खेती-किसानी की समस्याएं जो हर पार्टी के मुद्दे होने चाहिए?

पिछले दो-तीन साल में पूरे देश में किसानों ने अपनी समस्याओं को लेकर देश में कई आंदोलन किए। ऐसा कम ही होता है कि देश के विभिन्न हिस्सों में काम करने वाले किसान संगठन एक साथ आएं और किसानी के मुद्दों पर मिलकर संघर्ष करें। लेकिन हाल के समय में ऐसा होते देखा गया।

देश भर में 200 से अधिक किसान संगठन एक साथ आए और इन सबने मिलकर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति बनाकर देश के विभिन्न हिस्सों से अपने हक और हित की बात उठाने की कोशिश की। इसके बावजूद 2019 के लोकसभा चुनावों में किसान और किसानी का संकट चुनावी मुद्दा बनता हुआ नहीं दिख रहा है।

देश भर में किसानों का जो संघर्ष चला, उसका असर यह तो हुए कि कुछ राज्यों में कर्ज माफी हुई। तेलंगाना और ओडिशा जैसे राज्यों ने जब किसानों को सीधी आर्थिक मदद देने वाली योजनाओं की घोषणा कर दी तो दबाव में केंद्र सरकार को भी प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना की घोषणा करनी पड़ी। इसके तहत किसानों को सालाना 6,000 रुपये की आर्थिक मदद दी जाएगी।

इन सबके बावजूद कृषि क्षेत्र की मूल समस्याएं चुनावों में मुद्दा नहीं बन पा रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि किसान और किसानी से संबंधित वे मुद्दे कौन से हैं जिन्हें इन चुनावों में उठाया जाना चाहिए था लेकिन जिन पर अभी तक कोई खास चुनावी चर्चा नहीं हो रही है।

इसमें सबसे पहली दो बातें ध्यान में आती हैं। सबसे पहली बात कि किसानों को उनकी उपज के बदले उचित मूल्य मिले। केंद्र सरकार ने यह घोषणा तो कर दी है कि उसने न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत से 50 फीसदी अधिक तय कर दिया है। लेकिन न तो इसे तय करने में केंद्र सरकार द्वारा इस्तेमाल किए गए फाॅर्मूले पर जानकारों को यकीन है और न ही जमीनी स्तर पर किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना पैसा अपनी उपज के बदले मिल रहा है।

वहीं दूसरी तरफ किसानों की कर्ज की समस्या बहुत बड़ी है। बैंकों के जरिए किसानों को दिए जाने वाले कर्ज का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है लेकिन आम किसानों तक संस्थागत कर्ज इस अनुपात में काफी कम पहुंच पा रहा है। ऐसी स्थिति में किसानों को अब भी साहूकारों के पास अधिक ब्याज दर पर कर्ज लेने के लिए जाना पड़ रहा है। जो लोग बैंक से कर्ज रहे हैं और जो साहूकारों से ले रहे हैं, उन दोनों की समस्या यही है कि उन्हें अपनी उपज की उचित कीमत नहीं मिल रही है और इस वजह से कर्ज के दुष्चक्र से निकल पाना इनके लिए संभव नहीं हो पा रहा है।

किसानी का एक और बड़ा संकट लागत में लगातार बढ़ोतरी के तौर पर दिख रहा है। कृषि में इस्तेमाल होने वाला इनपुट लगातार महंगा हो रहा है। वह चाहे बीज हो, खाद हो, कीटनाशक हो या फिर श्रम बल। इस वजह से बाजार में किसानों पर दोहरी मार पड़ रही है। एक तो उनका लागत बढ़ गया है और दूसरी तरफ उन्हें उचित कीमत भी नहीं मिल पा रहा है।

हाल के समय में यह भी देखा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन का असर भी कृषि पर हो रहा है। इस वजह से मौसम को लेकर किसानों को अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है। अधिकांश क्षेत्रों में जलस्तर नीचे जा रहा है। अभी भी जल और दूसरे संसाधनों के इस्तेमाल के मामले में कृषि पर उद्योगों को तरजीह दी जा रही है। इस वजह से जलवायु परिवर्तन का असर खेती पर और अधिक पड़ने की आशंका खुद सरकारी दस्तावेजों में जताई जा रही है। आर्थिक समीक्षा में इस संबंध में लगातार चर्चा हो रही है।

ये मुद्दे ऐसे हैं जो भारत के कृषि क्षेत्र को बेहद नकारात्मक ढंग से प्रभावित कर रहे हैं। इन वजहों से देश का किसान बेहाल है। लेकिन इसके बावजूद भारत जैसे देश में जहां की 57 फीसदी आबादी अब भी जीवनयापन के लिए निर्भर है, वहां कृषि का संकट चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है।

किसानों की युवा पीढ़ी ने ट्विटर पर दिखाई अपनी ताकत

2019 के लोकसभा चुनावों में विपक्ष जहां ‘चौकीदार चोर है’ के नाम से अभियान चला रहा तो इसके जवाब में केंद्र की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने ‘मैं भी चौकीदार’ अभियान चला रखा है। इसके तहत सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत उनके तमाम मंत्रियों, भाजपा नेताओं और पार्टी के समर्थकों ने ट्विटर पर अपने नाम से पहले चौकीदार शब्द जोड़ लिया है। भाजपा के लोग मिलकर इसे ट्विटर पर ट्रेंड भी करा रहे हैं।

अब सरकार की नाकामियों के लिए देश के आम लोग भी इसी तरीके को अपना रहे हैं। बीते दिनों किसानों की समस्याओं को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश में कुछ युवा किसानों के एक समूह ने ट्विटर पर ‘कर्जदार किसान’ हैशटैग करा दिया।

जिस ट्विटर का इस्तेमाल राजनीतिक दल के लोग अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए करते आए हैं, उसका बहुत अच्छा इस्तेमाल कुछ युवा किसानों ने किया। इनकी कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि ट्विटर पर दो-तीन दिनों तक ‘कर्जदार किसान’ सबसे अधिक ट्रेंड में रहे हैशटैग में से एक रहा।

इसके जरिए इन युवा किसानों ने ट्विटर के माध्यम से लोगों का ध्यान किसान और किसानी की समस्याओं की ओर खींचने की कोशिश की। इसके जरिए इन लोगों बताया कि कैसे मौजूदा केंद्र सरकार खेती-किसानी की समस्याओं के समाधान में नाकाम रही है।

इस दौरान कर्जदार किसान हैशटैग के साथ हुए हजारों ट्विट के जरिए देश में किसानों द्वारा की जा रही खुदुकुशी, सूखे की मार झेल रहे किसानों की समस्या और उपज का पर्याप्त नहीं मिलने जैसी समस्याओं को भी लोगों के सामने लाने में इन्हें सफलता हासिल हुई। इससे वैसे लोगों को भी किसानों की समस्याओं के बारे में पता चला जिन्हें इस बारे में कुछ खास मालूम नहीं था।

कर्जदार किसान हैशटैग के साथ बड़ी संख्या में ऐसे ट्विट हुए जिनमें यह बताया गया कि किसानों की कर्ज की समस्या कितनी विकराल है। यह बात सामने आई कि किसानों को संस्थागत कर्ज देने के दावे कितने खोखले हैं और किसानों को अब भी अपनी छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए स्थानीय साहूकारों से अधिक ब्याज दर पर कर्ज लेने के लिए बाध्य होना पड़ता है। यह मांग भी उठी कि स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट को ठीक से लागू किया जाए।

कर्जदार किसान हैशटैग ट्रेंड करने के बाद ट्विटर पर कई युवा किसानों और किसानों की समस्याओं से हमदर्दी रखने वाले कई लोगों ने अपने नाम के आगे ‘कर्जदार किसान’ उसी तरह जोड़ लिया जिस तरह भाजपा के नेताओं ने अपने नाम के आगे ‘चौकीदार’ शब्द जोड़ लिया है। अपने नाम के आगे कर्जदार किसान जोड़ने वाले लोग किसानों से यह अपील करते हुए नजर आए कि किसी राजनीतिक दल के पक्ष में खड़ा होने के बजाए किसान खुद को जागरूक करने पर अधिक ध्यान दें।

किसानों के हक और हित में काम करने वाले आम किसान यूनियन के सामाजिक कार्यकर्ता राम इनानिया ने ट्विट किया कि अब किसान के एक हाथ में ट्रैक्टर का स्टीयरिंग है तो दूसरे हाथ में ट्विटर हैंडल। उन्होंने यह भी बताया कि 22 मार्च, 2019 को शाम पांच बचे ट्विटर पर कई जगहों से किसान एक साथ ट्विटर पर सक्रिय हुए और हमने कर्जदार किसान हैशटैग ट्रेंड कराया। किसानों ने अपने खेतों में बैठकर, ट्रैक्टर पर बैठकर और बाजार की मंडियों में अपना उत्पाद बेचने के इंतजार में बैठे हुए ट्विट करना शुरू कर दिया।

मान तो यह भी जा रहा है कि ऐसा करके युवा किसानों ने राजनीतिक दलों को अपनी ताकत का अहसास कराया है और उन्हें यह संदेश देने की कोशिश की है कि अगर किसान और किसानी की समस्याओं के समाधान की बात उन्होंने नहीं की तो इसका खामियाजा उन्हें लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ सकता है।

कहीं चना तो कहीं सरसों एमएसपी के नीचे बेचने को मजबूर हैं किसान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार किसानों के लिए किए गए अपने कार्यों को गिनाते हुए यह बताना नहीं भूलती कि उसने किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को बढ़ाकर लागत का डेढ़ गुना कर दिया है। सरकार के मंत्री और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के लोग भी अक्सर ये दावे करते दिखते हैं।

लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। सरकार जो एमएसपी तय कर रही है, उस पर किसानों का उत्पाद खरीदे जाने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है। इस वजह से मंडियों में व्यापारी किसानों से मनमाने भाव पर उनके उत्पादों को खरीद रहे हैं।

इसे दो उदाहरणों के जरिए समझा जा सकता है। अभी चना देश की विभिन्न मंडियों में आना शुरू हुआ है। चने का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार ने 4,620 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। लेकिन इस मूल्य पर सरकार ने चने की खरीद शुरू नहीं की है।

अब जाहिर है कि सरकार खरीद नहीं करेगी तो मंडियों में किसानों को व्यापारियों के तय किए गए दर पर चना बेचना पड़ेगा। यही हो रहा है। मध्य प्रदेश की मंडियों से ये खबरें आ रही हैं कि वहां चना का न्यूनतम समर्थन मूल्य भले ही 4,620 रुपये प्रति क्विंटल का हो लेकिन किसानों को 3,800 रुपये प्रति क्विंटल का दर हासिल करने के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। वहां यह दर भी जिन्हें मिल जा रहा है, वे खुद को खुशकिस्मत मान रहे हैं। किसानों को औसतन प्रति क्विंटल 800 से 900 रुपये का नुकसान हो रहा है।

अब इसके मुकाबले बाजार भाव देख लीजिए। इससे पता चलेगा कि किसानों को क्या दर मिल रहा है और आम उपभोक्ताओं को कितने पैसे चुकाने पड़ रहे हैं। जिस दिन मध्य प्रदेश की मंडियों से यह खबर आई कि वहां चना 3,800 रुपये प्रति क्विंटल यानी 38 रुपये प्रति किलो बेचने के लिए किसाना विवश हैं, उसी दिन दिल्ली में चना का खुदरा भाव पता करने पर यह बात सामने आई कि आम दिल्लीवासियों को एक किलो चने के लिए 105 रुपये से लेकर 115 रुपये तक खर्च करने पड़ रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि किसानों से जिस भाव पर चना खरीदा जा रहा है, उससे तीन गुना अधिक कीमत पर उपभोक्ताओं को बेचा जा रहा है। सवाल यह उठता है कि बीच का जो अंतर है, वह कौन खा रहा है?

सरसों का उत्पादन करने वाले किसानों को भी एमएसपी नहीं मिल रही है। सरसों के पैदावार के लिहाज से राजस्थान का देश में बेहद अहम स्थान है। यहां सरसों की पैदावार मंडियों में आने लगी है। सरकार ने सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 4,200 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है।

लेकिन राजस्थान के श्रीगंगानगर मंडी से यह खबर आ रही है कि 4,200 रुपये प्रति क्विंटल की एमएसपी के मुकाबले उन्हें सिर्फ 3,400 रुपये प्रति क्विंटल से लेकर 3,600 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहे हैं। इस तरह से देखा जाए तो किसानों को एमएसपी के मुकाबले 600 से 800 रुपये कम में एक क्विंटल सरसों बेचना पड़ रहा है।

इन स्थितियों को देखने पर यह पता चलता है कि सिर्फ एमएसपी की घोषणा कर देना भर पर्याप्त नहीं है बल्कि इसे लागू कराने का एक उपयुक्त तंत्र विकसित करना बेहद जरूरी है। तब ही बढ़ी हुई एमएसपी का वास्तविक लाभ किसानों तक पहुंच पाएगा।

कैसे उठाएंं प्रधानमंत्री बीमा योजना का फायदा? क्‍या हैं दिक्‍कतें?

योजना के व्‍यापक प्रचार-प्रसार के बावजूद अभी भी बहुत-से किसानों को जानकारी नहीं है कि फसल बीमा कैसे कराएं और क्‍लेम कैसे मिलेगा?

करीब चार महीने पहले किसानों को प्रकृति की मार और अचानक होने वाले नुकसान से बचाने के लिए केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का ऐलान किया था। इस खरीफ सीजन से किसानों को इस नई योजना का लाभ मिलना शुरू हो जाएगा। लगातार दो साल से सूखे की मार झेल रहे किसानों को बेसब्री से इस योजना का इंतजार है। योजना के बारे में व्‍यापक प्रचार-प्रसार के बावजूद अभी भी बहुत-से किसानों को जानकारी नहीं है कि फसल बीमा कैसे कराएं और क्‍लेम कैसे मिलेगा?

नई योजना में क्‍या है नया? 

  • पुरानी फसल बीमा योजनाओं में किसानों को 15 फीसदी तक प्रीमियम देना पड़ता था लेकिन नई बीमा योजना में किसानों के लिए प्रीमियम की राशि महज डेढ से 2 फीसदी रखी गई है। बागवानी फसलों के लिए किसानों को 5 फीसदी प्रीमियम देना होगा। बीमा का बाकी खर्च केंद्र और राज्‍य सरकारें मिलकर वहन करेंगी।
  • सरकारी सब्सिडी पर कोई ऊपरी सीमा नहीं है। भले ही शेष प्रीमियम 90% हो, यह सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। पुरानी बीमा योजनाओं में सरकारी सब्सिडी की ऊपरी सीमा तय होती थी। जिसके चलते नुकसान की पूरी भरपाई नहीं हो पाती थी। नई स्कीम में बीमित राशि का पूरा क्‍लेम मिल सकेगा।
  • अभी तक देश में करीब 23 फीसदी किसान ही फसल बीमा के दायरे में आ पाए हैं। सरकार ने इस साल कम से कम 50 फीसदी किसानों तक फसल बीमा पहुंचाने का लक्ष्‍य रखा है।

-बैंकों से कर्ज लेने वाले किसानों के लिए फसल बीमा अनिवार्य है। यानी बैंक से कर्ज लेने वाले किसानों का बीमा बैंकों के जरिये हो जाएगा। लेकिन जिन किसानों ने बैंकों से कर्ज नहीं लिया, उन्‍हें बीमा के दायरे में लाने सरकार के लिए बड़ी चुनौती है।

– ओलाबारी, जलभराव और भू-स्‍खलन जैसी आपदाओं को स्थानीय आपदा माना जाएगा। स्थानीय आपदाओं और फसल कटाई के बाद नुकसान के मामले में किसान को इकाई मानकर नुकसान का आकलन किया जाएगा।

किस तरह के नुकसान कवर होंगे

बुवाई/रोपण में रोक संबंधित जोखिम: कम बारिश या प्रतिकूल मौसमी परिस्थितियों के कारण बुवाई/ रोपण में उत्पन्न रोक।

खड़ी फसल (बुवाई से कटाई तक के लिए): सूखा, अकाल, बाढ़, सैलाब, कीट एवं रोग, भूस्खलन, प्राकृतिक आग और बिजली, तूफान, ओले, चक्रवात, आंधी, टेम्पेस्ट, तूफान और बवंडर आदि के कारण उपज के नुकसान।

कटाई के उपरांत नुकसान: नई बीमा योजना में फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान की भरपाई हो पाएगी। अगर फसल कटाई के 14 दिन तक यदि चक्रवात, चक्रवाती बारिश और बेमौसम बारिश से उपज को नुकसान पहुंचता है तो किसान को बीमा क्‍लेम मिल सकता है।

स्थानीय आपदायें: अधिसूचित क्षेत्र में मूसलधार बारिश, भूस्खलन और बाढ़ जैसे स्थानीय जोखिम से खेतों को हानि/क्षति।

बीमा कराने पर कितना खर्च आएगा 

उदाहरण के तौर पर, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में 30 हजार का बीमा कराने पर अगर प्रीमियम 22 प्रतिशत तय किया गया है तो किसान 600 रुपए प्रीमियम देगा और सरकार 6000 हजार रुपए का प्रीमियम देगी। शत-प्रतिशत नुकसान की दशा में किसान को 30 हजार रुपए की पूरी दावा राशि प्राप्त होगी।

-अगर किसी ग्राम पंचायत में 75 फीसदी किसान बुवाई नहीं कर पाएं तो योजना के तहत बीमित राशि का 25 फीसदी भुगतान मिलेगा।

25 फीसदी राशि तुरंत खातों में पहुंचााने का दावा 

सरकार का दावा है कि बीमा क्‍लेम के लिए लंबे समय तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा। प्राकृतिक आपदा के बाद 25 फीसदी राशि किसान के खाते में तुरंत पहुंचेगीी जबकि बाकी भुगतान नुकसान के आकलन के बाद किया जाएगा।

किन किसानों को मिलेगा बीमा का लाभ?

सभी पट्टेदार/ जोतदार किसानों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ मिल सकता है। योजना के तहत पंजीकरण कराने के लिए किसानों कों भूमि रिकॉर्ड अधिकार (आरओआर), भूमि कब्जा प्रमाण पत्र (एल पी सी) आदि आवश्यक दस्तावेजी प्रस्तुत करने होंगे।

गैर ऋणी किसानों के लिए यह योजना वैकल्पिक होगी।

कैसे कराएं फसल बीमा?

कृषि ऋण लेने वाले किसानों का बीमा उनके बैंक के जरिये होगा। जिन किसानों ने बैंक से कर्ज नहीं लिया है वे भी नोडल बैंक या भारतीय कृषि बीमा कंपनी (एआईसी) के स्‍थानीय प्रतिनिधि अथवा संबंधित पंचायत सचिव, ब्‍लाॅक के कृषि विकास अधिकारी या जिला कृषि अधिकारी के माध्‍यम से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में अपना पंजीकरण करा सकते हैं।

भारत सरकार ने किसानों तक बीमा योजना को पहुंचाने के लिए एक बीमा पोर्टल भी शुरू किया है। जिसका वेब पता  है http://www.agri-insurance.gov.in/Farmer_Details.aspx

इसके अलावा एक एंड्रॉयड आधारित “फसल बीमा ऐप्प” भी शुरू किया गया है जो फसल बीमा, कृषि सहयोग और किसान कल्याण विभाग (डीएसी एवं परिवार कल्याण) की वेबसाइट से डाउनलोड किया जा सकता है।

फसल बीमा कराने के लिए जरुरी दस्‍तावेज?

-सरकारी पहचान-पत्र

-निवास प्रमाण-पत्र

-खसरा/खाता संख्या की प्रमाणित प्रति (बोये गए क्षेत्र के दस्तावेज़)

-बैंक खाता संख्या और रद्द किया गया चेक (बैंक विवरण के लिए)

  • एक हस्ताक्षरित भरा हुआ प्रस्ताव फॉर्म

फसल बीमा की पूरी प्रकिया ऑनलाइन होने और स्‍थानीय स्‍तर पर कर्मचारियों की कमी के चलते किसानों को फसल बीमा करवाने में कई तरह की दिक्‍कतें आ रही हैं। जनधन खाते खोलने के लिए बैंकों ने जिस प्रकार अभियान चलाए, वैसे तत्‍परता फसल बीमा को लेकर देखने में नहीं आ रही है।

फसल बीमा में असल दिक्‍कतें क्‍लेम लेते वक्‍त आनी शुरू होंगे। तभी नई योजना की खूबियां और खामियां पूरी तरह उजागर होंगी।