किसानों के लिए क्यों जरूरी है एमएसपी की गारंटी

भारत में तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की लेकर एक तरफ ऐतिहासिक किसान आंदोलन चल रहा है वहीं एमएसपी पर खरीफ फसलों की खरीद भी जारी है। यह किसान आंदोलन का ही असर है कि खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय और कृषि मंत्रालय रोज धान और अन्य फसलों की खरीद के आंकड़े जारी करते हुए एक जताने का दावा कर रहा है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी पर खरीद के प्रति कितनी गंभीर है।  

खैर तीनों कानूनों के लागू होने के बाद सरकार खरीफ 2020-21 में रिकार्ड खरीद का दावा कर रही है। किसान आंदोलन का यह असर है कि मौजूदा खरीद के आंकड़े रोज सरकार जारी कर रही है। एमएसपी पर धान 23 राज्यों में और गेहूं 10 राज्यों में खरीदा जाता है। इस बार सरकारी मंशा 156 लाख से अधिक किसानों से 738 लाख टन तक धान खरीदने की है जिस पर 1.40 लाख करोड़ रुपए व्यय होगे। पिछले साल 627 लाख टन धान खरीदी हुई थी। इस बार 125 लाख गांठ कपास की खरीद का लक्ष्य भी सरकार ने रखा है जिस पर 35,500 करोड़ रुपए व्यय होगा। धान खरीदी के लिए इस बार देश भर में करीब 40 हजार केंद्र खोले गए हैं। फिर भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की बुरी दशा है जहां पखवारे तक भाग दौड़ के बाद भी तमाम किसान अपना धान नहीं बेंच पा रहे हैं और मजबूरी में एक हजार से 1200 रुपए में व्यापारियों को बेच रहे हैं। जबकि धान का एमएसपी 1868 रुपए कामन और 1888 रुपए प्रति कुंतल ए ग्रेड का है। 

सरकार एमएसपी पर देश भर में 15 दिसंबर तक करीब 391 लाख टन धान की खरीदी कर चुकी है। यह पिछले साल इसी अवधि की गयी 319 लाख टन से 22.41 फीसदी ज्यादा है। खरीद में भी सबसे अधिक 202 लाख टन से अधिक का योजना पंजाब का है जो करीब 52 फीसदी का बैठता है। 22 नवंबर तक पंजाब का योगदान करीब 70 फीसदी तक था। अब तक खरीफ में 73,781 करोड़ रुपये से अधिक का धान किसानों से खरीदा गया है और इससे 44.32 लाख किसान लाभान्वित हुए हैं। वही 52.40 करोड़ रुपये एमएसपी मूल्य पर 5089 टन खोपरा खरीद से कर्नाटक और तमिलनाडु के 3,961 किसानों को फायदा हुआ। धान के बाद सबसे अधिक 10.01 लाख किसानों को एमएसपी पर कपास बेचने से हुआ। कपास खरीद पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और कर्नाटक राज्यों में जारी है और अब तक 14,894 करोड़ रुपये से अधिक दाम पर 5179479  गांठ कपास खरीदी गयी है। 

पंजाब में सबसे अधिक खरीद की वजह व्यवस्थित तैयारी और मंडियां भी हैं। लेकिन इसी साल देश मे पंजाब से भी अधिक और 129.42 लाख टन गेहूं मध्य प्रदेश ने खरीदा, जबकि उत्तर प्रदेश केवल 35.77 लाख टन खरीदी के साथ चौथे नंबर पर रहा। एमएसपी पर खरीद को लेकर कई राज्यों में दिक्कतें हैं। इसी साल के आरंभ में आंध्र प्रदेश में धान किसानों की समस्याओं को लेकर उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडु को कृषि मंत्री और खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री से हस्तक्षेप करना पड़ा था। बाद में 2 मार्च 2020 को खाद्य मंत्रालय और एफसीआई के अधिकारियों ने उपराष्ट्रपति से मुलाकात कर धान किसानों से समय पर खरीदारी न होने और समय पर भुगतान के मसले पर सफाई दी और समाधान के लिए जल्दी कार्रवाई करने औऱ राज्य सरकार को बकाया राशि का तुरन्‍त भुगतान करने की बात कही।

इस समय चल रहा देशव्यापी किसान आंदोलन तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने के साथ एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी भी मांग रहा है। किसानों की एमएसपी की मांग को राष्ट्रव्यापी समर्थन मिलते देख भारत सरकार के कई मंत्री एक स्वर में एमएसपी पर खरीद जारी रखने की बात किसान संगठनों को लिख कर देने को तैयार है। लेकिन किसान चाहते हैं कि सरकार ऐसा कानून बनाए जिससे कोई भी उनके उत्पाद को एमएसपी से नीचे न खरीद सके। उसके लिए दंड की व्यवस्था हो। अभी एमएसपी पर खरीद दो दर्जन फसलों तक सीमित है। लेकिन गेहूं औऱ धान को छोड़ दें तो अधिकतर फसलों की खरीद दयनीय दशा में है। और ऐसा नहीं है कि मौजूदा किसान आंदोंलन में ही एमएसपी पर खरीद की चर्चा हो रही है। बीती एक सदी से किसान आंदोलनों के केंद्र में कृषि मूल्य नीति या वाजिब दाम शामिल रहा है। 

भारतीय किसान यूनियन के नेता स्व. महेंद्र सिंह टिकैत अपने जीवनकाल में कृषि उत्पादों के मूल्य 1967 को आधार वर्ष पर तय करने की मांग करते रहे। सारे प्रमुख किसान संगठन भी इस मांग से सहमत थे। अस्सी के दशक के बाद कोई ऐसा  किसान आंदोलन नहीं हुआ जिसमें फसलों का वाजिब दाम न शामिल रहा हो। खुद संसद, संसदीय समितियों और विधान सभाओं में इस पर व्यापक चर्चाएं हुई हैं। किसान संगठन चाहते हैं कि उनका उत्पाद सरकार खरीदे या निजी क्षेत्र लेकिन सही दाम मिलेगा तो उनके जीवन स्तर पर असर पड़ेगा और देश की अर्थव्यवस्था पर भी।

भारत के किसानों ने कठिन चुनौतियों और अपनी मेहनत से कम उत्पादकता के बावजूद भारत को चीन के बाद सबसे बडा फल औऱ सब्जी उत्पादक बना दिया है। चीन और अमेरिका के बाद सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश भारत ही है। पांच दशको में हमारा गेहूं उत्पादन 9 गुना और धान उत्पादन पांच गुणा से ज्यादा बढ़ा है। लेकिन खेती की लागत भी लगातार बढी है, जबकि उनके उत्पादों के दाम नहीं मिलते। जैसे ही किसान की फसल कटने वाली होती है, दाम गिरने लगते हैं। मौजूदा तीन कृषि कानूनो के बाद अगर एमएसपी की गारंटी बिना किसान बाजार के हवाले हो गया तो बड़े कारोबारी किसानों और उपभोक्ताओं दोनों की क्या दशा करेंगे, यह बात किसान समझ रहा है। 

सरकारी स्तर पर यह दावा हो रहा है कि पीएम-किसान सम्मान निधि जैसी योजना जो सरकार शुरू कर सकती है वह किसानों का अहित कैसे कर सकती है। भूमि जोतों के आधार पर साढे 14 करोड़ किसानों को किसान सम्मान निधि के दायरे में लाने की बात सरकार ने की थी लेकिन अब तक 10 करोड़ किसानों के खाते में सरकार ने एक लाख करोड़ रूपये पहुंचाया है। किसानों के इस आंकड़े के हिसाब से एमएसपी पर सरकारी खरीद को देखेंगे तो पता चलेगा कि कितने कम किसानो से एमएसपी पर उनकी उपज खरीदी जाती है। सरकारी एकाधिकार के दौर में अगर एमएसपी पर खरीद चंद राज्यों और दो फसलों तक सीमित है तो निजी क्षेत्र के दबदबे के बाद बिना गारंटी के किसान की क्या हालत होगी। 

संसद के मानसून सत्र में भी यह विषय उठा था तो कृषि मंत्री नरेन्द्र  सिंह तोमर ने दावा किया था कि अब किसानों को उपज बेचने के प्रतिबंधों से मुक्ति के साथ अधिक विकल्प मिलेगा। कृषि मंडियों के बाहर एमएसपी से ऊंचे दामों पर खरीद होगी। उसी दौरान सांसदों ने मांग की थी कि विधेयक में यह गारंटी शामिल की जाये कि जो कारोबारी मंडियों से बाहर एमएसपी से कम दाम पर खरीदेगा वह दंडित होगा। लेकिन सरकार ने इसे नजरंदाज किया। जिससे किसानों के मन में संदेह का और बीजारोपण हुआ। यही नहीं हाल में हरियाणा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने राज्यों में अनाज बिक्री के लिए आने वाले दूसरे राज्यों के किसानों को रोकने और दंडित करने की बात तक की। अगर किसान अपनी मर्जी का मालिक है तो ऐसे बंधन क्यों। 

सरकार ने इसी साल खरीफ में मूल्य समर्थन योजना  के तहत 48.11 लाख टन दलहन और तिलहन की खरीद को मंजूरी दी। लेकिन 15 दिसंबर 2020 तक 1.72 लाख टन से अधिक दलहन खरीद हुई जिसका एमएसपी मूल्य 924.06 करोड़ रुपये है। इस खरीद से तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और राजस्थान के 96,028 किसानों को लाभ मिला। दलहन और तिलहन खरीद को बढ़ावा देने के लिए 2018 में प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान के तहत खास तवज्जो दी गयी। लेकिन इसके दिशानिर्देशों में उत्पादित 75 फीसदी फसल खरीद के दायरे से बाहर कर दी गयी। 2020-21 में राजस्थान में कुल 22.07 चना की खरीद हुई जबकि उपचुनावों के नाते मध्य प्रदेश में 27 फीसदी तक चना खरीदी हुई। मूंग खरीद न होने के कारण राजस्थान के किसानों को करीब 98 करोड़ का घाटा उठाना पड़ा। इसे लेकर किसानों ने आंदोलन भी किया और किसान महापंचायत के अध्यक्ष रामपाल जाट ने केंद्र सरकार को पत्र लिख कर गुहार भी लगायी लेकिन हालत नहीं सुधरी। 

कोरोना संकट में खाद्य सुरक्षा के हित में किसानों ने खरीफ बुवाई का क्षेत्र 316 लाख हेक्टेयर तक पहुंचा दिया जो पिछले पांच सालों के दौरान औसतन 187 लाख हेक्टेयर था। लेकिन एमएसपी में आशाजनक बढोत्तरी नहीं की गयी। भारतीय किसान यूनियन ने खरीफ एमएसपी घोषणा के साथ ही यह कहते हुए विरोध जताया था कि पिछले पांच वर्षों में इसकी सबसे कम मूल्य वृद्धि रही। धान का एमएससी 2016-17 में 4.3 फीसदी, 2017-18 में 5.4, 2018-19 में 12.9 और 2019-20 में 3.71 फीसदी बढ़ा था जबकि 2020-21 में सबसे कम 2.92 फीसदी बढ़ा। 

कृषि मूल्य नीति और मंडियो को लेकर किसानों को तमाम शिकायतें है।  मोदी सरकार ने स्वामिनाथन आयोग की सिफारिश के तहत एमएसपी तय करने का वादा किया था। लेकिन इसे आधा अधूरा माना गया। तमाम कमजोरियों के बाद भी सरकारी मंडियां बाजार की तुलना में किसानों के हितों की अधिक रक्षा करती हैं। अगर यह व्यवस्था भी अर्थहीन हो गयीं तो उत्तर भारत का किसान अपना गेहूं या चावल हैदराबाद या भुवनेश्वर के बाजार में बेचने कैसे जाएगा। यह काम बड़ा कारोबारी ही करेगा। बेशक किसान के पास कई विकल्प होने चाहिए। लेकिन यह छोटे किसानों के संदर्भ में 22 हजार ग्रामीण मंडियों या हाट बाजार के विकास से निकल सकते हैं। अधिकतर छोटे किसान अपने गांव में ही छोटे व्यापारियों को उपज बेचते हैं, जिस पर कोई रोक नहीं है। रोक इस पर लगनी चाहिए कि सरकार जो एमएसपी घोषित करती है बाजार में इससे कम में कोई कारोबारी न खरीदे। औद्योगिक औऱ दूसरे उत्पादों को अधिकतम कीमत वसूलने का लाइसेंस देने वाली सरकार किसानों को न्यूनतम मूल्य की गारंटी क्यों नहीं दे सकती।

राज्य सभा में 19 जुलाई, 2019 को गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्प के तहत सांसद और भाजपा किसान मोर्चा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष विजय पाल सिंह तोमर ने किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए संवैधानिक दर्जे वाले एक राष्ट्रीय किसान आयोग की स्थापना की मांग की थी जिसे व्यापक समर्थन मिला। उनका कहना था कि सरकार यह सुनिश्चित करे कि फसलों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीदा या बेचा न जाए और इसका उल्लंघन करने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाए। लेकिन अब यह मांग किसान आंदोलन की व्यापक मांग बन गयी है। जमीनी हकीकत यही है कि अगर इस व्यवस्था में किसानो के लिए एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी नहीं दी गयी तो सुधार किसानों को गहरी खाई में धकेल देंगे।

किसान आंदोलन और हिन्दी अखबारों का रवैया

किसानों द्वारा आंदोलन के चौथे दिन 29 नवम्बर को केन्द्र सरकार के सशर्त बातचीत के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिए जाने के बाद आंदोलन के लम्बा खींचने के आसार बन रहे हैं। किसान लगातार चौथे दिन भी सिंघू बॉर्डर पर डटे रहे और उन्होंने कहा है कि वे किसी भी स्थिति में आंदोलन से पीछे हटने वाले नहीं हैं। आंदोलन के चौथे दिन की स्थिति को अमर उजाला, हिन्दुस्तान, अृमत विचार व दैनिक जागरण ने किस तरह से अखबारों में जगह दी है? इसी का विश्लेषण आंदोलन के चौथे दिन के समाचारों का करने की कोशिश की है। अमर उजाला, अमृत विचार ने जहां दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को चौथे दिन मुख्य खबर बनाया है, वहीं हिन्दुस्तान से इसे मुख्य खबर तो नहीं बनाया, लेकिन पहले पेज पर जगह अवश्य दी है। दैनिक जागरण ने आंदोलन की खबर को पहले पन्ने में तो जगह नहीं दी, लेकिन इस बारे में “मन की बात” के अन्तर्गत प्रधानमन्त्री के बयान को मुख्य खबर अवश्य बनाया है।

अमर उजाला (नैनीताल) चौथे दिन के आंदोलन की खबरों के लिहाज से बेहतरीन करता दिखाई दिया। उसने पहले पेज पर “किसान वार्ता को तैयार … शर्त नहीं मानेंगे, पांच तरफ से दिल्ली की घेराबंदी करेंगे” शीर्षक से प्रमुख खबर प्रकाशित की है। पांच कॉलम में प्रकाशित खबर में उसने लिखा है कि किसान लम्बे प्रदर्शन की तैयारी में हैं और उन्होंने बुराड़ी मैदान में एकत्र होने की केन्द्र सरकार की मांग को ठुकराते हुए उसे खुली जेल करार दिया है। साथ ही किसानों ने केन्द्र सरकार द्वारा बातचीत की पेशकश के लिए शर्तें रखे जाने को उनका अपमान करार दिया है। चार दिन से सिंघू व टिकरी बॉर्डर पर डटे किसानों ने कहा कि केन्द्र सरकार ने अगर बिना शर्त बातचीत नहीं की तो वे दिल्ली की पांच मुख्य सड़कों को जाम कर देंगे।

समाचार में कहा गया है कि 30 किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने कहा कि गृह मन्त्री अमित शाह ने जो बुराड़ी मैदान जाने के बाद बातचीत की जो शर्त रखी है वह उन्हें मंजूर नहीं है। भारतीय किसान यूनियन के हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी ने कहा कि केन्द्र सरकार को बातचीत का माहौल बनाना चाहिए। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के नेताओं ने कहा कि अगर सरकार किसानों की मांगों के प्रति गम्भीर है तो उसे बात करनी चाहिए। भारतीय किसान यूनियन एकता (उगराहा) के अध्यक्ष जोगिन्दर सिंह ने कहा कि सरकार कृषि कानूनों को वापस ले इससे कम कुछ भी मंजूर नहीं। भाकियू (क्रान्तिकारी) के पंजाब अध्यक्ष सुरजीत सिंह फूल ने कि प्रतिनिधियों की समिति आगे का निर्णय करेगी। हम अपने मंच पर किसी भी राजनैतिक दल के नेता को जगह नहीं देंगे।

बॉक्स की खबर में कहा गया है कि हरियाणा की खाप पंचायतों ने किसान आंदोलन को समर्थन देने की घोषणा की है और कहा कि सोमवार 30 नवम्बर को किसान दिल्ली कूच करेंगे। एक अन्य बॉक्स में गृहमन्त्री अमित शाह का बयान प्रकाशित किया गया है कि उन्होंने कभी भी किसान आंदोलन को राजनीति से प्रेरित नहीं कहा। लोकतंत्र के तहत सभी को अपने मत रखने का अधिकार है। साथ ही उन्होंने विपक्ष पर निशाना साधा कि वह राजनीति के तहत कृषि कानूनों का विरोध कर रहा है। लगातार तीसरे दिन अमर उजाला ने “अन्नदाता आक्रोश में” शीर्षक से एक पूरा पेज आंदोलन की खबरों को समर्पित किया है। जो अखबार के पेज नम्बर-6 में प्रकाशित है। इसी पेज की प्रमुख खबर में कहा गया है कि किसानों के तेवर देख दिल्ली में हाई अलर्ट घोषित किया गया है। एक खबर में हरियाणा के सांगवान खाप के प्रधान व दादरी के निर्दलीय विधायक सोमबीर सांगवान का बयान प्रकाशित किया गया है कि पहले मैं सांगवान खाप का प्रधान हूं। म्हारे लिए आपसी भाई चारा पहले है, राजनीति बाद में। हरियाणा की 30 खापों ने एकत्र होकर निर्णय किया है कि वे आंदोलन के समर्थन में दिल्ली कूच करेंगे।

इसी पेज पर करनाल से एक अन्य खबर में कहा गया है कि किसानों के दबाव में हरियाणा सरकार ने कैथल, अम्बाला और कुरुक्षेत्र जिलों की पंजाब से लगती सीमा पर लगाए गए नाकों को किसानों के दबाव में हटा लिया है। सोनीपत से भेजे गए एक समाचार में कहा गया है कि दिल्ली के सिंघू बार्डर से हरियाणा की ओर पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड से आने वाले किसानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। रविवार ( 29 नवम्बर ) की शाम तक यहां राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पर 7 किलोमीटर तक 40,000 से अधिक किसान एकत्र हो चुके थे। इसी खबर में कहा गया कि किसानों के संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा कि किसान कृषि कानूनों को रद्द करने के साथ ही पराली व बिजली से जुड़े विधेयकों को वापस लेने की मांग सरकार से बातचीत के दौरान करेंगे। अगर सरकार बिना बातचीत भी किसानों की मॉग मान लेती है तो वह लोग वापस लौट जायेंगे। एक अन्य खबर में प्रसिद्ध पहलवान योगेश्वर दत्त व उनके शिष्य बजरंग पूनिया व महिला पहलवान विनेश फोगाट के किसान आंदोलन के समर्थन में ट्वीट करने की बात कही गई है।

इसी पेज में अब तक भाजपा की नीतियों का समर्थन करती रही बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का बयान भी प्रकाशित किया गया है। जिसमें उसने केन्द्र सरकार से कृषि कानूनों पर पुनर्विचार की अपील की है। उन्होंने अपने ट्वीट में कहा कि केन्द्र के नए कृषि कानूनों के खिलाफ पूरे देश के किसानों में आक्रोश व असहमति है। ऐसे में किसानों की सहमति के बिना बनाए गए इन कानूनों पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष व उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ पर हमला करते हुए कहा कि प्रदेश में विकास कार्य ठप हैं, किसान आंदोलन की राह पकड़े हुए हैं, अपराधियों के हौंसले बुलन्द है, पर मुख्यमन्त्री इन पर ध्यान देने की बजाय देशाटन पर निकले हैं। उन मन स्टार प्रचारक बनकर दूसरे राज्यों में घूमने का है। उन्हें अन्नदाता की कोई चिंता नहीं है।

चार दिन के किसान आंदोलन के बाद भी अमर उजाला ने इस पर अभी तक सम्पादकीय नहीं लिखा है। जिससे पता चलता है कि अखबार भले ही खबरों में सीधे केन्द्र सरकार का पक्ष भले ही न ले रहा हो, लेकिन आंदोलन को लेकर एक तटस्थ सम्पादकीय लिखने की “हिम्मत” वह चार दिन बाद भी नहीं जुटा पा रहा है। हां, सम्पादकीय पेज में उसने कृषि मामलों के विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा का लेख “क्यों नाराज हैं अन्नदाता” अवश्य प्रकाशित किया है। शर्मा कृषि नीति को लेकर सरकारों पर अपने लेख, इंटरव्यू में हमेशा तीखे हमले व सवाल करते रहे हैं। अपने इस लेख में भी उन्होंने कृषि कानूनों को लेकर किसानों की चिंता को सही बताते हुए लिखते हैं कि किसानों का यह आंदोलन अनूठा और ऐतिहासिक है। पहली बार देखने में आ रहा है कि पंजाब के किसानों के नेतृत्व में चल रहा यह आंदोलन किसी राजनैतिक दल या धार्मिक संगठन से प्रेरित नहीं है, बल्कि किसानों ने राजनीति और धर्म, दोनों को ही इस आंदोलन का समर्थन करने को बाध्य कर दिया है। वह लिखते हैं कि इस आंदोलन ने राजनीति को एक नई दिशा दे दी है।

देविन्दर शर्मा अपने लेख में कहते हैं कि जिस अमेरिका और यूरोप की तर्ज पर नए कृषि कानून बनाए गए हैं, वहां खेती इस समय सबसे गहरे संकट में है। तो फिर उस विफल मॉडल को भारत में जबरन क्यों लादा जा रहा है ? आज भी अमेरिका के किसानों पर 425 अरब डालर का कर्ज है और वहां के 87 प्रतिशत किसान आज खेती छोड़ने को तैयार हैं। यूरोपीय देशों में भी भारी सब्सिडी मिलने के बावजूद किसान लगातार खेती छोड़ रहे हैं। देविन्दर शर्मा लिखते हैं कि आंदोलन कर रहे किसानों की मांग कृषि के तीन नए कानूनों को हटाने की है, लेकिन मेरा मानना है कि एक चौथा कानून लाया जाय, जिसमें यह अनिवार्य हो कि देश में कहीं भी किसानों की फसल एमएसपी से कम कीमत पर नहीं खरीदी जाएगी।

अमृत विचार (बरेली – कुमाऊँ संस्करण) ने लगातार चौथे दिन किसान आंदोलन को न केवल पहले पेज पर जगह दी है, बल्कि उसे “किसानों ने ठुकराया केन्द्र का प्रस्ताव, कहा – बुराड़ी मैदान नहीं, खुली जेल” शीर्षक के तहत मुख्य खबर भी बनाया है। इस खबर के एक बॉक्स में किसानों के हवाले से कहा है कि वे लोग बुराड़ी मैदान में पहुंच चुके किसानों को वहां से वापस बुलायेंगे। वे लोग दिल्ली को घेरने के लिए आए हैं, न कि दिल्ली में घिर जाने के लिए। किसान के इस बयान से लगता है कि वे बेहद सतर्क हैं और सरकार के किसी झांसे में फंसने वाले नहीं है। वे सरकार को कोई ऐसा मौका नहीं देना चाहते हैं, जिससे कि सरकार को उनके ऊपर दबाव डालने का मौका मिल सके और आंदोलन बिना किसी परिणति के खत्म हो जाय। अखबार ने “मन की बात” के तहत प्रधानमन्त्री मोदी के किसान आंदोलन के सन्दर्भ में नए कृषि कानूनों के समर्थन में कही गई बात को पहले पेज पर “कृषि कानूनों से किसानों को मिले अधिकार” शीर्षक के तहत जगह दी है।

अमृत विचार ने आंदोलन के चार दिन के अन्दर ही दूसरी बार सम्पादकीय “भड़कते किसान” लिखा है। अखबार लिखता है कि कोरोना काल में देशव्यापी लॉकडाउन के बीच जब कृषि अध्यादेश को संसद ने पास किया था तो तब से किसान इसका विरोध कर रहे हैं। कृषि कानूनों को लेकर पिछले माह से पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह अपने विधायकों के साथ राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द से मिलने का समय मांग रहे हैं, पर उन्हें समय नहीं दिया जा रहा है।सम्पादकीय में लिखा गया है कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार के धुर विरोधी व्यक्ति को भी अपनी बात कहने, विरोध प्रदर्शन करने और सत्ता केन्द्रों के बाहर एकत्र होकर सामुहिक दबाव बनाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। यही अधिकार किसानों को भी है। इसी पेज में वरिष्ठ पत्रकार नवेद शिकोह का लेख “…. तुम तो नेतृत्व विहीन किसान हो” प्रकाशित किया गया है। जिसमें वे लिखते हैं कि शायद ही कोई आंदोलन ऐसा हो, जिस पर हिंसक होने के आरोप नहीं लगे हो। यहॉ तक कि देश की आजादी के लिए महात्मा गॉधी के “भारत छोड़ो आंदोलन” को भी अंग्रेजी हुकूमत ने हिंसा फैलाने वाला आंदोलन बताया था। लेख में आगे लिखा गया है कि किसान आंदोलन का कोई एक मजबूत नेता नहीं है। जो चिंताजनक है। बिना मजबूत नेतृत्व वाला कोई भी आंदोलन सरकार के लिए मुसीबत बनता है। उसमें संवादहीनता की सम्भावनाएँ अधिक होती हैं। इस दौर में महेन्द्र सिंह टिकैत जैसा मजबूत किसान नेता देश में कोई नहीं है। इसके अलावा किसान से सम्बंधित स्थानीय समाचारों को अखबार ने पेज नम्बर – 4 व 6 में महतवपूर्ण जगह दी है।

हिन्दुस्तान (हल्द्वानी) ने आंदोलन की खबर को पहले पेज पर दो कॉलम “किसान अड़े, अब रास्ते जाम करेंगे” शीर्षक के तहत जगह दी है। इसके अलावा पेज नम्बर -10 में “सड़कों पर किसान” के तहत लगभग पूरे पेज में आंदोलन की खबरें हैं। जिसमें बॉलीवुड के मशहूर गायक गुरु रंधावा, दिलजीत दोसांझ, अभिनेत्री-पायलट गुल पनाग और स्वरा भाष्कर के किसान आंदोलन के सम्बंध में ट्वीट किए जाने की खबर भी है। इस पेज में राहुल गॉधी का बयान कि कानून को सही बताने वाले क्या हल निकालेंगे? भी है। अखबार ने भाजपा के राष्ट्रीय महामन्त्री व उत्तराखण्ड के प्रभारी दुष्यन्त कुमार गौतम का बयान पेज नम्बर दो में “कांग्रेस की मानसिकता दंगा भड़काना: गौतम” प्रकाशित किया है। जिसमें वह देहरादून में गम्भीर आरोप लगाते हुए कह रहे हैं कि पंजाब के किसान आंदोलन को उग्रवादियों ने हाईजैक कर लिया है। बिना किसी ठोस तथ्यों के उन्होंने कह कि आंदोलन में खालिस्तान व पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाए जा रहे हैं। भाजपा के राष्ट्रीय महामन्त्री द्वारा इस तरह के गैर जिम्मेदार बयान से पता चलता है कि भाजपा नेताओं को उनकी सरकार के खिलाफ किसी भी तरह का लोकतांत्रिक आंदोलन पसन्द नहीं है। वे हर उस आंदोलन को जो उनकी सरकार के खिलाफ चलाया जाता है उसे देशद्रोही आंदोलन बताते में पूरी निर्लज्जता के साथ जुट जाते हैं।

दैनिक जागरण (हल्द्वानी) लगातार चौथे दिन भी सरकार का भौंपू बना नजर आया। किसानों को आंदोलन को राजनीति से प्रेरित व बेवजह का बताने वाले अखबार ने प्रधानमन्त्री मोदी के मन की बात के तहत नए कृषि कानूनों की हिमायत में कही गई बात को “कृषि सुधारों ने खोले नए रास्ते: मोदी” के तहत न केवल पहले पेज पर जगह दी है, बल्कि पांच कॉलम में पहली खबर बनाया है। आखिर, प्रधानमन्त्री ने अपने इस बयान में ऐसा क्या महत्वपूर्ण व नया कह दिया है कि अखबार को उसे मुख्य खबर बनानी पड़ी ? यह बात तो सरकार पिछले चार-पांच महीने से लगातार व हर रोज कह रही है, जब से नए कृषि कानूनों को जल्दबाजी में कोरोना की आड़ लेकर बिना किसी व्यापक बहस के संसद के संक्षिप्त मानसून सत्र में पारित करवा लिया था। अब बात हर रोज सरकार द्वारा कही जा रही हो, वह फिर से इतनी महत्वपूर्ण कैसे हो गई ?

अखबार के इस तरह के रुख से हर रोज यह साबित हो रहा है कि इसका प्रबंधन तंत्र किसान आंदोलन को गैरजरुरी बताने के लिए कुछ भी कर सकता है। इस तरह की खबरें लिखने के साथ ही वह सम्पादकीय में भी आंदोलन के खिलाफ कुतर्क की हद तक जाने को तैयार है। चार दिन में दूसरी बार लिखे सम्पादकीय “विरोध की जिद” में लिखा गया है कि जब केन्द्र सरकार नए कृषि कानूनों को बहुत ही कल्याणकारी व क्रान्तिकारी बता रही है तो किसानों को इसमें शक क्यों है ? अखबार सम्पादकीय में यह तक लिख रहा है कि जब अनेक कृषि विशेषज्ञ व अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि नए कानून किसानों के लिए नई सम्भावनाएं खोलने का काम करेंगे तो उन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। यह अलग बात है कि अखबार उन कृषि विशेषज्ञों व अर्थशास्त्रियों की बात का कोई जिक्र नहीं करता, जो इन कानूनों को किसानों को कारपोरेट का बंधुवा मजदूर बनाने वाला बता रही है और कह रही है कि इससे छोटी जोत के किसान हमेशा के बर्बाद हो जायेंगे।
अखबार सम्पादकीय में यह तक कुतर्क कर रहा है कि किसान बताएं कि नया कानून लागू होने के बाद अभी तक उनको क्या नुकसान हुआ है? उसका कहना है कि जब किसान को नुकसान होगा और वह आर्थिक तौर पर बर्बाद हो जाएगा तब वह कानून की खामियों पर बात करे उससे पहले उस पर बात करना और आशंका जताना बिल्कुल गलत है। इस तरह की कुतर्क भरी बातों का सम्पादकीय लिखने में अखबार की सम्पादकीय टीम को पत्रकारिता के लिहाज से जरा भी शर्म नहीं है।

दिल्ली आंदोलन की खबर को अखबार ने 13 नम्बर पेज पर “केन्द्र ने फिर दिया बुराड़ी मैदान में आने का प्रस्ताव” शीर्षक 6 कॉलम की खबर प्रकाशित की है। जो पूरी तरह से किसान आंदोलन की खबर न होकर केन्द्र सरकार का पक्ष लेने वाली खबर है। इसी पेज में दो कॉलम में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद का बयान “विरोध कर रहे किसानों ने नहीं समझा नए कानूनों को” प्रकाशित किया है। जिसमें वह कहते हैं कि किसानों ने बिना पढ़े व समझे ही कृषि कानूनों का विरोध प्रारम्भ किया है। वे एक बार उसे पढ़ लेंगे तो उन्हें पता चल जाएगा कि उनको भविष्य में कितना लाभ होने वाला है। रमेश चंद के इस बयान से इस बाद का पर्दाफाश होता है कि सरकार ने कानून बनाने से पहले किसान संगठनों व किसानों से न तो कोई बात की और न ही उन्हें विश्वास में लिया। और न किसानों ने सरकार से इस तरह के तथाकथित कृषि सुधार की बात कानून बनाकर करने को कहा था।


नीति आयोग के सदस्य का बयान इस बात को भी बेनकाब करता है कि संसद में कानून पारित हो जाने और किसान संगठनों द्वारा इसका विरोध किए जाने के बाद भी पिछले तीन – चार महीनों में सरकार की ओर से किसानों की आशंकाओं को दूर करने की कोई पहल नहीं की गई। उसने किसानों के विरोध को बहुत ही हल्के में लिया। मीडिया में बिना जनाधार वाले कागजी किसान संगठनों के माध्यम से कृषि कानूनों को किसान हित में बताने की चाल अब केन्द्र के गले की हड्डी बनता दिखाई दे रहा है। ■

( ● लेखक: जनसरोकारों व “युगवाणी” समाचार पत्रिका से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं )

कृषि विधेयकों की इन खामियों को दूर करना जरूरी

सरकार द्वारा हाल ही में तीन कृषि विधेयक लाये गये जिसका किसानों में भारी विरोध है क्योंकि इन अध्यादेश से किसानों को अपना वजूद खत्म होने का डर हैं। और डर का मुख्य कारण हैं विधेयकों में आई विसंगतियां! इन विसंगतियों को दूर करने के लिए भारतीय किसान संघ ने सरकार को सुझाव दिया है कि किसानों की फसल खरीद के भुगतान की गारंटी सरकार ले क्योंंकि किसान मंडी के बाहर फसल विक्रय हेतु देगा तो क्या गारंटी कि उसका भुगतान व्यापारी द्वारा समय पर किया जायेगा। इसलिए सरकार गारंटर की भूमिका में रहे।

मंडियों में जब किसान अपनी फसल लेकर आता है तब उसे 8-10 फीसदी तक मंडी शुल्क देना पड़ता है। इसका फायदा यह था कि व्यापारी को किसानों का भुगतान समय पर करना पड़ता था क्योकि मंडी प्रशासन द्वारा व्यापारी पर समय पर भुगतान करने का दबाव रहता था। किन्तु व्यापारी जब मंडी के बाहर फसल खरीदेगा तो गारंटी कौ लेगा? इसलिए भारतीय किसान संघ गारंटर के रूप में सरकार को रहने की मांग करता है।

नये विधेयक में व्यापारी अगर तीन दिन में किसानों का भुगतान नहीं करता है तो पांच लाख रुपये तक का अर्थ दंड या दस हजार रुपये प्रति दिन है। यह बहुत कम है इसलिए इस पर कोई सुरक्षा कवच होना चाहिए। इसके अलावा सरकार जिन 24 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करती हैं, उन पर खरीद की अनिवार्यता का कोई प्रावधान इन विधेयकों में नहीं है। जबकि कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे फसल की खरीद-बिक्री ना हो इसकी पुख्ता व्यवस्था सरकार द्वारा की जानी चाहिए जो इन विधेयकों के अंदर दिखाई नहीं देती है।

सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण करने की विधि ठीक नहीं है। सरकार के बार-बार संज्ञान मे लाने के बाद भी एमएसपी A2+FL से निर्धारित की जाती हैं जबकि किसानों को लाभकारी मूल्य तभी मिलेगा जब एमएसपी C2 के आधार पर तय की जाए। कांट्रैक्ट खेती या अनुबंध आधारित खेती मे कंपनी और किसान के बीच विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर न्याय क्षेत्र एसडीएम, कलेक्टर या अन्य अनुविभागी अधिकारी को ना रखते हुए कृषि न्यायालयों की स्थापना होनी चाहिए क्योंकि एसडीएम, कलेक्टर या अन्य अधिकारी पर काम का बोझ ज्यादा रहता है जिससे वह समय पर सुनवाई करने में असमर्थ हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसमें हल चला कर मेहनत करने वालों, ट्रैक्टर चलाने वालों का देश है। यहां पूंजीपतियों, कंपनियों और कॉर्पोरेट को कभी भी कृषक के तौर पर मान्यता नहीं दी जानी चाहिए।

हाल में मध्यप्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर कहा है कि निजी मंडियों को मान्यता दी जाएगी। इसका अर्थ है कृषि बाजार केवल एपीएमसी के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहेगा। यहां होना यह चाहिए कि जिन 24 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाता है उस पर खरीद की गारंटी हो और सरकार एक बिल लेकर आये जिसका नाम एमएसपी गारंटी कानून हो। किसानों की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीदना दण्डनीय अपराध हो।

इसके अलावा जो व्यापारी कृषि उपज का व्यापार करना चाहता है उसे राज्य अथवा केन्द्र सरकार के अंतर्गत लाइसेंसधारी होना चाहिए। उसकी कोई सुरक्षित राशि यानी एफडी कहीं ना कहीं जमा होना चाहिए, उसको घोषित करो और एक एप्प बनाकर उसे सार्वजनिक करे। जिससे कोई भी किसान अपनी उपज बेचने से पहले उसे देखकर अपना वहम दूर कर ले। और तीसरी बात, कंपनी या कॉर्पोरेट को किसान का दर्जा ना दिया जाए। साथ ही देश में कृषि न्यायालय की स्थापना की जानी चाहिए और न्याय का क्षेत्र कृषक का गृह जिला होना चाहिए।

अगर अगले संसद सत्र में भारतीय किसान संघ की मांग के अनुसार किसानों के अनुकूल इसमे बदलाव नहीं किये गये तो भारतीय किसान संघ जन आंदोलन के माध्यम से सड़को पर उतरेगा

(लेखक भारतीय किसान संघ, सतवास, जिला देवास मध्यप्रदेश से जुड़े हैं)

नाकेबंदी, गिरफ्तारी और लाठीचार्ज के बावजूद डटे रहे हरियाणा के किसान

केंद्र के तीन कृषि अध्यादेशों के खिलाफ हरियाणा के पिपली (कुरुक्षेत्र) में किसान और आढ़तियों की रैली को रोकने के लिए पुलिस-प्रशासन ने पूरा जोर लगा दिया। कल ही पिपली मंडी में व्यापारियों को दुकानें बंद करने के नोटिस जारी दिए गए थे। आज सुबह से ही पिपली में धारा 144 लगाकर रैली की अनुमति नहीं दी गई। हरियाणा के विभिन्न जिलों से रैली में आ रहे किसानों को रोकने के लिए पुलिस ने जगह-जगह नाकेबंदी कर दी। फिर भी किसान नहीं रूके तो कुरुक्षेत्र में उन पर लाठीचार्ज किया गया। दिन भर हरियाणा के कई जिलों में किसान और पुलिस के बीच टकराव की स्थिति बनी रही।

खेती और कृषि व्यापार में कॉरपोरेट जगत की एंट्री का रास्ता खोलने वाले केंद्र के तीन अध्यदेशों के खिलाफ आज कुरुक्षेत्र के पिपली में किसान बचाओ-मंडी बचाओ रैली बुलाई गई थी। रैली में शामिल होने के लिए हरियाणा के विभिन्न जिलों से आ रहे किसानों को रास्ते में रोका गया तो किसान वहीं धरने पर बैठ गए।

इस दौरान कैथल मंडी में भी पुलिस और किसान मंडी के गेट खुलवाने के लिए आमने-सामने आ गए। किसानों ने पुलिस प्रशासन पर जबरन रोकने और बल प्रयोग करने के आरोप लगाए है। किसानों का कहना था कि हम शांतिपूर्वक धरना देने जा रहे थे, लेकिन सरकार तानाशाही रवैया अपनाए हुए है।

इस दौरान महम से निर्दलीय विधायक बलराज कुंडू समेत कई किसान नेताओं समेत को पुलिस ने हिरासत में लिया। इसके बावजूद किसान रैली में जाने पर आमादा थे तो कुरुक्षेत्र में पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया जिसमें कई किसानों के सिर फूट गए और कई किसान घायल हो गए हैं। किसान यूनियनों और विपक्षी दलों ने किसानों पर हुए लाठीचार्ज की कड़ी निंदा करते हुए इसे बीजेपी-जेजेपी सरकार का तानाशाही रवैया करार दिया है।

कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला ने प्रदेश की खट्टर सरकार पर हमला बोलते हुए ट्वीट किया कि खट्टर सरकार ये जान ले, कैथल मंडी में व्यापारियों-आढ़तियों की ये जबरन धर-पकड़ ना तो आवाज़ दबा पाएगी और न ही रोक पाएगी। किसान-आढ़ती-मज़दूर का कारवाँ चलता रहेगा। तीनों अध्यादेश वापिस लेने पड़ेंगे वरना मोदी-खट्टर सरकारों को चलता कर देंगे।

आखिरकार किसानों के सामने हरियाणा सरकार को झुकना पड़ा। लाठीचार्ज और हिरासत के बाद किसानों को पिपली अनाज मंडी में रैली करने की परमिशन मिली। भाकियू के प्रदेशाध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी समेत बड़ी संख्या में किसानों ने रैली स्थल पर पहुंचकर तीनों कृषि अध्यादेशों को किसान और मंडी विरोधी बताया।

कृषि अध्यादेशों के खिलाफ किसानों ने ट्विटर और ट्रैक्टर को बनाया हथियार

खेती-किसानी को प्रभावित करने वाले केंद्र सरकार के तीन अध्यादेशों के खिलाफ हरियाणा-पंजाब सहित कई राज्यों में किसानों ने विरोध का बिगुल बजा दिया है। सोमवार को हरियाणा-पंजाब के हजारों किसान ट्रैक्टर लेकर सड़कों पर उतर आए। किसानों का यह विरोध-प्रदर्शन की ट्विटर पर भी खूब चर्चाएं बटोर रहा है।

किसानों का यह विरोध फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर खरीद की व्यवस्था को कमजोर या खत्म करने की आशंका से उपजा है। पिछले महीने केंद्र सरकार ने किसानों को कहीं भी, किसी को भी उपज बेचने की छूट देने सहित कई मंडी सुधारों को ऐलान करते हुए तीन अध्यादेश जारी किए थे।

ये अध्यादेश हैं
– कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020
– मूल्‍य आश्‍वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा अध्‍यादेश – 2020
– आवश्यक वस्तु (संशोधन)अध्यादेश, 2020

एक राष्ट्र-एक बाजार नारे के साथ लाए गए इन अध्यादेशों के जरिए सरकार किसानों से सीधी खरीद और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देना चाहती है। इसके अलावा अनाज, दालों, आलू, प्याज, टमाटर आदि को स्टॉक लिमिट के दायरे से बाहर निकालने का फैसला किया गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन अध्यादेशों को किसानों के हित में ऐतिहासिक कदम बताते हुए कृषि क्षेत्र को अनलॉक करने का दावा किया है। केंद्र सरकार ने राज्यों के बीच कृषि व्यापार की कई अड़चनें दूर कर दी हैं। मंडी के बाहर उपज की खरीद-फरोख्त पर मंडी टैक्स भी नहीं देना पड़ेगा।

लेकिन सवाल ये है कि सरकार के इन दावों के बावजूद किसान सड़कों पर उतरने पर क्यों मजबूर हैं। किसान एक्टिविस्ट रमनदीप सिंह मान के अनुसार, किसानों में भय है कि कृषि अध्यादेशों के जरिए सरकार समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद की व्यवस्था को खत्म करने जा रही है। यह ट्रैक्टर मार्च किसानों के लिए चेतावनी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से किसी तरह की छेड़छाड़ न की जाए।

कृषि अध्यादेशों के खिलाफ विरोध के सबसे ज्यादा स्वर पंजाब से उठे हैं जहां कांग्रेस की सरकार है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कृषि अध्यादेशों को किसान विरोधी बताकर केंद्र सरकार पर दबाव बना रहे हैं। इस मुद्दे पर पंजाब की राजनीति गरमा गई है। पंजाब में आम आदमी पार्टी के विधायक कुलतार सिंह खुद ट्रैक्टर चलाकर विरोध-प्रदर्शन में शामिल हुए। भाजपा के सहयोगी अकाली दल ने किसानों के विरोध-प्रदर्शन का समर्थन तो नहीं किया लेकिन एमएसपी से किसी तरह की छेड़छाड़ न होने देने की बात जरूर कही है।

कृषि मामलों के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा की मानें तो इन तीन अध्यादेशों के साथ एक चौथा अध्यादेश लाकर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानूनी हक दिलाने की जरूरत है। उनका कहना है कि जब सरकार मानती है कि किसानों को कहीं भी बेचने की छूट मिलने से बेहतर दाम मिलेगा तो एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाने में क्या दिक्कत है? एमएसपी से नीचे किसी भी खरीद की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

खेती पर कॉरपोरेट के कब्जे का डर

कृषि से जुड़े तीनों अध्यादेशों से किसानों को कितना फायदा या नुकसान होगा, इस पर बहस जारी है। सरकार का दावा है कि मुक्त बाजार मिलने से किसान के पास उपज बेचने के ज्यादा विकल्प होंगे, जिससे बिचौलियों की भूमिका घटेगी। इसका लाभ किसानों को मिलेगा। भंडारण की पाबंदियां हटने से कृषि से जुड़े बुनियादी ढांचे में निवेश जुटाने में मदद मिलेगी।

लेकिन कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा मिलने से खेती पर कॉरपोरेट के कब्जे का डर भी है।

मंडियों के बाहर खरीद-फरोख्त की छूट मिलने से राज्यों को राजस्व का नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसलिए पंजाब, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य इन अध्यादेशों का विरोध का रहे हैं। प्राइवेट मंडियों और किसान से सीधी खरीद की छूट मिलने से मंडियों का वर्चस्व टूट सकता है। इसलिए कई राज्यों में कृषि उपज के व्यापारी यानी आढ़तिये भी कृषि अध्यादेशों का विरोध कर रहे हैं।

कई किसान संगठन केंद्र के इन अध्यादेशों को खेती के कॉरपोरेटाइजेशन के तौर पर देख रहे हैं। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक सरदार वीएम सिंह का कहना है कि ये अध्यादेश सुधारों के नाम पर किसानों की आंखों में धूल झोंकने का काम कर रहे हैं। इनसे न तो किसानों को सशक्त करेंगे और न ही उनकी आमदनी बढ़ा पाएंगे। इनमें कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) या स्वामीनाथम कमीशन के फॉर्मूले (सी2 के साथ 50 फीसदी मार्जिन) का जिक्र नहीं है।

यूरोप से मिला ट्रैक्टर मार्च का आइडिया

हरियाणा और पंजाब के अलावा राजस्थान और मध्यप्रदेश से भी किसानों के ट्रैक्टर मार्च निकालने की खबरें आ रही हैं। सोशल मीडिया के जरिए शुरू हुई यह मुहिम किसी बड़े संगठन के बिना ही दूर-दराज के गांवों तक फैल रही है। किसानों को ट्रैक्टर मार्च का आइडिया कुछ दिनों पहले नीदरलैंड्स में हुए इसी तरह के विरोध-प्रदर्शन से आया था। फिर सोशल मीडिया के माध्यम से इसकी गूंज हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्यप्रदेश तक पहुंच गई।

चिलचिलाती धूम में सड़कों पर क्यों निकला किसानों का रेला?

मई की चिलचिलाती धूप में हरियाणा के किसानों का पार चढ़ गया है। राज्य के कई इलाकों में धान की खेती पर पाबंदियों के खिलाफ किसानों का गुस्सा सड़कों पर नजर आने लगा है। सोमवार को 45 डिग्री सेल्सियस  की गरमी में फतेहाबाद जिले के रतिया ब्लॉक में बड़ी संख्या में किसानों ने ट्रैक्टर मार्च निकाला। ट्रैक्टर पर काले झंड़े लगाकर निकले किसान धान की खेती पर आंशिक रोक का विरोध कर रहे थे।

इसी मुद्दे पर कांग्रेस ने भी किसानों को लामबंद करना शुरू कर दिया है। सोमवार को गुहला (कैथल) में कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला इसी मुद्दे पर किसानों के धरने में शामिल हुए। सुरजेवाला का कहना है कि खट्टर सरकार ने कुरुक्षेत्र और कैथल के किसानों की खेती उजाड़ने और आढ़ती व दुकानदार का धंधा बंद का फैसला कर लिया है। तानाशाही रवैया अपनाते हुए सरकार ने राज्य के 19 ब्लॉकों में धान की खेती पर पाबंदियां लगा दी हैं।

धान की खेती पर कहां-कितनी रोक?

हरियाणा सरकार ने भूजल स्तर में कमी वाले विकास खंडों में धान की बजाय मक्का, कपास, बाजरा और दलहन की खेती को बढ़ावा देने का फैसला किया है। इसके लिए गत 9 मई को मेरा पानी, मेरी विरासत” नाम की योजना शुरू की गई है। इस योजना के जरिए जिन ब्लॉकों में जलस्तर 40 मीटर से भी नीचे है, वहां एक लाख हेक्टेअर भूमि में धान की बजाय मक्का, कपास, बाजरा और दलहन की खेती करवाने का लक्ष्य रखा गया है।

मतलब, जल संकट को देखते हुए राज्य सरकार ने तय कर लिया कि किन इलाकों में पानी बचाना है और धान की खेती कुछ पाबंदियां लगानी पड़ेगी। मगर किसानों के साथ कोई राय-मशविरा किए बगैर!

40 मीटर से नीचे जलस्तर वाले ब्लॉक 

कैथल जिले के गुहला चीकासीवन ब्लॉक में किसान अपनी 50 फीसदी से ज्यादा भूमि में धान की खेती नहीं कर सकेंगे। यही पाबंदी कुरुक्षेत्र जिले के शाहबाद, पीपली, बबैन, इस्माईलाबाद, फतेहाबाद जिले के रतिया और सिरसा जिले के सिरसा ब्लॉक में भी लगाई गई है।

40 मीटर से नीचे जलस्तर वाले 19 ब्लॉकों में किसान 50 फीसदी से ज्यादा भूमि में धान की खेती नहीं कर सकेंगे। यानी पिछले साल जितनी भूमि में धान बोया था, इस साल उससे आधी जमीन में ही धान की खेती कर सकते हैं। इन ब्लॉकों में अगर किसानों ने 50 फीसदी से ज्यादा भूमि में धान बोया तो कृषि विभाग से मिलने वाली कोई सब्सिडी नहीं मिलेगी और न ही उनके धान की समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद होगी। जबकि धान की जगह मक्का, बाजरा और दलहन उगाने के लिए सरकार एमएसपी पर खरीद की गारंटी दे रही है।

35 मीटर से नीचे जलस्तर वाले ब्लॉक

हरियाणा के जिन 26 ब्लॉकों में पानी 35 मीटर से नीचे है, वहां पंचायती जमीन पर धान की खेती की अनुमति नहीं मिलेगी। इनमें छह ब्लॉक कुरुक्षेत्र, तीन फतेहाबाद और दो कैथल जिले में हैं।

इतना ही नहीं, जिस भूमि पर पिछले साल धान की खेती नहीं हुई थी, वहां इस साल धान बोने की अनुमति नहीं दी जाएगी। इसके अलावा जो किसान 50 हार्स पावर इलेक्ट्रिक मोटर से ट्यूबवैल चलाते हैं, वे भी धान की खेती नहीं कर सकेंगे।

पंचायती जमीन पट्टे पर लेने वाले जींद, कैथल, करनाल, कुरुक्षेत्र, अंबाला, यमुनानगर और सोनीपत के 8 ब्लॉकों के किसान भी धान की खेती नहीं कर सकेंगे।

धान छोड़ने पर प्रति एकड़ 7,000 रुपये का अनुदान  

धान छोड़कर अन्य फसलें उगाने के लिए हरियाणा सरकार किसानों को 7,000 रुपये प्रति एकड़ का अनुदान देगी। लेकिन यह अनुदान केवल उन किसानों को मिलेगा जो 50 फीसदी से कम क्षेत्र में धान की खेती करेंगे। अगर अन्य ब्लॉक के किसान भी धान की खेती छोडऩा चाहते हैं तो वे इसके लिए आवेदन कर सकते हैं। उन्हें भी अनुदान मिलेगा। लेकिन 50 फीसदी से ज्यादा भूमि में धान छोड़कर कुछ और उगाना होगा। इसके लिए सरकार ड्रिप इरीगेशन सिस्टम पर 85 फीसद सब्सिडी दे रही है।

पिछले साल ही फेल हो चुकी है योजना- सुरजेवाला

कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का कहना है कि ऐसी जालिम तो अंग्रेज सल्तनत भी नही थी जैसी BJP-JJP सरकार बन गई है। एक तरफ खट्टर सरकार दादूपुर नलवी रिचार्ज नहर परियोजना को बंद करती है, तो दूसरी ओर गिरते भूजल की दुहाई देकर उत्तरी हरियाणा खासकर कुरुक्षेत्र और कैथल के किसानों की खेती और चावल उद्योग को उजाड़ना चाहती है।

हरियाणा सरकार की योजना पर सवाल उठाते हुए सुरजेवाला कहते हैं कि पिछले साल भी धान की फसल की जगह मक्का उगाने की योजना 7 ब्लॉकों में शुरू की थी। इसके लिए प्रति एकड़ 2000 रुपये अनुदान, 766 रुपये बीमा प्रीमियम और हाईब्रिड सीड देने का वादा किया था। परंतु न तो किसान को मुआवज़ा मिला, न बीमा हुआ बल्कि हाईब्रिड सीड फेल हो गया।

अनुदान और भरोसा दोनों ही कम

उधर, फतेहाबाद जिले में उपायुक्त कार्यालय पर धरना देने पहुंचे किसानों का आरोप है कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्र होने के बावजूद सरकार ने धान की खेती पर रोक का फरमान जारी कर दिया है। धान की बजाय सरकार मक्का उगाने पर जोर दे रही है जबकि इन क्षेत्रों की मिट्टी और जलवायु मक्का के अनुकूल नहीं है। साथ ही राज्य सरकार ने 7,000 रुपये के अनुदान का ऐलान किया है जो बेहद कम है। भारतीय किसान यूनियन (अम्बावता) के अध्यक्ष ऋषिपाल अम्बावता का कहना है कि राज्य सरकार यह आदेश वापस ले नहीं तो बड़े आंदोलन के लिए तैयार रहे।

पिछले साल के अनुभवों की वजह से ही किसान धान की खेती छोड़ने को तैयार नहीं है जबकि राज्य सरकार का दावा है कि मक्का उगाने में प्रति एकड़ 5450 रुपये का फायदा है। किसानों की नाराजगी की एक वजह यह भी है कि हरियाणा सरकार ने किसानों के साथ विचार-विमर्श किए बिना ही धान पर पाबंदियां लगाने का निर्णय ले लिया। किसानों की इस नाराजगी को भुनाने के लिए कांग्रेस के नेता इस मुद्दे को जोरशोर से उठ रहे हैं।