रामदेव का शर्तिया इलाज और डॉक्टरों की आहत भावनाएं

कोरोना कुप्रबंधन में मोदी और योगी सरकार की खूब फजीहत हुई। इस कलंक को पब्लिक मेमोरी से मिटाने के लिए बहस का रुख मोड़ना जरूरी है। रामदेव यही कर रहे हैं। सरकार की नाकामी पर चर्चा की बजाय देश में एलोपैथी बनाम आयुर्वेद की बहस छिड़ गई। इस बहस में रामदेव ने खुद को आयुर्वेद के प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित कर लिया है। जबकि वे आयुर्वेद के डॉक्टर भी नहीं हैं। फिर भी लगभग हर बीमारी का शर्तिया इलाज उनके पास है। क्योंकि उन्हें सत्ता का संरक्षण और मीडिया का समर्थन हासिल है।

पिछले 20 साल से रामदेव यही करते आ रहे हैं। उनका पूरा कारोबार एलोपैथी और निजी अस्पतालों से त्रस्त लोगों की सहानुभूति पर टिका है। शुरुआत में मेडिकल व फार्मा इंडस्ट्री को रामदेव के दावों से कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन अंग्रेजी दवाओं के खिलाफ प्रवचन देते-देते रामदेव खुद दवा कंपनी के मालिक बन चुके हैं। अब फार्मा इंडस्ट्री को उनसे फर्क पड़ता है। इसलिए जब रामदेव ने अंग्रेजी दवा खाने से लोगों के मरने की बात कही तो मेडिकल बिरादरी तिलमिला उठी। जबकि हाल के वर्षों में ज्ञान-विज्ञान और तर्कशील सोच पर इतने हमले हुए, तब चिकित्सा समुदाय चुप्पी साधे रहा। यह चुप्पी डॉक्टरों को अब भारी पड़ रही है।

रामदेव के सवालों का मुकाबला डॉक्टर आहत भावनाओं से नहीं कर सकते हैं। क्योंकि विज्ञान सवाल उठाने की छूट देता है। विज्ञान हर बीमारी के इलाज का दावा नहीं करता। ना ही अपनी नाकामियों को छिपाने में यकीन रखता है। चमत्कार और विज्ञान में यही तो फर्क है। इसलिए जब रामदेव एलोपैथी का मजाक उड़ाते हैं या उस पर सवाल उठाते हैं तो उसका जवाब कोरी भावुकता की बजाय वैज्ञानिक तथ्यों और तर्कसंगत तरीके से देना चाहिए। इसके लिए आयुर्वेद का मजाक उड़ाने या उसे कमतर साबित करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है।

“हम तो मानवता की सेवा कर रहे हैं। रामदेव हम पर सवाल उठा रहे हैं?” इस तरह की भावुकता भरी दलीलों से डॉक्टर विज्ञान का पक्ष कमजोर ही करेंगे। जबकि जरूरत रामदेव के दावों को वैज्ञानिक और कानूनी कसौटियों पर कसने की है। लेकिन इस काम में देश के चिकित्सा समुदाय ने कभी दिलचस्पी नहीं दिखायी। वरना एक इम्युनिटी बूस्टर कोरोना की दवा के तौर पर लॉन्च न हो पाता। हालिया विवाद के बाद भी कोरोनिल की मांग बढ़नी तय है।

रामदेव ने सिर्फ डॉक्टरों पर ही नहीं बल्कि समूचे मेडिकल साइंस पर सवाल उठाये हैं। रामदेव के मन की बात को न्यूज चैनल मेडिकल साइंस के विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं। क्योंकि प्रमुख विज्ञापनदाता के तौर पर रामदेव मीडिया के साथ हैं। रामदेव का कुछ ऐसा ही रिश्ता सत्ताधारी भाजपा के साथ है। लेकिन जिन राज्यों में गैर-भाजपाई सरकारें हैं वहां भी रामदेव को कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। यह रामदेव की आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक ताकत है जो उन्होंने योग, आयुर्वेद, स्वदेशी और हिंदुत्व के घालमेल से हासिल की है।

एलोपैथी से निराश और निजी अस्पतालों से लूटे-पिटे लोगों का बड़ा तबका रामदेव पर भरोसा करता है। भले ही तबीयत बिगड़ने पर एलोपैथी का ही सहारा लेना पड़े। यह बात रामदेव भी जानते होंगे। इसलिए उनका टारगेट संभवत: कम गंभीर रोगी हैं जो डॉक्टर के पास जाए बिना सीधे दुकान से दवा खरीद सकते हैं। कोरोना काल में ऐसे लोगों की तादाद काफी बढ़ी है। बाकी तर्कसंगत और वैज्ञानिक सोच रखने वाले लोग रामदेव के बारे में क्या सोचते हैं, इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है देश की आम जनता से। यह आम जनता ही रामदेव की श्रोता, पतंजलि की उपभोक्ता और भाजपा की मतदाता है। सुबह-सुबह रामदेव उन्हीं को संबोधित करते हैं। हर घर में बिना डिग्री के डॉक्टर तैयार करने का उनका अभियान दवा कंपनियों को डराने लगा है। यह खुद लोगों के लिए भी खतरनाक है।

डॉक्टरों के लिए सोचने वाली बात यह है कि महामारी में इतनी सेवा करने के बावजूद समाज में उनके प्रति कोई खास सहानुभूति क्यों नहीं उमड़ी? जिन डॉक्टरों को पिछले साल कोरोना योद्धा बताकर फूल बरसाये जा रहे थे, इस बार वे आईटी सेल के निशाने पर क्यों हैं? इसके दो कारण हैं। पहला, मरीजों की जेब काटने वाले अस्पतालों और डॉक्टरों के प्रति लोगों में रोष है। दूसरा, जब से डॉक्टरों ने ऑक्सीजन की किल्लत के बारे में खुलकर बोलना शुरू किया है, तब से वे भाजपा समर्थकों के निशाने पर आ गये हैं। रामदेव ने डॉक्टरों पर हमला बोलकर आईटी सेल वालों को टारगेट दिखा दिया। इससे सरकार को बड़ी राहत मिली होगी। क्योंकि जिन लोगों को इलाज नहीं मिला, उन्हें समझाया जा सकता है कि वह इलाज ठीक नहीं था। इसलिए तो सोशल मीडिया के दौर में हकीकत से ज्यादा नैरेटिव की अहमियत है।

फैक्ट चेक: किसान आंदोलन की वजह से ऑक्सीजन में देरी का दावा फर्जी!

कोराना के कहर के बीच अस्पतालों में ऑक्सीजन की भारी किल्लत हो गई है। मरीज ऑक्सीजन के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अस्पतालों में कुछ ही घंटों की ऑक्सीजन बाकी रहने के बाद केंद्र सरकार से मदद की गुहार लगाई तो इस मुद्दे पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो गई। ऑक्सीजन सप्लाई में देरी का ठीकरा किसान आंदोलन पर फोड़ने के प्रयास किये जा रहे हैं। असलीभारत.कॉम के फैक्ट चैक में इन दावों का पर्दाफाश हुआ है।

बीते दो-तीन दिनों से यह झूठ बड़ी तेजी से फैलाया जा रहा है कि दिल्ली बॉर्डर पर किसान आंदोलन के चलते ऑक्सीजन सप्लाई में बाधा हो रही है। यह खबर सबसे पहले नेटवर्क18 के पत्रकार अमन शर्मा ने सरकारी सू्त्रों के हवाले से फैलायी। दावा किया गया कि दिल्ली बॉर्डर पर किसान के जाम की वजह से ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली फर्म के वाहनों को काफी घूमकर आना पड़ रहा है। सरकारी सूत्रों पर आधारित इस खबर को हजारों लागों ने शेयर किया।

इस ट्वीट के बाद एक सत्ता परस्त पोर्टल ने खबर छापी कि ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर ऑक्सीजन पहुंचाने में देरी के लिए दिल्ली बॉर्डर पर किसान आंदोलन को वजह बताया है। कंपनी का दावा है कि मोदीनगर यूनिट से दिल्ली के अस्पतालों तक पहुंचने के लिए 100 किलोमीटर की ज्यादा चलना पड़ रहा है। हैरानी की बात है कि यह खबर जिस पत्र के आधार पर लिखी गई, पूरी खबर में उसे कहीं नहीं छापा।     

जब असलीभारत.कॉम ने किसान आंदोलन की वजह से ऑक्सीजन आपूर्ति में बाधा के दावे की पड़ताल की तो यह दावा हवा-हवाई निकला। पहली बात तो यह है कि ऑक्सीजन को लेकर सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के कई शहरों में हाहाकार मचा है। लखनऊ, अहमदाबाद व अन्य शहरों में जहां किसान सड़कों पर नहीं हैं, वहां भी मरीज ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे हैं। जाहिर है कि ऑक्सीजन की किल्लत देश के कई शहरों में है। इसके लिए दिल्ली बॉर्डर पर बैठे किसानों को जिम्मेदार ठहराना अनुचित है।

हालात इतने बेकाबू हैं कि अस्पतालों को ऑक्सीजन के लिए सरकार से गुहार लगानी पड़ रही है। मैक्स हॉस्पिटल को दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा तो अपोलो हॉस्पिटल ग्रुप की ज्वाइंट एमडी डॉ. संगीता रेड्डी ने हरियाणा पुलिस पर ऑक्सीजन टैंकर को रोकने का आरोप लगाया है।

ऑक्सीजन को लेकर राज्यों के बीच शर्मनाक खींचतान चल रही है। हरियाणा के मंत्री स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने तो दिल्ली सरकार पर ऑक्सीजन टैंकर लूटने का आरोप लगा डाला। दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया का कहना है कि केंद्र सरकार द्वारा कोटा बढ़ाये जाने के बावजूद हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकार ऑक्सीजन की सप्लाई रोक रही हैं। कल दिल्ली को 378 MT की जगह सिर्फ 177 MT ऑक्सीजन मिली। स्पष्ट है कि ऑक्सीजन की समस्या मांग और आपूर्ति में अंतर और राज्यों के बीच तालमेल न होने के कारण हो रही है। केंद्र सरकार के स्तर पर प्लानिंग की कमी भी बड़ा कारण है। किसान किसान आंदोलन को इसमें बेवजह घसीटा जा रहा है।

जहां तक किसानों द्वारा ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित करने के आरोप का सवाल है, उसकी सच्चाई गूगल मैप बता देगा। असल में मोदीनगर से दिल्ली जाने के लिए गाजीपुर बॉर्डर जाने की जरूरत ही नहीं है। मोदीनगर से शहादरा या भजनपुरा होते हुए दिल्ली का सीधा रास्ता हैैै। दिल्ली में पश्चिम विहार के जिस अस्पताल तक ऑक्सीजन पहुंचानी थी, वह मोदीनगर से करीब 60 किलोमीटर दूूर है। फिर टैंकर को 100 किलोमीटर एक्सट्रा कैसे चलना पड़ा? ऐसी खबरें छापने वालों को वह रूट मैप दिखाना चाहिए। सवाल यह भी उठता है कि सीधा रास्ता छोड़कर ऑक्सीजन टैंकर गाजीपुर बॉर्डर क्यों भेजे जा रहे हैं?

अगर मान भी लें कि टैंकर को गाजीपुर बॉर्डर से ही दिल्ली जाना पड़ा, तब भी किसानों द्वारा ऑक्सीजन आपूर्ति में बाधा पहुंचाने की बात सही नहीं है। क्योंकि किसानों ने पहले दिन से ही एंबुलेस और आपात सेवाओं के लिए साइड में रास्ता खुला छोड़ रखा था। किसान नेता राकेश टिकैत का कहना है कि किसानों ने एक भी एंबुलेंस या जरूरी सेवा को नहीं रोका। बल्कि 26 जनवरी के बाद दिल्ली पुलिस ने खुद ही कीलें और बैरीकेड लगाकर एंबुलेंस लेन बंद करा दी थी। किसान लगातार रास्ता खोलने की मांग कर रहे हैं। लेकिन सरकार अपनी नाकामी छिपाने के लिए ऑक्सीजन की कमी का ठीकरा किसानों के सिर फोड़ने का प्रयास कर रही है।  

वास्तविकता यह है कि दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर किसान हाईवे के किनारे बैठे हैं जबकि बाकी लेन पुलिस ने खुद बंद करायी हैं। पुलिस चाहे तो किसान आंदोलन के बावजूद वाहनों की आवाजाही सामान्य हो सकती है, क्योंकि अब वहां बहुत कम किसान मौजूद हैं। सिंधू और टिकरी बॉर्डर पर भी किसानों से बातचीत कर सरकार आवश्यक सेवाओं के लिए ग्रीन कॉरिडोर बना सकती थी। लेकिन ऐसा करने की बजाय पुलिस ने खुद की भारी-भरकम बैरीकेड लगाकर रास्ते बंद कर दिये।   

इस बीच, किसान आंदोलन की वजह से ऑक्सीजन आपूर्ति बाधित होने के दावे की पोल खोलने वाले वीडियो सामने आए हैं। दिल्ली के जीटीबी हॉस्पिटल को ऑक्सीजन पहुंचाने वाले टैंकर के ड्राइवर ने पत्रकार संदीप सिंह को बताया कि किसानों ने उसे नहीं रोका, बल्कि ऑक्सीजन टैंकर को देखकर किसानों ने रास्ता खाली करवा दिया था। यानी, किसानों के धरने की वजह से ऑक्सीजन सप्लाई बाधित होने का दावा गलत है।

यहां बड़ा सवाल यह है कि मोदीनगर से दिल्ली जाने के लिए ऑक्सीजन टैंकर को गाजीपुर बॉर्डर घूमाकर जाने की क्या आवश्यकता थी? जबकि मोदीनगर से दिल्ली का सीधा रास्ता है। इस बात को इस वीडियो के जरिये समझिये

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि देश में ऑक्सीजन की कमी को किसान आंदोलन से जोड़ना सरासर गलत है। दिल्ली बॉर्डर के रास्ते किसानों ने नहीं बल्कि पुलिस ने बंद किये हैं। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता सिंधु बॉर्डर पर भी जरूरी सेवाओं के लिए जीटी करनाल रोड़ का एक हिस्सा खोलने को तैयार हैं। वहां भी दिल्ली पुलिस ने बैरिकेड लगाए हुए हैं। मोदीनगर से दिल्ली जाने के लिए तो गाजीपुर बॉर्डर जानेे की जरूरत ही नहीं है। मोदीनगर से दिल्ली की दूरी भी इतनी नहींं है कि 100 किलोमीटर का चक्कर फालतू लगाना पड़े।

शर्मनाक बात है कि लोग ऑक्सीजन के लिए तरस रहे हैं। जब देश में ऑक्सीजन प्लांट लगने चाहिए तब सरकारी सूत्रों के जरिये किसानों के खिलाफ फर्जी खबरें प्लांट करवायी जा रही हैं।

किसान को नकद मदद चाहिए, ‘डिरेगुलेशन’ का झुनझुना नहीं

हमारे किसानों को स्वतंत्र करें। वो कोविड-19 के प्रभाव को कम करने में मददगार साबित हो सकते हैं। यहां पर स्वतंत्र करने का मतलब है कि उनकी सप्लाई चेन की रुकावटों को दूर किया जाए। जी हां, वही ‘सप्लाई चेन’ जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री जी ने 12 मई को दिए अपने भाषण में 9 बार किया था। इसके बाद, वित्त मंत्री ने ‘फार्म-गेट इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए 1 लाख करोड़ रु. के एग्री इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड’ तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम एवं एपीएमसी एक्ट में संशोधन के लिए एक ‘लीगल फ्रेमवर्क’ के निर्माण की घोषणा की। कागजों पर देखें, तो ये सही दिशा में उठाए गए साहसी कदम मालूम पड़ते हैं, लेकिन आज फैली महामारी के संदर्भ में इनसे किसानों को कोई राहत नहीं मिलेगी।

कृषि सेक्टर में जान फूंकने का मौजूदा सरकार का पिछला रिकॉर्ड काफी निराशाजनक रहा है। साल 2004-05 से 2013-14 के बीच भारत की औसत कृषि जीडीपी वृद्धि 4 प्रतिशत थी, जो 2014-15 से 2018-19 के बीच गिरकर 2.9 प्रतिशत रह गई।

कृषि देश का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र है, लेकिन केंद्र सरकार ने अनेक पाबंदियां लगाकर कृषि क्षेत्र को पूरी क्षमता का इस्तेमाल करने से रोक रखा है। कृषि को नियंत्रित करने की मानसिकता दो ऐतिहासिक कारणों से है। पहला, जब तक हरित क्रांति ने हमें आत्मनिर्भर नहीं बनाया, तब तक भारत खाद्यान्न के लिए विकसित देशों पर निर्भर था। हमारे किसान सूखा, बारिश जैसी हर चुनौती का सामना करते हैं फिर भी हर साल खाद्यान्न उत्पादन में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। अनाज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सरकार का दायित्व है, ताकि किसानों को ‘कृषि उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि’ होने पर भी स्थिर व उचित दाम मिल सके।

दूसरा, भारत की राजनैतिक अर्थव्यवस्था में किसानों को उचित दाम 1960 के बाद एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया क्योंकि बड़े किसान राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो चुके थे। किसानों ने अपनी नवअर्जित राजनैतिक शक्ति का उपयोग सरकारी हस्तक्षेप से ऊंचे व ज्यादा स्थिर दाम पाने के लिए किया, जिससे भारत दुनिया में खाद्यान्न का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस प्रकार सालों से खाद्यान्न आयात करने की भारत की समस्या का अंत हुआ। हमारे लिए रिकॉर्ड स्तर पर खाद्यान्न का उत्पादन गर्व की बात है क्योंकि इसके साथ इतिहास जुड़ा हुआ है। किसी भी कृषि रिपोर्ट में सरकार सबसे पहले इसी का उल्लेख करती है।

खेत से लेकर खाने की मेज तक कृषि सेक्टर पर वास्तविक नियंत्रण सरकार के हाथ में है। प्रतिबंधात्मक स्वामित्व, लीज़ एवं टीनेंसी कानून के रूप में सरकार का पूरा ‘कैपिटल कंट्रोल’ है। अपनी जमीन निजी लोगों को बेचने या किराये पर देने में किसान के सामने कई बाधाएं हैं। खाद-बीज के दाम और पानी-बिजली पर सब्सिडी पर सरकारी नियंत्रण के रूप में सरकार का ‘इनपुट कंट्रोल’ रहता है। कृषि उपकरणों एवं कलपुर्जों पर जीएसटी भी एक तरह का नियंत्रण ही है।

आवश्यक वस्तु अधिनियम कृषि उत्पाद का मूल्य और मात्रा को नियंत्रित करता है। एपीएमसी एक्ट कृषि उपजों की खरीद-फरोख्त की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें एकाधिकार, बिचौलिये और कमीशनबाजी हावी है। दुनिया के साथ भारत के किसानों के स्वतंत्र व्यापार को बाधित करने के लिए अनेक व्यापारिक प्रतिबंध हैं।

किसानों के कल्याण के लिए काम करने वाले अनेक विशेषज्ञ एवं नीति-निर्माताओं का मानना है कि भारतीय कृषि को धीरे-धीरे खोला जाना चाहिए। देश की आधी आबादी की आर्थिक स्थिति और पूरे देश की खाद्य सुरक्षा कृषि पर निर्भर है। इसलिए इस सेक्टर के लिए एक स्थिर व संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, न कि डिरेगुलेशन के झुनझुने की। वित्त मंत्री की हाल की घोषणाओं में न तो किसानों को स्वतंत्र करने के लिए कोई ठोस प्रगतिशील नीतिगत उपाय दिए गए और न ही किसी सुधार का रोड मैप है। इन घोषणाओं में सुर्खियां बटोरने के लिए केवल ‘पैकेज’ दिए जाने की औपचारिकता पूरी कर दी।

इसके अनेक कारण हैं। कृषि राज्य का विषय है। केंद्र सरकार ज्यादा से ज्यादा एक ‘मॉडल कानून’ बना सकती है, जिसे सभी राज्य अपनाएं। लेकिन इन्हें अपनाना है या नहीं, यह राज्यों के ऊपर है। केंद्र सरकार ने ‘लिबरलाईज़िंग लैंड लीज़ मार्केट्स एंड इंप्लीमेंटेशन ऑफ मॉडल एग्रीकल्चरल लैंड लीज़ एक्ट, 2016’ पारित करके ऐसा किया भी था। लेकिन यह कानून सत्ताधारी दल के नेतृत्व वाले राज्यों सहित बहुत कम राज्यों ने अपनाया। इसलिए ‘कैपिटल कंट्रोल’ हटाए जाने का उपाय सफल नहीं हो सका।

कृषि वस्तुओं की मार्केटिंग भी राज्य का विषय है। ‘केंद्र सरकार द्वारा किसान को अपना उत्पाद आकर्षक मूल्य में बेच पाने के पर्याप्त विकल्प प्रदान करने के लिए एक कानून बनाए जाने’ तथा ‘स्वतंत्र अंतर्राज्यीय व्यापार की बाधाओं’ को दूर किए जाने की घोषणा करते हुए, वित्तमंत्री जी यह बताना भूल गईं कि यह केवल एक मॉडल कानून होगा, जिसे अपनाना या न अपनाना राज्य के ऊपर निर्भर करेगा, जैसा कि लैंड लीज़ एक्ट में हुआ था।

केंद्र सरकार के लिए दूसरा विकल्प ‘समवर्ती सूची’ की वस्तुओं में आश्रय लिया जाना है, जिसमें ‘खाद्य सामग्री’, ‘रॉ कॉटन’, ‘रॉ जूट’ एवं ‘पशु आहार’ सूचीबद्ध हैं। उसके लिए भी संविधान के अनुच्छेद 301 के तहत एक और कानून को पारित करना होगा।

वित्तमंत्री ने घोषणा की है कि किसानों को प्रोसेसर्स, एग्रीगेटर्स, बड़े रिटेलर्स, एक्सपोर्टर्स आदि से जुड़ने के लिए एक सुविधाजनक कानूनी ढांचा बनाया जाएगा। यह कागज पर बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यह एक विस्तृत नीतिगत घोषणा है, जिसका कोई विवरण, रोडमैप या संस्थागत फ्रेमवर्क नहीं दिया गया है।

देश में फैली इस महामारी के दौरान, संसद या इसकी स्टैंडिंग कमेटी वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से भी काम नहीं कर रही हैं। कोई संवैधानिक निगरानी नहीं है। कोई भी विधेयक जन परामर्श के लिए नहीं रखा गया। इसलिए अध्यादेश लाने से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होगा। सरकार को संसद के मानसून सत्र में संपूर्ण कानूनी प्रारूप प्रस्तुत करना होगा। यह राज्यों से परामर्श लिए नहीं हो सकेगा। बिना संस्थागत प्रारूप के आनन-फानन में नीति थोपने का परिणाम वही होगा, जो बिना योजना के त्रुटिपूर्ण जीएसटी लागू करने का हुआ है।

‘प्राईस एवं ट्रेड कंट्रोल’ को आंशिक रूप से हटाया जाना भी आधा अधूरा उपाय है। कृषि को नियंत्रण मुक्त करने के लिए संपूर्ण ढांचा बदलना होगा। साथ ही लागत और पूंजी संबंधी नियंत्रणों को समाप्त करना होगा। इसके लिए काफी व्यापक योजना और संस्थागत ढांचे की जरूरत होगी। केंद्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गई ई-नाम मंडियां बुनियादी ढांचे की योजना के अभाव में विफल साबित हुई हैं।

कोविड-19 के संकट में जब अर्थव्यवस्था संकट में है और किसानों को लागत के लिए पैसे की जरूरत है, ऐसे में उन्हें पुख्ता मदद दिए बिना अधूरी स्वतंत्रता देना उनका उपहास उड़ाने के बराबर है। अच्छा तो यह होता कि पहले उन्हें आर्थिक सहयोग दिया जाए और उसके बाद संस्थागत सुधारों की शुरुआत की जाए।

(लेखक तक्षशिला इंस्टीट्यूट, बैंगलोर में पब्लिक पॉलिसी का अध्ययन कर रहे हैं। लेख में अभिव्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं। लेख का इंग्लिश रूपांतरण सीएनएन न्यूज़18 में प्रकाशित हुआ था।)