5 साल में केंद्र सरकार ने मीडिया को विज्ञापन के लिए दिये 3 हजार 305 करोड़!

भारत सरकार ने पांच सालों, यानी 2017 से 2022 के बीच प्रिंट मीडिया को 1736 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 1569 करोड़ रुपए के विज्ञापन दिए हैं. यानी इस दौरान भारत सरकार द्वारा कुल 3305 करोड़ रुपए विज्ञापनों पर खर्च किए गए. यह जानकारी राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के लिखित जवाब में सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने दी है.

वहीं वित्त वर्ष 2022-23 में 12 जुलाई तक प्रिंट मीडिया को 19.26 करोड़ तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 13.6 करोड़ रुपए के विज्ञापन दिए जा चुके हैं.

28 जुलाई को राज्यसभा में कांग्रेस के सांसद जी सी चंद्रशेखर ने सवाल पूछा कि सरकार द्वारा वर्ष 2017 से आज तक, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक विज्ञापनों पर व्यय का वर्षवार और मंत्रालय वार आंकड़ा क्या है?

सरकार की ओर से इसका जवाब केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने दिया. उनके जवाब के मुताबिक 2017 से 2022 के बीच प्रिंट मीडिया पर 1736 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर 1569 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च हुए. वहीं वित्त वर्ष 2022-23 में 12 जुलाई तक प्रिंट को 19.26 करोड़ तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 13.6 करोड़ के विज्ञापन दिए गए हैं. ये सभी विज्ञापन केंद्रीय संचार ब्यूरो (सीबीसी) के माध्यम से दिए गए.

इस खर्च को अगर वर्षवार देखें तो 2017-18 में प्रिंट मीडिया को 636.36 करोड़ तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 468.92 करोड़, 2018-19 में प्रिंट मीडिया को 429.55 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 514.28 करोड़, 2019-20 में प्रिंट मीडिया को 295.05 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 317.11 करोड़, 2020-21 में प्रिंट को 197.49 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक को 167.86 करोड़ तथा 2021-22 में प्रिंट को 179.04 करोड़ रुपए और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 101.24 करोड़ रुपए विज्ञापनों के लिए दिए गए.

वहीं वित्त वर्ष 2022-23 में 12 जुलाई तक, प्रिंट मीडिया के विज्ञापनों पर 19.26 करोड़ रुपए और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विज्ञापनों पर 13.6 करोड़ रुपए सरकार के द्वारा खर्च किए गए.

अनुराग ठाकुर ने मंत्रालय वार खर्च के आंकड़े भी दिए हैं. 2017 से 12 जुलाई 2022 तक के आंकड़ों के मुताबिक 615.07 करोड़ रुपए के साथ विज्ञापनों पर सबसे ज्यादा खर्च वित्त मंत्रालय द्वारा किया गया. इस मामले में दूसरे नंबर पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय है. जिसने इस अवधि में 506 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च किए. तीसरे नंबर पर स्वास्थ्य मंत्रालय रहा, जिसकी ओर से 411 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च किए गए.

वहीं रक्षा मंत्रालय ने 244 करोड़, महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने 195 करोड़, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने लगभग 176 करोड़ और कृषि मंत्रालय ने 66.36 करोड़ रुपए विज्ञापनों पर खर्च किए. रोजगार एवं श्रम मंत्रालय ने भी लगभग 42 करोड़ खर्च किए. हालांकि इसी दौरान कोरोना के कारण लाखों की संख्या में मज़दूरों का पलायन भी हुआ था.

जी सी चंद्रशेखर ने सरकार द्वारा विदेशी मीडिया में विज्ञापन पर किए गए खर्च की जानकारी भी मांगी. इसके जवाब में अनुराग ठाकुर ने बताया कि भारत सरकार के किसी विभाग या मंत्रालय द्वारा, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के माध्यम से विदेशी मीडिया में विज्ञापन पर कोई व्यय नहीं किया गया है.

साभार- न्यूजलॉंड्री

आंधी-बारिश में यूपी के केला किसानों को भारी नुकसान, मुआवजा न मिलने से बढ़ी परेशानी!

पिछले 3 दिनों में मौसम के बदले मिजाज से उत्तर प्रदेश में गर्मी से झुलसते रोगों को राहत तो मिली, लेकिन केला और आम समेत कई फसलें उगाने वाले किसानों का भारी नुकसान हो गया। आंधी और बारिश के चलते प्रदेश कई जिलों में केले के पेड़़ टूट गए, घार टूट कर नीचे गिर गईं।

मौसम विभाग के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 23 से 24 मई तारीख की सुबह तक करीब सामान्य के 0.5 मिलीमीटर बारिश के मुकाबले 12.2 मिलीमीटर बारिश हुई जो सामान्य से 2324 फीसदी ज्यादा थी।

बाराबंकी जिले के सूरतगंज ब्लॉक दौलतपुर गांव के प्रगतिशील किसान अमरेंद्र सिंह के पास करीब 8 एकड केला है। सोमवार 23 मई 2022 को दिन में आई आंधी और बारिश में उनकी फसल को भारी नुकसान हुआ है। उनकी फसल अगले दो महीने में तैयार होने वाली थी, कुछ पौधों घार (फल) आ गए थे तो कुछ में आने वाले थे।

अमरेंद्र सिंह बताते हैं, “आंधी-तूफान में करीब 1500 पेड़़ पूरी तरह टूट गए हैं। केले की फसल को तेज हवा से काफी नुकसान होता है। हम लोग पेड़ बांधकर रखते हैं लेकिन आंधी में नुकसान हो ही जाता है।” 

अमरेंद्र सिंह के पड़ोसी जिले बहराइच में रविवार (22 मई) की रात को भी भीषण आंधी आई थी। बहराइच जिले के किसान विष्णु प्रताप मिश्रा के पास करीब 3 एकड़ केला था, जिसमें करीब 3 लाख रुपए की लागत लग चुकी थी, फसल भी 2 महीने में तैयार होने वाली थी, लेकिन 22 मई की रात आई आंधी में उनका करीब 1 एकड़ खेत बर्बाद हो गया।

बहराइच जिले के फकरपुर ब्लॉक में भिलोरा बासु गांव के रहने वाले विष्णु प्रताप के बेटे अमरेंद्र मिश्रा डाउन टू अर्थ को बताते हैं, “आंधी रात को आई थी सुबह देखा तो कम से कम 3-4 बीघे (5 बीघा-1एकड) में पेड़़ पूरी तरह टूट कर गिर चुके थे।”

यूपी में उद्यान विभाग में बागवानी विभाग में उपनिदेशक वीरेंद्र सिंह बताते हैं, “यूपी में बाराबंकी, अयोध्या, गोंडा, बहराइच, सीतापुर, देवरिया, लखनऊ, लखीमपुरखीरी, कौशांबी,  फतेहपुर, प्रयागराज, गोरखपुर और कुशीनगर में केले की बडे़ पैमाने पर नुकसान हुआ है। रविवार को आए तूफान से पूर्वांचल में ज्यादा नुकासन हुआ, जिसमें गोंडा बहराइच भी शामिल हैं जबकि सोमवार को आईं आधी में ज्यादा नुकसान की खबर आ रही है।” सीतापुर में एक हफ्ते में तीसरी बार आंधी आई है।

भारत दुनिया का सबसे ज्यादा केला उत्पादन करने वाला देश है। विश्व के कुल केला उत्पादन में भारत की करीब 25.88 फीसदी हिस्सेदारी है। देश में सबसे ज्यादा केला आंध्र प्रदेश में होता है, 72-73 हजार हेक्टेयर के रकबे के सात उत्तर प्रदेश पांचवें नंबर पर आता है।

यूपी में साल 2020-21 में 73.8 हजार हेक्टेयर में केले की खेती हुई थी। करीब 12-13 महीने की फसल केले को नगदी फसल माना जाता है। केला ऐसा फल है जो पूरे साल बिकता है। केले की एक एकड़ खेती में एक से डेढ़ लाख की औसत लागत आती है, अगर उत्पादन सही हुआ और भाव मिला तो डेढ़ से 2 लाख रुपए प्रति एकड़ तक का मुनाफा हो जाता है। लेकिन आंधी और जलभराव होने पर पेड़ गिर जाने का खतरा रहता है। समस्या ये भी है कि केले समेत कई बागवानी फसलों का बीमा कई जिलों में होता है तो कई जगह इसका फायदा किसानों को नहीं मिलता है।

बाराबंकी के किसान अमरेंद्र सिंह बताते हैं, “साल 2019 में हमारे यहां आए आंधी-तूफान से किसानों का बहुत नुकसान हुआ था, जिसके बाद हम लोगों ने दौड़भाग करके अपने ब्लॉक को बीमा एरिया में शामिल कराया था, इसके बाद हमने 2020 में बीमा कराया तब कोई नुकसान नहीं हुआ तो 2021 में कराया नहीं, क्योंकि प्रति एकड़ करीब 7 हजार रुपए का प्रीमियम देना होता है।

 वहीं बहराइच के अमरेंद्र मिश्रा के मुताबिक उनके यहां केले का बीमा कोई करता नहीं है। उन्होंने कहा, “हमारे यहां कच्ची फसलें (केला आदि) का बीमा कोई करता नहीं है। पिता जी ने किसान क्रेडिट कार्ड पर लोन लिया था तो धान-गेहूं का बीमा हुआ था।” वो आगे जोड़ते हैं कि हमारे यहां जब हुदहुद तूफान आया था तो बहुत नुकसान हुआ था, उस समय सर्वे हुआ था, लेकिन कोई मुआवजा नहीं मिला।”

डाउन टू अर्थ ने इस संबंध में यूपी में कार्यरत बीमा कंपनियों के अधिकारियों से भी बात की। बहराइच में कार्यरत बीमा कंपनी  एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ़ इंडिया (एलटीडी) के जिला संयोजक मुकेश मिश्रा ने बताया कि जिले में केले का बीमा किया जाता है। हमारे हर ब्लॉक में मौसम मापी यंत्र लगे हैं, उसमें हवा, पानी या प्राकृतिक आपदाएं होती है, उसकी रिपोर्ट के आधार पर क्लेम दिया जाता है। इसमें न आवेदन किया जाता है, न सर्वे होता है।”

मुकेश ने आगे बताया, “इन फसलों का बीमा पुर्नगठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना के अंतर्गत होता है, जो हर जिले में फसल के अनुसार अलग-अलग हो सकती है। जैसे बहराइच में केला है, तो कहीं आम, तो कहीं पान भी दायरे में आता है। जबकि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत धान-गेहूं जैसी फसलें आती हैं।

मुकेश के मुताबिक अगर कोई किसान एक हेक्टेयर में केला लगाने के लिए लोन (केसीसी) लेता है उसमें स्केल ऑफ फाइनेंस के आधार पर 5 फीसदी तक प्रीमियम देना होता है। यानि अगर एक लाख रुपए का खर्च आया तो 5 हजार प्रीमियम देना होगा और अगर 100 फीसदी नुकसान हुआ तो पूरा पैसा दिया जाएगा।

वहीं सीतापुर और लखीमपुर जिलों में कार्यरत कंपनी यूनिवर्सन सोम्पो जनरल इंश्योरेंस प्रा. लिमिटेड के जिला कॉर्डिनेडर आशीष अवस्थी के मुताबिक उनके जिलों में भी आंधी बारिश से केले की फसल को नुकसान हुआ है। पिछले साल भी किसानों को नुकसान हुआ था, जिसका मुआवजा दिया गया था। इससाल भी बीमित किसानों को क्लेम दिया जाएगा।

आशीष बताते हैं, “फसल बीमा कंपनियों के हर ब्लॉक में 2-2 वेदर स्टेशन लगे हैं, जिनमें लगे 5 सेंसर के आधार पर क्लेम तय होते हैं। अगर 100 मिलीमीटर बारिश होने चाहिए और 200-300 मिलीमीटर हुई है तो कंपनी बीमा देगी। पिछले साल (2020) में हुए नुकसान के लिए हमारी कंपनी ने लखीमपुर के 55 किसानों को 72 लाख और सीतापुर के 35 किसानों को 45 लाख रुपए का बीमा हाल ही में दिया है। इस आंधी और बारिश जो नुकसान हुआ है उसका भी रिपोर्ट के मुताबिक क्लेम दिया जाएगा।

सीतापुर में बडे़ पैमाने पर केले की खेती होती है लेकिन यहां पर गिनती के किसानों ने बीमा कराया है। आशीष कहते हैं, “सीतापुर में सिर्फ 71 किसानों ने इस साल बीमा कराया है। हम जिला उद्यान अधिकारी से बात कर रहे हैं कि कैसे किसानों को इस दायरे में लाया जाए। क्योंकि मौसम लगातार प्रतिकूल हो रहा है। कहीं ज्यादा गर्मी कहीं तेज आंधी तो कहीं सूखा पडा रहा है। ऐसे में किसानों के लिए बीमा जरुरी है।”

साभार- डाउन-टू-अर्थ

विमुक्त घुमंतू जनजातियों को लेकर राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग ने फिर जारी किया योगी सरकार को नोटिस!

उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा विमुक्त घुमंतू और अर्धघुमंतू जनजातियों को सरकारी योजनाओं से वंचित रखने की शिकायत पर संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उत्तरप्रदेश की योगी सरकार को एक बार फिर नोटिस जारी कर जवाब मांगा है. इससे पहले अगस्त 2021 में राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग ने विमुक्त घुमंतू और अर्धघुमंतू जनजातियों संबंधी शिकायत पर संज्ञान लेते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर मामले में कार्रवाई न करने पर कानूनी दंढ भुगतने की चेतावनी जारी की थी. 

इस मामले में उत्तर प्रदेश के सामाजिक कार्यकर्ता मोहित तंवर ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को यूपी सरकार के खिलाफ शिकायत की है. मोहित तंवर ने अपनी शिकायत में सरकार द्वारा विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंचाने का आरोप लगाया है.

दरअसल उत्तर प्रदेश में 29 जातियों को विमुक्त घुमंतू जनजाति का दर्जा प्राप्त है. फिलहाल ये जनजातियां अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं. जिसके चलते इन जातियों को डीएनटी (डिनोटिफाईड ट्राईब्स)  को मिलने वाली योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है.

इन जनजातियों को अब तक विमुक्त घुमंतू जाति के प्रमाणपत्र भी जारी नहीं किये गए हैं. जाति प्रमाण पत्र न होने के कारण इन जनजातियों को सरकारी योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिल रहा है.  

इन जातियों को न केवल उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाओं का बल्कि केंद्र सरकार की योजनाओं का भी लाभ नहीं मिल पा रहा है. डीएनटी प्रमाण पत्र बनाने की मांग को लेकर कईं सामाजिक संगठन लगातार मांग कर रहे हैं.

दरअसल उत्तर प्रदेश सरकार ने विमुक्त जातियों को मिलने वाली योजनाओं के लाभ को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के साथ मिला रखा है. ऐसे में अगर विमुक्त घुमंतू जनजाति का कोई अभ्यर्थी दावेदार नहीं मिलता है तो उनके बजट का पूरा लाभ अपने आप अनुसूचित जातियों के खाते में ट्रांसफर हो जाता है. विमुक्त जाति के प्रमाण पत्र के अभाव में विमुक्त जाति के छात्र और अभ्यर्थी अपने हक का दावा नहीं कर पा रहे  हैं.

इससे पहले भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव से इस मामले में दो हफ्ते के भीतर विमुक्त जातियों को जाति प्रमाण पत्र जारी करने का कड़ा निर्देश देते हुए फटकार लगाई थी लेकिन कोई कर्रवाई नहीं हुई. एक बार फिर से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने यूपी सरकार को चार सप्ताह के भीतर विमुक्त घुमंतू समुदाय संबधी शिकायत दूर करने के निर्देश दिए हैं. 

सरकारी योजनाओं के लाभ से कोसों दूर हरियाणा का ‘कपडिया’ समुदाय

विमुक्त घुमंतु जनजातियों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने की सरकार की अनेक योजनाओं का हरियाणा के करनाल में रहने वाले कपडिया समुदाय तक कोई लाभ नहीं पहुंच रहा है. कपडिया समुदाय दशकों से सरकारी योजनाओं से वंचित है. हरियाणा में इस जनजाति की आबादी करीबन एक लाख है. लेकिन अब तक जाति के आधार पर इस समुदाय का वर्गीकरण नहीं किया गया है.

करनाल की शिव कॉलोनी में अपनी छोटी-सी परचून की दुकान चलाने वाले करीबन 65 साल के बुजुर्ग ने बताया, ‘हम तकरीबन 45 साल से यहां रह रहे हैं. सारी जिन्दगी करनाल शहर में गुजार दी लेकिन किसी भी सरकार ने हमें यहां का निवासी नहीं माना. आज तक हमारा जाति प्रमाण पत्र नहीं बना है’

वहीं करीबन 35 साल के सामाजिक कार्यकर्ता दयाराम ने बताया, ‘जाति प्रमाण पत्र नहीं बनने की वजह से हमारे बच्चे सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हैं. हमारे समुदाय के बच्चों को सरकारी स्कूल से मिलने वाली कोई भी सुविधा नहीं मिल रही है. हमारे पास आधार कार्ड है, वोटर कार्ड भी है लेकिन जाति प्रमाण पत्र नहीं बनाए गए हैं.’

देश के दूसरे राज्यों में रहने वाले कपडिया जनजाति के लोग अनुसूचित जनजाति में आते हैं. दयाराम ने बताया, ‘उत्तरप्रदेश में कपडिया अनुसूचित जनजाति में दर्ज है. उत्तरप्रदेश में जाति प्रमाण पत्र होने के कारण कपडिया समुदाय के लोग सरकारी सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं लेकिन हमारे जाति प्रमाण पत्र नहीं बनने के कारण हमें सरकारी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं.  हमारे लोग डिपो के राशन में मिलने वाली छूट से भी वंचित हैं. राशन डिपो से हमें वो सुविधाएं नहीं मिल रही हैं जो दूसरे लोगों को मिलती हैं.’

दयाराम ने बताया हम जब अपना जाति प्रमाण पत्र बनवाने के लिये जाते हैं तो सरकारी लिस्ट में हमारी जाति का नाम नहीं होने की बात कह कर जाति प्रमाण पत्र बनाने से मना कर दिया जाता है. आगे उन्होने बताया, ‘बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला देने में भी आनाकानी करते हैं. हमने कपडिया समाज के नाम से एक ट्रस्ट बनाई है जिसके लेटर पेड पर लिखकर देने के बाद बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला दिया गया है.’

इस जनजाति की अपनी भाषा है जिसको कपडिया भाषा कहा जाता है. ये लोग आपसी बातचीत कपडिया भाषा में ही करते हैं. दायाराम ने बताया, ‘हमारे बच्चे बचपन से ही कपडिया भाषा बोलना सीख जाते हैं हमें अपनी भाषा पर गर्व है.’ कपडिया भाषा, भांतू भाषा से मिलती जुलती है भांतू विमुक्त जनजाति में आने वाली अन्य जनजातियों में बोली जाने वाली भाषा है. 

वहीं एक बुजुर्ग ने बताया, ‘हमारे पूर्वज उत्तर प्रदेश के कानपुर से चले थे और पशुओं का व्यापार करते थे. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे और पशुओं को भी अपने साथ रखते थे. एक तरह से घुमंतू थे जो चलते-चलते यहां तक पहुंच गए और यहीं के हो गए.

वहीं करनाल लघु सचिवालय में संबंधित विभाग के अधिकारी ने हरियाणा में अऩुसूचित जाति में दर्ज जातियों की सूची दिखाते हुए कहा कि जब कपड़िया जाति इस सूची में दर्ज ही नहीं है तो ऐेसे में हम लोग जाति प्रमाण पत्र कैसे बना सकते हैं.’

करनाल में रह रहे कपडिया समाज के करीबन 70 परिवार अपनी पहचान के लिए वर्षों से इंतजार कर रहे हैं. करनाल के अलावा कुरुक्षेत्र अम्बाला, फरीदाबाद में भी कपडिया समुदाय के परिवार रहते हैं. कपडिया समुदाय के अधिकतर लोग अब कपड़े का काम करते हैं. ये लोग गांव-गांव जाकर कपड़ों के बदले प्लास्टिक से बना सामान बेचकर अपना गुजारा कर रहे हैं.

सरकार का डीएनटी समुदाय को झटका, सरकारी नौकरियों में मिलने वाले पांच अंक का लाभ किया बंद!

हरियाणा सरकार ने डीएनटी यानी विमुक्त घुमंतू जनजातियों को सरकारी नौकरियों में मिलने वाला अतिरक्त पांच अंकों का लाभ देना बंद कर दिया है. सरकार के इस कदम से सरकारी नौकरी की चाह रखने वाले घुमंतू समुदाय के युवाओं में भारी निराशा है. दरअसल हरियाणा सरकार ने सामाजिक रूप से कमजोर तबके के लिए सरकारी नौकरियों में अत्तिरिक्त पांच अंकों का लाभ देने का एलान किया था. सरकार ने सामाज के अंतिम पायदान पर खड़े विमुक्त घुमंतू जनजातियों को भी अतिरिक्त पांच अंक दिये जाने का एलान किया था. लेकिन प्रदेश में हुई अंतिम दो भर्तियों मे विमुक्त घुमंतू समुदाय के उम्मीदवारों को पांच अंक नहीं दिये गए.

यह मामला तब सामने आया जब महिला पुलिस कोंस्टेबल और स्टाफ नर्स की भर्ती में डीएनटी उम्मीदवारों को पांच अंकों के लाभ से वंचित रखा गया. विमुक्त घुमंतू समाज से आने वाले युवाओं को डर है कि आने वाली भर्तियों में भी उन्हें अतिरिक्त अंक नहीं दिए जाएंगे. युवाओं का यह डर तब और पुख्ता हो गया जब हरियाणा स्टाफ सलेक्शन कमीशन के अध्यक्ष ने एक बातचीत के दौरान विमुक्त घुमंतू जनजातियों को पांच अंक नहीं दिए जाने की बात कही.

वहीं डीएनटी समुदाय से आने वाले सामाजिक कार्यकर्ता बालक राम ने इसे सरकार का प्रोपेगेंडा बताते हुए कहा कि इस समुदाय को न तो पहले अतिरिक्त पांच अंकों का लाभ दिया गया है और न ही भविष्य में दिया जाएगा. सरकार की ओर से जारी नोटिफिकेशन में लिखा गया है कि, ऐसी विमुक्त जनजातियां जो अनुसूचित जाति या पिछड़ा वर्ग में नहीं आती है उनकों ही पांच अंकों का लाभ मिलेगा लेकिन डीएनटी में आने वाली सभी जनजातियां पहले से ही अनुसूचित जाति या पिछड़ा वर्ग में दर्ज हैं. हरियाणा में डीएनटी की कोई स्पेशल केटैगरी नहीं बनाई गई है जिससे इनको सीधा लाभ हो सके. सरकार के इस फरमान के कारण इन जनजातियों को कोई लाभ नहीं मिल रहा है.

डीएनटी समुदाय से आने वाले और सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे छात्र ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “इन पुलिस कॉस्टेबल और स्टाप नर्स की भर्ती से पहले की नौकरियों में डीएनटी समुदाय के उम्मीदवारों को पांच अंकों का लाभ मिला था जिसके चलते हमारे समुदाय से काफी बच्चे सरकारी नौकरियों में प्रवेश पा सके थे लेकिन सरकार के इस नये कदम से हमें भारी नुकसान होना.”

छात्र ने इसे राजनीतिक साजिश बताते हुए कहा, “सरकार के भीतर एससी से आने वाली कुछ विशेष जाति के नेताओं ने सरकार पर दबाव बनाकर डीएनटी को मिलने वाले पांच अंकों से वंचित करवाने का काम किया है. वहीं डीएनटी समुदाय राजनीतिक रूप से इतना मजबूत नहीं कि इसका पुरजोर तरीके से विरोध करके पांच अंकों के लाभ को बहाल करवा सके.”

इस मामले पर हरियाणा डीएनटी विकास बॉर्ड के अध्यक्ष डॉ बलवान सिंह ने बताया कि सरकार की ओर से नंबर देना बंद नहीं किया गया है इस मामले में किसी व्यक्ति द्वारा कोर्ट से स्टे लिया गया है जिसके चलते अभी अतिरिक्त अंकों को लाभ नहीं दिया जा रहा है. आपको बता दें कि विमुक्त घुमंतू जनजाती की हरियाणा में एक बड़ी आबादी है राजनैतिक तौर पर इन जनजातियों को लुभाने के लिए सरकार ने डीएऩटी बॉर्ड तो जरूर बनाया लेकिन उस बॉर्ड के लिए बजट न के बराबर अलॉट किया जाता है ऊपर से सरकारी नौकरियों में DNT समुदाय की भागीदारी बढ़ाने के लिए शुरू किए गए अतिरिक्त पांच अंक बंद करना इस समुदाय के युवाओं के लिए एक बड़ा झटका है.

विमुक्त-घुमंतू जनजातियों ने मनाया 70वां आजादी दिवस!

31 अगस्त को करनाल के समाना बाहू गांव में विमुक्त घुमंतू जनजातियों ने अपना 70वां आजादी दिवस मनाया. 70वें आजादी दिवस समारोह में आस-पास की विमुक्त घुमंतू जनजातियों के लोगों ने हिस्सा लिया. आजादी उत्सव समारोह में बच्चों और बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल रहीं. आजादी दिवस समारोह में मंगता, मरासी, भेजकूट, सपेरा, जंगम, सांसी, गाड़िया लौहार जनजातियों के लोग शामिल हुए. 

अम्बाला से विमुक्ति दिवस समारोह में शामिल होने के लिए आए मंगत समाज के राम गोपाली ने बताया, “आज विमुक्ति दिवस के अवसर पर हम बहुत खुश हैं. आज का दिन हमारे लिए आजादी का दिन है वहीं दुख इस बात का है कि आज भी हमारे लोगों की आथिक और सामाजिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है. आज भी हमारे मंगत समाज के लोग तिरपाल के घरों में रह रहे हैं हमारे पास बिजली-पानी तक की व्यव्स्था नहीं है.”    

लंबे समय से डिनोटिफाइड ट्राइब्स के बीच काम करते आ रहे समाजसेवी बालक राम सान्सी ने मंच से डिनोटिफाइड ट्राइब्स का इतिहास बताते हुए कहा, “देश में अलग-अलग समय पर अलग-अलग आक्रमणकारियों का शासन रहा लेकिन इन जनजातियों ने कभी किसी के सामने समर्पण नहीं किया. 1871 में अग्रेजों ने हमारी जनजातियों पर क्रिमिनल ट्राइब एक्ट लगाकर कमजोर करने का काम किया उसके बाद भी ये जनजतियां अपनी कला और संस्कृति से जुड़े रहे. ये जनजातियां आज भी अपने पहनावे अपनी भाषा को जीवित रखे हुए हैं.” उन्होंने कहा, “ इन जनजातियों से जुड़े लोगों को बाहर आने-जाने के लिए एक पास दिया जाता था. जो देश के आजाद होने के 5 साल 16 दिनों तक भी जारी रहा. इस तरह ये जनजातियां आजाद होने के 5 साल 16 दिनों तक भी गुलाम बनी रहीं.”  

वहीं जंगम समाज के तीन कलाकार भी अपनी प्रस्तुति देने के लिए आजादी समारोह में पहुंचे. जंगम समाज के लोग शिव-शंकर के भजन गाने का काम करते हैं. ये लोग अलग-अलग राज्यों में घूम-घूमकर अपनो वाद्य यंत्रों के साथ शिव के भजन गाकर अपना गुजारा कर रहे हैं. जंगम समाज के अध्यक्ष रामकुमार ने बताया, “हमारी जाति को पिछले साल ही घुमंतू जाति का दर्जा दिया गया है. हम लंबे समय से घुमंतू जातियों में शामिल करने की मांग कर रहे थे क्योंकि हमारे पूर्वज भी घुमंतू जीवन व्यतीत करते थे और उसी तर्ज पर आज हमारे लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते हुए शिव-शंकर पुराण गाते हैं.”

सपेरा जनजाति के कलाकारों ने अपनी बीन के लहरे समेत अन्य वाद्य यत्रों के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुति दी. सपेरा जनजाति के कलाकारों के बीन के लहरे पर कार्यक्रम में शामिल लोग झुमते हुए दिखाई दिए.

वहीं दिल्ली में भांतू समाज के बीच काम करने वाले गुरुदत्त भाना भांतू ने डिनोटिफाइड समाज के लोगों को 70वें विमुक्ति दिवस की बधाई देते हुए कहा, “कितना अजीब लगता है कि आज से 15 दिन पहले पूरा देश स्वतंत्रता दिवस मना रहा था और हम सब उनके साथ खड़े जन-गण-मन अधिनायक गा रहे थे और आज हम बिना सरकारी मदद के अपने पैसे से अपना विमुक्ति दिवस मना रहे हैं और हमारे साथ जन-गण-मन गाने वालों में से शायद ही कोई साथ खड़ा है.”  

कलंकित अतीत और धुँधला भविष्य: न्याय की तलाश में विमुक्त जन

शायद यह मेरी मजबूरी है या आत्मप्रशिक्षण का परिणाम, मुझे भारत का संविधान बहुत अच्छा लगता है। इसने एक ऐसे देश को बदलने का बीड़ा उठाया हुआ है जो अन्याय, हिंसा, बहिष्करण की हजार-हजार परतों को अपने ऊपर चढ़ाए हुए आगे बढ़ना चाहता है। यह कभी आगे बढ़ता है तो कभी मुँह के बल गिर पड़ता है। फिर भी अच्छी बात यह है कि यह देश चल रहा है- भविष्य की ओर।

व्यक्तियों, समुदायों, नेताओं, अधिकारियों और सेठों के साथ कमजोर, गरीब, सताये और संतप्त लोग, अस्पृश्य और अपराधी करार दिए गए समूह लोकतंत्र के एक विशाल जुलूस में अपनी-अपनी गति से जा रहे हैं- एक दूसरे को धकियाते हुए, एक दूसरे से जगह माँगते हुए, अपनी जगह बनाते हुए। कुछ को जगह मिल जा रही है, कुछ को आवाज उठाने का मौका और वे लोकतंत्र से उपजी सत्ता में थोड़ी सी भागीदारी पा जा रहे हैं। कुछ को यह मौका नहीं मिल पा रहा है।

भारत का लोकतांत्रीकरण कई तरीके से हुआ है। आज़ादी की लड़ाई की विरासत से निकले विभिन्न दलों, व्यक्तियों, विचारों ने इसका लोकतांत्रीकरण किया है। आज़ादी के बाद उन समूहों ने अपनी आवाज़ बुलंद की है जो पीछे छूटते गए थे जैसे महिलाएं, आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों के समुदाय। उनकी पार्टियाँ बनीं, नेता उपजे, कुछ आगे गए, कुछ बिला गए, लेकिन एक ऐसा समूह भी है जो अपनी आवाज़ लोकतंत्र की रंगशाला में प्रस्तुत नहीं कर पाया। उसके पास राजनीति को ‘परफ़ॉर्म’ करने वाला कोई बड़ा दल और नेता नहीं हुआ।

उन्हें आजकल विमुक्तसमुदाय कहते हैं। विमुक्तसमुदाय के यह लोग कौन हैं?

यह वे लोग हैं जिनकी संख्या 1946 में एक करोड़ थी और जो जन्मजात आपराधी माने जाते थे। जब देश आज़ाद नहीं हुआ था, उसके ठीक पहले भारत की संविधान सभा में जो बहस हो रही थी, उसमें सेंट्रल प्रोविंस और बरार से आए एच. जे. खांडेकर ने बड़ी ही व्यग्रता से उनकी बात रखी। 21 जनवरी 1947 को उन्होंने उन ‘एक करोड़ लोगों की बात उठायी जो जो जन्म लेते ही बिना किसी जुल्म के जरायमपेशा मान लिए जाते हैं’। उन्होंने इस समुदाय के लिए सुरक्षात्मक उपाय लागू करने की अपील की।

तब जवाहरलाल नेहरू के ‘उद्देश्यों के प्रस्ताव’ पर बहस हो रही थी। 21 नवम्बर 1949 को एक बार फिर उन्होंने इस मुद्दे की तरफ संविधान सभा का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि इस संविधान के अधीन बोलने की आजादी और कहीं भी आने-जाने की आजादी तो दी जा रही है लेकिन देश के एक करोड़ अभागे नागरिकों को आने-जाने की आजादी नहीं है। यहां के अपराधी जनजातियों को कहीं भी आने-जाने की सुविधा अभी प्राप्त नहीं है। इस संविधान में इनके बारे में कुछ नहीं कहा गया है। क्या शासन ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ को हटाकर उन लोगों को स्वतंत्रता प्रदान करेगा?

इससे थोड़ा पहले उसी साल, 28 सितम्बर 1949 को गृह मंत्रालय ने अनंतशयनम अयंगर की अध्यक्षता में एक ‘क्रिमिनल ट्राइब्स इनक्वायरी कमेटी’ का गठन किया और 1950 में जब इसकी रिपोर्ट आयी तो इन समुदायों का दुर्भाग्य देखिए कि एक बार फिर कहा गया कि यह समुदाय बस तो जाएंगे लेकिन अपराध करते रहेंगे। इसलिए उन्हें ‘आदतन अपराधी’ अधिनियम में पाबन्द किया जाय। साथ ही उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए ईमानदारी और कर्मठता के जीवन में लाने की बात की गयी। पूरे भारत में 31 अगस्त 1952 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट समाप्त कर दिया गया। इसी की याद में ‘विमुक्त दिवस’ मनाया जाता है।

 यह क्रिमिनल ट्राइब्स एक्टक्या था?

‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ 12 अक्टूबर 1871 को पास किया गया था। इस एक्ट से देश की एक बड़ी जनसंख्या को आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया गया। आपराधिक जनजाति घोषित करने का काम प्रशासन को दिया गया था। जब उसके ‘पास पर्याप्त कारण’ हो जाते थे तो किसी जिले का जिलाधिकारी यह घोषणा कर देता था। इसके पहले थाने की रिपोर्ट जाती थी। अपराधी घोषित किए जाने वाले समुदाय के बालिग लोगों, यानि 14 वर्ष से ऊपर के लोगों की गिनती होती थी। उनके आपराधिक रिकार्डों की वर्गीकृत सूची तैयार करके किसी थाने के अधीन आने वाले समुदाय की घोषणा हो जाती थी।

1871 से लेकर 1921 के बीच कम से कम 190 के करीब समुदाय इस कानून की निगहबानी में ले आए गए। 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो केवल तब उत्तर प्रदेश में पूरे भारत की ‘क्रिमिनल ट्राइब’ की जनसंख्या का 40 प्रतिशत निवास कर रहा था। 1500,000 लोग उत्तर प्रदेश में इस श्रेणी मे चिन्हित किए गए थे। यह समुदाय ‘मुख्य धारा के समुदाय की संरचना में अवांछित’ करार दिए गए थे। जी. एन. देवी का मानना है कि इंग्लैण्ड और यूरोप में भी घुमंतुओं के प्रति एक अलग नजरिया काम कर रहा था। उन्हें कम प्रतिष्ठा प्राप्त थी, इसका कारण सत्रहवीं सदी में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच जारी युद्धों में बड़ी संख्या में सैनिक रखने और उन्हें वेतन देने के लिए बहुत सारे धन की जरूरत थी। धन जुटाने के लिए उन्होंने कर संग्रह के प्रारूप में बदलाव किया। पहले उपजाऊ फसलों पर कर लेने का प्रावधान था लेकिन अब भूमि मापन के आधार पर कर आरोपण किया गया। जो कर अदा कर सकते थे समाज में उनकी इज्जत थी और जो भूमिहीन थे, कर नहीं अदा कर सकते थे, समाज में उनकी इज्जत कम होने लगी। भूमिहीन वैकल्पिक समुदायों की भी समाज में इज्जत इतनी कम हो गयी कि इन्हें संशय की दृष्टि से देखा जाने लगा।

यूरोप के जिप्सी समुदाय को वहां बहुत प्रताड़ना सहनी पड़ी। इस बात का असर औपनिवेशिक भारत में अंग्रेज प्रशासकों पर भी हुआ। उसके परिणामस्वरूप घुमन्तू जनों को आपराधिक जनजाति सूची में रख दिया गया। इस एक्ट को पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब और अवध में लागू किया गया।

इस एक्ट ने पुलिस को बहुत अधिकार दिए। समुदायों को पुलिस थाने में जाकर अपना पंजीकरण करवाना होता था। पुलिस उन्हें एक लाइसेंस देती थी। वे पुलिस की अनुमति के बिना जिले से बाहर नहीं जा सकते थे। यदि वे अपना स्थान बदलते तो इसकी सूचना पुलिस को देनी होती थी। बिना पुलिस की अनुमति से यदि समुदाय का कोई सदस्य एक से अधिक बार अपनी बस्ती या गाँव से अनुपस्थित रहता था तो उसे तीन वर्ष तक का कठोर कारावास का भागीदार होना पड़ता था।

उनके लिए स्पेशल रिफॉर्म कैंप की भी व्यवस्था की गयी जिसमें उन्हें सुधारा जाना होता था। उत्तर प्रदेश में इस प्रकार के रिफॉर्म कैम्प इलाहाबाद, खीरी, बाँदा और कानपुर में खोले गए। इन स्कूलों को खोलने में सॉल्वेशन आर्मी की भूमिका थी। इलाहाबाद के फूलपुर में ऐसा ही एक स्कूल खोला गया था जिसके बारे में 1937 में प्रकाशित शालिग्राम श्रीवास्तव की किताब बताती है कि वहां ‘चोरी-बदमाशी पेशावालों की लड़कियां’ सिलाई-कढ़ाई का काम सीखती थीं।

उत्तर प्रदेश में सॉल्वेशन आर्मी का मुख्य केंद्र बरेली जिले में था। उसका मुख्यालय मॉल रोड शिमला में था। सॉल्वेशन आर्मी यही काम श्रीलंका में भी करती थी। ब्रिटिश उपनिवेश द्वारा यह मानकर चला जा रहा था कि भारत के यह समुदाय पतित हो गए हैं और उन्हें एक नये किस्म के नैतिक शास्त्र की आवश्यकता है। सॉल्वेशन आर्मी इसमें ब्रिटिश उपनिवेश की सहायता कर रही थी। यह दोनों के लिए फायदे का सौदा होता था। सॉल्वेशन आर्मी को धर्म प्रचार में सहायता मिलती थी और उपनिवेश को बिना पैसा खर्च किए अपनी प्रजा में ‘ब्रिटिश नैतिक शास्त्र’ को बढ़ावा देने का अवसर मिल जाता था।

खीरी में खोले गए कैम्प में सॉल्वेशन आर्मी को ब्रिटिश सरकार की काफी सहायता मिली। मुरादाबाद के सांसी समुदाय के लोगों को खीरी लाया गया। इसी प्रकार एटा के भाटू काशीपुर में बसाए गए। सरकार भाटू जनों पर विशेष ध्यान दे रही थी क्योंकि वे ‘बेकाबू’ हो रहे थे। 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स  एक्ट से स्थानीय जमींदारों को भी जोड़ दिया गया। जमींदारों को न केवल पंजीकरण में पुलिस की सहायता करनी होती थी बल्कि वे पंजीकृत समुदायों के सदस्यों की खोज-खबर भी रखते थे। समुदाय की ‘पहचान’ निर्धारित करने का अधिकार उच्च अधिकारियों को दिया गया। 

उत्तर प्रदेश में गोंडा जिले के बरवार समुदाय को 1 जुलाई 1884 को आपराधिक जनजाति घोषित किया गया। उनकी बस्तियों को चिन्हित किया गया और उनकी संख्या को दर्ज किया गया। उत्तर प्रदेश के इंस्पेक्टर जनरल की रिपोर्ट में लिखा गया कि यह ‘विश्वास करने के पर्याप्त कारण’ हैं कि गोंडा के बरवार, एटा के अहेरिया और ललितपुर के सुनरहिया समुदाय को अपराधी घोषित कर दिया जाए। क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के घोषित होने के दो वर्ष बाद ही 1873 में ग्यारह गाँवों के 48 अहेरिया परिवारों को इसके अधीन अपराधी घोषित कर दिया गया। अलीग़ढ़ के अहेरिया समुदाय के लोगों के साथ भी यही हुआ। गोरखपुर के डोम 1880 के बाद इस कानून की जड़ में आए और उन्हें अपराधी घोषित किया गया। इसी प्रकार बस्ती जिले के पुलिस अधीक्षक ई. जे. डब्ल्यू. बेलेयर्स की 1913 की एक रिपोर्ट बताती है कि अगस्त 1911 में परसुरामपुर थाने के एक दर्जन के करीब गाँव अपराधी घोषित किए गए। इन गाँवों में खटिक समुदाय के लोग रहते थे।

अफ़ीम और सुधारगृह

दुनिया को नशेड़ी चलाते हैं। यह बात उन्हें पता रहती है इसलिए उन्हें नशा और तेजी से चढ़ता है। अगर यह नशा अफ़ीम का हो तो क्या कहने! जिन्होंने अमिताभ घोष का उपन्यास ‘सी ऑफ़ पॉपीज’ पढ़ी होगी या जिन्होंने वास्तव में अफ़ीम खायी होगी, वे इसे जानते होंगे। तो हुआ यह कि जब भारत के अंदर पैदा होने वाली अफ़ीम चीन के समाज की सेहत को बहुत तेजी से नष्ट करने लगी तो चीन और ब्रिटेन में खूब लड़ाई हुई। इसका कारण यह था कि भारत पर ब्रिटेन का कब्जा था। भारत के खेतों में अफ़ीम उगायी जाती और चीनी जनता अफ़ीम चाटती।

इन दोनों देशों के बीच युद्ध के कारण नयी अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकताओं और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों के कारण अफ़ीम का व्यपार ढीला पड़ने लगा। इसके कारण गोरखपुर, बनारस, फूलपुर,कानपुर और बांदा के अफ़ीम गोदाम खाली होने लगे, हालाँकि वे अभी इतने खाली भी नहीं हुए थे। (मैंने अभी उत्तर प्रदेश से बाहर के बारे में कोई अध्ययन नहीं किया है। हो सकता है कि यह कहानी बिहार और मध्य प्रदेश की भी हो!)

अब इन खाली गोदामों में सॉल्वेशन आर्मी के अनुरोध पर ‘सेंट्रल प्रोविंसेज’ के अधिकारी अफ़ीम एजेंटों से अनुरोध करने लगे कि वे अपने खाली गोदामों को ‘सुधार और औद्योगिक स्कूल’ चलाने के लिए दे दें। कुछ अफ़ीम एजेंटों ने मना कर दिया। कुछ नहीं कर सके। फूलपुर, कानपुर और बांदा के अफ़ीम गोदामों में ऐसे ‘सुधार और औद्योगिक स्कूल’ खोले गए जिनमें आपराधिक समुदायों के बालक-बालिकाओं को दाखिल किया जाने लगा।

जिस तरह से आस्ट्रेलिया में वहां के मूल निवासियों के बच्चों को जबरदस्ती आवासीय विद्यालयों में भर्ती किया गया था, वैसे ही भारत में किया गया। इन बच्चों और किशोरों को अपार कष्ट और सदमे को सहना पड़ा। आस्ट्रेलिया में तो वहां के नेता केविन रुड ने माफी माँग ली थी। भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ। वास्तव में भारत में किसी को यह पता भी तो नहीं है कि ऐसा कुछ हुआ भी था। यह एक किस्म का चयनात्मक एमनीशिया है।   

हमारी आज़ादी कहां है?

यह सवाल शहरी भारत की महिलाएं, लेस्बियन, गे, ट्रांसजेंडर और वैकल्पिक सेक्सुअल अस्मिताओं के समूह, लिबरल, डेमोक्रेट, सेकुलर, राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट सभी आपस में पूछते रहते हैं और उसका आपस में जवाब भी ढूँढ लेते हैं। इस बार इन सभी समूहों से यही सवाल घुमंतू और विमुक्त जन पूछ रहे हैं कि हमारी आज़ादी कहां है? आखिर हमारी बात कब सुनी जाएगी?

क्रिमिनल ट्राइब एक्ट के लागू हुए 150 वर्ष हो गए हैं। उन पर कुछ चुनिंदा काम ही उपलब्ध आए हैं। एक अनुमान के मुताबिक 100 में से 6 लोग विमुक्त समुदायों से जुड़े हैं। इनकी बेहतरी के लिए गठित रेणके कमीशन और इदाते कमीशन दोनों ने माना है कि यह समुदाय गरीबों में भी सबसे गरीब हैं। इनकी ठीक-ठीक से जनसंख्या नहीं पता है। इनकी जनगणना होनी चाहिए। आजकल ‘कास्ट सेंसस’ की काफी चर्चा है। ओबीसी समूहों ने इसके लिए व्यापक लामबंदी की है, लेकिन यहां ध्यान रखना चाहिए कि इदाते कमीशन ने स्वयं माना है कि मुख्य जनसंख्या के साथ इन समुदायों की जनगणना कराने की आवश्यकता है। अब यह समूह राजनीति और लोकतंत्र के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। देश की 94 प्रतिशत जनसंख्या को इनकी आवाज सुनने की जरूरत है।

आज यानि 31 अगस्त 2021 को देश की जानी-मानी पत्रिका ‘इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ इन समुदायों के इतिहास, राजनीति और भविष्य पर एक ऑनलाइन विशेषांक लाने जा रही है। धीरे-धीरे ही सही, इन समुदायों पर बात हो रही है। आपको भी करनी चाहिए। इन समुदायों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानिए। वे सब आपके भाई-बहन हैं, उनसे प्यार कीजिए। उनकी सहायता कीजिए। उनको हर तरह का न्याय मिले, इसमें मदद दीजिए।

लेखक इतिहास के अध्येता हैं, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फ़ेलो रह चुके हैं और विमुक्त जन के विशेषज्ञ हैं।

हरियाणा सरकार द्वारा BPL परिवारों को मिलने वाले सरसों के तेल को बन्द करने के पीछे का खेल!

30 मई, 2021 को राष्ट्र के नाम अपने मन की बात संबोधन में, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस तथ्य की सराहना की कि किसानों को रबी उत्पादन से संबंधित “सरसों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से अधिक” प्राप्त हुआ. पीएम के इस बयान से आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हरियाणा (और अन्य जगहों) में सरसों उत्पादकों ने बेहतर कीमत पाने के लिए एपीएमसी मंडियों (राज्य एजेंसियों द्वारा खरीद के लिए) के बजाय खुले बाजार में अपनी उपज निजी व्यापारियों को बेचना पसंद किया. यह गौरतलब है कि कृषि उपज में निजी व्यापार को बढ़ावा देने वाले कानून “कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020” के तहत  निजी कंपनियों द्वारा किसानों से सीधे खरीदे जाने वाले तिलहन के निर्यात का भारत सरकार द्वारा कोई अलग डेटा नहीं रखा जाता है.

रबी सीजन (आरएमएस) 2021-22 के लिए सरसों की फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 4,650 रुपये प्रति क्विंटल निर्धारित किया गया था, वही इस साल फरवरी के दौरान हरियाणा के उत्तरी जिलों में स्थित मंडियों में निजी व्यापारियों ने लगभग 6,000-6,500 रुपये प्रति क्विंटल सरसों की खरीद की है. राज्य की एजेंसियों को अप्रैल 2021-22 में अपनी खरीद शुरू करनी थी. हालांकि, खाद्य नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामलों के निदेशक, हरियाणा के एक हालिया नोटिस से पता चलता है कि हैफेड के पास सरसों की अनुपलब्धता के कारण, विभाग इस स्थिति में नहीं होगा कि वह राज्य में स्थित सरकारी राशन की दुकानों पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) लाभार्थियों (अंत्योदय अन्न योजना-एएवाई और गरीबी रेखा से नीचे-बीपीएल कार्ड वाले) को सरसों का तेल वितरित कर पाए.

खाद्य नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामलों के निदेशक, हरियाणा सरकार ने अपने नये फैसले में पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) के तहत बीपीएल परिवारों को मिलने वाला सरसों का तेल बन्द कर दिया है. पीडीएस के तहत बीपीएल और अंत्योदय अन्न योजना (एएवाई) के अंतर्गत आने वाले परिवारों को हर महीने 20 रुपये प्रतिलीटर के हिसाब से 2 लीटर सरसों का तेल मिलता था, जो इस महीने से बंद कर दिया गया है. हरियाणा के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग ने प्रदेश के सभी राशन डिपो को अगले आदेश तक बीपीएल और अंत्योदय अन्न योजना के अंतर्गत आने वाले परिवारों को सरसों का तेल नहीं देने के आदेश जारी किये हैं.

बाजार में सरसों के तेल की कीमत अब तक की सबसे तेजी पर है. बाजार में सरसों का तेल 180 से 200 रुपये प्रति लीटर बिक रहा है, ऐसे में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों के लिये सरसों के तेल का खर्च वहन करना मुश्किल होगा. लॉकडाउन में काम न मिलने के कारण अधिकतर बीपीएल परिवार पहले से ही महंगाई की मार झेल रहे हैं ऐसे में इस आर्थिक संकट के बीच अब सरकार भी इन परिवारों की मदद से हाथ पीछे खींच रही है.

हरियाणा में खाद्य, नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मंत्रालय खुद उप-मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के पास है इसके बाद भी सरकार गरीबों को मिलने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कटौती कर रही है.

हरियाणा में सरकार के इस फैसले का करीबन 11 लाख गरीब परिवारों पर सीधा असर पड़ेगा. हरियाणा में पीला राशन कार्ड धारकों (बीपीएल परिवार) की संख्या करीब 8 लाख 93 हजार तथा गुलाबी राशन कार्ड धारकों की संख्या करीब 2.5 लाख है. इन सभी परिवारों को रियायती दरों पर हर महीने 2 लीटर सरसों का तेल दिया जाता था. फिलहाल इन 11 लाख गरीब परिवारों को केवल एक किलो दाल, एक किलो चीनी और परिवार में प्रत्येक सदस्य के हिसाब से 5 किलो आटा दिया जाता है.

सरसों के तेल की आपूर्ति बन्द करने का कारण-

इस बार सरसों के ऊंचे दाम के चलते सरकार ने मंडियों में सरसों की खरीद नहीं की. सरसों की खरीद नहीं होने के कारण हरियाणा राज्य सहकारी आपूर्ति और विपणन महासंघ लिमिटेड (हैफेड) के पास सरसों की आवक नहीं हुई. 

प्रदेश सरकार ने इस बार सरसों की खरीद के लिए 4,650 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी तय किया था, जबकि किसानों को खुले बाजार में 6000 से 6500 रुपये प्रति क्विंटल तक का दाम मिला यानी इस बार किसानों को खुले बाजार में सरसों के न्यूनतम समर्थन मूल्य से करीब दो हजार रुपये प्रति क्विंटल तक ज्यादा रेट मिला.

बाजार में सरसों का एमएसपी से ज्यादा दाम मिलने पर किसानों ने सरकारी एजेंसियों को सरसों नहीं बेची. जिसके चलते सरकारी तेल मिलों के सामने सरसों की कमी का संकट खड़ा हो गया और अब सरकारी गोदामों में सरसों की कमी का सीधा नुकसान पीडीएस प्रणाली से लाभ प्राप्त करने वाले 11 लाख गरीब परिवारों को होगा.

वहीं 1 जून को नारनौल स्थित हैफेड तेल मिल में आग लगने से गोदाम में रखी दो लीटर की 28 हजार सरसों के तेल की बोतलें और 7 हजार सरसों के भरे कट्टे जलकर नष्ट हो गए, दमकल विभाग की रिपोर्ट में गोदाम में आग की घटना के पीछे हैफेड की लापरवाही सामने आई है.

हरियाणा में जींद के पाजू कला गांव में रहने वालीं BPL परिवार की महिला सदस्य प्रवीन ने हमें बताया, “जब हमें इस बारे में पता चला कि इस महीने से 2 लीटर सरसों का तेल नहीं मिलेगा तो सुन कर बहुत बुरा लगा.  इस वक्त बाजार में पहले से ही सरसों का तेल इतना मंहगा चल रहा है. हमारे लिए इतना खर्च उठाना बहुत मुश्किल होगा. प्रवीन ने बताया कि कोरोना और लॉकडाउन के कारण आमदनी का कोई साधन नहीं है ऐसे में घर की रसोई, डिपो से मिलने वाले राशन से ही चल रही है. लेकिन अब अगर सरसों का तेल नहीं मिलेगा तो सब्जी में तड़का कैसे लगाएंगे समझ नहीं आ रहा.”

प्रवीन और उनके पति मेहर सिंह पैर से अपाहिज हैं. मेहर सिंह अपने घर से 100 मीटर दूर सड़क पर अंडे की रेहड़ी लगाते हैं लेकिन कोरोना और लॉकडाउन के कारण उनका काम बन्द पड़ा है प्रवीन के दो लड़के हैं जो अभी सरकारी स्कूल में पढ़ाई कर रहे हैं.

वहीं मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के विधानसभा क्षेत्र करनाल से 15 किलोमीटर दूर जानी गांव के बीपीएल परिवार के सदस्य प्रदीप कुमार ने हमें बताया, “सरकार लगातार हमारे अधिकारों में कटौती कर रही है. लॉकडाउन और महामारी की मार के बीच डिपो पर मिलने वाले सरसों का तेल बंद करना हमारे लिए एक झटका है.”

सरकार द्वारा सरसों के तेल के एवज में 250 रुपये सीधे खाते में डालने के फैसले पर नाराजगी जताते हुए प्रदीप ने कहा कि इससे पहले बीपीएल परिवारों को मिलने वाली गैस सिलेंडर सब्सिडी भी खत्म कर दी गई है. इसी तरह कुछ महीनों के बाद सरसों के तेल पर 250 रुपये भी बंद कर दिए जांएगे.

सरकार के सरसों के तेल की आपूर्ति बन्द करने के फैसले पर विपक्षी पार्टियों ने सरकार पर निशाना साधा जिसके बाद हरियाणा सरकार ने 11 लाख परिवारों के खातों में सरसों के तेल की एवज में 250 रुपये प्रतिमाह डीबीटी से ट्रांसफर किये जाने का फैसला लिया है।

किसान नेता इंदरजीत सांगवान ने सरकार के इस फैसले को पीडीएस प्रणाली को बंद करने का संकेत बताते हुए कहा कि “अब जिन ऊंचे दामों पर सरसों की खरीद हुई है उसका तेल अभी बाजार में नहीं आया है, बाजार में पहले से सस्ते भाव में खरीदी गई पुरानी सरसों का तेल महंगे दामों पर बेचा जा रहा हैं। सरकार ने इस बार जान-बूझ कर सरसों पर एमएसपी कम रखा है ताकि किसान खुले बाजार में महंगे भाव पर बेच दें। लेकिन खुले बाजार के बड़े व्यापारी किसानों से फसल केवल तब तक ऊंचे दामों पर खरीदेंगे जब तक मंडियां खत्म नहीं हो जाती और मंडियां बंद होने के बाद बड़े व्यापारी अपनी मनमर्जी करेंगे।“

किसान नेता इंद्रजीत सांगवान ने तेल के खेल की क्रॉनोलॉजी बताते हुए कहा, “पहले सरसों का एमएसपी कम तय करो, फिर एमएसपी से ऊपर मंडी से बाहर प्राइवेट व्यापारियों द्वारा खरीदने की छूट दो. जमाखोरी करके तेल के रेट दोगुना करो. फिर राशन वितरण प्रणाली से तेल देना बंद करो. गरीब को मजबूर करो कि वह बाजार से 180 रुपये प्रतिलीटर खरीदे और अपने परिवार का पेट काटकर उनकी तिजोरी भरे. ये है तेल का खेल.’’

फरीदाबाद के खोरी गांव में जान देकर आवास की कीमत चुका रहे मजदूर

फरीदाबाद के खोरी गांव में करीबन 10 हजार परिवारों के सर से छत छिन जाने का खतरा मंडराया हुआ है. इन परिवारों को सुप्रीम कोर्ट ने भी झटका दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को फरीदाबाद के खोरी गांव के करीब 10 हजार घरों को छह हफ्ते के भीतर ढहाने के अपने पूर्व आदेश में बदलाव करने से इनकार कर दिया है. एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस दिनेश महेश्वरी की पीठ ने यह आदेश दिया है. याचिका में घरों को ढहाने की कार्रवाई पर रोक लगाने की मांग की गई थी. इन परिवारों के घरोंं को गिराए जाने के आदेश के विरोध में बंधुआ मुक्ति मोर्चा समेत कईं सामाजिक संगठनों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर विरोध दर्ज कराया. सामाजिक संगठनों ने खोरी गांव के प्रवासी मज़दूरों के लिए पुनर्वास की मांग की.

सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंजाल्विस ने कहा कि, “अगर खोरी गांव जंगलात की जमीन पर बसा हुआ है इसलिए उससे बेदखल किया जा रहा है किंतु इसी जंगलात की जमीन पर बने हुए फार्म हाउस एवं होटल्स को बेदखली का सामना नहीं करना पड़ रहा है यह असमानता सत्ता के गलियारों में क्यों है? कानूनों एवं नियमों के मुताबिक वैश्विक महामारी के दौरान विस्थापन न्यायोचित नहीं है.”

सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने भी पुनर्वास नीति पर सवाल उठाते हुए कहा कि “देश में कई राज्यों में शहरी गरीबों के पुनर्वास हेतु नीतियां बनी हुई हैं, राज्य की जिम्मेदारी है कि उन नीतियों में संशोधन करें और यह संशोधन शहरी गरीबों को सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में होना चाहिए जिसकी आज हरियाणा में अत्यंत आवश्यकता है, उन्होने कहा कि “जब राज्य सरकार पूंजीपति वर्ग को जमीन देने की घोषणा कर रही है तो फिर खोरी गांव में रहने वाले असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को इस महामारी के दौरान बिना पुनर्वास किए कैसे विस्थापित किया जा रहा है.”

बंधुआ मुक्ति मोर्चा के जनरल सेक्रेटरी निर्मल गोराना ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करते वक्त सरकार की जिम्मेदारी है कि वो पुनर्वास की योजना बनाकर पूर्ण संवेदनशीलता के साथ मजदूरों को पुनर्वास करें ताकि सरकार एवं न्यायालय से मजदूरों का विश्वास और भरोसा न टूटे.”

एडवोकेट अनुप्रधा सिंह ने कहा कि कोर्ट के आदेश के अनुसार हरियाणा सरकार खोरी गांव के घरों को तोड़ने के लिए तैयार हैं लेकिन साथ ही मजदूरों को पुनर्वास नीति 2010 के तहत पुनर्वास किया जाना चाहिए.  

हरियाणा के फरीदाबाद में अरावली की पहाड़ियों में पिछले 50 साल से बसा खोरी गांव आज उजड़ने की कगार पर है परंतु सरकार पुनर्वास का नाम तक नहीं ले रही है. खोरी गांव में बंगाली कॉलोनी, सरदार कॉलोनी, चर्च रोड, इस्लाम चौक, हनुमान मंदिर, लेबर चौक, पुरानी खोरी नाम से अलग-अलग कॉलोनियां बसी हुई हैं. ये सभी घर असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों के परिवारों के हैं. गांव में सभी सम्प्रदाय के मजदूर परिवार रहते हैं.

खोरी गांव, सूरजकुंड पर्यटक स्थल के पास है और इन्ही अरावली की पहाड़ियों में 50 फार्म हाउस और कई होटल्स बने हुए हैं लेकिन इन इमारतों को हाथ लगाने की हिम्मत आज तक न तो हरियाणा सरकार को हुई और न ही फरीदाबाद प्रशासन की. वहीं दूसरी ओर इस मामले में अब तक लगभग 20 से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी हैं जिनमें से दो लोग जेल में बंद हैं तो घर उजड़ने की चिंता में दो लोगों ने परेशान होकर आत्महत्या कर ली है.

उमर खालिद की गिरफ्तारी को ऐसे भी देखें

पूरी दुनिया समेत भारत में वामपंथ का एक अजीब सा हौव्वा खड़ा किया जा रहा है और ये सिलसिला कब से शुरू हुआ है ये किसी से छुपा नहीं है. जो लोग शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और रूस की कहानी जानते समझते हैं वो इसे बेहतर समझेंगे. अमेरिकी राजनीति में कम्युनिस्ट शब्द को गाली की तरह ही लिया जाता था और कई किस्से हैं जिसमें पढ़े लिखे लोगों तक को कम्युनिस्ट ब्रांड कर उनका करियर खत्म कर दिया है. लिखते लिखते जेहन में ट्रांबो का नाम याद आ गया. ट्रांबो फिल्म भी है जो सच्ची घटना पर आधारित है. जिसमें दिखाया गया है कि कैसे हॉलीवुड के एक सफल लेखक को कम्युनिस्ट बताकर उन्हें प्रताड़ित किया गया.

अगर कोई डोनल्ड ट्रंप के हालिया भाषण सुन ले तो उन्हें लगेगा कि अमेरिका से अगर किसी को खतरा है तो सिर्फ चीन से या फिर वामपंथियों से. शीत युद्ध खत्म होने और रूस के विघटन के बाद पूरी दुनिया में रूस समर्थक सरकारों के रवैये में बदलाव आया और सत्ता में बने वामपंथी धीरे धीरे सत्ता से दरकिनार हो गए या कर दिए गए अपने देशों में.

इसके बाद के उदारीकरण के दौर में फिर से एक बार जब पढ़े लिखे लोगों ने ये सवाल उठाया कि ग्लोबलाइजेशन के कुपरिणाम आ रहे हैं तो ऐसे लोगों को उस दौरान तो कुछ कहा नहीं गया क्योंकि ये एक नया आइडिया था. ग्लोबलाइजेशन की आलोचना करने वाली किताब के लेखक और इकोनोमिस्ट जोसेफ स्टीगलिट्ज को नोबेल पुरस्कार भी मिला. लेकिन इसके बाद लगातार अलग अलग ढंग से पूंजीवादी ताकतों या कहिए कारपोरेट ने एक्टिविस्टों के खिलाफ माहौल तैयार किया. दुनिया में हर जगह एक लड़ाई शुरू हुई बिग कारपोरेट बनाम गरीबों के हितैषी, पर्यावरण को बचाने की कवायद में लगे लोगों के बीच.

धीरे धीरे ऐसे सभी लोगों को वामपंथी, लेफ्टिस्ट, देश विरोधी नामों से पुकारा जाने लगा और पिछले बीस सालों में ये स्थापित हो गया कि गरीबों के हित की बात करने वाले लोगों को निशाने पर रखा जाएगा. भारत में इस कड़ी में अरूंधति राय से लेकर मेधा पाटकर तक के नाम हैं और आगे चाहें तो इसमें आप और सबके नाम भी जोड़ लें.

मिडिल क्लास ने एक दिन में इनका विरोध नहीं किया. पहले मिडिल क्लास भी समझता था कि ये लोग बात सही कह रहे हैं लेकिन ग्लोबलाइजेशन के फायदे मिडिल क्लास तक पहुंचे नहीं थे. नौकरियां सीमित थीं लेकिन नब्बे के दशक में नौकरियों की बाढ़ आई. जवान लोगों को नौकरियां मिलीं और उन्होंने जीवन में कम संघर्ष किया और किया भी तो उसे भूल गए. आरामतलबी बढ़ी और इसी के साथ कारपोरेट ने राजनीति को प्रभावित करना शुरू किया डायरेक्टली.

चूंकि एक हौव्वा खड़ा किया जाना था और कारपोरेट नहीं चाहता था कि उनके काम में कोई बाधा बने तो भारतीय जनता पार्टी ने वो कमान संभाली जिसे कहा गया कि हमारा दुश्मन हिंदू नहीं बल्कि वामपंथी लोग हैं. इसे एक बड़ा दायरा समझिए. वामपंथी, सेकुलरिस्ट, बौद्धिक आदि आदि. ये एक बड़ी छतरी जैसा दायरा बना दिया गया जिसमें हर वो लपेट लिया गया जो दिमाग की बात करता था.
साथ में मुसलमान भी आ गए. जो भारतीय मुसलमान ग्यारह सितंबर के बाद भी भड़के नहीं वो पिछले दस सालों में गाय के नाम पर मारे जाने लगे.

अब आते हैं भारत और उमर खालिद पर. आज से चार साल पहले कन्हैया कांड में भी उमर खालिद गिरफ्तार हुए थे. आज तक कन्हैया के ऊपर या उमर खालिद पर कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ है. वो मामला सरकार को जमा नहीं क्योंकि कोर्ट में बानगी है पुरानी कि भारत सरकार के खिलाफ नारे लगाना देशद्रोह नहीं है.

इसके बाद पिछले समय का सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन हुआ सीएए जिसके बारे में बताने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन इसके थोड़ा पीछे जाएंगे तो आपको भीमा कोरेगांव का मसला याद होगा. जहां बड़ी संख्या में दलित आए थे सरकार विरोधी प्रदर्शन करने. उस घटना को भी तूल दिया गया और गिरफतारी हुई हर उस पढ़े लिखे बौद्धिक की जो आदिवासियों या दलितों के लिए काम कर रहा था. नया टर्म था अर्बन नक्सल. आनंद तेलतुम्बड़े, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा इसी क्रम में गिरफ्तार हुए.

ये वो लोग थे जो जमीन पर काम कर रहे थे. बच गए दिल्ली के बौद्धिक जिन्हें अब सरकार ने सीएए के नाम पर लपेटा है. अपूर्वानंद, सीताराम येचुरी, उमर खालिद आदि आदि.
कल्पना कीजिए कि ये सभी लोग जेल में हों तो सरकार के खिलाफ कौन बोलेगा. रवीश कुमार, सिद्धार्थ वरदराजन और एकाध नाम और जोड़ लीजिए. क्या सरकार को इस कदम से फायदा है इस समय.

बिल्कुल फायदा है. सोचकर देखिए. सरकार जूझ रही है बेरोजगारी के मामले में, इकोनॉमी के मामले में. यूपी में ऐसा कानून आया है जिसमें बिना न्यायाधीश के गिरफ्तारी हो सकती है. सुशांत रिया से टीवी थक चुका है. रिया की गिरफ्तारी के बाद मसाला है नहीं.
अब उसके बाद ये मिल जाएगा उमर खालिद का मसला. कुछ नहीं तो महीना डेढ़ महीना निकल जाएगा इसी में. सरकार से सवाल कोई नहीं पूछेगा. महीना भर बाद कुछ और हो जाएगा. यही हो रहा है पिछले कुछ सालों में.

अब आते हैं. उमर खालिद का दोष है या नहीं. क्या वो गलत हैं या नहीं. ये सब वायवीय बात है. वो दोषी हैं या नहीं ये फैसला कोर्ट को तय करना है. मैं समझता हूं कि कोर्ट पर अभी भी भरोसा किया जाना चाहिए.

कोर्ट ने नरेंद्र मोदी को भी दोषी नहीं ठहराया था और मैं मानता हूं कि कन्हैया के मामले में भी कोर्ट ने कन्हैया को दोषी नहीं ठहराया है. हालांकि कोर्ट के कई फैसले निहायत ही गैर जिम्मेदाराना रहे हैं पिछले कुछ सालों में जिस पर प्रशांत भूषण कई बार ऊंगली उठा चुके हैं.

हो ये रहा है कि छह साल में जब से मोदी सरकार बनी है तब से विपक्ष नाम की चीज़ गायब है देश से. ऐसे में लेफ्ट लिबरल कहे जाने वाले सरकार विरोधी लोग हर उस आदमी में हीरो खोज ले रहे हैं जो मोदी के खिलाफ आवाज़ उठा रहा है. जबकि ऐसे छोटे मोटे हीरो खोजने की बजाय जमीन पर लोगों को जागरूक करने का काम किया जाना चाहिए था.

सरकार को पता है कि इस काम में किसी को रूचि नहीं है क्योंकि ये मेहनत का काम है. सरकार निरंकुश है. दिल्ली दंगों में सबने देखा है कि दिल्ली पुलिस की भूमिका क्या थी. गोली चला कर भाग गए नौजवान हिंदू हों तो गिरफ्तार नहीं किए जाते हैं. मुसलमान हो तो गिरफतारी हो जाती है. जेएनयू कैंपस में हिंसा का नंगा नाच करने वाले लोग आज तक गिरफ्तार नहीं होते हैं.

इस पर कोई आंदोलन हमारे सभ्य समाज ने आज तक नहीं किया है. ऐसे में वही होगा जो हो रहा है.
लेख लंबा हो गया है और बहुत सारे मुद्दे हैं. कई बातों से आप सहमत नहीं भी हो सकते हैं लेकिन बहस करने की बजाय ये सोचिए कि जो गरीब के हित की बात करता है सरकार उसके खिलाफ क्यों हो जाती है. क्या गरीब इस देश का नागरिक नहीं है.