना उत्‍पादक राज्‍य में गन्‍नाा मूल्‍य 260-280 रुपये कुंतल के आसपास है। इस स्थिर मूल्‍य का भुगतान पाने के लिए भी किसानों को कई महीनों तक इंतजार करना पड़ रहा है।

बैलगाड़ियों में लादकर किसानों ने राष्‍ट्रपति को पहुंचाईं अपनी समस्‍याएं

परेशानियों का बोझ हद से गुजरा तो पंजाब के किसानों ने अपनी बात राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी तक पहुंचाने के लिए अनूठा तरीका निकाला। पंजाब के किसानों ने बुधवार को दो बैलगांड़‍ियों में लादकर अपने ज्ञापन राष्‍ट्रपति को भेजे।

परेशानियों का बोझ हद से गुजरा तो पंजाब के किसानों ने अपनी बात राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी तक पहुंचाने के लिए अनूठा तरीका निकाला। बुधवार को दो बैलगांड़‍ियों में लादकर किसानों ने अपने ज्ञापन राष्‍ट्रपति को भेजे। इन ज्ञापनों पर करीब डेढ़ लाख किसानों के हस्‍ताक्षर हैं। भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) की ओर से किसानों के इन ज्ञापनों को पंजाब राज भवन पहुंचाया गया। इस मौके पर चंडीगढ़ के पास किसानों की एक सभा भी बुलाई गई जिसे कई किसान नेताओं ने संबोधित किया।

प्रदर्शनकारी किसानों को संबोधित करते हुए कृषि नीति के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों की तर्ज पर किसानों को भी आमदनी की मांग करनी चाहिए। सातवें वेतन आयोग को पूरी तरह लागू करने पर 4.8 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्‍त सालाना खर्च आ सकता है। इनता पैसा कहां से आएगा इस पर कोई सवाल खड़ा नहीं हो रहा है, इससे देश का घाटा कितना बढ़ेगा इस पर कोई बात नहीं हो रही है। लेकिन जैसे ही किसान की धान और गेहूं जैसी फसलों का न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य 50 रुपये प्रति कुंंतल भी बढ़ेगा तो महंगाई को लेकर हाय-तौबा मचनी शुरू हो जाएगी। इस तरह किसानों को खाद्यान्‍न उगाने और देश का पेट भरने का खामियाजा उठाना पड़ रहा है।

गांव की यादें और शहरों में अजनबी

समय आगे बढ़ता है और हम जैसे लोग अपने जीवन में हर वक्त इस विरोधाभास को सामने खड़ा पाते हैं। बल्कि, गांव जाकर अपने भाई-बंधुओं को यह बताने लगते हैं कि अपने भरोसे रहो, जो करो खुद करो, किसी की मदद न लो, अपने बल पर आगे बढ़ो। पर, वे नहीं समझते कि उन्हें ‘क्या’ समझाया जा रहा है। बल्कि ‘क्या’ से अधिक बड़ा ‘क्यों’ होता है, उन्हें ‘क्यों’ समझाया जा रहा है। समझाने की यह प्रक्रिया खुद के लिए किसी दिलासा से कम नहीं होती। तब लगता है कि हमने गांव के प्रति, अपनी धरती के प्रति और वहां रह रहे (छूट गए) लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन कर लिया है।

अपने गांव में आउटसाइडर

मेरे परिचित एक इंजीनियर साहब कुछ साल पहले रिटायर होने के बाद स्थायी तौर पर गांव चले गए। उनके मन में वैसे ही ऊंचे आदर्श थे, जैसे कि गांव से उजड़े हम जैसे ज्यादातर लोगों के मन में हैं या होते हैं। कुछ दिन गांव में उन्हें खूब तवज्जो मिली, हर कोई सलाह-मशवरे के लिए उनके पास जाता था। इंजीनियर साहब को अपनी विवेक-बुद्धि पर पूरा भरोसा था। लेकिन, वक्त ने जल्द ही उन्हें बता दिया कि अब वे ‘आउटसाइडर’ हैं। हुआ यह कि इंजीनियर साहब के परिवार के एक व्यक्ति ने दूसरे की जमीन पर कब्जा कर लिया और जिसकी जमीन हड़पी उसी पर मुकदमा भी करा दिया। पीड़ित आदमी सिर पटक कर रह गया, कहीं से कोई मदद नहीं मिली। इस पूरी घटना से इंजीनियर साहब की न्याय-बुद्धि को झटका लगा, उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भला-बुरा कहा और पीड़ित की जमीन लौटाने पर जोर दिया। अगले दिन परिवार के लोगों ने इंजीनियर साहब को कुनबे से बाहर कर दिया और ये भी समझा दिया कि अब ज्यादा दिन गांव में रहोगे तो किसी दिन लौंडे-लफाड़े हाथ रवा कर देंगे! इंजीनियर दोबारा शहर में आ गए हैं और गांव में अपने हिस्से की जमीन को बेचने की तैयारी में हैं! क्या ये ही था सपनों का गांव!

जवाब बेहद मुश्किल है। क्योंकि इंजीनियर साहब एक सपना लेकर गए थे, गांव में एक अच्छे स्कूल का, एक डिस्पेंसरी का और जवान होती पीढ़ी के लिए एक स्किल एंड काउंसलिंग सेंटर का। इनमें से एक भी सपना पूरा नहीं हुआ क्योंकि गांव की जिंदगी उस 30-40 साल पहले के दौर में नहीं है, जब किसी एक पीढ़ी के कुछ उत्साही युवाओं ने अपने सपनों के लिए गांव की धरती छोड़ी थी। इस उम्मीद के साथ छोड़ी थी कि एक दिन फिर लौट कर आएंगे और इस धरती को सूद समेत उसका हक अदा करेंगे। लेकिन, कुछ भी अदा नहीं होता क्योंकि आप जिस धरातल पर लौटना चाहते हैं, उस धरातल का लेवल बदल चुका है। तब, सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि उस लेवल के साथ खुद को किस प्रकार एडजस्ट करें। इस पूरी प्रक्रिया में ‘सत्य’ ऐसे विरोधाभास का सामना करना है, जिसकी कोई काट आमतौर पर हमारे सामने नहीं होती।

नये जमानेे से कदमताल की जटिलता

यह सच है कि गांव की नई पीढ़ी को कॅरियर और शैक्षिक परामर्श की जरूरत है। उन्हें नहीं पता कि शहर में रहने वाले उनके जैसे युवा बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, उनसे प्रतिस्पर्धा के लिए यह जरूरी है कि गांव के युवाओं को काउंसलिंग और गाइडेंस मिले। कोई उन्हें यह बता सके कि वे अगर बीए भी करना चाहते हैं तो किन विषयों के साथ करें और किस काॅलेज या विश्वविद्यालय करें! जब वे बीटेक के पीछे दौड़ रहे होते हैं तब उन्हें पता चलता है कि फैक्ट्रियों में तो पाॅलीटेक्निक डिप्लोमा वालों की मांग है और जब वे बार-बार इंटरमीडिएट की परीक्षा में फेल होते हैं तो तब उन्हें शायद पता ही नहीं होता कि आईटीआई की किसी ट्रेड में दाखिल होकर भविष्य में ठीक-ठाक नौकरी पा सकते थे। यह विरोधाभास सतत रूप से गांव की जिंदगी का हिस्सा बना रहता है।

अपवाद हर जगह हो सकते हैं कि लेकिन यह सच्चाई है कि गांव में अब भी सबसे बड़ा कॅरियर या तो इंजीनियर बनना है या फिर डाॅक्टरी की पढ़ाई करना है। जब तक उन्हें नए जमाने की पढ़ाई के बारे में पता चलता है तब तक ‘नया जमाना’ और आगे जा चुका होता है। यही आज के गांव का सच है और उस गांव में आप चारों तरफ एक परेशान पीढ़ी को पाएंगे, यह पीढ़ी खेतों में खट रही है। उन खेतों में खट रही है जहां पूरे परिवार को साल भर की सतत मेहनत के बावजूद न्यूनतम मजदूरी जितनी आय भी नहीं होती। ये सब कुछ जानते हुए भी कोई व्यक्ति गांव के साथ अपने रिश्ते को किस प्रकार पुनर्निधारित और पुनर्परिभाषित करेगा, यह काफी चुनौतीपूर्ण है। चुनौती इसलिए भी बहुत बड़ी है क्योंकि शहर की जिंदगी का बाहरी पक्ष काफी प्रभावपूर्ण है और यह पक्ष गांव की नई पीढ़ी को आकर्षित करता है।

जब भी गांव में जाता हूं तो नई पीढ़ी वो शाॅर्टकट जानना चाहती है, जिस पर चलकर वह भी शहर की चमकीली दुनिया में खुद के लिए जगह पा सके। काश, ऐसा कोई शाॅर्टकट होता और उस शाॅर्टकट का मुझे भी पता होता! जारी…..

दिखने लगा महाराष्‍ट्र के मंडी कानून में बदलाव का असर

मंडी कानून में बदलाव कर किसानो को ये अधिकार दे दिया गया की वे चाहें तो अपना उत्पाद डायरेक्ट उपभोक्ता या रिटेलर को बेच सकते हैं।

टमाटर 30 रुपया किलो खीरा 15 रुपया किलो भिन्डी और करेला 40 रुपय किलो! सब्जियों के ये दाम मुंबई में हैंं। मात्र 20 दिन पहले ये सभी सब्जियां 80 से 100 रुपया किलो बिक रही थीं। आम तौर पर बरसात के मौसम में सप्लाई की किल्‍लत रहती है। कभी फसल नुकसान के नाम पर तो कभी ट्रांसपोर्टेशन में दिक्कत के नाम पर अगस्त-सितम्बर में सब्जियां महँगी बिकती थीं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है।

दरअसल पिछले महीने महराष्ट्र सरकार ने फल और सब्जियों को APMC यानी कृषि उत्‍पादन मंडी समिति की लिस्ट से बहार कर दिया। मंडी कानून में बदलाव कर किसानो को ये अधिकार दे दिया गया की वे चाहें तो अपना उत्पाद सीधे उपभोक्ता या रिटेलर को बेच सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे गाँव और छोटे कस्बों के बाज़ार में किसान सब्जी बाज़ार में अपना उत्पाद ले जाकर सीधे ग्राहकों को बेचते हैं। ऐसा ही कुछ हो रहा है मुंबई और उपनगरीय इलाकों में जहाँ किसान सीधे रिटेलर को अपना उत्पाद बेच रहे हैं इससे मार्केट में सप्लाई अचानक बढ़ गई है।

व्‍यापारियों की तरफ से पहले तो इस बदलाव का काफी विरोध हुआ। खास करके कमीशन एजेंटों ने इसका विरोध किया और सरकार पर दबाव बनाने के लिए तीन चार दिन के लिए राज्य भर की मंडियों को बंद कर दिया। नतीजा सब्जियों के दाम आसमान पर चढ़ने लगे। यह अफवाह भी फैलाई गई कि बगैर एजेंटों के कृषि बाज़ार का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। दरअसल नए कानून के तहत किसानों से अब वे 4 से 6% का कमीशन नहीं ले सकते। बल्कि खरीददारों से उन्हें ये कमीशन लेना होगा। यहाँ ये बात बतानी ज़रूरी है कि अगर किसान डायरेक्ट अपना माल रिटेलर या कंजूमर को बेचता है तो कमीशन एजेंटों को कुछ भी वसूलने का हक़ नहीं होगा।

हालाँकि अभी यह बदलाव शुरूआती चरण में है। कमीशन एजेंट अभी भी दखल बनाने की कोशिश मेंं हैं लेकिन खबरे ये भी आ रही हैंं कि किसान अपना ग्रुप या अग्रीगेटर बना रहे हैं जो पूरे समूह की सब्जी को लेकर मुंबई जैसे बड़े बाजारों तक जायेंगे। अगर यह व्यवस्था सफल होती है तो पूूरे देश के लिए एक मिसाल कायम होगी। फिलहाल महाराष्ट्र के आलावा मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और कर्णाटक में इस तरह की व्यवस्था है। लेकिन महाराष्ट्र में मुबई जैसे बड़े बाजार में ये ज्यादा असरदार दिख रही है। केंद्र सरकार ने पिछले साल ही फल और सब्जियों को APMC से बहार कर दिया था लेकिन कृषि बाजार राज्यों की सूची में होने की वजह से इसे लागू करने का अधिकार राज्यों पर ही है।