पशुपालन स्वाभाविक रूप से कृषि का ही एक सहायक व अभिन्न पेशा बना रहा है. ग्रामीण रोजगार प्रदान करने और परिवारों की आय के मामले में पशुधन का विशेष योगदान रहा है. गाय-भैंसों की नई विकसित नस्लों और नई तकनीकों की बदौलत हरियाणा, पंजाब व अन्य प्रदेशों ने दूध उत्पादन में भारी वृद्धि की. उत्पादन की दृष्टि से प्रति व्यक्ति दूध की औसत उपलब्धता हरियाणा और पंजाब में अब एक लीटर से अधिक बैठती है.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में छोटे, मझोले काश्तकार किसानों के अलावा भूमिहीन तबका और खेत मजदूर भी गुजारे के लिए पशुपालन पर निर्भर हैं. पशुपालन और दूध उत्पादन में सभी समुदायों की ग्रामीण महिलाओं की विशेष भूमिका है यद्यपि निर्णय लेने के मामले में काफी हद तक उनकी उपेक्षा होती आई है. फसलों की लागत बढ़ने के अनुरूप आय का न बढ़ना और प्राकृतिक आपदा से बार-बार फसल खराब होने आदि कारणों से भी हाल के दशकों में पशुपालन की ओर किसानों का झुकाव बढ़ा है. पर पशुपालक के समक्ष जो संकट खड़ा हो रहा है उसकी मुख्य वजह सत्ताधीशों द्वारा जनहित के एजेंडा को ही छोड़ देना है. ग्रामीणों का एक हिस्सा संकट के कारण पशु पालन को छोड़ने पर भी मजबूर है.
उदारीकरण के परिणाम स्वरूप आज भारत व हरियाणा का डेयरी क्षेत्र गंभीर संकट से ग्रस्त है. इस संकट को कृषि के अभूतपूर्व संकट के साथ ही जोड़ कर देखना चाहिए जिसकी परिणति किसान आंदोलन के रूप में हुई है. कार्पोरेट हितों के अनुरूप स्थिति डेयरी क्षेत्र की भी बनाई जा रही है.
सन् 1970 में डॉ. वर्गीज कूरियन द्वारा चलाए ‘आपरेशन फ्लड’ के नाम से लोकप्रिय मॉडल ने जो चमत्कारिक परिणाम दिए वह सहकारिता पर ही आधारित था. उत्पादन-मैन्युफैक्चर-मार्केटिंग की प्रणाली से दुग्ध उत्पादन क्षेत्र को पशु पालकों की समावेशी हिस्सेदारी से ही विकसित होना था. सत्तर के दशक के बाद हरियाणा व पंजाब में भी कोऑपरेटिव सेक्टर में चिलिंग सेंटर और मिल्क प्लांट आदि खोले गए परंतु ये पनप नहीं सके. यदि सहकारिता प्रणाली को प्रोत्साहित किया जाता तो उत्पादक और उपभोक्ता दोनों के हित संरक्षित होते.
ग्रामीण परिवेश के सशक्तिकरण का स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता वाला रास्ता त्यागकर शासक वर्ग ने 90 के दशक की शुरुआत में नव उदारीकरण की नीतियों की शुरुआत करते हुए अपनी जनकल्याणकारी भूमिका से हाथ खींच लिया. सब्सिडियों में भारी कटौती कर दी. समय के साथ कई मिल्क प्लांट बंद कर दिए गए, जो बचे उनका विस्तार नहीं किया. ऐसे में देशी-विदेशी निजी कंपनियां इस क्षेत्र में अपनी पैठ जमाने आ गईं.
गौचरान और शामलात भूमि गांवों में बहुत कम रह गई है. जगह की कमी के चलते भूमिहीन परिवारों के लिए तो पशु रखना और भी मुश्किल हो गया है. पशुओं को पालने व दूध उत्पादन के लागत खर्चों में हाल में भारी वृद्धि हुई है जबकि इसके अनुरूप दूध के भाव नहीं बढ़े हैं. वहीं उपभोक्ताओं को सस्ता दूध उपलब्ध हो रहा हो ऐसा भी नहीं है
विचारणीय है कि गाय के मुकाबले दूध महंगा होने और मुर्रा भैंस की बेहतर नस्ल के बावजूद भैंसों की संख्या हरियाणा में घट रही है. हरियाणा में 2012 में हुई गणना में भैंसों की कुल संख्या 57.64 लाख थी जो कि 2019 में 43.76 लाख पर आ गई. जबकि गायों की संख्या इसी दौरान कुछ बढ़ कर 18 लाख से 19.32 लाख हो गई. भैंस पालन गाय की तुलना में महंगा होना भी कारण हो सकता है.
कृषि में बैल का प्रयोग तो लगभग समाप्त है. परंतु अनुपयोगी गाय व सांडों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है. आवारा पशु बढ़ रहे हैं जो फसलों की बर्बादी और दुर्घटनाओं के चलते समस्या बने हुए हैं. अवांछनीय पशुओं के प्रजनन पर नियंत्रण की तकनीकें अपनाने की जरूरत है. वहीं कुछ नये बनाये कानूनों से पशुओं का व्यापार चौपट हो रहा है. ऊपर से पशु मेले बंद कर दिए गए.
डेयरी उत्पादों का आयात खोले जाने से विकसित देशों से डेयरी उत्पादों का आना बड़ी चुनौती बनता जा रहा है. भारत में डेयरी उत्पादों के आयात पर लगे प्रतिबंध काफी हद तक समाप्त किए जा चुके हैं और आयात शुल्कों को लगभग खत्म कर दिया गया. न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, डेनमार्क आदि देशों से हाल में भी समझौता वार्ताओं के दौर चल रहे हैं. विकसित देश दबाव बना रहे हैं कि डेयरी उत्पादों का आयात पूरी तरह खोल दिया जाए. मोटी सब्सिडी और अति आधुनिक तकनीकों पर टिके इन देशों के डेयरी उत्पाद भारी मात्रा में हमारे देश के बाजारों में झोंक दिए जाएंगे. उन सस्ते उत्पादों के सामने हमारे देश के डेयरी उत्पाद पिट जाएंगे. भारत सरकार को भारतीय पशु पालक किसानों को उजड़ने से बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दृढ़ता से पेश आना होगा. डेयरी सेक्टर को बचाने के लिए वैकल्पिक नीतियों के पक्ष में पशुपालकों और उपभोक्ताओं का संगठित होना जरूरी है. दरअसल, अन्य नीतिगत बदलावों के अलावा वास्तविक को-ऑपरेटिव प्रणाली के माध्यम से ही कार्पोरेट का मुकाबला किया जा सकता है.
पैगंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी के मामले में बीजेपी की निलंबित प्रवक्ता नूपुर शर्मा को सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी फटकार लगाई है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उदयपुर में हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना के लिए उनका बयान ही जिम्मेदार है, जहां दो लोगों ने एक दर्जी कन्हैयालाल की हत्या कर दी थी. कोर्ट ने उन्हें देश से माफी मांगने को कहा है. कोर्ट ने कहा कि उन्होंने अपने बयान से देश की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा किया है. इससे ही देशभर में अशांति फैल गई है. सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने कहा कि नुपुर ने टेलीविजन पर आकर धर्म विशेष के खिलाफ उकसाने वाली टिप्पणी की. उन्होंने इस पर शर्तों के साथ ही माफी मांगी, वह भी तब, जब उनके बयान पर लोगों का गुस्सा भड़क उठा था. पैगंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद नुपुर शर्मा पर देश भर के पुलिस थानों में एफआईआर दर्ज की गई थी. नूपुर शर्मा ने सारे केस दिल्ली ट्रांसफर करने की अर्जी दी थी, सुप्रीम कोर्ट ने इससे इंकार कर दिया. इसके बाद नूपुर ने अर्जी वापस ले ली. कोर्ट ने उन्हें हाई कोर्ट में याचिका दायर करने को कहा है. सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को भी खूब लताड़ा है और उसके काम करने के तरीके पर सख्त टिप्पणी की है. जस्टिस सूर्यकांत की बेंच ने जो कहा, यहां बिंदुवार जानिए-
आपकी जुबान (नूपुर शर्मा) ने पूरे देश में आग लगा दी है.
जब मामले पर कोर्ट में सुनवाई चल रही है तो किसी टीवी चैनल और आपको इसपर बहस करने की क्या जरूरत है?
आपको टीवी पर जाकर सारे देश से माफी मांगनी चाहिए.
पार्टी की प्रवक्ता होने पर आपको ताकत का गुरूर हो गया है.
दिल्ली पुलिस बताए नूपुर पर इतने मामले दर्ज होने के बाद भी पुलिस ने क्या किया?
नूपुर की शिकायत पर पुलिस ने एक शख्स को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन इतनी FIR के बाद भी नूपुर को हाथ तक नहीं लगाया.
नूपुर शर्मा को जान का खतरा है या वह खुद एक खतरा बन गई हैं?
नूपुर शर्मा ने माफी मांगने में देरी की और वो भी सशर्त मांगी, कि अगर किसी की भावना को ठेस पहुंची हो
उदयपुर में जो दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई, उसके लिए नूपुर की भड़ास जिम्मेदार है.
जब नूपुर शर्मा के वकील ने कहा कि नूपुर पुलिस को जांच में सहयोग कर रही है, कहीं भाग नहीं रही तो जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने कहा-“जरूर, आपके लिए वहां रेड कारपेट होगा.”
मध्यप्रदेश में मॉनसून के पहले महीने में सामान्य से कम बारिश ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है. जिन किसानों ने जून के पहले हफ्ते में खरीफ की बुवाई कर दी थी, उनकी फसल सूख रही है. जिन्होंने बारिश के इंतजार में सूखे खेत में बुवाई की थी उनके खेत में बीज खराब हो रहा है. ऐसे किसान कर्ज लेकर दोबारा बुवाई कर रहे हैं. जिन किसानों ने अब तक बुवाई नहीं की है, वे भी चिंतित है. इनका कहना है कि यदि लगातार बारिश होने लगी और बुवाई का समय नहीं मिला तो उनके खेत खाली रह जाएंगे.
मौसम विभाग के मुताबिक मध्यप्रदेश में 28 जून तक 116 मिमी बारिश होनी थी, लेकिन 89 मिमी ही हुई है जो सामान्य से 23 प्रतिशत कम है. बीते वर्ष इस अवधि तक 100 मिमी से अधिक बारिश दर्ज की गई थी. इधर, मानसून के आने की घोषणा को हुए 8 दिन बीत रहे हैं. असामान्य बारिश ने किसानों का पूरा गणित बिगाड़ दिया है. कुछ जिले ऐसे भी हैं जहां रह—रहकर हल्की बारिश हो रही है जिसके कारण फसलें प्रभावित नहीं है.
बैतूल के आठनेर टिमरने के लिए रहने वाले किसान गुलाब राव कापसे बताते हैं कि उन्होंने 8 से 12 जून के बीच 9 एकड़ खेत में तीन क्विंटल सोयाबीन बीज बोया था, जो खराब हो गया है. यह बीज 49 हजार का था. डीजल पर 10 हजार रुपये खर्च हुए हैं व मजदूरी 1800 रुपये लगी है. घर के सदस्यों ने अलग मेहनत की थी. इस तरह बाहर का खर्च और घर के सदस्यों की मजदूरी मिलाकर करीब एक लाख रुपये का खर्चा आया था. बीज नहीं उगा इसलिए कर्ज लेकर 27 जून को दोबारा बुवाई की है. इस बार आधे खेत में मक्का व बाकी में सोयाबीन की बुवाई की है. किसान गुलाब राव कापसे बताते हैं कि इसके लिए एक रिश्तेदार से 35 हजार रुपये कर्ज लिया है.
हरदा के चारखेड़ा गांव के किसान बंसत कुमार बताते हैं कि उनके पास 20 एकड़ जमीन है. 10 एकड़ में सोयाबीन व 10 एकड़ में मूंगफली लगाई है. बुवाई 20 जून को की है. फसल पतली उगी है. यदि दो दिन के भीतर बारिश नहीं हुई तो दोबारा बुवाई करनी पड़ सकती है. वह बताते हैं कि प्रति एकड़ करीब 15 हजार रुपये खर्च हुए हैं. क्षेत्र में दूसरे किसानों की फसलें तो खराब हो चुकी है.
बड़वानी के किसान राजा मंडलोई कहते हैं कि उनके क्षेत्र में असामान्य बारिश हो रही है. जिन किसानों के पास सिंचाई साधन हैं उन्होंने समय पर कपास लगा ली है. जिनके पास पानी नहीं है वे अच्छी बारिश का इंतजार कर रहे हैं. वह बताते हैं कि 50 प्रतिशत बुवाई का काम बचा हुआ है. वह इस बात से चिंतित है कि यदि अच्छी बारिश को शुरू होने में और देरी हुई तो फसल चक्र प्रभावित होगा और रबी सीजन की फसल पर असर पड़ेगा.
नर्मदापुरम की डोलरिया तहसील के बैराखेड़ी में रहने वाले किसान सुरेंद्र राजपूत बताते हैं कि उन्होंने 18 एकड़ खेत में धान की बुवाई की है. प्रति एकड़ 1700 रुपये का बीज, 1350 रुपये की डीएपी, 1500 रुपये डीजल खर्च और 1200 रुपये मजदूरी पर खर्च हुए हैं. एक हफ्ते से बारिश नहीं हो रही है, धान के कुछ बीज उग चुके हैं और कुछ नहीं उगें है. खाद मिलाकर बुवाई की है इसलिए बीज खराब होने का भय है.
छतरपुर के किसान जगदीश सिंह का कहना है कि उनके जिले में हल्की बारिश हुई है. अभी जमीन में पर्याप्त नमी नहीं हुई है. फसल की बुवाई करने जैसी स्थिति ही नहीं है इसलिए इंतजार कर रहे हैं. वह चिंता जताते हैं कि खरीफ फसल की बुवाई में देरी हो रही है. जिन किसानों के पास रबी पफसल की बुवाई के लिए सिंचाई का साधन नहीं होता है उन्हें नुकसान हेागा. क्योंकि अभी देरी से बुवाई करेंगे तो देरी से फसल आएगी. तब तक रबी सीजन की चना, गेहूं, सरसों की फसलों की बुवाई करने में पिछड़ जाएंगे.
मप्र में बीते वर्षों में कब—कब आया मानूसन
वर्ष———— मानूसन आने की तारीख
2016———21 जून
2017———26 जून
2018———27 जून
2019———28 जून
2020———15 जून
2021———11 जून
2022———20 जून
मप्र में 25 जून तक खरीफ बुवाई की स्थिति मध्य प्रदेश में सामान्यत: 139 लाख हेक्टेयर में खरीफ की बुवाई होती है, लेकिन पिछले साल 145.18 लाख हेक्टेयर में बुवाई हुई थी, यही वजह है कि इस साल 147.75 लाख हेक्टेयर रकबे में बुवाई का लक्ष्य रखा गया है. 25 जून 2022 तक राज्य में 9.14 लाख हेक्टेयर में बुवाई हो चुकी है, जबकि पिछले साल यानी 2021 में 12.73 लाख हेक्टेयर में बुवाई हो चुकी थी.
आज से कुछ साल पहले भी जल संकट पर चर्चा होती थी, पर इसकी याद तब आती थी जब गर्मियों का मौसम नजदीक होता था. पानी के लिए लंबी कतारें, सूखते तालाब, गिरता जलस्तर, हर चीज पर चर्चा होती थी, खबरें आती थीं! मीडिया फोटो वीडियो दिखाता था. इसके बाद बारिश होती थी और फिर सब ठीक हो जाता था. तालाब, नदी, पोखर पानी से भर जाते और लोग साल के नौ महीनों के लिए फिर राहत की सांस लेते थे. पर अब पूरा साल पानी चर्चा का विषय बना हुआ. दूरदराज के इलाके में जलस्तर 700 तो कहीं 1000 फुट तक पहुँच चुका है. कई जानकार इसकी वजह जलवायु परिवर्तन को मानते हैं.
राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात और कुछ दक्षिण के राज्य तो पहले भी पानी की समस्या से जूझ रहे थे लेकिन अब बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश भी पानी के संकट से जूझने वाले राज्यों में शामिल हो चुके हैं. यूं तो कहने के लिए इन राज्यों में गंगा और नर्मदा जैसी नदियां बह रही हैं पर इनके किनारे पर ही संकट ज्यादा है. पानी की इस विकराल समस्या को देखते हुए मोबाइलवाणी ने एक अभियान चलाया- क्योंकि जिंदगी है जरूरी- जहाँ अब तक 1000 से ज्यादा लोगों ने अपनी राय और पानी से उनके जीवन में आ रही कठिनाइयों को साझा किया है. इस लेख में कुछ चुनिन्दा राय और परिशानियों को शामिल करेंगे जिससे मुद्दे की भयावहता का अंदाज़ा हो पाएगा.
बिहार के जमुई सोनो प्रखंड के ठाकुर आगरा गांव से मनजीत कहते हैं कि पहले गांव में पानी की कमी नहीं थी. कुएं थे, तालाब और पोखर थे. चापाकलों से भी खूब पानी निकलता था. इसके बाद धीरे—धीरे कुएं और तालाब सूख गए इसलिए उन्हें बंद कर दिया. फिर कुछ साल से चापाकल में भी पानी नहीं है. अब हम लोग जो पानी पी रहे हैं वो प्रदूषित है. जब घर के लोग बीमार हुए तो डॉक्टर ने कहा कि हमारे यहां का पानी खराब हो गया है. साफ पानी नहीं पीएंगे तो ऐसे ही बीमार होते जाएंगे. गांव में कई गर्भवती औरतें हैं पर वो सभी यही पानी पी रही हैं. बच्चों का भी पेट दुखता रहता है, कई बार तो जन्म लेते टाइम ही बच्चे मर जाते हैं और ये सब इसलिए है क्योंकि हमारे गांव और आसपास का पानी साफ नहीं है.
मनजीत ने जो कहा, वैसे हालात बताने वालों की संख्या सैकडों में है. अभियान के तहत बिहार, झारखंड के ग्रामीण इलाकों से बड़ी संख्या में लोगों ने ये शिकायतें की हैं कि उनके यहां दूषित पानी आ रहा है. इनर वॉयस फाउंडेशन की एक रिपोर्ट बताती है कि सिंधु-गंगा के मैदानों में कई ऐसे गांव हैं जिनको विधवा-गांव का नाम दिया जाता है. यहां के काफी पुरुषों की आर्सेनिकयुक्त पानी पीने से मृत्यु हो गई है. इस इलाके में शादी होकर आने वाली महिलाओं का भी जीवन बाद में इससे प्रभावित हो जाता है. गंगा के तटों पर बसे गांवों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा इतनी ज्यादा है कि पानी प्रदूषण के मानक स्तर को पार कर गया है. असल में गंगा बेसिन के भूजल आपूर्ति में आर्सेनिक स्वाभाविक रूप से होता है. इसके अलावा औद्योगिक प्रदूषण और खनन से भी आर्सेनिक आता है. इसकी वजह से अकेले भारत में ही 5 करोड़ लोगों के प्रभावित होने का अनुमान है. इनमें से भी सबसे ज्यादा प्रभावित लोग बंगाल, बिहार और झारखंड में बसे हैं. कुछ स्थानों पर तो आर्सेनिक, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित सुरक्षित मानकों से 300 गुना अधिक तक पहुंच गया है.
गंगा के किनारे बसे गांवों में लाखों लोग त्वचा के घावों, किडनी, लीवर और दिल की बीमारियों, न्यूरो संबंधी विकारों, तनाव और कैंसर से जूझ रहे हैं. ये लोग हैंडपंपों और यहां तक कि पाइप के जरिये आने वाले पानी को लंबे समय से पीते रहे हैं जिनमें आर्सेनिक की काफी मात्रा होती है. भारत के राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल 2019 (NHP) के अनुसार, उत्तर प्रदेश के 17 जिलों, बिहार के 11 जिलों के पानी में आर्सेनिक की उच्च मात्रा है. उत्तर प्रदेश के बलिया, बिहार के भोजपुर और बक्सर और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में आर्सेनिक का स्तर 3,000 पार्ट्स पर बिलियन (ppb) पहुंच गया है. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुमेय सीमा 10 pbb से 300 गुना अधिक है. डब्ल्यूएचओ के अनुसार, आर्सेनिक के लगातार संपर्क में आने से त्वचा संबंधी समस्याएं होती हैं. साथ ही आर्सेनिक, न्यूरोलॉजिकल और प्रजनन प्रक्रिया को प्रभावित करने के अलावा हृदय संबंधी समस्याओं, डायबिटीज, श्वसन और गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल रोगों और कैंसर का कारण बनता है.
समस्तीपुर जिले के मोइनुद्दीनगर ब्लॉक के छपार गांव के निवासी 63 वर्षीय कामेश्वर महतो आर्सेनिक के जहर से प्रभावित हैं. उन्हें रक्तचाप की परेशानी हो गई. इसकी वजह से वह कांपने लगते हैं. डॉक्टर कहते हैं कि वो साफ पानी पीते रहें पर कामेश्वर के लिए यह संभव नहीं हो पा रहा है. वो कहते हैं कि पहले गांव में कुएं पोखर थे. गर्मी के दिनों में यहां पानी कम होता था पर होता था. फिर सरकार ने चापाकल लगा दिए, गांव में पाइपलाइन डाल दी और कहा अब घर पर नल में पानी आएगा पर ऐसा हुआ नहीं. इस पर से कुएं और तालाब भी बंद कर दिए. यानि प्राकृतिक पानी के सारे स्रोत बंद हैं.
मधुबनी से मुन्ना महेरा ने बताया कि गांव के सारे कुएं और पोखर बंद कर दिए हैं. चापकलों से जो पानी आ रहा है उसमें आर्सेनिक है. अब बच्चे वो पानी पीकर बीमार होने लगे हैं. बुजुर्गों को भी पेट दर्द और दूसरी बीमारी हो रही हैं. जब इलाज करवाने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र जाते हैं तो वहां डॉक्टर तक नहीं होते.
महिलाओं और बच्चों पर असर
पटना स्थित महावीर कैंसर संस्थान ने पाया कि छपार गांव में 100 घरों के 44 हैंडपंपों में डब्ल्यूएचओ की अनुमेय सीमा से अधिक आर्सेनिक की मात्रा थी. डॉक्टर्स कहते हैं कि गर्भावस्था के दौरान आर्सेनिक की उच्च सांद्रता के चलते गर्भपात, स्टिलबर्थ, प्रीटर्म बर्थ, जन्म के समय बच्चे के वजन का कम होना और नवजात की मृत्यु का जोखिम छह गुना अधिक होता है. साल 2017 में ‘भूजल आर्सेनिक संदूषण और भारत में इसके स्वास्थ्य प्रभाव’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई. एक रिपोर्ट में एक केस का जिक्र है. नादिया जिले की एक महिला थी, जिसका पहला गर्भ प्रीटर्म बर्थ पर समाप्त हुआ. दूसरी बार गर्भपात हो गया और तीसरी बार गर्भ पर बच्चे की नियोनेटल मृत्यु का सामना करना पड़ा. इसके पीछे वजह आर्सेनिकयुक्त पानी का होना था. उसके पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा 1,617 ppb और उसके मूत्र में आर्सेनिक की मात्रा 1,474 ppb थी.
बिहार में पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट भोजपुर और बक्सर जैसे प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए काम कर रहा है. नमामि गंगे और ग्रामीण जल आपूर्ति विभाग के तहत उत्तर प्रदेश में जल निगम परियोजना शुरू हुई है. इन योजनाओं के तहत घर घर नल कनेक्शन बांटे जा रहे हैं पर दिक्कत ये है कि भूजल आर्सेनिक पानी से युक्त है. ऐसे में हर नल से पानी निकल भी जाए तो वो दूषित ही कहलाएगा. जल जीवन मिशन का उद्देश्य 2024 तक प्रत्येक ग्रामीण परिवार को नल का जल उपलब्ध कराना है, हालांकि जब हम आंकड़ों पर गौर करते हैं तो पाते हैं कि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 5.62% है. आश्चर्यजनक रूप से बिहार में यह आंकड़ा उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से काफी अधिक 52% है.
जमुई जिले में जिला मुख्यालय से तक़रीबन 10 किलोमीटर दूर एक गाँव है मंझ्वे – इस गाँव के आखिरी छोर पर सारकारी एक नल लगा है यहीं से सम्पूर्ण ग्रामीण पानी भरते हैं. गाँव के सभी चापाकल सूख गए हैं. अब इस गाँव में 700 फुट से ज्यादा पर पानी मिलता है जिसका खर्च आम तौर दलित मोहल्ला के वासी नहीं कर पाते हैं. गर्मियों के मौसम में पानी की समस्या की वजह से बहुएं अपने मायके चली जाती हैं, गाँव के कई युवकों की शादी नहीं हो रही है क्योंकि जब शादी करके कोई महिला आएगी तो उसे पाने लेने के लिए दूर गाँव के छोड़ पर जाना पड़ेगा. इस गाँव में नल जल की टंकी तो लगी है लेकिन पानी का पता नहीं.
दिल्ली के खजुरी खास से नज़मा बी कहती हैं कि इलाके में जो पानी सप्लाई हो रहा है उससे पेट दर्द की समस्या होने लगी है. डॉक्टर कहते हैं साफ पानी पीना है नहीं तो ये खतरा और ज्यादा बढ जाएगा.
और खेतों का क्या?
ये तो बात हुई उन क्षेत्रों की जहां लोगों को दूषित पानी पीना पड रहा है पर एक दूसरी समस्या है सूखा. जहां दूषित पानी है वहां लोग बीमार हैं और जहां पानी नहीं है वहां खेत सूख रहे हैं. नतीजतन किसानों का खेती से मोह खत्म होने लगा है. भारत में तीन चौथाई से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं रोजगार के लिए जमीन पर आश्रित हैं जबकि पुरूषों के लिए यह आंकड़ा करीब 60 फीसदी है. इसके पीछे वजह यह है कि समय पर बारिश ना होने से खेत सूख रहे हैं. फसलें पानी के इंतजार में खराब हो जाती हैं. कुल मिलाकर खेती से अब पहले जैसी कमाई नहीं हो रही जिसके कारण पुरूष नौकरी के लिए शहरों का रुख कर लेते हैं. बावजूद इसके ज्यादातर जमीनें पुरूषों के ही नाम होती हैं. केवल 13 फीसदी महिलाएं ही जमीनों की मालकिन हैं.
जो पुरूष पैसों के चक्कर में शहर आ गए हैं वो यहां आकर भी मजदूरी ही कर रहे हैं पर पानी का संकट तो शहर में भी है. अपने खेत छोडकर काम की तलाश में आए बहुत से मजदूर दिल्ली के गोविंदपुरी के नवजीवन कैंप में रह रहे हैं. यहां उन्हें एक दिन के पानी के लिए 100 रुपए खर्च करने पडते हैं. जिनके पास पैसे नहीं है वो दूषित पानी पी रहे हैं या फिर प्यासे हैं. कापसहेड़ा से बबलू कुमार बताते हैं कि जो लोग खेती से निराश होकर शहर में काम कर रहे हैं उन्हें साफ पानी के लिए 700 से 800 रुपए महीने का खर्च है. कई जगहों पर तो लोग 2 हजार रुपए तक खर्च कर रहे हैं. नलों में जो पानी सप्लाई हो रहा है वो इतना खराब है कि उससे घर के बच्चे बीमार हो गए.
शहर में आये कामगारों को नहाने धोने, शौच जाने के लिए के लिए पानी की जरूरत पडती है. मकान मालिक ने बिजली और पानी का मीटर लगा दिया है. सर्दियों में तो पानी का बिल 200 रुपये तक आता है लेकिन यही बिल गर्मियों में 500-700 हो जाता है. इसके अलावा पीने के पानी पर 20-30 रूपये प्रत्येक दिन का खर्च करना पड़ता है, वो भी कामचलाऊ पीने के पानी के लिए.
ऐसे में खेत आते हैं महिला किसानों के हिस्से और उन्हें सींचने की जिम्मेदारी भी. देखा जाए तो आपदा की स्थिति में सबसे पहले और सबसे बड़ा नुकसान महिलाओं और बच्चों का होता है. उन्हें पानी भरना, खाने का इंतजाम करना, मवेशियों की देखभाल और फसलों की चिंता करनी होती है. बिहार मोबाइलवाणी पर राजेश बताते हैं कि उनके खेत पानी की कमी से सूख गए हैं. पहले साल में 3 फसलें होती थीं, अब मुश्किल से 1 फसल होती है उसमें भी नुकसान होता है. ज्यादातर किसानों ने खेतों में नलकूप लगवाए थे पर उसमें से भी अब इतना पानी नहीं निकल रहा है कि पूरे खेत की अच्छे से सिंचाई हो जाए. जो किसान खेती कर रहे हैं उनके घर की महिलाएं, मवेशी सभी पानी ढोने का काम करते रहते हैं, फिर भी खेत को सींचना इतना आसान नहीं है.
भारत में जल का संकट जनजीवन पर गहराता नज़र आ रहा है. साल 2018 में नीति आयोग द्वारा किये गए एक अध्ययन में 122 देशों के जल संकट की सूची में भारत 120वें स्थान पर खड़ा था. ये स्थिति और भी भयावह हो सकती है, शायद हो भी गई हो! संकट का मतलब ये पानी की कमी है और जहाँ पानी उपलब्ध है वहां पीने लायक पानी की कमी- खेतों, मवेशियों और आम लोगों के लिए!
किसानों की आय बढ़ाने के दो रास्ते हैं- पहला, उनकी उपज की कीमत अधिक मिले, और दूसरा, किसानों की लागत कम हो. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) उपभोक्ताओं के लिए अच्छा हो सकता है, लेकिन यह किसानों के लिए ठीक नहीं है. गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) अमूल के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर जयेन मेहता ने पिछले दिनों कोऑपरेटिव पर आयोजित एक परिचर्चा में यह विचार रखे. ‘सहकार से समृद्धि: मेनी पाथवेज’ विषय पर आयोजित इस परिचर्चा का आयोजन रूरल वॉयस और सहकार भारती ने किया था.
अमूल का जिक्र करते हुए मेहता ने कहा कि उपभोक्ता के द्वारा खर्च की गई रकम का 80 से 85 फ़ीसदी दुग्ध किसानों को मिलता है. दुनिया के अन्य हिस्सों में किसानों को सिर्फ एक तिहाई रकम मिलती है. बाकी पैसा रिटेलर और प्रोसेसर के बीच जाता है. मेहता के अनुसार कोऑपरेटिव किसानों की उत्पादकता बढ़ाने और इस तरह उनकी लागत घटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.
उन्होंने 10 साल पहले रिटेल में एफडीआई पर एक कॉन्फ्रेंस का जिक्र किया और कहा कि एफडीआई उपभोक्ताओं के लिए अच्छा हो सकता है लेकिन किसानों के लिए नहीं. उन्होंने कहा कि आज की सत्तारूढ़ पार्टी जब विपक्ष में थी तब उसने संसद में यह मुद्दा उठाया था और रिटेल में एफडीआई से संबंधित विधेयक का विरोध किया था.
मेहता के अनुसार मूल्य का मतलब सबके लिए अलग-अलग है. जैसे मार्केटिंग के लोग 4पी की बात करते हैं- प्रोडक्ट यानी उत्पाद, प्राइस यानी कीमत, प्लेस यानी स्थान और प्रमोशन. लेकिन किसानों के मामले में दो और पी- पॉलिसी और परमेश्वर जुड़ जाते हैं. यहां परमेश्वर का अर्थ बारिश-बाढ़ जैसी बातों से है जिनका नियंत्रण किसानों के हाथ में नहीं होता है.
कोऑपरेटिव से किसानों को किस तरह लाभ हो सकता है इसके लिए उन्होंने अमेरिका का एक उदाहरण दिया. उन्होंने बताया, कुछ समय पहले जीसीएमएमएफ अमेरिका में अपनी शाखा खोलना चाहती थी. अमेरिकी अधिकारियों ने सी यानी कोऑपरेटिव शब्द पर आपत्ति की. उनका कहना था कि अमेरिकी कानून के मुताबिक किसी कोऑपरेटिव का तभी रजिस्ट्रेशन हो सकता है जब वे स्थानीय किसानों के साथ मिलकर काम करें. तब अमूल ने नाम बदलकर जीएसएमएमएफ रखा जिसमें एफ का मतलब सहकारी था. हालांकि अमेरिकी अधिकारी तब भी नहीं माने. मेहता के अनुसार नवगठित सहकारिता मंत्रालय भारतीय किसानों के हितों की रक्षा के लिए इस तरह के कानून ला सकता है.
उन्होंने बताया की अमूल के साथ 36 लाख किसान जुड़े हुए हैं. इसका सालाना टर्नओवर 61 हजार करोड़ रुपए के आसपास है. अमूल में इन सबका मालिकाना हक किसानों के पास है. उन्होंने कहा कि कोऑपरेटिव किसानों को उपभोक्ताओं से जोड़ती है, वैल्यू एडिशन करती है और बिचौलिए की भूमिका को खत्म करती है. यहां उत्पादन प्रसंस्करण और मार्केटिंग तीनों स्तर पर किसान ही मालिक हैं. अमूल इसी मॉडल पर काम करता है. देश की अन्य दुग्ध कोऑपरेटिव ने इसी मॉडल को अपनाया है.
भारत में दुग्ध कोऑपरेटिव की संभावनाओं के बारे में उन्होंने कहा कि अभी दुनिया का 22 फ़ीसदी दूध उत्पादन भारत में होता है. एक दशक में यह 33 फ़ीसदी हो जाएगा. अगले 10 वर्षों में जो अतिरिक्त दूध उत्पादन होगा उसमें भारत का हिस्सा दो-तिहाई होगा.
देश में अग्निपथ स्कीम का विरोध, महाराष्ट्र में सियासी उठापटक और असम में बाढ़ की खबर के बीच देश का सबसे बड़ा बैंक घोटाला सामने आया है. बताया जा रहा है कि यह घोटाला 34 हजार करोड़ रुपए से अधिक का है.
सीबीआई ने इस मामले में दीवान हाउसिंग फाइनेंस लिमिटेड जिसे डीएचएफएल के नाम से जाना जाता है, में उसके सहयोगियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज किया है. साथ ही देश भर में कई जगहों पर छापेमारी भी की है.
सीबीआई ने छापेमारी के दौरान कई अहम दस्तावेज और इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस बरामद किए हैं. इससे पहले सबसे बड़े घोटाले के तौर पर एबीजी शिपयार्ड का 22 हजार करोड़ का बैंक घोटाला सामने आया था.
एक साल पहले भी डीएचएफएल का नाम प्रधानमंत्री आवास योजना की मदद से गरीबों को घर देने के नाम पर सब्सिडी हड़पने का मामला सामने आया था. डीएचएफएल जो कि एक प्राइवेट फाइनेंस कंपनी है, ने इसके लिए 80 हज़ार फर्जी अकाउंट खोले, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के फर्जी लोगों को खड़ा किया, उन्हें लोन दिया और सरकार से मिली रियायत को हड़प गए.
प्रधानमंत्री आवास योजना में इस हेराफेरी को करीब 14 हजार करोड़ रुपये का घोटाला बताया गया. यस बैंक के साथ मिलकर भी डीएचएफएल ने अंदरखाने भारी उलटफेर किया.
कैसे हुआ घोटाला?
डीएचएफएल द्वारा किया गया यह घोटाला साल 2010 से जारी है. आरोप है कि डीएचएफएल समय समय पर बैंकों से क्रेडिट सुविधाएं लेती रही है. यह कंपनी कई क्षेत्रों में काम करती है.
इस कंपनी ने 17 बैंकों के समूह से जिसमें बैंक ऑफ बड़ौदा, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, आईडीबीआई, यूको बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, पंजाब एंड सिंध बैंक, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जैसे बैंकों से दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, कोलकाता और कोचीन आदि जगहों पर क्रेडिट सुविधा ली.
आरोप है कि इस कंपनी ने बैंकों से कुल 42 हजार करोड़ से ज्यादा का लोन लिया, लेकिन उसमें से 34,615 हजार करोड़ रुपए का लोन वापस नहीं किया. साथ ही उनका एक खाता 31 जुलाई, 2020 को एनपीए (गैर-निष्पादित संपत्तियां) हो गया.
इस मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने दीवान हाउसिंग फाइनेंस कारपोरेशन लिमिटेड, उसके निदेशक कपिल वधावन, धीरज वधावन एक अन्य व्यक्ति सुधाकर शेट्टी अन्य कंपनियों गुलमर्ग रिलेटेर्स, स्काईलार्क बिल्डकॉन दर्शन डेवलपर्स, टाउनशिप डेवलपर्स समेत कुल 13 लोगों के खिलाफ विभिन्न आपराधिक धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया है.
जांच एजेंसी ने पाया है कि दीवान हाउसिंग फाइनेंस कॉरपोरेशन, तत्कालीन चेयरमैन और प्रबंध निदेशक कपिल वधावन, निदेशक धीरज वधावन और रियल्टी क्षेत्र की छह कंपनियां यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के नेतृत्व वाले बैंकों के समूह के साथ की गई धोखाधड़ी की साजिश में शामिल थीं. सुधाकर शेट्टी की रिएल्टर कंपनी समेत 6 रिएल्टर कंपनियां एजेंसी के रडार पर हैं.
सीबीआई ने बैंक से 11 फरवरी, 2022 को मिली शिकायत के आधार पर यह कार्रवाई की है. इससे पहले 2021 में यूनियन बैंक ऑफ इंडिया ने सीबीआई को डीएचएफएल के प्रमोटर्स और तत्कालीन प्रबंधन की जांच करने के लिए लिखा था.
इसे सीबीआई की ओर से की जा रही अब तक की सबसे बड़ी बैंक धोखाधड़ी की जांच का मामला बताया जा रहा है. कंपनी के प्रमोटर रहे कपिल और धीरज वधावन के खिलाफ बैंक फ्रॉड का केस दर्ज हो गया है.
सीबीआई के 50 से ज्यादा अधिकारियों की टीम ने 23 जून को पहले आरोपियों के मुबंई स्थित 12 ठिकानों की तलाशी ली. वधावन बंधु यस बैंक के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी राणा कपूर के खिलाफ दर्ज भ्रष्टाचार के मामले में आरोपी हैं.
धीरज वधावन को 26 अप्रैल 2020 को यस बैंक मनी लॉन्ड्रिंग केस में गिरफ्तार किया गया था. ये केस यस बैंक के सीईओ राणा कपूर के साथ मिलकर कथित 3700 करोड़ रुपये की हेरा-फेरी से जुड़ा है. अपनी गिरफ्तारी के बाद वधावन ने जेल से ज्यादा समय अस्पताल में रहकर बिताया. रिपोर्ट के मुताबिक वधावन की जमानत कई बार खारिज की गई, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने सिर्फ 9 महीने ही जेल में बिताए. बाकी उनका करीब 15 महीने का वक्त अस्पताल में रह कर निकाला.
साल 2020 में अपनी गिरफ्तारी से पहले भी वधावन बंधुओं और उनके परिवार ने सुर्खियां बटोरी थीं. तब कोविड चरम पर था और महाराष्ट्र में लॉकडाउन था. इसके बावजूद वधावन परिवार एक सीनियर आईपीएस ऑफिसर की मदद से खंडाला से निकलकर अपने महाबलेश्वर के फार्म हाउस पहुंच गए थे.
इस मामले को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने आरोप लगाया कि डीएचएफएल के खातों की जांच में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी सामने आई थी. मार्च 2021 में प्रधानमंत्री आवास योजना मामले में सीबीआई ने डीएचएफएल को आरोपी बनाया, लेकिन ये घोटाला पीएम आवास योजना के ऑडिट में नहीं, यस बैंक मामले की जांच में सामने आया.
उन्होंने कहा कि बीजेपी लगातार डीएचएफएल से चंदा ले रही थी. बीजेपी ने डीएचएफएल और इसके प्रमोटरों से जुड़ी कंपनियों से 28 करोड़ रुपये का चंदा लिया. क्या ये एक हाथ से ले दूसरे हाथ से दे का मामला है? बीजेपी ने 28 करोड़ रुपये का चंदा क्यों लिया? क्या यह रिश्वत थी?
उर्वरकों की रिकॉर्ड बनाती कीमतों के चलते बढ़ते सब्सिडी बजट के मोर्चे पर सरकार को कुछ राहत मिलती दिख रही है. यह राहत यूरिया की कीमतों में आई भारी गिरावट के चलते मिलेगी. फरवरी के बाद से ऑफ सीजन और मांग में भारी कमी के कारण वैश्विक बाजार में यूरिया और इसके कच्चे माल अमोनिया की कीमतों में काफी गिरावट दर्ज की गई है. उद्योग सूत्रों के मुताबिक करीब एक हजार डॉलर तक पहुंची यूरिया की कीमतें घटकर 550 डॉलर प्रति टन पर आ गई हैं. वहीं यूरिया के कच्चे माल अमोनिया की कीमत भी 1100 डॉलर प्रति टन से घटकर 850 डॉलर प्रति टन रह गई है. ऊंची कीमतों के चलते भारत को 980 डॉलर प्रति टन की कीमत तक यूरिया खरीदना पड़ा था.
वैश्विक बाजार में यूरिया और अमोनिया की कीमतों में आई इस कमी की मुख्य वजह यूरिया उत्पादन की क्षमता, खपत से अधिक होना है. वहीं फरवरी से मई तक चार माह के ऑफ सीजन ने उत्पादक कंपनियों पर अतिरिक्त स्टॉक का दबाव बना दिया है. ब्राजील में सूखा होने के चलते वहां आयात भी कम हुआ है. ब्राजील ने सूखे के चलते यूरिया आयात के एडवांस सौदे भी नहीं किये हैं. उर्वरक उद्योग से जुड़े एक अधिकारी का कहना है कि फरवरी के बाद यूरिया का उपयोग लगभग बंद हो जाता है. केवल चीन में कुछ उपयोग होता है. अधिकांश देशों में फरवरी से मई तक के चार महीनों को ऑफ सीजन माना जाता है. इस दौरान उर्वरक कंपनियां यूरिया और अमोनिया का जो उत्पादन कर रही थीं उसकी स्टॉकिंग भी बड़ी समस्या उनके सामने खड़ी हो गई. इसके चलते कीमतों में यह गिरावट देखने को मिली है.
भारत सरकार द्वारा जुलाई के पहले सप्ताह में यूरिया आयात का टेंडर जारी करने की उम्मीद है. भारत को 540 डॉलर प्रति टन की कीमत में आयात सौदे मिलने की संभावना है. सरकार 5900 रुपये प्रति टन की कीमत पर किसानों को यूरिया बेचती है. 970 और 980 डॉलर प्रति टन की कीमत पर आयातित यूरिया के चलते सब्सिडी में भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई थी. उद्योग सूत्रों के मुताबिक 540 डॉलर प्रति टन की कीमत पर होने वाले सौदों पर पांच फीसदी का आयात शुल्क और 1500 रुपये प्रति टन का हैंडलिंग और बैगिंग खर्च जोड़ने पर यह कीमत करीब 42 हजार रुपये प्रति टन पड़ेगी. यह एक समय करीब 75 हजार रुपये प्रति टन पर पहुंच गई थी. कीमतों में आई गिरावट के चलते सरकार को सब्सिडी के मोर्चे पर उच्चतम स्तर पर गई कीमत के मुकाबले करीब 30 हजार रुपये प्रति टन की बचत होगी.
देश में करीब 350 लाख टन यूरिया की खपत होती है. इसके बड़े हिस्से की आपूर्ति देश में उत्पादित 260 लाख टन यूरिया से होती है. हमें हर साल करीब 100 लाख टन यूरिया का आयात करना होता है. लेकिन रामागुंडम और गोरखपुर उर्वरक संयंत्रों में उत्पादन शुरू हो जाने के चलते घरेलू उत्पादन क्षमता में करीब 10 लाख टन का इजाफा होगा. इसके चलते आयात में कमी आएगी.
भारत में आधी से ज्यादा जनसंख्या मजदूर वर्ग के रूप में काम करती है, लेकिन 94 फीसदी अनौपचारिक मजदूरों की आमदनी 10,000 रुपये से कम है. ई-श्रम पोर्टल (e-Shram Portal) पर रजिस्टर्ड 27.69 करोड़ असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के डेटा से यह खुलासा हुआ है. आंकड़ों से पता चलता है कि पोर्टल पर रजिस्टर्ड 94.11 फीसदी असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की मासिक कमाई 10,000 रुपये से भी कम है. वहीं 4.36 फीसदी की कमाई 10,001 से 15,000 रुपये के बीच है. पोर्टल पर रजिस्टर्ड 74.44 फीसदी मजदूर समाज के पिछड़े वर्ग से आते हैं.
74% मजदूर दलित, आदिवासी व ओबीसी
पोर्टल पर दिए गए आंकड़ों के अनुसार 74 फीसदी मजदूर दलित, आदिवासी और ओबीसी वर्ग से आते हैं. इनमें से 45.32 फीसदी ओबीसी, 20.95 फीसदी दलित और 8.17 फीसदी आदिवासी वर्ग के हैं. सामान्य श्रेणी से आने वाले मजदूरों की संख्या 25.56 फीसदी है.
उम्र के लिहाज से देखा जाए, तो 61.72 फीसदी मजदूरों की उम्र 18 से 40 साल और 22.12 फीसदी की 40 से 50 साल के बीच है. पोर्टल पर रजिस्टर्ड 13.23 फीसदी मजदूरों की उम्र 50 साल से अधिक है. वहीं 2.93 फीसदी की उम्र 16 से 18 साल के बीच है. पोर्टल पर रजिस्टर्ड 52.81 फीसदी मजदूर महिलाएं और 47.19 फीसदी पुरुष हैं.
रजिस्ट्रेशन के मामले में शीर्ष पांच राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और ओडिशा हैं. रजिस्टर्ड मजदूरों में सबसे अधिक 52.11 फीसदी मजदूर खेती का काम करते हैं. वहीं 9.93 फीसदी घरों में काम करते हैं जबकि 9.13 फीसदी निर्माण क्षेत्र में मजदूरी करते हैं.
38 करोड़ मजदूरों के रजिस्ट्रेशन का लक्ष्य
The Hindu के अनुसार विशेषज्ञों का मानना है कि ई-श्रम पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन बढ़ने के साथ पता चलता है कि समाज में काफी असमानता है. असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या करीब 38 करोड़ है. ई-श्रम पोर्टल का उद्देश्य देश में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का एक व्यापक डेटाबेस तैयार करना है. पोर्टल का लक्ष्य है कि असंगठित क्षेत्र के सभी मजदूरों का रजिस्ट्रेशन किया जाना चाहिए.
नवंबर 2021 में मासिक 10,000 रुपये से कम की कमाई वाले असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या 92.37 फीसदी थी. उस समय पोर्टल पर 8 करोड़ से कुछ ज्यादा मजदूर रजिस्टर्ड थे. उस समय पोर्टल पर पंजीकृत दलित, आदिवासी और ओबीसी वर्ग के मजदूरों की संख्या 72.58 फीसदी थी.
26 अगस्त 2021 को शुरू हुआ था पोर्टल
इस पोर्टल को 26 अगस्त, 2021 को शुरू किया गया था. इस पोर्टल के जरिये सरकार देश के असंगठित क्षेत्र के सभी मजदूरों के स्थिति देखना चाहती है. साथ ही सभी मजदूरों को कल्याण योजनाओं का लाभ प्रदान करना भी उद्देश्य है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, ई-श्रम पोर्टल पर कुल 27.69 करोड़ असंगठित क्षेत्र के मजदूर रजिस्टर्ड हैं. आंकड़ों से पता चलता है कि असंगठित क्षेत्र के सभी मजदूर गरीबी में अपना जीवनयापन कर रहे हैं और इनमें से ज्यादातर मजदूर समाज के पिछड़े समुदाय से आते हैं.
इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली (पत्रिका) के नए संस्करण में प्रकाशित पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) के एक अध्ययन से पता चला है कि पंजाब के छह जिलों में साल 2000 से 2018 के बीच आत्महत्या से 9,291 किसानों की मौत हुई है. सर्वेक्षण में शामिल जिलों में संगरूर, बठिंडा, लुधियाना, मानसा, मोगा और बरनाला शामिल हैं.
अध्ययन में यह पाया गया है कि इन सभी आत्महत्याओं में 88 फीसदी मृत्यु का सब से मुख्य कारण गैर-संस्थागत स्रोतों से भारी कर्ज़ा लेना रहा है. अध्ययन में कहा गया है कि आत्महत्या से मरने वाले 77 प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम भूमि थी, अर्थात मुख्य रूप से सीमांत और छोटे किसान ही इन आत्महत्याओं का मुख्य शिकार थे.
पीएयू के क्षेत्रीय सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि लगभग 93% परिवार ऐसे थे जिनमें एक व्यक्ति की आत्महत्या से मृत्यु हुई थी. 7% आत्महत्या के मामलों में परिवार में दो या दो से अधिक मामले थे. आत्महत्या से होने वाली कुल मौतों में से 92% पुरुष थे.
अध्ययन के मुताबिक, कर्ज से जुड़े आत्महत्या के मामलों की संख्या साल 2015 में सबसे ज्यादा (515) थी. उस साल कपास की फसल खराब हो गई थी. पंजाब के जिला बठिंडा, मनसा और बरनाला में प्रमुख व्यावसायिक फसल कपास है. लेकिन अमेरिकी कपास की उत्पादकता पिछले तीन दशकों में साल 2015 में सबसे कम (197 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) रही. किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था.
सर्वेक्षण किए गए जिलों में, संगरूर जो वर्तमान में आम आदमी पार्टी सरकार का मुख्य केंद्र है, में आत्महत्या से सबसे ज्यादा 2,506 मौतें हुई हैं. जिसके बाद मनसा में 2,098, बठिंडा में 1,956, बरनाला में 1,126, मोगा में 880 और लुधियाना में 725 आत्महत्याएं हुई.
यह अध्ययन पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी (पीएयू) के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग के तीन वरिष्ठ सदस्यों जिनमें सुखपाल सिंह, मंजीत कौर और एचएस किंगरा शामिल थे, ने घर-घर जाकर सर्वे के माध्यम से इन छह जिलों के सभी गांवों को कवर करके मौतों की कुल संख्या को संगठित किया.
भारीकर्जकीवजह
क्षेत्र के किसान ऐतिहासिक रूप से कर्जदार रहे हैं. 1920 के दशक की शुरुआत में, ब्रिटिश शोधकर्ता मैल्कम लयाल डार्लिंग ने पंजाब के किसानों पर टिप्पणी कर कहा था, “पंजाब का किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में रहता है और कर्ज में ही मर जाता है.”
यह समझने के लिए कि कैसे बारहमासी कर्ज़ की समस्या पंजाब के किसानों को घातक परिणामों की ओर ले जाती है, अध्ययन ने पिछली शताब्दी के बदलते कृषि परिदृश्य का विश्लेषण किया. देश में हरित क्रांति से पहले, पंजाब में पहले अपने गुज़र बसर के लिए खेती करना ही प्रचालन में था. जिसमें, किसानों के द्वारा कृषि का उत्पादन घरेलू उपभोग के लिए होता था.
लेकिन 1960 के दशक के बाद, हरित क्रांति की वजह से देश में व्यावसायिक खेती शुरू हुई जिसमें कृषि इनपुट और कृषि उत्पाद दोनों को बाजार से जोड़ दिया गया. जिसके लिए किसानों को पैसा उधार लेने की आवश्यकता हुई और निजी एजेंसियों द्वारा अत्यधिक ब्याज दरों पर उधार दिए गए, जिसकी बजह से किसान कर्ज के जाल में धकेल दिए गए.
35 सालसेकमउम्रकेकिसानोंमें 75% आत्महत्याकेमामले
अध्ययन से पता चलता है कि आत्महत्या से मरने वाले लगभग 75% किसानों की उम्र 19 से 35 वर्ष के बीच थी. आत्महत्या से मरने वालों में से लगभग 45% निरक्षर (अनपढ़) थे और 6% उच्च माध्यमिक स्तर तक पढ़े थे. अध्ययन के अनुसार, आत्महत्या पीड़ितों के परिवार अपनी सामाजिक असुरक्षा को लेकर बेहद डरे हुए पाए गए. ऐसे परिवारों में से एक-तिहाई हिस्सा उनका था जिन्होंने मुख्य कमाने वाले को खो दिया था जिसके बाद परिवार के पास आजीविका कमाने का कोई स्पष्ट रास्ता नहीं बचा था. अध्ययन में कहा गया है कि लगभग 28% परिवार डिप्रेशन (अवसाद) से पीड़ित हैं.
इनमें से लगभग 13% परिवारों को अपनी कमाई का एकमात्र साधन छोड़कर, मृत्यु के बाद अपनी जमीन बेचनी पड़ी. जिनमें से कम से कम 11% परिवारों के बच्चों को अपनी शिक्षा बंद करनी पड़ी. अध्ययन में पाया गया कि जिन परिवारों में एक सदस्य की मौत कर्ज के बोझ के कारण आत्महत्या से हुई थी, उन्हें सामाजिक रूप से भी दूर रखा गया था.
नीतिगतहस्तक्षेप
अध्ययन के अनुसार, पीड़ितों के परिवारों को मुआवजा देने की व्यवस्था बहुत ही थकाऊ भरा है. मार्च 2013 में, राज्य सरकार ने एक नीति तैयार की थी जिसके अनुसार पीड़ित परिवारों को 3 लाख रुपये का मुआवजा के साथ अन्य सहायता, एक निश्चित अवधि के भीतर मृत्यु के बाद दिया जाना चाहिए. लेकिन, कई मामलों में ये परिवार पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट, क्रेडिट रिकॉर्ड आदि जैसे आवश्यक दस्तावेजों की कमी के कारण इस मुआवजे से वंचित हो गए थे.
अध्ययन के अनुसार, उन सभी किसान परिवारों को मुआवजा देना बहुत आवश्यक है जहां परिवार में एकलौते कमाऊ सदस्य की आत्महत्या से मृत्यु हुई है क्योंकि वे सभी गंभीर आर्थिक संकट में हैं.
अध्ययन में सलाह दी गई है कि संस्थागत ऋण, जो पीड़ित परिवारों द्वारा लिए गए कुल कर्ज़ का लगभग 43% है, को माफ कर दिया जाना चाहिए. अध्ययन में कहा गया है कि गैर-संस्थागत स्रोतों द्वारा दिए गए कर्ज़ों का निपटान करने के लिए, गैर-संस्थागत ऋण को संस्थागत ऋण में बदलने करने के लिए ‘उधारकर्ताओं की ऋण अदला-बदली की योजना’ को प्रभावी बनाया जाना चाहिए.
पंजाब चुनाव से पहले, आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने दावा किया था कि अगर उनकी पार्टी पंजाब में सरकार बनाती है, तो वह किसानों के बीच आत्महत्या से होने वाली मौतों को रोक देंगे. आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने के दो महीने में दो दर्जन किसान आत्महत्या कर चुके हैं. कांग्रेस पंजाब के प्रमुख अमरिंदर सिंह राजा वारिंग सहित विपक्ष ने अपने वादे पर खरे नहीं उतरने के लिए भगवंत मान के नेतृत्व वाली सरकार की आलोचना की है.
सेनाओं में युवाओं की अनुबंध आधारित यानि कॉन्ट्रैक्ट बेस्ड भर्ती को लेकर केंद्र सरकार की ‘अग्निपथ’ योजना के विरोध में देश के युवा सड़कों पर उतर कर आन्दोलन करने के लिए मजबूर हो गए हैं. एक तरफ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस योजना को मील का पत्थर बता रहे हैं तो वहीं देश के युवा और विभिन्न संगठन इस योजना की आलोचना ही नहीं बल्कि इसके विरोध में सड़कों पर आन्दोलन भी कर रहे हैं.
योजना के खिलाफ़ 20 जून 2022 को भारत बंद सफल बनाने के लिए देश में युवा और सामाजिक संगठनों ने शांतिपूर्ण आन्दोलन किया. इसका एक उदाहरण हरियाणा में टोल मुफ्त कराने का आन्दोलन 20 जून को ही हुआ जो कि शांतिपूर्ण तरीके से किया गया और योजना के खिलाफ अपनी नाराज़गी ज़ाहिर किया गया.
लेकिन हरियाणा सोनीपत में पुलिस प्रशासन और सीआईए की बर्बरता तो तब देखने को मिली जब भारत बंद के एक दिन पहले ही, 19 जून 2022 को छात्र एकता मंच संगठन के 3 कार्यकर्ताओं जिनका नाम साहिल, अंकित और गोविंदा है, को गिरफ्तार कर लिया गया. इसका अर्थ यह हुआ कि अब सरकार की ‘अग्निपथ’ योजना के खिलाफ़ प्रदर्शन से पहले ही प्रशासन ने युवाओं की गिरफ्तारियां शुरू कर दी है.
19 जून 2022 को हरियाणा पुलिस और सीआईए ने छात्र एकता मंच के तीन कार्यकर्ताओं को ही नहीं बल्कि संगठन से अलावा 28 अन्य युवाओं को भी प्रदर्शन से पहले गिरफ्तार कर लिया.
प्रदर्शन से पहले पुलिस के द्वारा गिरफ्तार किए गए अंकित, हरियाणा सोनीपत जिले से छात्र एकता मंच के अध्यक्ष हैं. अंकित और साहिल दोनों सोनीपत के हिन्दू कॉलेज से बीए फाइनल इयर के छात्र हैं. गोविंदा पानीपत के एसडी कॉलेज से बीकॉम फर्स्ट इयर का छात्र है.
गिरफ्तार किए गए अंकित, साहिल और गोविंदा
छात्र एकता मंच के दीपक ने ‘गांव सवेरा’ को बताया कि अंकित और गोविंदा को सीआईए ने सोनीपत के कलाना गांव के पास से सड़क पर चलते हुए ही गिरफ्तार कर लिया. वहीं साहिल को सोनीपत के ज्ञान नगर से गिरफ्तार किया गया.
मजदूर अधिकार संगठन के अध्यक्ष शिव कुमार ने गांव सवेरा को बताया, “साहिल को ज्ञान नगर में शाम को 5 बजे उस समय गिरफ्तार किया गया जब वह नाइ की दुकान में बाल कटवाने के लिए गया हुआ था. अंकित और गोविंदा दोनों शाम को 6 बजे अपने दोस्तों से मिलने के लिए जा रहे थे तभी वर्दीधारी पुलिस ने उन्हें सड़क पर चलते हुए गिरफ्तार कर लिया.”
पुलिस प्रशासन ने तीनों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 107/151 लगाईं है. सीधे शब्दों में कहें तो पुलिस इस धारा का इस्तेमाल तब किया जाता है जब उन्हें भविष्य में किसी व्यक्ति के अपराध करने की संभावना लगती है.
अंकित, साहिल और गोविंदा की रिहाई के लिए 21 जून 2022 को भारतीय किसान पंचायत, भारतीय किसान सभा, ज्ञान विज्ञान समिति, छात्र अभिभावक संघ, छात्र एकता मंच, सर्व कर्मचारी यूनियन व मजदूर अधिकार संगठन ने मिल कर सोनीपत डीसी ऑफिस में ज्ञापन सौंपा.
इस पूरे मामले में ‘गांव सवेरा’ ने अंकित के पिता रामवीर सिंह से बात की. रामवीर सिंह सोनीपत में मजदूरी करते हैं और अपने बेटे की हुई गिरफ्तारी को लेकर बहुत चिंतित हैं. उन्होंने कहा, “जब से हमें अंकित की गिरफ्तारी का पता चला है तब से गले से एक निवाला तक नीचे नहीं उतरा है. अंकित की मां को थायराइड की समस्या है और वह इस खबर को सुन कर बहुत परेशान है. हम मजदूर हैं और हर दिन काम कर के अपना गुज़ारा चलाते हैं. उम्मीद है कि पुलिस जल्द ही अंकित को छोड़ देगी.”
भारतीय किसान पंचायत के सचिन मलिक ने बताया कि प्रशासन ने सभी को 23 जून को रिहा करने का आश्वासन दिया है, लेकिन उन्हें प्रशासन के इस आश्वासन पर बिलकुल भी भरोसा नहीं है. सचिन कहते हैं, “हालांकि पुलिस ने सभी को 23 जून को रिहा करने का आश्वासन दिया है लेकिन हमें उनकी बात पर भरोसा नहीं है. जिस तरह से पुलिस ने बिना प्रदर्शन किए हमारे साथियों को गिरफ्तार किया है वह हो सकता है 23 तारीख को उन्हें रिहा करने से इनकार कर दे. हमने इसी के चलते आज सोनीपत डीसी ऑफिस में अपना ज्ञापन सौंपा है कि यदि यदि छात्र एकता मंच के तीनों कार्यकर्ताओं को नहीं छोड़ा गया तो छात्र एकता मंच समेत सभी सामाजिक संगठन इसके खिलाफ एक बड़ा आन्दोलन करेंगे.”