गांव को याद करते गांव के अजनबी

रोजी रोटी की तलाश में गांव से विस्थापित होकर शहर में आए हम जैसे लोग अक्सर गांव के साथ अपने रिश्ते को वक्त-बेवक्त परिभाषित करने की कोशिश करते रहते हैं। इस कोशिश में अक्सर निराशा हाथ लगती है।

ये कड़वा सच है कि हम जैसे लोगों की पीढ़ी न तो शहरी है और न ही अब गांव की रह गई है। शहर में होते वक्त दिमाग में गांव होता है और गांव पहुंचने पर ऐसा अजनबीपन घेर लेता है जिसकी कोई काट दिखाई नहीं पड़ती। गांव छोड़ते वक्त कोई भी किशोर या युवा पीछे मुड़कर देखता रहता है। उसे लगता है कि उसका गांव, उसकी धरती उसे पुकार रही है। यह पुकार बरसों-बरस तक सुनाई देती है। शुरु के बरसों में लगातार गांव आना-जाना बना रहता है, लेकिन बीतता समय इस बात की ज्यादा अनुमति नहीं देता कि आप बार-बार गांव जाएं। धीरे-धीरे रिश्ता पुराना पड़ने लगता है और हम गांव के किस्सों के साथ शहर में जीने लगते हैं।

गांव की दहलीज पर दस्तक देने का सिलसिला होली-दिवाली या शादी-ब्याह तक सीमित रह जाता है। और जब किसी दिन जोड़ लगाने बैठते हैं तो पता चलता है कि गांव छोड़े तो 20, 25 या 30 साल हो गए हैं। फिर किसी दिन गांव जाते हैं तो पाते हैं कि अब उन युवाओं की संख्या बढ़ रही जो आपको सीधे तौर पर नहीं पहचानते क्योंकि जब गांव छोड़ा था तो उनमें से कई का तो जन्म भी नहीं हुआ था और कुछ बच्चे ही थे। जबकि, अब वे निर्णायक स्थिति में हैं और जो परिचय हम जैसों के साथ नत्थी थे अब वे बुजुर्ग हो गए हैं। इस पूरी प्रक्रिया में शहर को लगातार नकारने और गांव को छाती से चिपटाए रखने का सिलसिला चलता रहता है। कुल मिलाकर दिमाग में एक गुंझल मौजूद रहती है कि आप का जुड़ाव किस जगह से है! जहां पर रोटी खा-कमा रहे हैं, वो बेगाना लगता है और जिससे भावात्मक रिश्ता है, वहां का होने की पहचान या तो खत्म हो गई है या फिर बेहद सिकुड़ गई हैै।

जिन लोगों के साथ मैंने प्राइमरी और हाईस्कूल स्तर की पढ़ाई की, उनमें से ज्यादातर अब भी गांव में हैं। खेती करते हैं या फिर बड़े किसानों के साथ मजदूरी करते हैं। इनमें मेरे कुनबे के लोग भी हैं, पड़ोसी भी हैं और वे लोग भी है जिन्हें मैं अपने मां-पिता के निकटतम दोस्तों-परिचितों में शामिल करता हूं। ऐसा भी नहीं है कि गांव ने पूरी तरह मुझे या मेरे जैसे लोगों को नकार दिया हो, वहां स्वीकार्यता तो है, लेकिन उसका स्तर बदल गया है। एक ऐसे सम्मान का दर्जा मिल जाता है, जिसे परिभाषिक करना प्रायः मुश्किल होता है। जिनके साथ बचपन में यारी-दोस्ती का नाता रहा है, उनके बच्चे अब बड़े हो गए हैं। ज्यादातर के सामने रोजगार का संकट है। खेती की जमीन सिकुड़ गई है। बड़े परिवारों के बीच जमीन इस तरह बंटी है कि दो पीढ़ी पहले जिस परिवार के पास 200-250 बीघा जमीन थी, अब तीसरी पीढ़ी के लोगों के पास 10-15 बीघा रह गई है। इस जमीन के भरोसे कैसे नई पीढ़ी जिंदा रहेगी? इस सवाल से मेरे वे दोस्त जूझते हैं जो गांव में रह गए हैं। इसलिए वे चाहते हैं कि किसी भी तरह एक बच्चे को शहर में नौकरी मिल जाए। उनमें से ज्यादातर का जोर सरकारी नौकरी पर है। वे नौकरी के स्तर की बात नहीं करते, चपरासी, चैकीदार, बेलदार, डेजीवेजिज……………कुछ भी हो, बस सरकारी नौकरी मिल जाए।

न वे जानते, न समझते कि अब सरकारी दफ्तरों में चपरासियों की भर्ती बंद है। उन्हें यही लगता है कि हम जैसे लोग भी रिश्वत के आदी हो गए हैं। इसलिए वे धीरे-धीरे पैसों की बात करते हैं। फिर जिंदगी भर की जमा पूंजी को सामने रखकर नौकरी दिलाने के लिए गुहार लगाते हैं। क्या जवाब दिया जाए ऐसे हालात में ? कोई जवाब बनता ही नहीं! बस, यही कहना पड़ता है कि, मैं देखता हूं, जो भी हो सकेगा पैसों के बिना ही होगा। एक बार तो मामला टल जाता है, लेकिन अगली मुलाकात में फिर वही सवाल, वही गुहार! अंततः रिश्ते सिमट जाते हैं, बचपन की दोस्ती संदेह में बदल जाती है। दुआ-सलाम घटती जाती है। एक दूरी और दुराव जैसे हालात बन जाते हैं।

वक्त के साथ आप अपने गांव में ‘अजनबी’ हो जाते हैं, खुद को सैलानी की तरह पाते हैं। रिश्तों में ठंडापन पसर जाता है। फिर आप चाहें या न चाहें, आपको गांव बिसरा देना पड़ता है। मन के अनंत कोनों में पछतावा विराट आकार लेता रहता है। जिन दुश्वारियों से खुद निकलकर आए हैं, वे ही तमाम दुश्वारियां लोगों को घेरे हुए हैं। उनकी जिंदगी को मुश्किल बना रही हैं, लेकिन आपके पास सीधे तौर पर कोई समाधान नहीं होता। आप केवल सुन सकते हैं, कोई सैद्धांतिक रास्ता बता सकते हैं, लेकिन धरातल पर कुछ कर पाना उतना आसान नहीं होता, जितना कि कई बार लगता है। कभी-कभी उपदेश दे सकते हैं कि बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दो, जिले के सरकारी अस्पताल में मां का ईलाज करा लो, बेटी की शादी में ज्यादा दहेज मत देना, बैंक से बेमतलब कर्ज मत लेना…………………पर, ये उपदेश किसी काम नहीं आते।

गांव के लोग सच्चाई को ज्यादा गहरे तक जानते-समझते हैं, उन्होंने सिस्टम की ज्यादा मार झेली हुई है, उन्हें किसी उपदेश और दिलासा पर यकीन नहीं होता। उन्हें ज्यादातर बातें झूठी लगने लगती हैं, उनका विश्वास उठने लगता है और इस उठते हुए विश्वास की एक वजह हम जैसे लोग भी होते हैं। जारी…………….

किसान और खेती की आउटसोर्सिंग से किसका भला होगा?

कृषि प्रधान भारत की विडंबना यह है कि एक के बाद एक सरकारों की नीतियों, लागत व मूल्‍य नीति की खामियों और घटती जोत के आकार के चलते किसान और समूचा कृषि क्षेत्र मुश्किल में उलझा हुआ है।

इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण यह है कि पिछले 20 साल के दौरान हर रोज औसतन 2035 किसान मुख्‍य खेतीहर का दर्जा खो रहे हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि सभी सरकारें महंगाई पर काबू करने के नाम पर किसानों को उनकी उपज का पूरा दाम देने से बचती रही हैं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। किसान की बदकिस्‍मती देखिए कि वह हर चीज फुटकर में खरीदता है, थोक में बेचता है और दोनों तरफ का भाड़ा भी खुद ही उठाता है।

एनएसएसओ के 70वें राउंड के आंकड़े बताते हैं कि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर कृषक परिवार की औसत मासिक आमदनी महज 6426 रुपये है। इस औसत आमदनी में खेती से प्राप्‍त आय का हिस्‍सा महज 47.9 फीसदी है जबकि 11.9 फीसदी आय मवेशियों से, 32.2 फीसदी मजदूरी या वेतन से और 8 फीसदी आय गैर-कृषि कार्यों से होती है।

बढ़ती लागत के चलते किसान का मुनाफ लगातार घटता जा रहा है। वर्ष 2015 में पंजाब के कृषि विभाग ने बढ़ती लागत के मद्देनजर गेहूं का न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य 1950 रुपये प्रति कुंतल तय करने की सिफारिश की थी। खुद पंजाब के मुख्‍यमंत्री ने कृषि लागत एवं मूल्‍य आयोग यानी सीएसीपी और केंद्र सरकार से गेहूं का एमएसपी 1950 रुपये करने की मांग की थी। लेकिन नतीजा क्‍या हुआ? गेहूं का एमएसपी महज 1525 रुपये तय किया गया। अब बताईये 425 रुपये प्रति कुंतल का नुकसान किसान कैसे उठाएगा?

केंद्र में नई सरकार आने के बाद किसानों को उम्‍मीद जगी थी कि स्‍वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जाएगा। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में किसानों को लागत पर 50 फीसदी मुनाफा दिलाने का वादा किया था। लेकिन ये उम्‍मीदें भी फरवरी, 2015 ने चकनाचूर हो गईं जब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह कृषि उपज का न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य लागत से 50 फीसदी ज्‍यादा बढ़ाने में सक्षम नहीं है। केंद्र सरकार की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि लागत पर 50 फीसदी बढ़ोतरी बाजार में उथलपुथल ला सकती है। तर्क यह है कि 60 करोड़ लोगों सिर्फ इसलिए वाजिब दाम से वंचित रखा जाए ताकी बाजार न बिगड़े। इस तरह की नीतियां लागू करने वाले सरकारी अधिकारी क्‍या 30 दिन काम कर 15 दिन का वेतन लेने को तैयार हैं? फिर किसान के साथ ये खिलवाड़ क्‍यों?

कृषि के मामले में नीतिगत खामियों का सिलसिला उपज के दाम तक सीमि‍त नहीं है। और भी तमाम उदाहरण हैं। सरकार ने 5 लाख टन ड्यूटी फ्री मक्‍का का आयात किया था जिससे कीमतों में जबरदस्‍त गिरावट आई। अब इसमें मक्‍का उगाने वाले किसान का क्‍या दोष जो समर्थन मूल्‍य से कम से उपज बेचने को मजबूर हुआ? क्‍या ऐसे स्थितियों में सरकार को किसान के नुकसान की भरपाई नहीं करनी चाहिए? क्‍या इसी तरह के हालत किसान को कर्ज के जाल में नहीं उलझाते हैं? मांग और आपूर्ति की स्थिति को देखते हुए कृषि उपज के आयात या निर्यात के फैसले सरकार को लेने होते हैं लेकिन इन फैसलों में किसान के हितों की रक्षा भी तो होनी चाहिए।

हाल ही में केंद्र सरकार ने मोजांबिक से दाल आयात के लिए दीर्घकालीन समझौता किया है। इसके तहत वर्ष 2021 तक 2 लाख टन दालों का आयात किया जाएगा। भारत सरकार मोजांबिक में कॉपरेटिव फार्मिंग का नेटवर्क खड़ा करेगी और किसानों को दलहन उत्‍पादन के लिए अच्‍छे बीज और सहायता दी जाएगी। इन किसानों की उपज को सरकार न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर खरीदेगी।

हैरानी की बात यह है कि सरकारी एजेंसियां भारत में सिर्फ 1 फीसदी दालों की खरीद न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर कर पाती हैं। जबकि यही सरकार अफ्रीका के किसानों को 100 फीसदी खरीद एमएसपी पर करने का भरोसा दिला रही है। ऐसा भरोसा भारत के किसानों को दिया जाए तो यहां भी दलहन उत्‍पादन बढ़ सकता है। इसका सबूत यह है कि इस साल दलहन के समर्थन मूल्‍य में सरकार ने 425 रुपये प्रति कुंतल तक की बढ़ोतरी की है और 15 जुलाई तक दलहन की बुवाई में गत वर्ष के मुकाबले 40 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की जा चुकी है। अधिकांश कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि खेती की आउटसोर्सिंग भारतीय किसानों के हितों के खिलाफ है।

हालांकि, सरकार ने मुख्‍य आर्थिक सलाहकार के नेतृत्‍व में दलहन पर नीति बनाने के लिए एक समिति का गठन किया है जो एमएसपी, बोनस और दालों के उत्‍पादन के लिए किसानों को रियायतें आदि देने जैसे विकल्‍पों पर विचार करेगी। लेकिन दिक्‍कत यह है कि सरकार अपनी नीतिगत खामियों की तरफ तभी ध्‍यान देती है जबकि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर बवाल खड़ा हो जाए। जबकि कामचलाऊ उपायों के बजाय दीर्घकालीन नीतियों और उपायों के जरिये किसान को सहारा देने की जरूरत है।

11 महीने में 17 कॉटन मिलें बंद, ‘मेक इन इंडिया’ को चुनौती

‘मेक इन इंडिया’ और उद्योगों को बढ़ावा देने के तमाम दावों के बावजूद 11 महीनों के दौरान देश में 17 कॉटन मिल्‍स बंद हो गई हैं। ये मिलें नकदी की कमी, घटते मुनाफे और बढ़ती उत्‍पादन लागत से जूझ रही थीं और आखिरकार अपना वजूद बचाने में नाकाम रहीं। यह स्थिति देश के टेक्‍सटाइल सेक्‍टर की चुनौतियों को उजागर करती है।

लोकसभा में सांसद राजू शेेट्टी और प्रो॰ यविन्द्र विश्‍वनाथ गायकवाड़ द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में कपड़ा राज्‍य मंत्री अजय टम्‍टा ने जून, 2016 से मई, 2016 के दौरान देश में 17 सूती/मानव निर्मित फाइबर टेक्‍सटाइल मिलों (गैर-एसएसआई) के बंद होने की जानकारी दी है। टम्‍टा ने बताया कि इन सूती मिलों के बंद होने की प्रमुख वजह पूंजी की कमी, नकदी का अभाव, बढ़ती उत्‍पादन लागत और घटना मुनाफा है।

हैरानी की बात तो यह है कि ‘मेक इन इंडिया’ और उद्योगों को बढ़ावा देनेे का दावा कर रही केंद्र सरकार के पास बंद कॉटन मिलों के पुनरूद्धार के लिए वित्‍त और तकनीकी सहायता की कोई योजना नहीं है। यह बात भी कपड़ा राज्‍य मंत्री अजय टम्‍टा ने लोकसभा में दिए अपने जवाब में स्‍वीकार की है।

सांसदों ने यह भी पूछा था कि क्‍या सरकार नए टेक्‍सटाइल/स्पिनिंग मिल्‍स कलस्‍टरों की स्‍थापना करने जा रही है? इसके जवाब में टम्‍टा ने बताया कि सरकार आमतौर पर नई टेक्‍सटाइल यूनिटें स्‍थापित नहीं करती। बल्कि उद्याेेगों और निजी उद्यमियों को बढ़ावा देने वाली नीतियां और माहौल सुनिश्चित करती है।

गौरतलब है कि इस समय देश में 1420 सेती/मानव निर्मित फाइबर टेक्‍सटाइल मिलें हैं। बंद हुईं 17 मिलों में से 6 तमिलनाडु, 3 आंध्र प्रदेश, 3 कर्नाटक और एक-एक तेलंगाना, हरियाणा, महाराष्‍ट्र, राजस्‍थान और उत्तर प्रदेश में हैं। फिलहाल देश में 14 सौ से ज्‍यादा कॉटन या मैन मेड फाइबर टेक्‍सटाइल मिल्स हैं।

जारी रहेगा कपास की कीमतों में तेजी का रुख

घरेलू उत्‍पादन में कमी के चलते इस साल कपास का भाव करीब 30-35 फीसदी ज्‍यादा हैं। अक्‍टूबर में नई फसल आने तक कपास की कीमतों में तेजी का रुख बने रहने के आसार हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया को अपना सारा कॉटन स्‍टॉक छोटे व लघु उद्योगों को बेचने के निर्देश दिए थे। इसके बावजूद क्रेडिट एजेंसी इंडिया रेटिंग का मानना है कि नई कपास बाजार में आने तक कीमतों में तेज गिरावट के आसार नहीं हैं।

गौरतलब है कि इस साल कपास की उपज का क्षेत्र कम रहने की आशंका जताई जा रही है। इसके अलावा पंजाब सहित कई क्षेत्रों में सफेद कीट के प्रकोप की वजह से उत्‍पादन में कमी आ सकती है। इस वजह से भी कपास की कीमतों में तेजी रह सकती है।

इंडिया रेटिंग की रिपोर्ट के अनुसार, लगातार दो वर्षों से कमजोर मानसून और कई राज्‍यों में कपास पर कीटों के प्रकोप की वजह से कपास उत्‍पादन गिरा है। वर्ष 2015-16 सीजन में देश का कपास उत्‍पादन 7.4 फीसदी घटकर 352 करोड़ बेल्‍स रहने का अनुमान है। विश्‍व स्‍तर पर भी कपास उत्‍पादन 18 फीसदी गिरने के आसार हैं।

किसान और खेती की आउटसोर्सिंग से किसका भला होगा?

पिछले 20 साल के दौरान हर रोज औसतन 2035 किसान मुख्‍य खेतीहर का दर्जा खो रहे हैं।

 

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कृषि प्रधान भारत की विडंबना यह है कि एक के बाद एक सरकारों की नीतियों, लागत व मूल्‍य नीति की खामियों और घटती जोत के आकार के चलते किसान और समूचा कृषि क्षेत्र मुश्किल में उलझा हुआ है।

इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण यह है कि पिछले 20 साल के दौरान हर रोज औसतन 2035 किसान मुख्‍य खेतीहर का दर्जा खो रहे हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि सभी सरकारें महंगाई पर काबू करने के नाम पर किसानों को उनकी उपज का पूरा दाम देने से बचती रही हैं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। किसान की बदकिस्‍मती देखिए कि वह हर चीज फुटकर में खरीदता है, थोक में बेचता है और दोनों तरफ का भाड़ा भी खुद ही उठाता है।

एनएसएसओ के 70वें राउंड के आंकड़े बताते हैं कि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर कृषक परिवार की औसत मासिक आमदनी महज 6426 रुपये है। इस औसत आमदनी में खेती से प्राप्‍त आय का हिस्‍सा महज 47.9 फीसदी है जबकि 11.9 फीसदी आय मवेशियों से, 32.2 फीसदी मजदूरी या वेतन से और 8 फीसदी आय गैर-कृषि कार्यों से होती है।

बढ़ती लागत के चलते किसान का मुनाफ लगातार घटता जा रहा है। वर्ष 2015 में पंजाब के कृषि विभाग ने बढ़ती लागत के मद्देनजर गेहूं का न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य 1950 रुपये प्रति कुंतल तय करने की सिफारिश की थी। खुद पंजाब के मुख्‍यमंत्री ने कृषि लागत एवं मूल्‍य आयोग यानी सीएसीपी और केंद्र सरकार से गेहूं का एमएसपी 1950 रुपये करने की मांग की थी। लेकिन नतीजा क्‍या हुआ? गेहूं का एमएसपी महज 1525 रुपये तय किया गया। अब बताईये 425 रुपये प्रति कुंतल का नुकसान किसान कैसे उठाएगा?

केंद्र में नई सरकार आने के बाद किसानों को उम्‍मीद जगी थी कि स्‍वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जाएगा। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में किसानों को लागत पर 50 फीसदी मुनाफा दिलाने का वादा किया था। लेकिन ये उम्‍मीदें भी फरवरी, 2015 ने चकनाचूर हो गईं जब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह कृषि उपज का न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य लागत से 50 फीसदी ज्‍यादा बढ़ाने में सक्षम नहीं है। केंद्र सरकार की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि लागत पर 50 फीसदी बढ़ोतरी बाजार में उथलपुथल ला सकती है। तर्क यह है कि 60 करोड़ लोगों सिर्फ इसलिए वाजिब दाम से वंचित रखा जाए ताकी बाजार न बिगड़े। इस तरह की नीतियां लागू करने वाले सरकारी अधिकारी क्‍या 30 दिन काम कर 15 दिन का वेतन लेने को तैयार हैं? फिर किसान के साथ ये खिलवाड़ क्‍यों?

कृषि के मामले में नीतिगत खामियों का सिलसिला उपज के दाम तक सीमि‍त नहीं है। और भी तमाम उदाहरण हैं। सरकार ने 5 लाख टन ड्यूटी फ्री मक्‍का का आयात किया था जिससे कीमतों में जबरदस्‍त गिरावट आई। अब इसमें मक्‍का उगाने वाले किसान का क्‍या दोष जो समर्थन मूल्‍य से कम से उपज बेचने को मजबूर हुआ? क्‍या ऐसे स्थितियों में सरकार को किसान के नुकसान की भरपाई नहीं करनी चाहिए? क्‍या इसी तरह के हालत किसान को कर्ज के जाल में नहीं उलझाते हैं? मांग और आपूर्ति की स्थिति को देखते हुए कृषि उपज के आयात या निर्यात के फैसले सरकार को लेने होते हैं लेकिन इन फैसलों में किसान के हितों की रक्षा भी तो होनी चाहिए।

हाल ही में केंद्र सरकार ने मोजांबिक से दाल आयात के लिए दीर्घकालीन समझौता किया है। इसके तहत वर्ष 2021 तक 2 लाख टन दालों का आयात किया जाएगा। भारत सरकार मोजांबिक में कॉपरेटिव फार्मिंग का नेटवर्क खड़ा करेगी और किसानों को दलहन उत्‍पादन के लिए अच्‍छे बीज और सहायता दी जाएगी। इन किसानों की उपज को सरकार न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर खरीदेगी।

हैरानी की बात यह है कि सरकारी एजेंसियां भारत में सिर्फ 1 फीसदी दालों की खरीद न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर कर पाती हैं। जबकि यही सरकार अफ्रीका के किसानों को 100 फीसदी खरीद एमएसपी पर करने का भरोसा दिला रही है। ऐसा भरोसा भारत के किसानों को दिया जाए तो यहां भी दलहन उत्‍पादन बढ़ सकता है। इसका सबूत यह है कि इस साल दलहन के समर्थन मूल्‍य में सरकार ने 425 रुपये प्रति कुंतल तक की बढ़ोतरी की है और 15 जुलाई तक दलहन की बुवाई में गत वर्ष के मुकाबले 40 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की जा चुकी है। अधिकांश कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि खेती की आउटसोर्सिंग भारतीय किसानों के हितों के खिलाफ है।

हालांकि, सरकार ने मुख्‍य आर्थिक सलाहकार के नेतृत्‍व में दलहन पर नीति बनाने के लिए एक समिति का गठन किया है जो एमएसपी, बोनस और दालों के उत्‍पादन के लिए किसानों को रियायतें आदि देने जैसे विकल्‍पों पर विचार करेगी। लेकिन दिक्‍कत यह है कि सरकार अपनी नीतिगत खामियों की तरफ तभी ध्‍यान देती है जबकि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर बवाल खड़ा हो जाए। जबकि कामचलाऊ उपायों के बजाय दीर्घकालीन नीतियों और उपायों के जरिये किसान को सहारा देने की जरूरत है।

साल भर में ही गुटबाजी का शिकार डीडी किसान, नरेश सिरोही बाहर

साल भर में ही आंतरिक गुटबाजी का शिकार हुआ किसान चैनल। सलाहकार पद से किसान नेता नरेश सिरोही को हटाया गया।

नई दिल्‍ली। कृषि मंत्रालय से संजीव बालियान और ग्रामीण विकास मंत्रालय से चौधरी बीरेंद्र सिंह की विदाई के बाद भाजपा के एक और जाट नेता को झटका लगा है। डीडी किसान चैनल के सलाहकार नरेश सिरोही की सेवाएं अचानक समाप्‍त कर दी गई हैं। सिरोही भाजपा किसान मोर्चा के राष्‍ट्रीय उपाध्‍यक्ष रहे हैं और चैनल की लांचिंग के वक्‍त से ही अहम भूमिका निभा रहे थे। काफी समय से डीडी किसान में आंतरिक गुटबाजी और खींचतान की खबरें आ रही थीं। जिसका नतीजा सिरोही की विदाई के तौर पर सामने आया है।

यूपी चुनाव के मद्देनजर उम्‍मीद की जा रही थी कि भाजपा जाट नेताओं को तवज्‍जो देगी लेकिन बालियान और सिरोही के मामले में उल्‍टा हुआ है। मिली जानकारी के अनुसार, गत 11 जुलाई को डीडी किसान से नरेश सिरोही की सेवाएं तत्‍काल प्रभाव से समाप्‍त करने का आदेश जारी हुआ है। वह चैनल लांच करने वाली स्‍टैरिंग कमेटी के सदस्‍य थे। सिरोही ने देश के तकरीबन हरेक जिले में डीडी किसान मॉनिटरों को नियुक्त किया था। इन नियुक्तियों को बाद में दूरदर्शन के आला अधिकारियों ने रद्द कर दिया था। तभी चैनल में सिरोही के घटते कद और अंदरुनी गुटबाज़ी का अंदाजा होने लगा था।

माना जा रहा है कि डीडी किसान से नरेश सिरोही की विदाई के पीछे प्रसार भारती के चेयरमैन ए. सूर्यप्रकाश के साथ उनका तालमेल न बन पाना और चैनल मॉनिटरों की नियुक्ति का मामला प्रमुख वजह बना। असलीभारत.कॉम से बातचीत में सिरोही ने बताया कि उन्होंने चैनल को निजी हाथों में सौंपने या किसी प्राइवेट चैनल से चैनल हेड लाने की कोशिशों का विरोध किया। जिसका खामियाजा उन्हें भुगतान पड़ा। उन्होंने चैनल में कई गलत लोगों की भर्तियों पर भी सवाल उठाए थे।

सिरोही का दावा है कि किसान मॉनिटरों की नियुक्ति प्रसार भारती के आला अधिकारियों की मंजूरी से की गई थी और इसमें कोई गड़बड़ी नहीं हुई। बल्कि इन मॉनिटरों ने चैनल को लोकप्रिय बनाने के लिए काफी मेहनत की। ये मॉनिटर अवैतनिक थे।

सिरोही ने जेटली से की थी सूर्यप्रकाश की शिकायत

पिछले महीने नरेश सिरोही ने डीडी किसान में चल रही गड़बड़ि‍यों की शिकायत तत्‍कालीन सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली से कर दी थी। मिली जानकारी के अनुसार, जेटली को लिखे पत्र में उन्‍होंने चैनल के अाला अधिकारियों के साथ-साथ प्रसार भारती के चेेयरमैन ए. सूर्यप्रकाश पर भी सवाल उठाए थे। संभवत: सिरोही का यही पत्र उनकी विदाई की वजह बना।

किसान चैनल साल भर में ही आंतरिक राजनीति का शिकार

केंद्र की सत्‍ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले किसान चैनल का वादा निभाया था। केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद सबसे पहले जिन लोगों की नियुक्ति हुई उनमें नरेश सिरोही का नाम प्रमुख था। लेकिन साल भर में ही किसान चैनल आंतरिक राजनीति का शिकार हो गया है। नरेश सिरोही की बर्खास्‍तगी के बाद यह गुटबाजी और तेज हो सकती है। चैनल की गुणवत्‍ता और टीआरपी को लेकर भी तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं।

समाज और पर्यावरण के बीच से गुम होते घराट

घराट सिर्फ आटा पीसने या धान कूटने का यन्त्र नहीं है बल्कि अादिवासी/पर्वतीय क्षेत्र की एक संस्कृति और प्राकृतिक संसाधनों के बीच सामंजस्य का एक अनूठा नमूना है। हिन्द कुश हिमालय क्षेत्र मे 2 लाख घराटो का इतिहास मिलता है जो धीरे-धीरे समाप्त हो गए हैं।

हिंंदुुकुश-हिमालय क्षेत्र मेंं 2 लाख घराटोंं का इतिहास मिलता है जो धीरे-धीरे समाप्त हो गए हैं। हालांकि इन्‍हें बचाने के लिए कुछ सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर प्रयास भी हुए हैं लेकिन ज्‍यादातर अपनी पीठ थपथपाने तक ही सीमित रहे हैं ..।।

घराट जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) और ग्लोबल वार्मिंग का एक सरल जबाब भी है। आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज के खतरे से सहमी हुई है। कहींं बाढ़ तो कहींं बेमौसम बारिश या ओलावृष्टि मुसीबत बनकर आते हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर विद्वानोंं में दो मत हो सकते हैंं लेकिन यह मानव सभ्यता और पृथ्‍वी पर जनजीवन के लिए एक खतरा है इस पर किसी को भी संदेह नहीं है।

पूरी दुनिया के वैज्ञानिक और राजनैतिक नेतृत्व इस खतरे को कम करने या टालने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैंं। जहां एक तरफ ग्रीन टेक्नोलॉजी (green technology), फ्यूल एफिशिएंसी (fuel efficiency), रिन्यूअल एनर्जी ( renewable energy) और न जाने कितने नए-नए शब्द सुनाई दे रहे हैं। वहींं दूसरी तरफ प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाले किसी भी कार्य को करने में इन्सान जरा भी झिझक नहींं रहा है।

गेहूं पीसकर आटा बनाने या धान से चावल निकालने जैसे बेहद साधारण कामों के लिए भी बिजली/डीजल जैसे ऊर्जा के उच्चतम स्रोतों का प्रयोग कर रहा है, जबकि मानव सभ्यता के प्रथम चरण से ही आटा बनाने या धान कूटने जैसे साधारण कार्योंं के लिए ऊर्जा के न्यूनतम स्रोतों का सफलतापूर्वक प्रयोग मनुष्य करता आ रहा है।

घराट अर्थात पानी से चलने वाली चक्की या पनचक्की मानव निर्मित एक बेहद साधारण और प्राथमिक तकनीक है, जिसमें पानी की धारा को थोड़ा-सा मोड़कर काइनेटिक एनर्जी अर्थात गतिक ऊर्जा को मैकेनिकल एनर्जी अर्थात मशीनी ऊर्जा मेंं परिवर्तित किया जाता है। इस कार्य मेंं न तो पर्यावरण का कोई नुकसान होता है ओर न ही पानी मेंं किसी भी प्रकार का प्रदूषण। इस तरह प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाए प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाते हुए कुदरती शक्ति का इस्तेमाल किया जाता है।

पूरे हिंंदूकुश-हिमालय क्षेत्र में लगभग 2 लाख घराटोंं का इतिहास मिलता है जो धीरे –धीरे सरकारों की उदासीनता, गलत तकनीक के चयन और ऊर्जा के उच्‍चतम स्रोत के अंधाधुंंध इस्तेमाल के परिणामस्वरूप अाज लगभग समाप्त हो रहे हैंं। समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह किसी समाज और संस्कृति को गुलाम बनाने की मानसिकता का परिणाम है कि समाज से उसका ज्ञान, विज्ञान, तकनीक और संस्कृति छीन लो और फिर उसे अपने पर पूरी तरह से अाश्रित बना डालो। जिससे कि अाटा पीसने, धान कूटने और तिलहन से तेल निकालने जैसे साधारण कार्यों के लिए भी वो दूसरों पर अाश्रित रहे ताकि विकास के नाम पर उनके साथ मनमानी की जा सके।

तकनीकी इतिहास के जानकार मानते है कि तकनीक का उदय अचानक से नहीं होता है बल्कि तकनीक एक स्टेज (स्तर) से दूसरे स्टेज की तरफ जाती है, अर्थात तकनीक का विकास एक सतत प्रकिया है, बशर्ते उस पर ध्यान दिया जाए। लेकिन अफसोस ज्यादातर घराट अाज भी पुरानी तकनीक से ही चल रहे हैं और इसी कारण समय के साथ कदम ताल नही कर पा रहे हैं। लेकिन मामला सिर्फ गति का नहीं है, गति तो बढ़ाई भी जा सकती है।

घराटों को व्यापारिक तौर पर लाभप्रद भी बनाया जा सकता है, इसके लिए थोड़ा नीति में और थोड़ा तकनीकीी में बदलाव करना होगा। पहाडी क्षेत्रों में जो राशन जाता है उसमें आटे की जगह गेंहूं जाए। सरकारे घराट के आटे को प्रथमिकता देंं। इससे न सिर्फ स्वास्‍थवर्धक आटा मिलेगा बल्कि पर्यावरण की रक्षा भी होगी और पहाड़ोंं से पलायन रोकने में भी मदद मिलेगी।

हालांकि कुछ स्थानोंं पर घराट मेंं तकनीकी सुधार के लिए कुछ प्रयास भी किए गए हैं, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। यह तभी संभव है जब मुख्य धारा की राजनीति और तथाकथित मुख्य धारा का समाज अपनी साम्राज्यवादी सोच को बदलेंगे और उन तकनीक, विचारों ओर संस्कृतियों को आगे बढ़ने का मौका देंगे जो अाज किसी वजह से पीछे छूट गए हैं। घराटों का पुनर्जीवन इन समाजों को तकनीकी और अर्थिक तौर पर न सिर्फ सामर्थ्यवान बनाएगा, बल्कि आत्मनिर्भर भी बनाएगा। यही ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज जैसे सवालों का भी जबाब है।